फाँसी / विश्वंभरनाथ कौशिक

Gadya Kosh से
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रेवतीशंकर तथा पंडित कामताप्रसाद में बड़ी घनिष्ठ मित्रता थी। दोनों एक ही स्कूल तथा एक ही क्लास में वर्षों तक साथ-साथ पढ़े थे। बाबू रेवतीशंकर एक धनसम्पन्न व्यक्ति थे। उनके पिता रियासतदार और जमींदार आदमी थे। पंडित कामताप्रसाद मध्यम श्रेणी के व्यक्ति थे। उनके केवल दो मकान थे। एक में वह स्वयं रहते थे, दूसरा तीस रुपए मासिक पर किराए पर उठा हुआ था। पंडित कामताप्रसाद के परिवार में केवल चार प्राणी थे। एक तो वह स्वयं, उनकी पत्नी, माता तथा पिता। उनके पिता एक बैंक में हेड क्लर्क थे। पंडित कामताप्रसाद लखनऊ मेडिकल कालेज से एल.एम.एस. की परीक्षा पास करके आए थे और उन्होंने डाक्टरी करना शुरू ही किया था।

पंडित कामताप्रसाद अपने छोटे-से औषधालय में बैठे हुए थे। उनके सामने मेज पर सर्जरी (जर्राही) के औजारों का एक बक्स खुला हुआ रखा था। कामताप्रसाद उसमें की एक-एक वस्तु उठा-उठा कर बड़े ध्यानपूर्वक देख रहे थे। इसी समय उनके मित्र रेवतीशंकर आ गए। रेवतीशंकर ने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा -- क्या हो रहा है?

कामताप्रसाद मुस्करा कर बोले -- कुछ नहीं, कुछ सर्जरी का सामान मँगाया था। वह आज ही आया है। वही देख रहा था।

रेवतीशंकर भी उन वस्तुओं को देखने लगे। तीन-चार बड़े-बड़े चाकुओं को देख कर रेवतीशंकर बोले -- यह चाकू तो यार बड़े सुंदर हैं। जी चाहता है, इनमें से एक मैं ले लूँ।

कामताप्रसाद हँस कर बोले -- तुम क्या करोगे?

'करूँगा क्या, रखे रहूँगा।'

'यह तो चीर-फाड़ के काम के हैं।'

'हाँ-हाँ, और नहीं तो क्या, इनसे साग-भाजी थोड़े ही कतरी जाएगी।'

'मैंने सोचा कदाचित तुम इसीलिए चाहते हो।' कामताप्रसाद ने हँस कर कहा।

'अरे नहीं, ऐसा बेवकूफ़ मत समझो। मुझे अच्छे मालूम हो रहे हैं, इससे जी ललचा रहा है।'

'तो एक ले लो।'

'तुम्हारा सेट तो खराब न होगा।'

'नहीं, सेट खराब नहीं होगा। मैंने एक चाकू अधिक मँगा लिया था।'

'तब ठीक है,' कह कर रेवतीशंकर ने एक चाकू ले लिया।

'बड़े तेज चाकू हैं,' रेवतीशंकर ने उक्त चाकू की धार पर उँगली फेर कर कहा।

'सर्जरी में तेज ही की आवश्यकता होती है। जितना तेज औजार होगा, आपरेशन उतना ही शीघ्र तथा अच्छा होगा।' रेवतीशंकर चाकू को एक कागज में लपेट कर जेब में रखते हुए बोले -- यदि मुड़नेवाला होता तो बड़ा ही सुन्दर होता।

'सर्जरीवाले चाकू मुड़नेवाले बहुत कम होते हैं, इतना बड़ा चाकू तो कभी भी मुड़नेवाला नहीं होता।'

'कुछ रोगी-ओगी आने लगे कि नहीं?'

'अभी बैठते हुए दिन ही कितने हुए?'

'एक महीने से अधिक तो हो ही गया होगा।'

'तो फिर? क्या बहुत दिन हो गए ?'

'साल-छह महीने में कुछ प्रैक्टिस चमकेगी, अभी तो केवल हाजिरी है।'

'कुछ हर्ज न हो तो आओ चलें घूम आएँ।'

'मुझे काम ही कौन है, चलो चलें। किधर चलोगे?'

'चलो इधर बाजार की ओर चलें।'

'बाजार की तरफ चलके क्या लोगे। चलना है तो इधर बाहर की ओर चलो। संध्या समय है, खुली वायु का आनंद लें।'

'बस तुम तो वही डाक्टरी की बातें करने लगे। कौन हम रोगी या दुर्बल हैं। यह शिक्षा आप रोगियों के लिए सुरक्षित रखिये।'

'खुली वायु तो सबके लिए लाभदायक है, इसमें रोगी-निरोगी की कौन सी बात है।'

'खैर इस समय तो बाजार की ओर चलो, फिर देखा जाएगा।'

'अच्छी बात है। जैसी तुम्हारी इच्छा।'

कामता प्रसाद ने औजारों को बक्स में बन्द करके अलमारी में रख दिया और नौकर से बोले -- 'रामधन, हम घूमने जाते हैं। तुम साढ़े सात बजे बन्द करके चाबी घर पहुँचा देना।' यह कह कर कामताप्रसाद ने अपनी टोपी उठाई और रेवतीशंकर से बोले -'चलो।'

दोनों व्यक्ति चले और घूमते-फिरते चौक पहुँचे। चौक में प्रविष्ट होते ही रेवतीशंकर ने कहा -- देखिये कितनी रौनक है। जंगल में यह आनन्द कहाँ?

कामताप्रसाद मुस्करा कर बोले -- निस्संदेह, जंगल में तो यह भीड़भाड़ नहीं मिलेगी।

'आदमियों की ही तो रौनक होती है। जहां आदमी नहीं, वहाँ क्या रौनक हो सकती है।'

'अपनी-अपनी रुचि की बात है। किसी को यह पसन्द है, किसी को वह।'

इसी प्रकार की बातें करते हुए दोनों व्यक्ति मन्द गति से जा रहे थे। हठात् रेवतीशंकर ने कामताप्रसाद का हाथ दबा कर कहा-जरा ऊपर तो देखो..

कामताप्रसाद ने ऊपर दृष्टि उठाई। एक छज्जे पर एक वेश्या बैठी हुई थी। वेश्या युवती तथा अत्यन्त सुन्दर थी।

कामताप्रसाद बोले -- यह कौन है? पहले तो इसे कभी नहीं देखा।

'जान पड़ता है कहीं बाहर से आई है।'

'अच्छा सौन्दर्य है।'

'क्या बात है.. हजारों में एक है।'

'परन्तु किस काम का?'

'क्यों?'

'वेश्या का सौन्दर्य तो उस पुष्प के समान है, जो देखने में तो बड़ा सुन्दर है, परन्तु नीरस तथा निर्गन्ध है।'

'अब लगे फ़िलासफ़ी बघारने, इन्हीं बातों से मुझे नफ़रत है।'

'झूठ थोड़े ही कहता हूँ।'

'रहने दीजिए, बड़े तत्ववक्ता की दुम बने हैं।'

'अच्छा न सही।'

'बोलो चलते हो, पाँच मिनट बैठ कर चले आएँगे, परिचय हो जाएगा।'

'अजी बस रहने भी दो।'

'तुम्हें हमारी कसम, केवल पाँच मिनट के लिए।'

'इस समय जाने दो, फिर किसी दिन सही।'

रेवतीशंकर समझ गए कि कामताप्रसाद की इच्छा तो है, पर ऊपर से साधुता दिखाने के लिए अस्वीकार कर रहे हैं। अतएव उन्होंने कहा -- फिर-फिर का झगड़ा मैं नहीं पालता। तुम जानते हो, मेरे जी में जो आता है वह मैं तत्काल करता हूँ।

कामताप्रसाद ने कहा -- तो यह कौन सी अच्छी बात है?

