फांस / मनीषा कुलश्रेष्ठ

Gadya Kosh से
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गोखडेनुमा खिडक़ी में खडी वह रेत पर उतरते अंधेरे को देख रही थी, मानो कोई राक्षस रेत निगलता हुआ बढता आ रहा हो। गर्मी की इस शाम में हवा की गति में बढती तीव्रता कुछ देर तो भली लगी लेकिन जब आंखें किरकिराने लगीं तो वह समझ गयी कि आंधी के आसार हैं।

उसे पता था, हवा जरा तेज हुई कि नहीं बिजली को जाते देर नहीं लगेगी। सो उसने लालटेन और दियासलाई करीब रख लिए। ऐसे में मोमबत्ती जरा भी कारगर नहीं। तमाम दरवाजे बन्द करलो। खिडक़ियों मूंद दो, उनमें अखबार फंसा दो, रेत और हवा अपने आने के लिए संध खोज ही लेती हैं।

उसका ख्याल ठीक निकला, बिजली चली ही गयी। हवा सचमुच बहुत तेज हो चली थी। दियासलाई जलाना कठिन हो रहा था। बडी मुश्किल से लालटेन जली। खिडक़ियों के बन्द पटों से रेत टकरा रही थी। सूखी, मोटे कणों वाली रेत, एकदम बरसात की तरह।

ऐसी आंधी और इससे जुडी अावाजें क़िसी अनिष्ट की आशंका क्यों जगाती हैं? खिडक़ियों में बने घोंसलों में बैठी चिडियां पंख फडफ़डाने लगी, खिडक़ियों के पल्ले खुल चुके थे और खिडक़ियों के सींखचों के बीच बामुश्किल अटके घोंसले, तेज हवा से 'अब गिरे कि तब गिरे' की हालत में थे। सब घोंसलों में चिडियों के अण्डे - बच्चे थे। उसे हैरानी हुई प्रकृति पर। वह सोच में पड ग़यी। चिडियों के घोंसले बनाने का मौसम और तूफानों का मौसम एक ही क्यों होता है।

डार्विन के सिध्दान्त पर चिडियां अपने आप को परखती हैं क्या?

हवा खाली कमरों में घुस आयी थी, खिडक़ी, दरवाजे ख़डख़डा रहे थे। आंधी के जार से जीर्ण हवेली की पुरानी दीवारें कांपती सी महसूस हो रही थीं। वातावरण विचित्र ध्वनियों से गूंज उठा था। उसने आंख मूंद ली, मगर ये विकट ध्वनियां सुनकर उसका अवचेतन अपने आप ही अजीबोगरीब कल्पनाओं से उन ध्वनियों को जोडने लगा। उसे ऐसा क्यों लगने लगा था कि इस हवेली में कोई है, जो युगों से यहां अकेला छूटा हुआ है, और मर्मभेदी उच्छवास ले रहा है। अचानक टूटा उखडा फर्श कांप सा जाता तो उसे लगता है कि वही रेत लीलता हुआ अंधेरे का विशाल राक्षस भारी कदमों से दूसरी मंजिल के खाली कमरों में चल रहा है। कभी लगता कि कोई बराबर नीचे के बडे फ़ाटक की मोटी लोहे की सांकल खटखटाए जा रहा था और अब धैर्य छोड वह पूरी हवेली के चक्कर लगा रहा है। इन विचित्र आवाजों के शोर से वह घबराकर उठ बैठी। अचानक उसे लगा कि उसके ऊपर से युग फरफराते हुए गुज़रे चले जा रहे हैं और वह उस पुरानी हवेली में ऊपर से शांत और भीतर से डरी हुई बैठी है। न जाने कितने युगों के बीत जाने देने की प्रतीक्षा में है। कुछ तो था जो उसके अवचेतन की घुमडन के लिए काफी था।

