फांस / सुमित्रा महरोल
यार इस फ़िल्म ने तो कमाई के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं, इसे तो देखना ही चाहिए।
"किस फ़िल्म की बात कर रहे हो" नैना ने कहा
"सूरज" की और किसकी
तो चलो फिर देख आते है इस इतवार, तुम कहो तो टिकट्स अभी आनलाइन बुक कर देता हूँ, चुन्नु मुन्नु को भी ले चले क्या, या इन्हें माँ जी के पास छोड़ जाएँ। फोन उठाते हुए राजीव ने कहा
माँ जी के पास क्यों छोड़ जाऐंगे, इन्हें भी साथ ले चलेंगे
जैसे हम दोनों को आउटिंग अच्छी लगती है वैसे ही इन दोनों मासूमों को क्या वह सब नहीं भाता होगा... सोते हुए चुन्ने मुन्ने के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए नेना बोली
जैसा तुम ठीक समझो
कहकर राजीव फ़िल्म की टिकिट्स बुक करने में व्यस्त हो गया
नैना के जहन में फ़िल्म देखने से सम्बंधित एक घटना कौंध गई-बहुत कड़वी याद, जो चाकू से कुरेद कर उसके हृदय पटल पर सदा के लिए अंकित हो चुकी थी
लैपटाप बंद कर राजीव उसकी बगल में लेट गए। कुछ ही देर में उनकी नाक बजने लगी। घर में नीख सन्नाटा छाया था।
बचपन में घटी यही घटना मन में फिर ताजा हो आयी थी कुछ स्मृतियों के निशान इतने गहरे होते है अपने सम्पूर्ण ब्यौरों के साथ वह जहन में हमेशा के लिए दर्ज हो जाते है जब तब टीस कर फिर उसी बीहड़ अतीत में खींच ले जाते हैं।
स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियाँ थी इस कारण शाम होते ही जेल से छूटे कैदी की भाँति बच्चे घरों से खेलने के लिए निकल पड़ते थे गर्मी और उमस की वजह से ज्यादातर का ठिकाना कालोनी का पार्क ही होता था। किशोरमय लड़के फुटबाल और बैडमिंटन खेलते। पार्क में घूम रही या बैठ कर गप हाँक रही आँटियों को कई बार उनको बॉल लग भी जाती थी तब उनके कोप से बचने के लिए बहुधा सभी लड़के बाल छोड़ भाग निकलते। भागने का मौका न होने और रंगे हाथों पकड़े जाने पर सब एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगते चोटिल कर देने वाली किक मैंने नहीं उसने मारी थी कई बार कुछ कह सुन कर ही मामला निपट जाता परन्तु बॉल की गहरी चोट लगने पर कुछेक बार मामला गम्भीर वाक्युद्ध और मारपीट तक भी पहुँच गया था।
दस साल से कम उम्र के बच्चे पार्क की घास के समतल मैदानों के किनारों पर बनी क्यारियों में खिले फूलों की खुबसूरती से बेखबर वहाँ सरपट दौड़ भाग किया करते कभी रेस लगाते कभी पिट्ठु या खो-खो खेलते वातावरण बालवृन्द की पुकारो, चीख चिल्लहाटो और अट्टहासों से गुँजरित हो रहा होता था।
पार्क से एक बेंच पर बैठी 7 वर्षीय नन्हीं कभी पिट्ठु खेलते बच्चों को देखती, कभी स्टापु खेलती या रस्सा कूदती हम उम्र लड़कियों को। उसके मन में भी बड़ी उमंग उठती थी धरती को अपने छोटे-छोटे कदमों से नापने की खूब-खूब दौड़ भाग करने की, साथिनों के साथ रेस लगाने की खो-खो स्टापु और रस्सा कूदने की... पर लकवा के कारण कमहोर हो गए अपने पैरों को देख वह मन मसोसकर रह जाती कुछ वर्ष पहले आए जानलेवा बुखार ने उसकी ज़िन्दगी के मायनों को ही बदलकर रख दिया था किसी तरह से दाँये घुटने पर हाथ रखकर लंगड़ा-लंगड़ा कर वह चल तो लेती थी पर सामान्य बच्चों की तरह दौड़-भाग, उछल-कूद अब उसके बूते से बाहर की बात थी... स्कूल से आने के बाद और होमवर्क निपटाने के बाद सायंकाल घर की चारदीवारी में कैद