'न सही, पर स्वभाव तो है।'

'कहा मानो, इस समय टाल जाओ।'

'टालने वाले पर लानत है।'

'ओफ़ ओह, इतने मुग्ध हो गए। अच्छा लौटते हुए सही, तब तक जरा और अँधेरा हो जाएगा।'

'हाँ, यह मानी।'

दोनों व्यक्ति आगे बढ़ गए और आध घन्टे तक इधर-उधऱ फिरने के पश्चात लौटे। इस समय तक सात बज चुके थे और यथेष्ट अँधेरा हो चुका था। जब ये दोनों उक्त मकान के नीचे आए तो ठिठक गए। रेवतीशंकर ने एक बार इधर-उधर देखा और खट से जीने पर चढ़ गए। कामताप्रसाद ने भी उनका अनुसरण किया।

उपरोक्त घटना के पश्चात एक मास व्यतीत हो गया। रेवतीशंकर उक्त वेश्या के यहाँ स्वच्छन्दतापूर्वक आने-जाने लगे। उनके साथ कामताप्रसाद भी कभी-कभी चले जाते थे।

एक दिन सन्ध्या समय रेवतीशंकर वेश्या के यहाँ पहुँचे। वेश्या ने, जिसका नाम सुन्दरबाई था, रेवतीशंकर से पूछा -- डाक्टर साहब नहीं आए?

'हाँ, नहीं आए।'

'वह बहुत कम आते हैं, इसका क्या कारण है?'

'वह मेरे साथ के कारण चले आते हैं। वैसे वह वेश्याओं के यहाँ बहुत कम आते जाते हैं।'

सुन्दरबाई म्लान मुख होकर मौन हो गई। रेवतीशंकर ने पूछा, 'क्यों, डाक्टर साहब की याद क्यों आई?'

'डाक्टर साहब बड़े भले आदमी हैं, मुझे वह बड़े अच्छे लगते हैं।'

रेवतीशंकर के हृदय में ईर्ष्या का बवण्डर उठा। उन्होंने पूछा -- उनके आने से तुम्हें कुछ प्रसन्नता होती है?

'हाँ, अवश्य होती है।'

'...और मेरे आने से?'

रेवतीशंकर ने सुन्दरबाई के मुख का भाव देख कर समझ लिया कि वह मिथ्या बोल रही है। उन्होंने कहा-'नहीं मेरे आने से नहीं होती।'

'क्यों, आप मेरा कुछ छीन लेते हैं क्या?' सुन्दरबाई ने किंचित मुस्कराकर कहा

रेवतीशंकर सुन्दरबाई से एक प्रेमपूर्ण उत्तर सुनना चाहते थे, परन्तु जब उसने केवल उपरोक्त बात कह कर मौन धारण कर लिया तो उन्हें बड़ी निराशा हुई। उनके मन में यह शंका उत्पन्न हुई कि कदाचित् सुन्दरबाई डाक्टर साहब से प्रेम करती है। इस शंका के उत्पन्न होते ही कामताप्रसाद के प्रति उनके हृदय में द्वेष उत्पन्न हुआ। रेवतीशंकर ने उसी समय निश्चय किया कि इस बात की जाँच करनी चाहिए।

उस दिन वह थोड़ी देर बैठ कर चले आए।

दूसरे दिन वह कामताप्रसाद के पास पहुँचे।

उनसे उन्होंने कहा-कल सुन्दरबाई तुम्हें याद कर रही थी।

कामताप्रसाद ने नेत्र विस्फारित करके मुस्काराते हुए कहा-मुझे याद कर रही थी।

'जी, हाँ।'

'भला मुझे वह क्यों याद करने लगी? तुम्हारे होते हुए उसका मुझे याद करना आश्चर्य की बात है।'

रेवतीशंकर शुष्क हँसी के साथ बोले, 'क्यों? मुझमें कौन से लाल टँके हैं?'

'लाल क्यों नहीं टँके हैं ? तुमसे उसे चार पैसे की आमदनी है, मेरे पास क्या धरा है? तुमने अभी तक उसे सौ-दो सौ दे ही दिए होंगे, मैंने क्या दिया?'

'फिर भी वह तुम्हें याद करती है।'

'इसीलिए याद करती होगी कि उनसे कुछ नहीं मिला, कुछ वसूल करना चाहिए। सो यहाँ वह गुड़ ही नहीं जिसे चींटियाँ खाएँ।'

'खैर जो कुछ हो, आज तुम मेरे साथ चलो।'

'क्षमा करो।'

'नहीं आज तो चलना पड़ेगा।'

'भाई साहब, मेरी इतनी हैसियत नहीं जो वेश्याओं के यहाँ जाऊँ, मैं गरीब आदमी हूँ। यह काम तो हमारे जैसे धनी लोगों का है।'

'तो वह कौन तुमसे रोकड़ माँगती है?'

'माँगे कैसे? जब कुछ गुंजाइश पावे तब तो माँगे। आपकी तरह मैं भी रोज आने-जाने लगूँ तो मुझसे भी सवाल करे।'

'अजी नहीं, यह बात नहीं। अच्छा खैर, आज तो चले चलो।'

'माफ़ करो।'

'अरे तो कुछ आज जाने से वह तुम्हारी कुर्की न करा लेगी।'

'नहीं यह बात नहीं।'

'तो फिर?'

'वैसे ही, जहाँ तक बचूँ अच्छा ही है।'

'आज तो चलना ही पड़ेगा।'

'ख़ैर, तुम ज़िद करते हो तो चला चलूँगा।'

दोनों सुन्दरबाई के मकान पर पहुँचे। डाक्टर साहब को देखते ही सुन्दरबाई का मुख खिल उठा। उसने बड़े प्रेमपूर्वक उनका स्वागत किया। रेवतीशंकर सुन्दरबाई के व्यवहार को बड़े ध्यानपूर्वक देख रहे थे।

सुन्दरबाई ने पूछा -- 'डाक्टर साहब, आप हमसे कुछ नाराज हैं क्या?'

डाक्टर साहब ने मुस्कराकर कहा- 'नहीं नाराज होने की कौन सी बात है?'

'...तो फिर आते क्यों नहीं?'

'एक तो फुर्सत नहीं मिलती, दूसरे हम गरीबों की पूछ आपके यहाँ कहाँ?'

सुन्दरबाई कुछ लज्जित होकर बोली -- 'नहीं, आपका यह भ्रम है। हम भी आदमी पहचानते हैं। हर एक आदमी से रण्डीपन का व्यवहार काम नहीं देता।'

'आपमें यह विशेषता हो तो मैं कह नहीं सकता, अन्यथा साधारणतया वेश्याओं की यही दशा है कि उनके यहाँ धनी आदमी ही पूछे जाते हैं।'

'नहीं, मेरे सम्बन्ध में आप ऐसा कभी न सोचिएगा।'

'ख़ैर, मुझे यह सुन कर प्रसन्नता हुई कि आपमें यह दोष नहीं है।'

जब तक कामताप्रसाद बैठे रहे, तब तक सुन्दरबाई उन्हीं से बात करती रही। रेवतीशंकर को उसका यह व्यवहार बहुत ही बुरा लगा। एक घण्टे पश्चात कामताप्रसाद बोले -- अब मुझे आज्ञा दीजिए।

सुन्दरबाई ने कहा -- आया कीजिए।

'हाँ, आया करूँगा।' यह कह कर रेवतीशंकर से बोले -- चलते हो ?