ऐसी तूफानी रातों के बाद की हर सुबह वह कालिमा की कोख से बाहर आती थी, अग्निशिखा सी तपती - तमतमाती। मगर खुद के वजूद से बेखबर, फटी - फटी आंखों से शून्य में घूरते हुए उस आत्मविस्मृत बूढे क़ो देखती तो चुपचाप बुझ जाती। उस दिन सुबह भी अपनी चाय बनाते हुए उसे अपने इस जनक का ख्याल आ गया। रात उन्होंने कुछ नहीं खाया था भूखे होंगे, चाय के साथ डबलरोटी दे देगी। रात की आंधी से पूरा घर अस्त - व्यस्त पडा था। जहां देखो वहां रेत। पहले इत्मीनान से चाय पी ले फिर सफाई करेगी। तब तक खेत से भूरया भी आ जाएगा, सहायता हो जाऐगी। वह चाय लेकर उनके कमरे गई थी वे वहां नहीं थे। कहा/ चले गए, ऐसी हालत में। देखा तो, वे आंगन में पडी ख़ाट पर औंधे पडे थे। रात की भीषण आंधी में ये यहां कैसे चले आए? रेत जम कर बरसी थी उनके ऊपर। कपडों में, खुले मुंह में, पलकों पर रेत ने उनका ताबूत ही बना डाला था। पहले उसने सोचा बेहोशी का दौरा पडा होगा पर वहां तो सांस ही नदारद थी, उसने चीख कर पडोस से जयदीप को पुकारना चाहा मगर आवाज ग़ले में फंस कर रह गई। कुछ ही दिन पहले वह जीता - जागता आत्मीय संबन्ध भी तो मर चुका था। वह किसे आवाज दे रही है? मन का काष्ठ में बदलना उसे साफ साफ महसूस हो रहा था। उसने गहरी सांस ले कर आने वाली आफतों के लिए खुद को तैयार किया। ठीक ही तो हुआ है, यह देह अपनी गलाजतों से मुक्त हो गई।

ह्नह्न बहनों के घर फोन करने अर्थी के लिये बांस की खपच्चियां चीरने से लेकर बांधने तक पडोस से परताप काका साब और गुलाब मामा को बुलाकर यह कहने तक _ "काका, बस जल्दी ही किरियाकरम कर दो कोई आये भले न आये। अब क्या बचा है इस देह में। " वह जरा भी नहीं रोई थी। अब इस फांस ने उसे रुला दिया है।

यूं चिनी जाती हैं गालियों में लडक़ियां

कोई रिश्ता उनके अख्तियार में नहीं रहता

कनिष्का उंगली में फांस गहरे धंस कर अब भूरी भी पड ग़ई है। उस फांस को सहलाने से भी अब दर्द होता है। इसीलिए अब इतनी देर बाद पीडा के अतिरेक से आंसू छलछला उठे हैं गहरे धंसी फांस के सूख जाने की वजह से या इस सजी हुई अर्थी के सामने बैठ कर एक जीवित, स्पन्दित, चीखते - चिल्लाते प्रलाप करते, बेचैन प्राणी की निर्जीव देह से सहम कर या एक समूचे रिश्ते की व्याख्या करने पर? यह देह जब जीती थी तो उसने उसकी जिन्दगी के तमाम दरवाजों पर सांकलें लगा दी थी, यह देह अब जब निर्जीव है तो भी अपने संग उन सांकलों पर लगे तालों की कुंजियां साथ ले गयी है। आज तो उसे रास्ते के नाम पर सुरंगों का पता देता एक सुराख और उससे झरती पीली रोशनी भी नजर नहीं आ रही।

वह अर्थी के पास चुपचाप बैठी है। सामने रखी निर्जीव देह के प्र्रति उसके मन में कोई भाव नहीं उठ रहा है। न वितृष्णा, न शोक, न मोह। सच, कुछ भी तो नहीं। वह चुपचाप उंगली में धंसी सूखी हुई फांस को निकालने की कोशिश में एक यंत्र की तरह जुटी है। _ मस्तिष्क सुन्न होने के बावजूद नेपथ्य में पूर्ण सजग है। खोई हुई आवाजें ग़ूंज रही हैं।

"उमा की मां इस छोरी से कह दो कि अब आंगन में नहाई तो टांगे तोड दूंगा। " वह आंगन में रखे बडे - से कठौत में घुस कर उछलती - कूदती, पानी छलकाती हुई, सहम गई है अपने दो छोटे अल्पविकसित स्तनों को अनायास तौलिया से ढक लिया है, बडी ज़ीजियों की तरह। ग्लानि में डूब कर रह गया है नन्हा सा मन। सीने पर उगे वो दो फूल, उसे पिछवाडे में उगी नागफनी पर साल में एक बार उगने वाले फूल जैसे लगने लगे थे।

वह अपना शरीर देखती है, ग्यारह साल की उमर के बाद बाऊ जी की टोक से मानो ठिठक कर वहीं विकसित होना रुक गये स्तन, होंठों के ऊपर स्याह बालों की रेख, लडक़ों की सी मजबूत काठी।

“ पता है अंतु तू जब हुई तो भाई साहब तमतमा कर घर से बाहर चले गये थे और हमारी मां यानि तेरी दादी खूब पछाडें मार के रोई थी। चौथी बार भी लडक़ी दाई को तो धकिया ही दिया था बिना कुछ दिये लिये। वैद जी ने तो लडक़ा होने की पांच सौ रूपए की दवा दी थी पर हो गई तू। तेरा नाम तेरी मां ने अंतिमा रखा और तौबा कर ली। ”

