फांसी देने के बदलते ढंग / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 जनवरी 2020
22 जनवरी को निर्भया कांड के दोषी को फांसी दी जाएगी। निर्भया के परिजनों ने आवेदन किया है कि उन्हें फांसी दिए जाने के समय उस स्थान पर मौजूद रहने की इजाजत दी जाए। फांसी को अंजाम देने वाला व्यक्ति नौकरी-पेशा व्यक्ति है। फांसी देना ही उसकी रोजी-रोटी है। क्या पाप और पुण्य का बहीखाता रखने वाले इस फांसी लगाने वाले को उसके खाते में पाप की तरह दर्ज करेंगे? दूसरे विश्व युद्ध के बाद न्यूरेमबर्ग के मुकदमे में दाेषी लोगों ने यही दलील दी थी कि वे आज्ञा का पालन कर रहे थे। इस विषय पर एक उपन्यास है 'क्यूबी 7'।
इस ट्रायल का आरोपी एक डॉक्टर है, जिसने हिटलर के आदेश पर यहूदियों के अंडकोष निकाले थे। एक पत्रकार ने उसकी असली पहचान उजागर कर दी। उस भूतपूर्व नाजी डॉक्टर ने पत्रकार पर मानहानि का मुकदमा किया। जज भलीभांति जानता है कि भूतपूर्व नाजी डॉक्टर दोषी है, परंतु ठोस साक्ष्य का अभाव है। अतः वह पत्रकार को एक पेन्स मानहानि देने की 'सजा' देता है। यह नगण्य राशि है। इस तरह का फैसला स्पष्ट संकेत देता है कि नाजी डॉक्टर दोषी है और पत्रकार सही है। ज्ञातव्य है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद कुछ नाजी लोगों ने नए पहचान-पत्र बनाए थे।
ज्ञातव्य है कि फिल्म 'जॉली एलएलबी भाग-2' में जज की भूमिका अभिनीत करने वाले सौरभ शुक्ला ने भी इसी तरह की कशमकश महसूस की थी। जज हमेशा अपने टेबल पर रखे गमलों में पानी देता है। प्रतीकात्मक ढंग से वह न्याय व्यवस्था को ही सींच रहा है।
पश्चिम के एक धनाढ्य देश में फांसी की सजा पाने वाले को अपने रिश्तेदारों से मिलने की इजाजत दी जाती है। वह अपनी पत्नी के साथ कुछ समय प्राइवेसी मैं गुजार सकता है। रिश्तेदार नहीं होने पर उसके लिए एक 'महिला मित्र' का 'इंतजाम' भी सरकार करती है। इस तरह व्यवस्था 'दलाली' भी करती है। गौरतलब यह है कि क्या फांसी पर चढ़ाए जाने वाला व्यक्ति किसी स्त्री से अंतरंगता स्थापित कर सकता है? इच्छाएं मृत्युदंड से परे जाती हैं। अब डिजायर और डिनायल का द्वंद्व हमेशा कायम रहता है। कुमार अंबुज के कहानी संग्रह का नाम 'इच्छाएं' है। उस संग्रह की भूमिका में जितेंद्र भाटिया लिखते हैं, 'अपने समूचे सामाजिक एवं बौद्धिक समाज की तलघट मेंे जो अदृश्य ठहराव धीरे-धीरे घर कर रहा है, उसकी तह तक पहुंचना और उसका सार्वजनिक विकल्प तैयार करने के बेहद कठिन कार्य एवं अत्यंत महत्वपूर्ण काम को 'इच्छाएं' कहानियां सहजता से करती हैं।'
अनेक देशों में फांसी की सजा के खिलाफ मुहिम चलाई गई है। मृत्युदंड के तरीके भी बदले हैं। फांसी पर लटकाने की जगह इलेक्ट्रिक शॉक का इस्तेमाल किया जाता है। कहीं-कहीं जहर का इंजेक्शन दिया जाता है। व्यवस्था जीवन में अभाव पैदा करती है जिसे किस्तों में दिया जाने वाला मृत्युदंड भी कहा जा सकता है। व्यवस्था को कोई द्वंद्व नहीं है, वह अपने एजेंडे के प्रति पूर्ण आस्था रखती है। नाबालिग को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता। उसके वयस्क होने का इंतजार किया जाता है और इस इंतजार के दिनों में उसकी परवरिश सरकार करती है। गुलजार की विनोद खन्ना अभिनीत 'अचानक' में मृत्युदंड पाए व्यक्ति की जान बचाने का काम एक सर्जन करता है। उस सर्जन की दुविधा यह है कि वह अर्थहीन प्रयास कर रहा है। सर्जन मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट को दूर करता है। सरहद पर तैनात व्यक्ति उस शत्रु पर गोली दागता है जिसके साथ उसकी कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं है। एक प्रसिद्ध कविता में फौजी कहता है कि अगर सुलगती सरहद की बजाय किसी और जगह उस अजनबी से मुलाकात होती तो संभवत वे दोनों बैठकर कॉफी पी रहे होते।
जीनियस बर्नार्ड शॉ के नाटक 'कैंडिड' में एक फौजी का पात्र रचा गया है, जो कहता है कि वह पेशेवर फौजी है और युद्ध के समय मारने का प्रयास नहीं करते हुए अपने को बचाए रखने के जतन करता है। नेता फौजियों में जुनून पैदा करते हैं। अपना मकाम कायम रखने के लिए सारा प्रपंच रचा जाता है। डोनाल्ड ट्रम्प पर इंपीचमेंट का मुकदमा कायम है। वे अनावश्यक बमबारी कर रहे हैं। आश्चर्य है कि आम अमेरिकन उनके समूह हत्याकांड पर प्रशंसा जाहिर कर रहा है। इस कालखंड में अवाम की भूमिका संदिग्ध है। दिनकर की एक कविता है 'समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।'