'तुम जाओ, मैं तो जरा देर बैठूँगा।'

'अच्छी बात है।' कह कर कामताप्रसाद चल दिए।

उनके जाने के पश्चात सुन्दरबाई रेवतीशंकर से बोली -- बड़े शरीफ़ आदमी हैं।

रेवतीशंकर रुखाई से बोले -- हाँ, क्यों नहीं?

इसके पश्चात दोनों कुछ देर तक मौन बैठे रहे। तदुपरान्त रेवतीशंकर सुन्दरबाई के कुछ निकट खिसक कर बोले -- सुन्दरबाई, मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूं, यह शायद अभी तुम्हें मालूम नहीं हुआ।

सुन्दरबाई ने कहा -- यह आपकी कृपा है।

रेवतीशंकर ने मुँह बना कर कहा -- केवल इसके कहने से मुझे सन्तोष नहीं हो सकता, प्रेम सदैव प्रतिदान चाहता है।

'चाहता होगा, मुझे तो अभी तक इसका अनुभव नहीं हुआ।'

'अब होना चाहिए।'

'अपने बस की बात थोड़े ही है।'

'मैं तुम्हारी प्रत्येक अभिलाषा, प्रत्येक इच्छा पूर्ण करने को तत्पर रहता हूँ। फिर भी तुम्हें मेरे प्रेम पर सन्देह है।'

'न मुझे सन्देह है और न विश्वास है। आप मेरी ख़ातिर करते हैं तो मैं भी आपकी ख़ातिर करती हूँ।'

'केवल ख़ातिर करने से मुझे सन्तोष नहीं हो सकता। मैं चाहता हूँ कि जैसे मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, वैसे ही तुम भी मुझसे प्रेम करो।'

'यह तो मेरे बस की बात नहीं है।'

'होना चाहिए।'

'चाहिए तो सब कुछ, पर जब हो तब न। वैसे यदि हमारे पेशे की बात पूछिए तो हम हर आदमी से यही कहती हैं कि हम जितना तुमसे प्रेम करती हैं उतना किसी से भी नहीं, परन्तु मेरा यह दस्तूर नहीं है। मैं तो साफ़ बात कहती हूँ। आप हमारे ऊपर पैसा खर्च करते हैं, हम उसका बदला दूसरे रूप में चुका देती हैं। झगड़ा तय है। रही प्रेम और मुहब्बत की बात, सो यह बात हृदय से सम्बन्ध रखती है। आपका जोर हमारे शरीर पर है, हृदय पर नहीं।'

रेवतीशंकर चुप हो गए। उन्होंने मन में सोचा -- यह निश्चय ही कामताप्रसाद से प्रेम करती है, तभी ऐसी स्पष्ट बातें करती है। यह विचार आते ही उनके हृदय में कामताप्रसाद के प्रति हिंसा का भाव उत्पन्न हुआ। उन्होंने कुछ देर पश्चात कहा -- शायद तुम्हें आज तक किसी से प्रेम नहीं हुआ।

सुन्दर हँस कर बोली - 'यदि प्रेम हुआ होता तो हम इस तरह बाज़ार में बैठी होतीं? आप बच्चों की सी बातें करते हैं। हमारे पेशे से और प्रेम से बैर है। जो जिससे प्रेम करता है, वह उसी का हो कर रहता है।'

रेवतीशंकर को सुन्दरबाई के इस उत्तर पर यद्यपि विश्वास नहीं हुआ, परन्तु कुछ सान्त्वना अवश्य मिली। उन्होंने कहा - 'ख़ैर, मुझसे तो तुम्हें प्रेम करना ही पड़ेगा। सुन्दरबाई ने मुस्करा कर कहा- 'यदि करना पड़ेगा तो करूँगी, पर जब करूँगी तो हृदय की प्रेरणा से, जबरदस्ती कोई किसी से प्रेम नहीं करा सकता।'

एक दिन सुन्दरबाई की माता को हैज़ा हो गया। सुन्दरबाई ने कामताप्रसाद को बुलवाया। कामताप्रसाद ने बड़े परिश्रम से उसे अच्छा किया। चलते समय सुन्दरबाई ने उन्हें फीस देनी चाही। कामताप्रसाद ने फीस लेना अस्वीकार करते हुए कहा - 'मैं इतनी बार तुम्हारे यहाँ आया, पान-इलायची खाता रहा, गाना सुनता रहा, मैंने तुम्हें क्या दिया? इसलिए मैं तुमसे फीस नहीं ले सकता।'

उस दिन से कामताप्रसाद का आदर और भी अधिक होने लगा। इधर ज्यों-ज्यों कामताप्रसाद का आदर-सम्मान बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों रेवतीशंकर जल-भुन कर राख होते जा रहे थे। वह सोचते थे, मैं इतना रुपया-पैसा खर्च करता हूँ, पर मेरा इतना आदर नहीं होता, जितना कामताप्रसाद का होता है। मेरे जाने पर भी यद्यपि वह मुस्करा कर मेरा स्वागत करती है, पर वह बात नहीं रहती। मुझसे वह कुछ खिंची सी रहती है।

यह बात वास्तव में सत्य थी। सुन्दरबाई रेवतीशंकर से खिंची रहती थी। इसके दो कारण थे -- एक तो रेवतीशंकर उसे पसन्द नहीं था, इस कारण स्वाभाविक खिंचाव था। दूसरे व्यवसाय नीति के कारण भी कुछ खिंचाव था। सुन्दरबाई को अपने रूप-यौवन पर इतना गर्व तथा विश्वास था कि वह उन लोगों से, जो उस पर मुग्ध होते थे, कुछ खिंचे रहने में ही अधिक लाभ समझती थी। रेवतीशंकर के सम्बन्ध में उसकी यह नीति सर्वथा लाभप्रद निकली। रेवतीशंकर उसे प्रसन्न करने तथा उसको अपने ऊपर कृपालु बनाने के लिए -- केवल कृपालु बनाने के लिए ही नहीं, वरन् अपने प्रति उसके हृदय में प्रेम उत्पन्न करने के लिए उसकी प्रत्येक आज्ञा शिरोधार्य करने के लिए प्रस्तुत रहते थे। इसके परिणामस्वरूप सुन्दरबाई को उनसे यथेष्ट आय थी।

कामताप्रसाद के प्रति सुन्दरबाई का व्यवहार इसके सर्वथा प्रतिकूल था। सुन्दरबाई तो पहले से ही कामताप्रसाद के सरल स्वभाव, भलमनसाहत, व्यवहार-कुशलता, स्पष्टवादिता आदि गुणों पर मुग्ध थी। कामताप्रसाद सुन्दर भी यथेष्ट थे, उनका पुरुष सौन्दर्य रेवतीशंकर से सैकड़ों गुना अच्छा था। परन्तु सबसे अधिक जिस बात ने सुन्दरबाई पर प्रभाव डाला, वह उसके रूप-यौवन के प्रति कामताप्रसाद की निस्पृहता थी। कामताप्रसाद के किसी हाव-भाव से यह कभी प्रकट न हुआ कि वह सुन्दरबाई पर मुग्ध हैं। सुन्दरबाई के लिए यह् एक नवीन और अद्भुत बात थी। आज तक जितने पुरुष उसके पास आए, वे सब उसकी रूप ज्योति पर पतंगे की भांति गिरे। अन्य पुरुषों के समक्ष वह अपनी श्रेष्ठता अनुभव करती थी, परन्तु कामताप्रसाद के समक्ष उसे अपनी श्रेष्ठता का अनुभव न हो कर, उन्हीं की श्रेष्ठता का अनुभव होता था। श्रेष्ठता सदैव प्रशंसा तथा आदर प्राप्त करती है। यही कारण था कि सुन्दरबाई का व्यवहार कामताप्रसाद के साथ निष्कपट तथा स्नेहपूर्ण था।