एक और आवाज वह भी तो, जो उसके जहन में सर झुकाए चुपचाप गुजर रही थी। जिसे वह चाह कर भी 'कायराना' का विशेषण नहीं दे सकी, उस पर समाज की दुहाई और विवशता की गर्द चिपकी थी।

“ दुनिया जहान में रिश्ते के नाम पर चाहे छोटे - छोटे अनदेखे कांटे लोग दिन रात निगलते हों, पर अंतिमा मेरी मां कहती है, आंखों देखा मोटा कांटा नहीं निगला जा सकेगा। जीवन भर मां तुम्हें हिकारत से देखे, यह मैं नहीं चाहता, तुम भी नहीं चाहोगी। मैं हमेशा तुम्हारी परवाह करूंगा, जब भी पुकारोगी उपस्थित होऊंगा, पर बचपन में हमारी मांओं के खेल - खेल में किए कौल - करार को गंभीरता से मत लेना। ”


सारी जीजियों का ब्याह हो गया था, मगर मां उसके हिस्से के अपने सारे कौल - ओ करार और हिसाब - किताब अधूरे छोड क़र उस दुनिया में चली गयी। तो भी वह 'मनहूस' बन कर उस घर के भाग्य से चिपकी रही है। बुढापे की औलाद में क्या लडक़े ही प्यारे होते हैं? दुनिया जहान की उपेक्षिता वह अम्मा को बहुत प्यारी थी वह, वे दिन - रात छाती से उसे चिपकाए घूमा करती थीं। बहुत बडे होने तक। मगर उसके 14 साल के होते - होते वे जाती रहीं। अपनी गिरती सेहत का इलाज वे नीम हकीमों के जरिये खुद कराती रहतीं, बाऊजी ने तो उसके पैदा होने के बाद अम्मा की तरफ मुड क़र कभी देखा नहीं। कभी - कभी अम्मा के कमरे से हताश फुसफुसाहट उभरती 'हमसे मतलब ही क्या उस रांड नर्स के रहते आपको। एक दिन हम पैर घिस - घिस के मर जाऐंगे ब्याह लाना उसे ही। '

उत्तर में वही दहाड, ' क़ल की मरती हो तो आज मर ले। तूने दिया ही क्या हमें? चार - चार छोरियों के सिवा। तीन तो जस - तस ब्याह दीं। ” वे दांत किटकिटाते 'अब ये चौथी इसे तो मैं कुंए में ही फेंक आऊंगा। अब और करजा लेना मेरे बस का नहीं। ” अपने कमरे की तरफ जाते हुए, ताव के साथ मुडते और लपक कर मां के कंधे झकझोर कर कहते _ “ और जिसे तू रांड कह रही है न, तैने ही धरम बहन बनाया था उसे और उसीने तीसरी के ब्याह में बिन ब्याज पैसा दिया था। ”

' हाँ जी हाँ! बिन ब्याज उसने तो हमारा वो सब कुछ गिरवी रखवा लिया है, जिसे हम अपने जीते जी ना छुडा पाए। '

मां के जाने के बाद यह हवेली कितनी सूनी हो गयी थी, शाम होते ही नीम पर बैठे कव्वों का शोर इसे और मनहूस बना देता था। फिर रात के ढलते हुए सन्नाटे में मोर की पियाऊ पियाऊ ह्नउसके भीतर एक निर्वात को जन्म देती थी। उसके वजूद में भी जब सन्नाटा पसर जाता था, तब उसे इस हवेली के भरे - पूरे, जवान दिन याद आते। अपने बचपन के दिन _अम्मां, तीनों बडी बहनें और उनका लाड। उनकी शानदार शादियां, हर तीज - त्योहार उनका मायके आना, घर में उत्सव का माहौल आए दिन बना रहता था। पिता का व्यापार और सट्टा दोनों उरूज पर थे।

याद आता, फागुन में पकते गेहूं और जलते पलाशों का मौसम। पडाेस की चाची के बेटे जयदीप के साथ बैलगाडियों के पीछे लटक कर उसके खेतों पर जाना, जंगल जलेबी के उंचे पेडों पर चढ ज़ाना। बबूल पर लटके पूरे बने और अधबने बया के घोंसले उतार लाना। ड्रेगन फ्लाई की पूंछ में धागा बांध कर ' हेलीकॉप्टर' बनाना। बचपन ही से उन दोनों को पता था, उनकी मांओं के सखिभाव में किए गए करार के अनुसार बडे होकर उन दोनों की शादी होना तय है। मगर उससे उनकी गाढी दोस्ती पर कोई फर्क नहीं पडता था। वह निकर पहन कर जयदीप के साथ जम कर गिल्ली डंडा खेलती। लडक़ियों के खेल उसे रास कभी नहीं आए। बेटे के अभाव की अपनी मनोग्रन्थि के तहत बचपन से अम्मा ने उसे हाफपेन्ट - शर्ट ही पहनाई थी। छोटी - छोटी आंखें, भक्क गोरा रंग, छोटी गोल नाक, उपर वाले होंठ के ऊपर हमेशा पसीने की बूंदे और गहरे भूरे रोंए, छोटे कटे घुंघराले बाल, अकसर अनजान लोग उसे लडक़ा समझ लेते। जयदीप के नए दोस्त उसकी पीठ पर धौल जमा देते लडक़ा समझ कर। अम्मा के साथ ननिहाल जाते हुए बस का कंडक्टर भी उसे लडक़ा समझ लेता।