रहने पर उसे बहुत कोफ्त होती थी क्योंकि उस वक्त माँ रात में भोजन की तैयारी में व्यस्त होती और भाई खेलने बाहर भाग गये होते थे अब ऐसे में वह नन्हीं-सी जान अकेली घर में करती भी क्या सो कुछ खेलकूद में भाग ना लेने की अक्षमता के बावजूद वह पार्क में चली आती और एक कोने में पड़ी बेंच पर बैठकर सबको खेलते देखकर ही अपने मन को बहलाने का यत्न करती पर यह अहसास बराबर उसके कोमल मन को लहुलूहान करता रहता कि पार्क में अपने ठहाकों, अट्टहासों और हो-हुल्लड़ों से आसमान को सिर पर उठाए रखने वाले सक्रिय गतिमान संसार का हिस्सा वह कभी भी नहीं बन पाएगी... तब कतरा-कतरा उसका कलेजा जैसे चाक होता रहता, अपनी बेबसी पर उसकी आँखे बरबस बह आती... उसे समझ नहीं आता था कि जब दूसरे सभी लोगों को विधाता ने दौड़ भाग कर सकने लायक स्वस्थ शरीर दिया है तो उसे ही सब से अलग क्यों बनाया... क्यों आखिर क्यों उसकी टाँगें ही कमजोर ओर बेदम है... वह रो-रोकर माँ से पूछती थी मम्मी क्यों मेरे साथ ऐसा हुआ... बुखार के बाद क्या डॉक्टर से आपने मुझे दवा नहीं पिलाई थी... क्यों बुखार के बाद मेरी एक टाँग चल पाने के काबिल नहीं रही अगर ये ठीक होती तो स्कूल में ना कोई मुझे चिढ़ाता ना धक्का मार गिराकर भाग जाता... रिसेस में मैं भी दूसरों के साथ खूब खेलती और रेस लगाएगी, स्कूल के डांस के कार्यक्रमों में भाग लेती... अब तो अपने आस-पास हर पल-पल चलायमान संसार को मात्र देखना ही मेरी नियति हो गई है जैसे... हर पल काम में व्यस्त माँ के पास नन्हीं के सवालों के जवाब देने लायक न समझ थी ना संवेदना और ना समय... सारा दोष किसमत पर डाल वह अपना पल्ला छुड़ा लेती... नन्हीं के प्रश्न अनुतरित ही रह जाते पर दिलोदिमाग में मौजूद हमेशा रहते
उस दिन पार्क से लौटने पर नन्हीं ने देखा कि माँ चार वर्षीय छोटे भाई के कपड़े बदल बाल सँवार रही है। पप्पू नए कपड़े पहन राजा बेटा के समान चमक रहा था तभी माँ ने अपने पहनने के लिए भी नई साड़ी निकाली और हाथ मुँह धोने बाथरूम में चली गई। पापा ऑफिस से आने के बाद बालकनी में बैठे अखबार देख रहे थे वह भी बाहर जाने वाले कपड़ों में ही थे रोज की भाँति घर पर पहने जाने वाले वस्त्र उनकी देह पर नहीं थे। दादी कमरे में बिछी खाट पर बैठी ना जाने कौन से विचारों में लीन थी।
बाथरूम से आने के बाद माँ बाल सँवार शृंगार करने लगी अब नन्हीं का माथा ठनका मेकअप तो मम्मी तभी करती हैं जब उन्हें कहीं बाहर जाना होता है तभी प्पू ने उसे बताया कि मम्मी पापा और वह शाम का फ़िल्म शो देखने जा रहे है।
सुनते ही नन्हीं का दिल बल्लियों उछलने लगा और आँखें खुशी से चमकने लगी... सिनेमा हॉल के बड़े पर्दे पर फ़िल्म देखना उसे बहुत पसंद था... वहाँ की चहल-पहल, ढेर सारे सजे सँवरे लोग, खाना-पीना सब कुछ
साथ चलने के लिए वह माँ से जिद्द करने लगी, पर माँ उसकी मनुहार पर कान दिए बिना साड़ी की प्लेटे ठीक करती रही नन्हीं को लगा कि पप्पू और पिताजी तो तैयार बैठे है माँ भी बस तैयार होने ही वाली है और वह अभी घर के वस्त्रों में ही है सो मनुहार छोड़ उसने बाथरूम में जाकर हाथ-मुँह धोया, बालों में कंघी फेरी और आलमारी से खुद ही नई फ्राक निकाल कर पहन ली चटपट तैयार हो गई।