इधर रेवतीशंकर सुन्दरबाई के प्रेम में प्रेमोन्मत्त से हो रहे थे। वह यह चाहते थे कि उनके होते हुए सुन्दरबाई किसी भी पुरुष की ओर न देखे। इधर सुन्दरबाई की यह दशा थी कि जब कभी कामताप्रसाद कई दिनों तक उसके यहाँ न पहुँचते तो वह अस्वस्थ होने का बहाना करके उन्हें बुलवाती थी। उस समय कामताप्रसाद को केवल अपने व्यवसाय की दृष्टि से उसके यहाँ जाना ही पड़ता था।

एक दिन रेवतीशंकर सन्ध्या के पश्चात जब सुन्दरबाई के यहाँ पहुंचे तो उन्होंने देखा कि सुन्दरबाई कामताप्रसाद के घुटनों पर सिर रखे लेटी है और कामताप्रसाद उसके सिर पर हाथ फेर रहे हैं। यह देखते ही रेवतीशंकर की आँखों के नीचे कुछ क्षणों के लिए अँधेरा छा गया।

उधर उन्हें देखते ही कामताप्रसाद ने शीघ्रतापूर्वक उसका सिर अपने घुटने पर से हटा दिया और रेवतीशंकर की ओर देख कर कुछ झेंपते हुए बोले -- इनके सिर में बड़े ज़ोर का दर्द था, अतएव इन्होंने मुझे बुलवाया। मैंने दवा लगाई है, अब कुछ कम है। रेवतीशंकर कामताप्रसाद को सिटपिटाते देख ही चुके थे, अतएव उन्होंने समझा कि कामताप्रसाद केवल बात बना रहे हैं। उन्होंने एक शुष्क मुस्कान के साथ कहा -- आपके हाथ लगें और दर्द कम न हो। यह तो अनहोनी बात है।

यह कह कर रेवतीशंकर ने सुन्दरबाई पर एक तीव्र दृष्टि डाली। सुन्दरबाई उस दृष्टि को सहन न कर सकी, उसने अपनी आँखें नीची कर लीं।

कामताप्रसाद खड़े हो कर सुन्दरबाई से बोले- तो अब मैं जाता हूँ, तुम थोड़ी देर बाद दवा एक बार और लगा लेना।

'बैठिए-बैठिए, आपकी उपस्थिति दर्द को दूर करने में बहुत बड़ी सहायता देगी।' रेवतीशंकर ने स्पष्ट व्यंग्य के साथ यह बात कही।

कामताप्रसाद रेवतीशंकर के इस व्यंग्य से कुछ व्यथित हो कर बोले -- निस्संदेह, डाक्टर से लोग ऐसी ही आशा रखते हैं, यह कोई नई बात नहीं है। इतना कह कर कामताप्रसाद चल दिए।

उनके चले जाने के बाद रेवतीशंकर ने सुन्दरबाई से कहा-- अब तो साधारण सी बातों में भी डाक्टर बुलाए जाने लगे।

सुन्दरबाई ने कहा -- तो फिर, क्या आप यह चाहते हैं जब कोई मृत्युशय्या पर पड़ा हो तभी डाक्टर बुलाया जाए।

'नहीं-नहीं, आप जब चाहे बुलाइए। मना कौन करता है।'

'मना कर ही कौन सकता है? मेरा जो जी चाहेगा, करूँगी। मैं किसी की लौंडी-बाँदी तो हूँ नहीं।'

रेवतीशंकर होंठ चबाते हुए बोले -- ठीक है, कौन मना कर सकता है।

इस वाक्य को रेवतीशंकर ने दो-तीन बार कहा

सहसा रेवतीशंकर का मुख रक्तावर्ण हो गया। आँखे उबल आईं। उन्होंने हाथ बढ़ा कर सुन्दरबाई की कलाई पकड़ ली और दाँत पीसते हुए बोले -- कौन मना कर सकता है? मैं मना कर सकता हूँ, जिसने अपना तन-मन-धन तुम्हारे चरणों पर डाल दिया है।

सुन्दरबाई अपनी कलाई छुड़ाने की चेष्टा करते हुए बोली -- अजी बस जाइए, ऐसे यहाँ दिन भर में न जाने कितने आते हैं।

'आते होंगे, परन्तु मैं तुम्हें बता दूँगा कि मैं उन लोगों में नहीं हूँ।'

सुन्दरबाई ने एक झटका दे कर अपनी कलाई छुड़ा ली और कर्कश स्वर में बोली -- तुम बेचारे क्या दिखा दोगे। ऐसी धमकी में मैं नहीं आ सकती। चले जाओ यहाँ से बड़े वारिस खाँ बन कर। तुम होते कौन हो ? वही कहावत है -- 'मुँह लगाई डोमनी, गावे ताल-बेताल।'

रेवतीशंकर ने कुछ नम्र हो कर कहा -- देखो सुन्दरबाई, यह बातें छोड़ दो, इसका परिणाम बुरा होगा।

'क्या बुरा होगा? तुम कर क्या लोगे? ख़ैरियत इसी में है कि चुपचाप यहाँ से चले जाइए, और आज से यहाँ पैर न धरिएगा, नहीं तो पछताइएगा।'

रेवतीशंकर अप्रतिभ हो कर बोले -- अच्छा यह बात है?

'जी हाँ, यही बात है। मैं आपकी विवाहिता नहीं हूँ। ये बातें वही सहेगी, मैं नहीं सह सकती। हुँह, अच्छे आए, हम लोग ऐसे किसी एक की हो कर रहें तो बस हो चुका।'

रेवतीशंकर कुछ क्षणों तक चुपचाप बैठे होंठ चबाते रहे, तत्पश्चात एकदम से उठ कर खड़े हो गए और बोले -- अच्छी बात है, देखा जाएगा।

इतना कह कर रेवतीशंकर चल दिए।

उपरोक्त घटना के एक सप्ताह बाद एक दिन प्रातः शौचादि से निवृत्त हो कर कामताप्रसाद चाय पी रहे थे। उसी समय सहसा पुलिस ने उनका घर घेर लिया। एक सब-इन्स्पेक्टर उनके घर में घुस आया। उसने आते ही कामताप्रसाद से पूछा -- डा. कामताप्रसाद आप ही हैं?

कामताप्रसाद ने विस्मित हो कर कहा -- हाँ, मैं ही हूँ। कहिए?

सब-इन्स्पेक्टर ने कहा -- मैं आपको सुन्दरबाई का खून करने के जुर्म में गिरफ्तार करता हूँ।

कांमताप्रसाद हतबुद्धि होकर बोले -- सुन्दरबाई का खून? कामताप्रसाद केवल इतना ही कह पाए, आगे उनके मुँह से एक शब्द भी न निकला।

सब-इन्स्पेक्टर ने एक कांस्टेबिल से कहा -- लगाओ हथकड़ी।

इसके पश्चात इन्स्पेक्टर ने उस कमरे की तलाशी ली और एक कोट तथा कमीज बरामद की। कमीज के दाहिने कफ में खून का दाग़ लगा हुआ था। इन्स्पेक्टर ने उसे देख कर सिर हिलाया। इसके पश्चात उसने कोट को देखा। कोट के दो बटन गायब थे। इन्स्पेक्टर ने अपनी जेब से एक डिबिया निकाली। डिबिया खोल कर दो बटन निकाले, उन बटनों को कोट के अन्य बटनों से मिला कर देखा, दोनों बटन अन्य बटनों से आकार-प्रकार में पूर्णतया मिल गए। इन्स्पेक्टर ने कहा -- ठीक है।

उसने कमीज तथा बटन अपने अधिकार में किया। इसी समय कामताप्रसाद के पिता भी आ गए।उन्होंने जो पुत्र के हाथ में हथकड़ी लगी देखी तो घबरा कर पूछा--क्यों, क्या बात है?