उम्र का वह संधिस्थल न आया होता तो वह मां का बेटा बनी रहती। पांच दिन घर में बन्द रहने के बाद, वह छठे दिन चेहरे पर ढेर सारी अव्यक्त ग्लानि लिए छत पर गई थी, तब जयदीप हंस कर बोला था, ' तो जीजी की तरह तेरे भीतर भी अब कांच की गुडिया रहने लगी है। मां कहती है, लडाई में बहन को पेट में मुक्का नहीं मारना, लडक़ियां अन्दर से नाजुक़ होती है, कांच की गुडिया सी। क्यों?'

' क्या हर वक्त मां कहती है ये मां कहती है वो। मेरे अन्दर कोई कांच की गुडिया - वुडिया नहीं रहती। ' उसने प्रतिरोध किया था।

जयदीप के फौज में लांस नायक की ट्रेनिंग पर जाने के बाद, और मां के मर जाने के बाद, वह खुद ही हिचकने लगी थी चाची के घर जाने से। कहीं, उसे चाची बेसब्र न समझ लें। रिश्ता तो तय है, मगर चाची उसके पिता से चिढती भी हैं और डरती भी। उसकी संपूर्ण चेतना पडाेस के उस घर की सुगबुगाहटों पर लगी रहती। मां के साथ बचपन चला गया। जयदीप के साथ आंखों की कोटरों से हरियल सपने भी उड ग़ए थे।

मां सच में उसे कुंए में फेंके जाने के लिए छोड ग़यी। कुंआ ही नहीं, अंधा कुंआ। जिस कमरे में से मां के सधे गले से सुन्दरकाण्ड की आवाजों की धूप उगा करती थी। उस कमरे में से उभरते आवेगमय - आतुर पुकारों और उत्तरों के रहस्यमय धुंधलके ने उसे जीवन के समस्त गुह्य रहस्य समझा दिए थे। वह अपनी किताबों में अपना चित्त एकाग्र करती ही थी कि एक अलसाई आवाज ग़ूंजती, 'अब जाऊं!'

बाऊजी की उसके प्रति वितृष्णा जीवन भर रही बचपन में मनहूस कहीं की या छोरी के अलावा कब उसे प्यार से अंतिमा कह कर बुलाया? हा/, बुलाया था एक बार नशे की हालत में अपनी असीमित, अनैतिक और किसी मनोरोग की हद तक जा पहुंची कामना के ज्वार में 'अंतिमाऽऽ'। और फिर वितृष्णा का बचा - खुचा हिस्सा, उसके पाले में आ गिरा था। अब उसे करनी थी वितृष्णा अपने उस जनक से, जीवन भर।

किसी तरह उसने ग्यारहवीं पास कर ली थी, उसके बाद उन्होंने उसकी फीस देना बिलकुल बन्द कर दिया था। उसने मोहल्ले के दो - चार बच्चों को टयूशन पढाना शुरु कर दिया। वह भगवान का शुक्र मनाती थी कि कम से कम उसके पास कहने को एक घर तो है, अपना कमरा है, आंगन है, आंगन के दो विशाल नीम के पेड हैं। लम्बी - लम्बी छतें हैं। जिन्हें फांद कर वह पडोस में जयदीप के घर में कूद जाया करती थी, चाची का हाथ बंटा कर, जयदीप से बातें कर बाऊजी के लौटने से पहले आ जाया करती थी।

मगर इसी घर ने अपनी दीवारों में भीतर ही भीतर नागफनी कांटे उगा लिए थे। इस घर का स्वामीउसका जनक, झुण्ड से तज दिए गए बूढे शेर की मानिंद हवेलीनुमा गुफा में दिन रात चक्कर काटा करता। अब नर्स भी कभी आती, तो दो मुश्टण्डों के साथ पैसों का तकाजा करने के लिए ही आती। उसे चुकाने के लिए उन्हें हवेली के पीछे के अहाते का बडा टुकडा बेच डालना पडा। वे अपनी हार, हताशा और अकेलेपन के गर्त को शराब से पाट रहे थे। समाज में उन्हें पहले का सा सम्मान मिलना खत्म हो चुका था। रिश्तेदार दुरदुराने लगे थे।