माँ पिताजी और पप्पू के साथ-साथ वह भी घर से बाहर निकली। शो के शुरू होने में अब शायद बहुत थोड़ा समय बचा था। मम्मी पापा उसकी मौजूदगी से अनजान बने तेज-तेज कदमों से चलने लगे। घुटने पर हाथ रखकर मुश्किल से चल सकने वाली नन्हीं को उनके कदमों से ताल बिठा पाना बहुत भारी लग रहा था। तभी मम्मी ने पप्पू को गोद में उठाया और पापा के साथ लंबे-लंबे डग भरने लगी। अब नन्हीं के मस्तिष्क ने यह संकेत दिया कि मम्मी-पापा उसे लिए बिना ही फ़िल्म देखने जा रहे है इस अहसास भाव से उसकी आँख धारो धार बहने लगी पर सामर्थ्य भर तेज चलने के बावजूद उसकी और मम्मी पापा के बीच की दूरी बढ़ती ही जा रही थी। बढ़ती दूरी के साथ-साथ उसके रूदन का स्वर और वेग भी प्रतिक्षण तीव्र से तीव्रतर हो रहा था पर नन्हीं की उपस्थिति से अनजान एक बार भी पीछे मुड़कर उसे देखे बिना मम्मी पापा उससे दूर बहुत दूर होते जा रहे थे
मम्मी मुझे भी साथ ले चलो, मैं भी फ़िल्म देखूँगी-रो-रोकर नन्हीं मम्मी पापा को गुहारने लगी और अपनी पूरी शक्ति से उन तक पहुँचने की कोशिश करने लगी... गर्मी और तेजी से चलने के कारण उसका पूरा शरीर पसीने से भीग गया था मुँह लाल भभुका हो आया था और साँस धोकनी के समान चल रही थी पर ऐसा लगता था उसकी गुहार उसका रूदन उसका आग्रह उन तक पहुँच ही नहीं रहा था। उसकी तनिक सी-भी परवाह किए बगैर वह लंबे-लंबे डग भरते हुए आगे बढ़ते ही जा रहे थे कुछ देर बाद वह आँखों से ओझल हो गए
नन्हीं का दिल एकदम सन्नाटे में आ गया। उसे अकेला छोड़कर मम्मी पापा जा चुके थे। फ़िल्म न देख पाने के दर्द से भी सौ गुना ज़्यादा दर्द उनकी उपेक्षा और बेरुखी से हुआ। मम्मी पापा को उसके रोने, गुहारने उसके रास्ते में अकेला होने से जैसे कोई सरोकार ही न था... उसका मन यह मानने को तैयार न था कि उसके मम्मी पापा उसके प्रति इतने निर्मम और कठोर हो सकते है... रास्ते पर खड़े-खड़े हिचकियाँ ले-लेकर रोते हुए उसे काफी देर हो गयी तभी उसे खोजती उसकी दादी वहाँ आ पहुँची...
आ मेरी लाड़ो, क्यों रो रही है, चल घर चल धारोधार रोती नन्हीं की रो-रोक कर सूज चुकी सुर्ख आँखों से बहते आँसुओं को दादी ने अपने सूती साड़ी के पल्लू से पोंछा और उसकी उँगली पकड़ उसे घर ले आयी,
घर पहुँच कर भी नन्हीं का रोष कम ना हुआ ज़्यादा रोने से आँखों के आँसु तो सूख गए थे पर मन का शोक रत्ती भर भी कम न हुआ था वह फर्श पर बैठ अपनी निशक्ता टाँगों को फर्श पर घिस-घिस कर विलाप करती नन्हीं अपने क्षोभ व रोष को कम करने का यत्न करने लगी। उसके मौन रुदन से असमान भी पिघल कर बरखा के रूम में बरसने लगा था
अपनो से मिली यह चोट उससे स्वीकारी न जाती थी।
"जागते रहो" चौकीदार की आवाज से नैना दी तन्द्रा टूटी
बरबस वह आए आँसुओं को उसने पोंछा
इतना समय हो गया इस घटना को घटे पर उससे निसृत पीड़ा से मुक्ति उसे आज तक नहीं मिली थी जब भी इस घटना कि याद आती है... दिल पर पड़ा वह आघात निपट बचपने में संसार में अचानक नितान्त अकेले छूट जाने की वह वेदनी और वह शोक उसे याद हो आता उस दिन की विकलता और वह व्यग्रता मानो फिर से सजीव हो उठती
उस घटना के परिणामस्वरूप आमोद-प्रमोद के हर क्षण में उसने अपने बच्चों को अपने से जुदा नहीं किया है। ऐसे हर क्षण पर बच्चों का अधिकार पहला है।
रात बहुत हो गई अब सो जाना चाहिए। कल फ़िल्म देखने भी तो जाना है... सोचते-सोचते वह कब निद्रा कि गोद में चली गई उसे पता ही न चला।