इन्स्पेक्टर ने कहा--कल रात में सुन्दरबाई नामी तवायफ़ का कत्ल हो गया है। यहाँ कुछ ऐसी चीजें पाई गई हैं, जिनसे यह साबित होता है कि सुन्दरबाई का खून कामताप्रसाद ने किया है। इसलिए इनकी गिरफ्तारी की गई है।

कामताप्रसाद के पिता कम्पित स्वर से बोले -- नहीं, नहीं, यह असम्भव है।

सब-इन्स्पेक्टर -- हमारी गलती साबित करने के लिए आपको काफ़ी मौका मिलेगा, घबराइए नहीं।

कामताप्रसाद बोले -- निस्संदेह पिताजी, आप घबराइए नहीं। इसमें कोई विकट रहस्य है। हमें अदालत के सामने काफी मौका मिलेगा।

सब-इन्स्पेक्टर ने अधिक बात करने का अवसर न दिया। कामताप्रसाद को साथ लेकर सीधा उनके दवाखाने पहुँचा।

कामताप्रसाद ने देखा कि उनके दवाखाने पर भी पुलिस का पहरा है।

दवाखाने की चाभी सबइन्स्पेक्टर कामताप्रसाद के घर से ले आया था। अतएव दरवाजा खोला गया। उसकी तलाशी ले कर वह बक्स निकाला गया, जिसमें सर्जरी के औजार थे। वह बक्स भी इन्स्पेक्टर ने अपने अधिकार में कर लिया।

नियत समय पर कामताप्रसाद का मुकदमा आरम्भ हुआ। पुलिस की ओर से चार वस्तुएँ पेश की गईं। एक तो वह चाकू जिससे खून किया गया था, कामताप्रसाद का कोट, कमीज और एक रूमाल खून से रँगा हुआ था। सरकारी वकील ने अदालत को वे दोनों बटन दिखाए। ये बटन जिस कमरे में खून हुआ था, उसमें पाए गए थे और दोनों कामताप्रसाद के कोट के बटनों से मिलते-जुलते थे। रूमाल पर उनका नाम ही कढ़ा हुआ था। कमीज के कफ पर खून का दाग था। वह चाकू जिससे हत्या की गई थी, कामता प्रसाद के सर्जरी के औजारों में के अन्य दो चाकुओं से पूर्णतया मेल खाता था।

इसके अतिरिक्त पुलिस की ओर से चार गवाह पेश हुए थे। दो मुसलमान दुकानदार, जिनकी दुकानें सुन्दरबाई के मकान के नीचे ही थीं, सुन्दरबाई की माता, उनकी एक दासी।

नौकरानी ने बयान दिया -- जिस दिन यह वारदात हुई, उस दिन शाम को साढ़े छै बजे के लगभग सुन्दरबाई की माँ नौकर के साथ कहीं गई थीं। मकान पर केवल सुन्दरबाई और मैं रह गई थीं। साढ़े आठ बजे के लगभग डाक्टर साहब आए। सुन्दरबाई और वह दोनों भीतरी कमरे में बैठे। मैं उस समय भोजन बना रही थी। आध घन्टे बाद मैंने ऐसा शब्द सुना जैसै दो आदमी आपस में लपटा-झपटी कर रहे हों। बीच में एक-आध दफे मैंने डाक्टर साहब की आवाज सुनी। ऐसा जान पड़ता था कि डाक्टर साहब सुन्दरबाई को डाँट रहे हैं। इसके थोड़ी देर बाद डाक्टर साहब बड़ी तेजी के साथ कमरे से निकले और जीने से नीचे उतर कर चले गए। मैं खाना बनाती रही। इसके एक घन्टे बाद सुन्दरबाई की माता लौटीं। वह पहले तो अन्दर आईं और मुझसे पूछा -- खाना तैयार है? मेरे हाँ कहने पर वह सुन्दरबाई के कमरे की ओर चली गईं। वहाँ जाते उन्होंने हल्ला मचाया, तब मैं दौड़ कर गई। नौकर भी दौड़ा। वहाँ जा कर देखा कि सुन्दरबाई का कोई खून कर गया है। मैंने उसी समय सुन्दरबाई की माँ से वह सब कहा जो देखा सुना था।

कामताप्रसाद के वकील के जिरह करने पर उसने कहा - मैं जहाँ खाना बना रही थी, वह जगह सुन्दरबाई के कमरे से थोड़ी दूर है। मैं जहाँ बैठी थी वहाँ से जीने से कमरे में जाता हुआ आदमी दिखाई नहीं पड़ता था। मैंने केवल आवाज से समझा था कि डाक्टर साहब जा रहे हैं। उनकी तेजी का अनुमान भी मैंने उनके पैरों के शब्द से तथा जीने में उतरने के शब्द से किया था। जिस समय डाक्टर साहब आए थे, उस समय मैंने उन्हें देखा था। मैं उस समय उधर गई थी। सुन्दरबाई ने एक गिलास पानी माँगा था, वही देने गई थी। डाक्टर साहब से झगड़ा होने का शब्द सुन कर मैं उधर नहीं गई। हम लोगों को बिना बुलाए जाने की इजाजत नहीं है। डाक्टर से लपटा-झपटी और झगड़ा होने का शब्द कोई ऐसी बात नहीं थी, जिससे मैं यह आवश्यक समझती कि मैं जा कर देखूँ कि क्या हो रहा है। वेश्याओं के यहाँ ऐसी बातें बहुधा हुआ करती हैं, मेरे लिए वह एक साधारण बात थी। डाक्टर साहब के जाने के पश्चात सुन्दरबाई की माँ के आने के समय तक मैं खाना बनाने में इतनी मग्न रही कि मुझे और किसी बात का ध्यान न रहा।

दोनों मुसलमान दुकानदारों ने अपने बयान में कहा -- हम लोग दूकान बन्द कर रहे थे। उसी वक्त जीने में ऐसी आवाज आई जैसे कोई बड़ी तेजी से उतरता चला आ रहा हो। इसके बाद हमने डाक्टर को निकलते देखा। यह बड़ी तेजी से एक तरफ चले गए। इनके कपड़े भी तितर-बितर थे। इसके बाद हम लोग दूकान बन्द करके अपने-अपने घर चले गए।

जिरह में दोनों दुकानदारों ने कहा -- हम डाक्टर को अच्छी तरह पहचानते हैं। यह अक्सर सुन्दरबाई के घर आया-जाया करते थे। बाजार की रोशनी इनके ऊपर काफी पड़ रही थी। उसमें हमने इन्हें अच्छी तरह देखा था। इसमें किसी शक व शुबहे की गुंजाइश नहीं है।

सुन्दरबाई की माता ने अपने बयान में कहा -- मैं जिस समय लौट कर आई, उस समय दस बज चुके थे। मैं एक दूसरी वेश्या को, जिससे मेरी मित्रता है, देखने गई थी। वह कई दिन से बीमार थी। मैंने कमरे में जा कर देखा कि सुन्दर चित्त पड़ी है और उसकी छाती में चाकू घुसा हुआ है। इतना ही देख कर मैं एकदम चिल्ला उठी। घर के नौकर तथा नौकरानी दौड़ पड़े। उन्होंने भी देख कर हल्ला मचाया। बाजार में सन्नाटा हो गया था। दो-चार दुकानें खुली थीं। वह भी उस समय बन्द हो रही थीं। हल्ला मचाने के आध घन्टे बाद एक कान्स्टेबिल आया। वह सब देख कर चला गया। उसके एक घन्टे बाद कोई बारह बजे दारोगा साहब आए थे।