उस रात उनके नशे में घर लौटने की आहट से हवेली कंपकंपा गई थी। उसके कान सजग हो गए थे। रसोई में उनकी थाली उसने ढक कर रख दी थी। अमूमन जब वे देर रात पीकर लौटते तो जैसे - तैसे खाना खाकर वे सीधे अपने कमरे में जाकर सो जाया करते थे। सुबह देर से आढत पर जाते। मगर उस दिन, वे लडख़डाते हुए, चीजों से टकराते, उन्हें गिराते, खुद गिरते हुए सीधे उसके कमरे में चले आए, 'अंतिमा सो गई क्या?' आवाज सायास नरम की गई थी।

वह चुप रही। उनसे उसका वार्तालाप लगभग नहीं के बराबर होता था। ' बहुत दिनों से तूने स्कूल की फीस नहीं मांगी। स्कूल छोड दिया क्या?” वे अंधेरे में टटोलते हुए उसके बिस्तर पे बैठ गए। जेब से एक नोटों की गड्डी निकाली।

'ये ले फीस। बारहवीं में एडमिशन ले ले। तू ही मेरा लडक़ा है अब तो। ' कमरे में धुंधली, जीरो पावर के बल्ब की रोशनी थी। उनके कृश शरीर की परछांई भी दीवार पर दानव की तरह पड रही थी। उसके सर पर हाथ फेरते - फेरते, अचानक उनके हाथ नीचे सरक आए। अचानक वे उसके स्तन दबोचने लगे। वह बुरी तरह चीख पडी तो, गुस्से में भन्ना गए।

' शोर मत मचा ए छोरी। ' कह कर एक चांटा रसीद कर दिया था और अपने कमरे में चले गए। वह रात भर कांपते हुए और रोते हुए अपने संकल्पों और विकल्पों से उलझती रही। उसे पढ - लिख कर अपने पैरों पे खडा होना होगा, इस यंत्रणागृह से निकल कर भागना होगा। कब, कहां और कैसे? उस दिन, पहली बार उसे अपने दबंग, लापरवाह, विद्रोही, व्यक्तित्व के बाहरी आवरण के भीतर एक कांच की नाजुक़ गुडिया कांपती नजर आई थी। उसकी सुरक्षा को लेकर वह डर गईथी।

गलियों में आए दिन पुरुषों के स्वर में बकी जाने वाली गालियां उसके जहन में गूंज रही थीं। वे गालियां जिनका इस्तेमाल क्रोध में भी होता है, प्यार में भी। दो पुरुषों के शक्तिप्रदर्शन के बीच औरतों के जिस्म चिने जाते हैं। जिनमें में चिने जाकर खून के रिश्तों का दम घुटा करता है। बहुत मुश्किल से संभाला था उसने, अपनी टहनी की तरह टूट जाने वाली उस उम्र में स्वयं को। वह उठी तो नोटों की गड्डी जमीन पर गिर पडी थी। उसने चुपचाप से खाट की निवाड क़े नीचे उसे छुपा दिया। आखिर उसे एक दिन पास के शहर के नर्सिंग कॉलेज में दाखिला जो लेना है।

सुबह - सुबह जब वे उठे तो शायद उन्हें कुछ याद नहीं रहा, सिवाय इसके कि उन्होंने सट्टे में जीते नोटों की गड्डी कहीं गिरा दी है। उन्होंने जब उससे पूछा तो उसने पूरी उदासीनता के साथ अनभिज्ञता जता दी। पिछली रात के उस अपवित्र स्पर्श की लिजलिजाहट उसके व्यक्तित्व में फांस बनके गड ग़ई थी। वह उनके सामने पडने से बचती।

चित्त को झुलसाने वाली इस घटना के बाद उसने घबरा कर जयदीप को पत्र लिखा था, सत्तरह साल की लडक़ी की भोली - भाली आशंका के तहत या जाने उस पर अपने अखण्ड विश्वास के तहत। अब याद नहीं कि क्या लिखा था, पता नहीं वह अपने डर को पूरी तरह व्यक्त कर भी पाई थी कि नहीं। मगर उसका उत्तर जरूर आया था कि, 'वह बेवजह डर गई है। कोई पिताइतना क्रूर कैसे हो सकता है। वह ट्रेनिंग के बाद सालाना छुट्टी पर आऐगा, तब बात करेगा। ' वह उस साल नहीं आ सका। टे्रनिंग के तुरन्त बाद उसकी युनिट की कश्मीर में तैनाती हो गयी थी। इस बीच व्यक्तित्व की तमाम परतों के भीतर बहुत सहेज कर रखी वह कांच की गुडिया टूट ही गई।