जिरह में उसने कहा -- डाक्टर साहब पहले-पहल हमारे यहाँ अपने एक दोस्त के साथ आए थे। उनका नाम रेवतीशंकर है। वह बड़े आदमी हैं। वह बहुत दिनों हमारे यहाँ आते-जाते रहे। इसके बाद उन्होंने आना-जाना बन्द कर दिया। उन्होंने आना-जाना डाक्टर के कारण बन्द किया था। हमारे यहाँ उनमें और डाक्टर में कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ। सुन्दरबाई ने एक दिन उनसे गुस्से में कह दिया था कि हमारे घर मत आया करो। इसका कारण यह था कि सुन्दरबाई डाक्टर को कुछ चाहती थी। मेरा विचार है कि डाक्टर ने ही उससे कहा होगा कि रेवतीशंकर को मत आने दो। एक दफे डाक्टर साहब ने मुझे हैजे से बचाया था, तबसे हम लोग उन्हीं को बुलाया करते थे। एक बार सुन्दरबाई ने मुझसे कहा था कि डाक्टर साहब का हृदय बड़ा कठोर है। इनके जी में जरा भी रहम नहीं है। मैंने उससे पूछा कि तुझे कैसे मालूम हुआ, तो इसका उत्तर उसने कुछ नहीं दिया था।

कामताप्रसाद ने अपने बयान में कहा -- मैं बहुधा सुन्दरबाई के यहाँ जाया करता था, परन्तु बाद में सुन्दरबाई की माँ को हैज़े से आराम मिलने पर मैं उनका फ़ैमिली डाक्टर हो गया, तब से मैं बहुधा जाता था। कुछ दिनों बाद मुझे सुन्दरबाई के व्यवहार से यह सन्देह उत्पन्न हुआ कि वह मुझसे प्रेम करती है। तब मैंने आना-जाना कुछ कम कर दिया था। जब मैं उनका फैमिली डाक्टर था तब बहुधा बुलाया जाता था। उस दशा में मैं जाने के लिए विवश था। बहुधा सुन्दरबाई झूठ-मूठ अस्वस्थ बन जाती थी और मुझे बुला भेजती थी। इससे मेरा सन्देह पक्का हो गया कि सुन्दरबाई मुझसे प्रेम करती है।

जिस दिन की यह घटना है, उस दिन मैं आठ बजे के बाद दवाखाना बन्द करके घर जाने लगा तो मेरी इच्छा हुई कि सुन्दरबाई के यहाँ होता चलूँ। मैं उसके यहां गया। हन दोनों भीतरी कमरे में बैठे। पहले तो इधर-उधर की बातें होती रहीं। इसके पश्चात सुन्दरबाई ने मुझसे प्रेम की बातें करनी आरम्भ कीं। मैंने उससे कहा कि मुझसे ऐसी बातें मत करो, परन्तु वह न मानी। मैंने उसे फिर समझाया। मैंने उससे कहा -- मैं अपनी पत्नी से प्रेम करता हूँ। इसके अतिरिक्त मैं किसी और स्त्री से प्रेम नहीं कर सकता। यह कह कर मैं उठ कर चलने लगा। सुन्दरबाई मुझसे लिपट गई। मैंने उससे डाँट कर छोड़ देने के लिए कहा, पर वह न मानी। उसने उसी समय मेरी पत्नी के सम्बन्ध में कुछ अपशब्द कहे। उन्हें सुन कर मुझे क्रोध आ गया। मैंने उसे अपने से अलग करके जोर से ढकेल दिया। वह पलँग पर गिरी। उसका सिर पलँग के काठ के तकिये से टकरा गया, जिससे उसके सिर से खून बहने लगा। यह देख कर मेरा डाक्टरी स्वभाव जागृत हो उठा। मैंने झट जेब से रूमाल निकालकर खून पोंछा और घाव को देखा। देखने पर मालूम हुआ कि वह बहुत ही साधारण था, केवल चमड़ा फट गया था। जिस समय मैं घाव पोछ रहा था, उसी समय सुन्दरबाई पुनः मुझसे लिपट गई। तब मैंने वहाँ ठहरना उचित न समझा और अपने को उससे छुड़ा कर मैं तेजी के साथ नीचे सड़क पर आ गया और अपने घर की ओर चला गया।

चाकू की बाबत प्रश्न किए जाने पर कामता प्रसाद ने कहा -- चाकू मेरे चाकुओं जैसा अवश्य है, परन्तु मेरा नहीं। मैं उसकी बाबत कुछ नहीं जानता। जितने चाकू मेरे बक्स में इस समय मौजूद हैं उतने ही मेरे पास थे, उससे एक भी अधिक नहीं था।

कामताप्रसाद के इतना कहने पर सरकारी वकील ने अदालत के सामने एक कागज पेश करते हुए कहा -- यह उस कम्पनी का इनवायस (बीजक) है जहाँ से अभियुक्त ने सर्जरी का बक्स मँगवाया था। इनवायस में तीन चाकू लिखे हुए हैं। अभियुक्त केवल दो का होना स्वीकार करता है। यह तीसरा चाकू कहाँ गया? बक्स में इस समय दो ही चाकू मौजूद हैं।

अदालत ने इनवायस, बक्स तथा जिस चाकू से हत्या की गई थी, उसे देख कर कामताप्रसाद से पूछा -- इनवायस में लिखा हुआ तीसरा चाकू कहाँ है?

कामताप्रसाद का मुँह बन्द हो गया। उन्हें स्वप्न में भी यह ध्यान नहीं आया कि पुलिस ने दूकान की तलाशी लेते समय इनवायस भी हथिया लिया होगा।

कामताप्रसाद के मुँह से केवल इतना निकला -- मैं निपराध हूँ, मैंने हत्या नहीं की।

कामताप्रसाद सेशन सुपुर्द कर दिए गए। कामताप्रसाद के पिता ने उन्हें छुड़ाने की बहुत कुछ चेष्टा की। एकलौता बैटा फाँसी चढ़ा जाता है, यह विचार उन्हें अपना सर्वस्व तक दे देने के लिए बाध्य किए हुए था। अच्छे से अच्छे वकील जुटाए परन्तु कोई फल न हुआ। कामताप्रसाद के विरुद्ध ऐसे दृढ़ प्रमाण थे कि वकीलों की बहस और खींचातानी ने कोई लाभ नहीं पहुँचाया। सेशन से कामताप्रसाद को फाँसी का हुक्म हो गया।

हाई कोर्ट में अपील की गई, परन्तु वहाँ से भी फाँसी का हुक्म बहाल रहा। इस समय कामताप्रसाद के माता-पिता की दशा का क्या वर्णन किया जाए। जिसके ऊपर असंख्य आशाएँ निर्भर थीं, जो उनके बुढ़ापे का स्तम्भ था -- वह आज उनसे छिना जा रहा है -- और सदैव के लिए। उनका घर इस समय श्मशान-तुल्य हो रहा था। कामताप्रसाद की युवती पत्नी, जिसने यौवन में पदार्पण ही किया था, रोते-रोते विक्षिप्त हो गई थी। और क्यों न होती? ऐसे योग्य, सुन्दर, कमाऊ और प्राणों से अधिक प्यारे पति को आँखों के सामने, असमय और जबरदस्ती मौत के मुख में ढकेला जाता हुआ देख कर कौन पत्नी अपने हृदय को वश में रख सकती है?