उस दिन सियारों की हू ऽ हू से उसकी नींद खुली थी। अंधेरे में उसने देखा उसके सिरहाने कोई खडा है। लडख़डाते हुए। बनियान पहने मगर नीचे से पूरा नग्न। उसका सारा वजूद जैसे मनों बर्फ के नीचे दब गया था। उसे लगा सपना है मगर लिजलिजे स्पर्शों ने जल्दी ही स्प्ष्ट कर दिया कि यह सपना नहीं था। गालियों में चिना हुआ एक खून का रिश्ता है जो तमाम सभ्य समाजों के पल में परखच्चे उडा कर उसे आदिम काल की गुफाओं में लिए जा रहा था। सभ्यता बरहना सिर उन गुफाओं में चीखती घूमती रही। कमजोर दिल, कमजोर लिवर वाले उसके लगभग ठठरी हो आए उसके उसके जन्मदाता में जाने किस दानव की ताकत आ गई थी कि उसका सोचा हुआ गलत साबित हुआ। उसने सोचा रखा था कि अगली बार शराब के नशे में पिता ने ऐसी - वैसी कोई हरकत की तो उसका सिर दीवार से फोड देगी। उसके पिता ने ही उसका सिर दीवार से दे मारा। अर्धचेतनता में जाने कब, समाज और सभ्यताओं के कानों में बरसों से वह एक गाली जो गर्म सीसे सी गिरती थी, आज उसी सभ्यता की जांघों में वह लहू से लिख दी गई। जब चेतन हुई तो एक स्नायविक तबाही उसके भीतर मची थी, उसका अवचेतन झुलस गया था। उसके भीतर से झुलसती हुई झाडियों की सी तडतडाहट आती रही। भारी वेदना, चीख के कुंए के मुंह पर चट्टान की तरह पडी थी। चीख अन्दर ही अन्दर घुटती रही। निहत्थे शब्द हताशा में उलट कर उसका ही अन्तस खरोंच देते।

अपने ही घर में वह खुद को सात तालों में रखती। रात को उठ उठ कर कमरे की सिटकनी देखती कि लगी है कि नहीं।

अगले साल की शुरुआत में जयदीप आया था, पडोस के घर की सुगबुगाहटों ने उसके आने का पता दे दिया था। इस बार उसने दौड - दौड क़र लम्बी छतें नहीं लांघी। वह घुटनों में सर छिपा कर चेतनात्मक स्तर पर न चाह कर भी अवचेतन के तल पर उतर कर, बांहें फैला कर उसकी प्रतीक्षा में थी।

वह आया, छत से छत के रास्ते नहीं। हवेली के बडे द्वार से, नीम के पीले पत्तों से अटे आंगन में, पत्तों पर चर्र - मर्र करते हुए, बडे - बडे ड़ग भरता हुआ। पिता से बिना डरे - बिना हिचके, एक औपचारिक अभिवादन के बाद सीधा वह उसके कमरे की सीढियां चढ ग़या था। जब गया था तो किशोर सा लगता था, अब पुरुष बन कर लौटा है। चाल में फौज का सिपाही होने की पूरी ठसक आ गई है। उसके अन्दर नमी की बाकी बची एक परत सिहर गई।

वह चाह कर भी खुश नहीं हो सकी। न हहरा कर, फूट कर बिलख सकी। वेदना के पत्थर के नीचे उसकी चीख दम तोड चुकी थी। उसने बहुत कुरेदा, उसमें आए एक पथरीले बदलाव की वजह को तो उसके पास गाली में बिंधे उस रिश्ते के बयान के लिए शब्द थे ही नहीं, आंसू थे, पीडा थी, जख्म थे, उधडा हुआ अवचेतन था। इसके अलावा उसके पास कुछ भी नहीं था जिससे वह समझा पाती। मगर अंतिमा के पिछले वर्ष लिखे गए पत्र के मजमून के प्रकाश में वह बहुत कुछ समझ चुका था। खाली वह ही नहीं समझा, चाची को भी उनके खेत में काम करने वाले भूरे ने हल्का सा संकेत दिया था _ बाईसा, अंतु जीजी रे लारे, मालिक रो वैवार ठीक कोनी। दारू रा नसा में वे कई भी कर सके। वणाने होस कोनी रयो है कि या बेटी है कि बैण।

जयदीप के सामने ही जब चाची भूरे के मुंह से यह बात सुन रही थी, तब वह अपने नाती को कांटे निकाल - निकाल कर मछली खाना भी सिखा रही थी। ' बेटा बारीक कांटे तो रोटी के साथ चबा जा, पर बडा कांटा आंख से देख कर पहले ही निकाल कर बाहर रख दे। '