फाँसी होने के दो दिवस पहले कामताप्रसाद के माता-पिता तथा उनकी पत्नी उनसे मिलने गई थी। उस समय का वर्णन करना असम्भव है। चारों में से प्रत्येक यह चाहता था कि एक-दूसरे की मूर्ति सदैव के लिए हृदय में धारण कर ले, परन्तु आँसुओं की झड़ी ने आँखों पर ऐसा निष्ठुर पर्दा डाल रखा था कि परस्पर एक-दूसरे भली भाँति देख भी न सके। हृदय की प्यास हृदय में हिमशला की भाँति जम कर रह गई। माता पुत्र को छाती से लगा कर इतना रोई कि बेहोश सी हो गई। उसके बैन सुन कर पाषाण की छाती भी फटती थी। 'हाय मेरे लाल, मैंने कैसे-कैसे दुख उठा कर तुझे पाला था। हाय, क्या इसी दिन के लिए पाला था। अरे चाहे मुझे फाँसी दे दो, पर मेरे लाल को छोड़ दो। हाय, मेरा एकलौता बच्चा है, यह मेरी आँखों का तारा, बुढ़ापे का सहारा है। क्या सरकार के घऱ में दया नहीं है, क्या लाट साहब के कोई बाल-बच्चा नहीं है? अरे, कोई मुझे उनके सामने पहुँचा दो। मैं अपने आँसुओं से उनका कलेजा पसीज डालूँगी। अरे, मेरा हाथी सा बच्चा कसाई लिए जाते हैं। अरे, कोई ईश्वर के लिए इसे छुड़ाओ। हाय, मेरा बच्चा जवानी का कोई सुख न देख पाया। हाय, जैसा आया था, वैसा ही जाता है। हाय, इस अभागी बच्ची (पुत्रवधू) की उमर कैसे टेर होगी? अरे राम, तुम इतने क्यों रूठ गए। मैंने पाप किए थे तो मुझे नरक में भेज देते, मेरा बच्चा क्यों छीने लिए जाते हो। अरे, कलेजे में आग लगी है, इसे कोई बुझाओ।'

कहाँ तक लिखा जाए, वह इसी प्रकार की बातों से सुनने वालों का हृदय विदीर्ण कर रही थी। जेलर भी रूमाल से आँखें पोंछ रहा था। पिता सिर झुकाए हुए चुपचाप खड़े थे, परन्तु जिस स्थान पर खड़े थे, वह स्थान आँसुओं से तर हो गया था और कामताप्रसाद की पत्नी, वह बेचारी लज्जा के मारे कुछ बोल नहीं सकती थी। उसके हृदय की आग ऊपर फूट निकलने का मार्ग न पा कर, भीतर ही भीतर कलेजे में फैल कर तन-मन भस्म किए डाल रही थी। अन्त में जब न रहा गया, जब भीतरी आग की गर्मी सहनशक्ति की सीमा पार कर गई, तो लज्जा को तिलांजलि दे कर वह एकदम दौड़ पड़ी और पति की छाती से चिपक गई। 'हाय मेरे प्राण, मुझे छोड़ कहाँ जाते हो।' केवल यह वाक्य उसके मुख से निकला, उसके पश्चात वह बेहोश हो गई। उसी बेहोशी की दशा में उसे वहाँ से हटा दिया गया। कामताप्रसाद की आँखों से भी आँसुओं की धारा बह रही थी, परन्तु मुँह बन्द था। मुँह से कोई शब्द न निकले, इसके लिए उन्होंने अपने नीचे के होंठ इतने जोर से दाबे कि खून बहने लगा।

समय अधिक हो जाने के कारण जेलर ने भेंट की समाप्ति चाही। परन्तु कामताप्रसाद के पिता ने कहा -- कृपा कर पांच मिनट तो और दीजिए, अब तो सदैव के लिए अलग होते हैं।

जेलर ने कहा -- मेरा वश चले तो मैं आप लोगों को कभी भी अलग न करूँ, नियम से विवश हूँ। खैर, पाँच मिनट और सही।

कामताप्रसाद की माता और पत्नी दोनों बेहोश हो जाने के कारण हटा दी गई थीं, केवल उनके पिता रह गए थे। कामताप्रसाद ने कहा -- पिताजी, यह तो आपको विश्वास ही है कि मैं निर्दोष हूँ।

पिता ने कहा -- क्या कहूँ बेटा, मेरे लिए तू सदैव निर्दोष था।

कामताप्रसाद -- मैं केवल कुसंगत का शिकार हो गया। कुसंगत में पड़ कर न मैं वेश्या के घर जाता, न यह नौबत पहुँचती, खैर भाग्य में यही बदा था। परन्तु इतना मुझे विश्वास हो गया कि समाज न्याय की ओट में अन्याय भी करता रहता है। न्याय के नियमों को इतना अधिक महत्व दिया जाता है कि वह अन्याय की सीमा तक पहुँच जाता है। उन नियमों के लिए मनुष्य की सज्जनता, सच्चरित्रता, उसकी नेकनीयती का कोई मूल्य नहीं। बड़े से बड़े आदमी, अच्छे मनुष्य के साथ उसकी क्षणिक कमजोरी के लिए भी वैसा व्यवहार करते हैं, जैसा कि एक अभ्यस्त अपराधी के साथ। यह न्याय है? यह वह न्याय है, जिसके आँखें और कान हैं, परन्तु मस्तिष्क नहीं है। केवल दो-चार व्यक्तियों के कह देने से और मेरी कुछ वस्तुओं को हत्या-स्थल पर देख कर ही न्याय के ठेकेदार मुझे फाँसी पर लटकाए दे रहे हैं। ईश्वर ऐसे न्याय से समाज की रक्षा करे। खैर, अब एक प्रार्थना यह है कि जरा रेवतीशंकर को मेरे पास भेज देना, उससे भी मिल लूँ। यदि उससे भेंट न होगी तो मेरी आत्मा को शांति न मिलेगी।

दूसरे दिन रेवतीशंकर भी पहुँचा। रेवतीशंकर से बात करते समय कामताप्रसाद ने सबको हटा दिया। जब एकान्त हुआ तो कामताप्रसाद ने रेवतीशंकर की आँखों में आँखें मिला कर कहा -- रेवतीशंकर, जानते हो मैं किसलिए फाँसी पर चढ़ रहा हूँ?

इतना सुनते ही रेवतीशंकर का शरीर काँपने लगा। वह आँखें नीची करके बोला ही नहीं।

कामताप्रसाद ने उसका मुँह ऊपर करके कहा -- मेरी ओर देखो, घबराओ नहीं। मैं केवल इसलिए फाँसी पर चढ़ रहा हूं कि मैंने तुम्हें बचाने की चेष्टा की थी। मैंने अदालत से यह नहीं कहा कि वह तीसरा चाकू कहाँ गया। यद्यपि मुझे याद था कि वह चाकू तुम ले गए थे। मैंने यह भी नहीं कहा कि सुन्दरबाई से मेरे कारण तुम्हारा कई बार झगड़ा हुआ। तुमने उसे धमकी भी दी थी। रेवतीशंकर, मैंने तुम्हें फँसा कर या तुम्हारे ऊपर सन्देह उत्पन्न कराके अपने प्राण बचाना कायरता और मित्रता के प्रति विश्वासघात समझा। यदि मैं पहले ही कह देता कि तीसरा चाकू तुम ले गए थे, तो वह इनवायस की शहादत, जो मेरे लिए मौत का फन्दा हो गई, कभी उत्पन्न न होती। यह मैं मानता हूँ कि मेरे केवल इतना कह देने से कि चाकू तुम ले गए थे, मैं मुक्त न हो जाता। मेरे विरुद्ध अन्य बातें भी थीं, परन्तु फिर भी मैं ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर सकता था, जिससे कि यह सम्भव था कि मैं छूट जाता। परन्तु मेरे छूटने का अर्थ था तुम्हारा फँसना। न्याय तो एक बलिदान लेता ही, मेरा न लेता -- तुम्हारा लेता। हम दो के अतिरिक्त तीसरे की कोई गुंजाइश नहीं थी। इसलिए मैं तुम्हारे सम्बन्ध में मौन ही रहा। खैर जो हुआ सो हुआ, पर अब इतना तो बता दो कि मेरा विचार ठीक है या नहीं? रेवतीशंकर कुछ क्षणों तक कामताप्रसाद की ओर देखता रहा, तत्पश्चात उसने आँखें नीची कर लीं और गर्दन झुकाए हुए, काँपते हुए पैरों से, पिटे हुए कुत्ते की भाँति कामताप्रसाद के सामने से हट आया। कामताप्रसाद ने किंचित मुस्कराते हुए उस पर जो दृष्टि डाली, वह दृष्टि थी जो एक महात्मा दया के योग्य एक पापी पर डालता है।