मां की सीख पर नाती ने ही नहीं बेटे ने भी अमल किया था।

उसने अपने जीवन के तीन लम्बे शून्य वर्षों के खालीपन को स्वीकार कर लिया था। यंत्रणा का हो कि सुख का सैलाब, जब गुजर जाता है तो पूरा का पूरा याद नहीं रहता। लेकिन टुकडा - टुकडा वह जहन में जरूर बनता - बिगडता रहता है, कैलाइडोस्कोप की तरह या फिर कोलाज की तरह। कई बार ये टुकडे, उडते चिथडों की तरह सपनों के चेहरों पर जा चिपकते हैं।

कितनी ही बार वे घृणित दृश्य सपनों में टुकडों में बंट कर, सपनों को गंदला जाते। एक दूसरे में गड्ड - मड्ड होते, मांसल भूरे वृत्त, त्रिकोण, चतुर्भुज आकार। घूं घूं करके घूमती गुलाबी मज्जा की शंक्वाकार सुरंगों में भटकता उसका 'स्व'। भूरी - काली झिल्लियों में फंसी एक नन्हीं चिडिया के भ्रूण सी फडफ़डाती उसकी आत्मा। कभी - कभी एक सुर्ख अंगारा उसकी देह के उन्हीं अनभिज्ञ, असावधान, अजाने प्रदेशों पर भटकता हुआ उसकी चेतना को सुलगाता हुआ गुजर जाता उसकी नींद खुलती, जांघों के बीच एक से अंतरालों के बीच जल्दी जल्दी होने वाले संकुचनों से। वह समझ नहीं पाती कि यह डर के अतिरेक और आनन्द युक्त तनाव का मिलाजुला कैसा चरम बिन्दु है? यह क्या है? ऐसे पलों में उसे अपनी देह विलक्षण स्वरों में विलाप करती महसूस होती। और अंतत: वह अवसाद के बीचों - बीच ग्लानि के द्वीप पर स्वयं को पाती। उसकी गलती? तो फिर यह रज्जुओं और मज्जा तक के भीतर छिपी यह ग्लानि कैसी?

उस दिन भी तूफान के ऐसे ही आसार नजर आ रहे थे उसे, जब नीचे से एक कर्कश आवाज ग़ूंजी थी। ” तूफान आने वाला है। नीचे उतर आंगन में कुछ पडा हो तो उठा ले। ”

वह नीचे उतरी थी, बाहर लाल मिर्च जो सूखने को डाली थी। उठा कर उसने रसोई में रखी ही थी कि उसे पीछे से दबोच लिया गया। दांतों के बीच जीभ सा वह खुद को बहुत बचा कर रखती थी, मगर जरा सी असावधानी में जीभ कभी कट जाती तो कभी बच जाती। उसके पिछले घावों के खुरंट ही अभी हरे ही थेवह अपमान और पीडा दोनों की भयावह और घिनौनी कल्पना से सिहर गयी। मन में छिपे क्रोध की एक चिंगारी सुलग कर पूरे वजूद को दावानल की तरह सुलगाने लगी। उसने अपनी कोहनी से पूरे दमखम के उसकी पसलियों पर वार किया। वह चीख कर वहीं बैठ गया। तब का जो बिस्तर से लगा तो फिर उठा ही नहीं। शौचादि के लिए भी वह भूरया पर निर्भर रहता। आंते खाना बामुश्किल पचा पातीं।

अंतिमा को उसकी इस हालत पर कभी - कभी पश्चाताप भी होने लगा था ज्यादा ही जाेर से मार बैठी थी वह। लेकिन वह कभी हैरान भी रह जाती। टूटी पसलियों के साथ बिस्तर से जा लगी उसके जनक की जर्जर देह के भीतर अब भी क्या कोई कामातुर राक्षस रहता था?

जब भी वह अपने कमरे से कॉलेज को जाने के लिए नीचे उतरती, आंगन में खाट पर बैठे हुए उस व्यक्ति के मुंह से लगातार मवाद की तरह गंदी गालियां टपकतीं। फटी - फटी रहने लगी थीं वो दो जलती आंखें। उनमें उन्माद और ग्लानि दोनों झगडालू पडाेसियों की तरह रहते। वे जब गालियां नहीं देते तो आंगन की दीवार से सर फोडा करते या उसे दिखा - दिखा कर अपनी चप्पलें अपने मुंह पर दनादन मारा करते। वह मुंह फेर कर घर से बाहर निकल जाती। कॉलेज जाने के लिए बस में बैठते ही, इन गालियों से उपजी जुगुप्सा से एक उलटी में सारा खाया पिया उलट जाता। वह उठते - बैठते मनाती कि अब तो यह जीता - जागता प्रेत अपनी समस्त मानसिक व शारीरिक यंत्रणाओं से मुक्त हो जाए।