कामताप्रसाद को फाँसी दे दी गई। फाँसी के एक सप्ताह पश्चात रेवतीशंकर ने विष खा कर आत्म-हत्या कर ली। उसके कमरे में एक बन्द लिफाफा पाया गया।

उस लिफाफे में से एक पत्र निकला। वह पत्र किसी के नाम नहीं था, केवल साधारण रूप में लिखा गया था। उसमें लिखा था--

'सुन्दरबाई की हत्या कामताप्रसाद ने नहीं, मैंने की थी। सुन्दरबाई ने मेरे प्रेम को ठुकराया था, मेरा हृदय छीन कर दुतकारा था। इसके लिए मैं उसे कभी क्षमा नहीं कर सकता था। मैं उसके प्रेम में पागल था। उसके बिना संसार मेरे लिए शून्य था। जिस दिन उसने मुझे अपने घर आने से रोक दिया, उस दिन से मैं विक्षिप्त सा हो गया। मैं इस चिन्ता में रहने लगा कि या तो उसे अपना बना कर छोड़ूँ या फिर उसे दूसरों के लिए इस संसार में न रहने दूँ। मैं उसके मकान का चक्कर काटता रहता था। पर उस दशा में भी मुझमें इतना आत्मगौरव था कि मैं उसके मकान पर नहीं गया। जिस दिन मैंने उसकी हत्या की, उस दिन रात को नौ बजे के लगभग मैं टहलता हुआ उसके मकान के नीचे से निकला। इस अभिप्राय से कि कदाचित उसकी एक झलक देखने को मिल जाए। मैं उसके मकान के सामने जरा हट के खड़ा हो गया। मुझे खड़े हुए कुछ क्षण हुए थे कि कामताप्रसाद उसके मकान से उतरे। उनका वेष देख कर मेरी मेरी आँखों में खून उतर आया। उनके अस्त-व्यस्त कपड़ों से मैंने कुछ और ही समझा। उस विचार के आते ही मेरे शरीर में आग लग गई। मुझे कामताप्रसाद पर जरा भी क्रोध नहीं आया, क्योंकि मैं जानता था कि उन्हें सुन्दरबाई की जरा भी परवाह नहीं। मुझे क्रोध सुन्दरबाई पर आया, वही उनसे प्रेम करती थी। मैं अपने को सँभाल न सका और बिना परिणाम सोचे मैं चुपचाप चोर की तरह सुन्दरबाई के कोठे पर चढ़ गया। ऊपर जा कर मैं बहुत ही दबे पाँव सुन्दरबाई के कमरे में पहुँचा। सुन्दरबाई उस समय पलँग पर लेटी हुई थी। उसके शरीर के कपड़े अस्त-व्यस्त थे। यह देख कर मैं क्रोधोन्मत्त हो गया। मैंने जाते ही एकदम से उसका मुँह दाब लिया, जिससे वह हल्ला न मचा सके। मेरे पास एक चाकू था, यह मैंने कामताप्रसाद से उस समय माँग लिया था, जबकि उसका सर्जरी का सेट आया था। उस सेट का एक चाकू मुझे बहुत पसन्द आया था, वह मैंने उनसे माँग लिया। यह चाकू मुझे इतना पसन्द था कि मैं उसे हर समय अपने पास रखता था। वह चाकू निकाल कर मैंने उसकी छाती में घुसेड़ दिया, मैं उसका मुँह दाबे था, इससे वह चिल्ला न सकी। जब वह ठंडी हो गई तो मैं उसी प्रकार चुपचाप उतर कर अपने घर चला आया। मुझे किसी ने नहीं देखा था। बाजार की अधिकांश दूकानें उस समय बन्द हो चुकी थीं। मैंने घर आ कर अपने खून से भरे कपड़े तुरन्त जला दिए और निश्चिन्त हो गया।'

'जब मुझे यह पता चला कि कामताप्रसाद फँस गए तो मुझे बहुत दुख हुआ। मैंने उस समय यह नहीं सोचा था कि हत्या का सन्देह किस पर पड़ेगा। मित्र के फँसने पर मुझे कितना पश्चाताप और कितना दुख हुआ, उसे मैं ही जानता हूँ। परन्तु मृत्यु का भय, फाँसी पर लटकने के भयानक विचार ने मुझे इतना कायर बना दिया कि मैं अपना अपराध स्वीकार करके कामताप्रसाद को न बचा सका। मैंने कई बार चेष्टा की कि अदालत में जाकर सब बातें कह दूँ, पर फाँसी के अतिरिक्त आजन्म कारावास अथवा कालेपानी की सजा भोगने के लिए मैं सहर्ष प्रस्तुत था परन्तु मृत्यु। ओफ़। उसके लिए उस समय मैं प्रस्तुत नहीं था। कामताप्रसाद को फाँसी हो गयी। मैंने एक नहीं, दो हत्याएँ कीं।'

'कामताप्रसाद को यह रहस्य मालूम था। जेल में अन्तिम भेंट होने पर मुझे यह बात मालूम हुई। उस समय भी मैं इसी फाँसी के भय से अपने मित्र से अपने इस गुरुतर पाप के लिए क्षमा न माँग सका। भय ने उस समय भी मेरा मुख बन्द कर दिया था।'

'अब मेरे लिए संसार शून्य है। मेरी सबसे प्यारी चीज सुन्दरबाई भी नहीं रही, दो-दो हत्याओं का मेरे सिर पर भार है। पश्चाताप की ज्वाला से तन-मन भस्म हुआ जा रहा है। इस घोर यन्त्रणापूर्ण जीवन से अब मुझे मृत्यु ही भली प्रतीत हो रही है, इसलिए मैं आत्म-हत्या करता हूँ। ईश्वर मेरे अपराधों को क्षमा करके मेरी आत्मा को शान्ति देगा या नहीं, इसमें मुझे सन्देह है परन्तु फिर भी जीवन से मृत्यु अधिक प्रिय मालूम होती है।'

जिस समय कामताप्रसाद के पिता को यह बात मालूम हुई कामताप्रसाद निपराध फाँसी पर चढ़ा, उस समय उन्होंने कहा -- उसके भाग्य में यही लिखा था, परन्तु इसके साथ ही यह बात भी है कि न्याय का यह दण्ड-विधान हत्या-विधान है। यदि मेरे लड़के को फाँसी न दे कर, आजन्म जेल हुई होती तो वह आज छूट आता। न्यायी को ऐसा कार्य करने का क्या अधिकार है, जिसमें यदि भूल हो तो उसका सुधार भी उसके वश में न रहे। अब यदि न्याय उसे जिला नहीं सकता तो उसे फाँसी देने का क्या अधिकार था? यह न्याय नहीं, बर्बरता है, जंगलीपन है, हत्याकाण्ड है। ऐसे न्याय का जितना शीघ्र नाश हो जाय, अच्छा है।

दुखी वृद्ध अपने शोकोन्माद में बैठा बक रहा था, परन्तु वहाँ ईश्वर के अतिरिक्त उसकी बात सुनने वाला कौन था।