उसने उंगली की फांस को सहलाया। उसे लगा, आंधी - तूफान और रेत की झर - झर बरसात के बीच कल रात के किसी पहर में चीखता - चिल्लाता, फटी आंखों से शून्य में देखता, कभी खुद को, कभी उसे कोसता, अपनी चप्पलों से कभी अपने को पीटता कभी उस पर फेंक कर मारता एक जीवित प्रेत तो इस हवेलियों की दीवारों से मुक्त हो गया है, मगर एक दंश छोड ग़या है। अर्थी अब भी दालान में स्वजनों के इंतजार में सजी पडी है लोग धीरे - धीरे जुट रहे हैं। उमा जीजी पास के गांव में ब्याहीं हैं सो वो जल्दी ही चली आई हैं, अन्दर बुआसा को सम्भाल रही हैं।

“चार - चार छोरियों की जिम्मेवारी में खट के उमर से पहले चला गया मेरा भाई। एक लडक़े की आस इसके जी में रह गई। हाय! अब इसकी श्राध्द कौन करेगा। निरबंसिया रह गया मेरा भाई। इसकी बनाई जैदाद को गिध्द लूटेंगे। ”

“ चुप रहो भुआ सा। यहां ये सब मत करो। ” अंतिमा खीज कर चीख पडी।

जीजा बाहर बैठक में आने जाने वालों को देख रहे हैं बाऊजी के भाई और भतीजों का इंतजार है।

शाम तक बाऊजी के भाई भतीजे नहीं आए तो उसने जीजा से अर्थी उठा देने को कहा।

“ हां जल्दी है जीजा सा, मुझे जल्दी है। ”

' अंतिमा, क्रिया करम करने वाले तो वो ही हैं, इनके भतीजे। ”

' इनका क्रिया करम तो मैं करूंगी जीजा सा। '

' क्या बकवास करती है अंतु। गांव वाले क्या कहेंगे?'

' तुम चुप रहो जीजी। मुझे परवाह नहीं किसी की। परताप चाचा और गुलाब मामा उठाओ आप लोग अर्थी। ' आवाज में अजीब सी तल्खी क़िसी और ने महसूस की हो कि नहीं, मगर स्वयं उस तल्खी क़ो महसूस कर रही है।

आंगन से धूप जब सिमटने लगी तो हवेली से अर्थी निकली। गली धूल के गुबार से धूसर पडी हुई थी। ढोर - डंगर घर लौट रहे थे। मोहल्ले के पुरुष अपने अपने अंगोछे कंधे पर डाल कर शवयात्रा में शामिल हो गए, कुछ पडाेसी होने के नाते, कुछ कुतुहलवश। औरतें अपने घरों की खिडक़ियों से, घूंघटों में से ताक रही थीं, उस कभी न देखे गए दृश्य को।

'राम नाम सत्य है। ' की हल्की - हल्की उदास गूंज के साथ हल्का सलेटी शलवार कुर्ता पहने, दुपट्टे को कमर पर बांधे अंतिमा अर्थी के आगे पानी भरी मटकी लेकर चल रही थी, जिसके तल में से बूंद - बूंद जल टपक रहा था। रास्ते भर सारा गांव उसे हैरत से देखता रहा था। उसका चेहरा हमेशा की तरह पथरीला सा था, न सुख न दुख। न शोक न उल्लास।

शवयात्रा के श्मशान पहुंचते हुए अंधेरा घिर आया था। एक बडा सा बरगद, पास बहती वैरागिन सी नदी, इधर - उधर बिखरी राख, अर्थी से शव का जल्दबाज़ी में खोला जाना और पण्डित के वे महायात्रा संबधित श्लोक उसके मन में देह की अर्थहीनता को लेकर अजीब सी विरक्ति जगा रहे थे। शुरु में पण्डित एक लडक़ी से अंतिम संस्कार कराते हुए हिचकिचा रहा था। मगर वह सारे संस्कार तटस्थता से निर्देशानुसार पूरे करती रही तो पंडित भी सहज हो गया। मुखाग्नि देने के पांच मिनट के भीतर श्मशान के सन्नाटे में चिता तडतडा कर जल उठी। कपाल क्रिया के ठीक पहले जीजा आगे बढे, यह सोच कर कि लडक़ी है, कहीं डर न जाए। मगर हाथ में लकडी थामे अंतिमा सोच रही थी, इस संस्कार का महत्व क्या होता होगा? क्या इससे मनुष्य के दिमाग में रहता काम - क्रोध - मोह का प्रेत मुक्त हो जाता होगा? विचारों के घनीभूत बवंडर की संभावना से घबरा कर उसने कपाल पर एक भरपूर प्रहार किया। कपाल - अस्थियों के टुकडे बिखर गए थे। सुबह से उंगली में धंसी फांस को उसने सहलाया, अब वह वहां नहीं थी।