फालके पुरस्कार और शशि कपूर / जयप्रकाश चौकसे

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फालके पुरस्कार और शशि कपूर
प्रकाशन तिथि :18 अप्रैल 2015


शशि कपूर के डॉक्टर से बात करके उनके पुत्र कुणाल ने केंद्र सरकार को पत्र लिखा है कि उसके पिता सप्ताह में तीन बार डायलिसिस कराते हैं और उन्हें बोलने में कठिनाई होती है। अत: वे दादा फालके पुरुस्कार ग्रहण करने 3 मई को दिल्ली नहीं आ सकते। अब मंत्रीजी अगले माह मुंबई आकर उन्हें इस सस्मान से नवाज़ेंगे। शशि कपूर सत्तर वर्ष के हो चुके हैं और विगत कई वर्षों से बीमार चल रहे हैं। उनके भाई शम्मी कपूर भी इसी तरह अपने अंतिम वर्षो में बीमार रहे परंतु उनकी सोच इतनी सकारात्मक थी कि सप्ताह में तीन दिन अस्पताल के तो चार दिन उनके हैं। उन दिनों में वे सैर-सपाटा करते, मनचाहा भोजन करते थे! गौरतलब यह है कि शशि कपूर तो हमेशा प्रसन्नचित रहने वाले मस्तमौला थे, फिर विगत वर्षों से उन्होंने इतना नकारात्मक जीवन क्यों अपनाया?

उनके जीवन में सबसे बड़ा झटका उन्हें उस वक्त लगा जब उनकी पत्नी जैनीफर केन्डल कपूर की मृत्यु कैंसर से हुई। वे जन्म से ही अंग्रेज होते हुए भी कभी शराब नहीं पीती थीं और शाकाहारी थीं परंतु जाने कैसे उन्हें अंतड़ियों का कैंसर हुआ और ऑपरेशन द्वारा कुछ इंच अंतड़िया अनेक बार काटी गईं। उनकी मृत्यु लंदन में हुई और उनकी इच्छानुरुप उनका दाह संस्कार वैदिक रीति से हुआ। जैनीफर की मृत्यु से विचलित शशि कपूर इस बात से भी दु:खी थे कि उनकी सारी सार्थक फिल्में सराही गईं परंतु आर्थिक घाटे का सौदा रहीं। वे फिल्में थीं श्याम बेनेगल की 'जुनून' व 'कलयुग', गोविंद निहलानी की 'विजेता', अपर्णा सेन की '36 चौरंगी लेन' और गिरीश कर्नाड की 'उत्सव'। 'उत्सव' में ऐन वक्त पर अमिताभ बच्चन ने काम करने में अपनी असमर्थता जाहिर की तो मजबूरन शशि कपूर को वह भूमिका करनी पड़ी, जिसके लिए उन्हें वजन बढ़ाना पड़ा और बाद में नैराश्य के कारण वजन घटाने का काम उन्होंने नहीं किया और नायक की भूमिकाएं मिलना बंद हो गईं। यह संभव है कि अमिताभ पर रेखा के साथ काम नहीं करने का कोई दबाव बना हो। बहरहाल, बाद में अमिताभ बच्चन ने शशि की 'अजूबा' स्वीकार की। यह कार्य कुछ मित्रता और संभवत: कुछ 'उत्सव' में ऐन वक्त पर मना करने का पश्चाताप भी हो। यह निश्चित रूप से बताना कठिन है कि उन दिनों क्या हुआ। बहरहाल, 'अजूबा' एक व्यावसायिक फिल्म की तरह गढ़ी गई ताकि आर्थिक कष्ट से शशि कपूर बाहर आ सकें। ज्ञातव्य है कि इसके पूर्व वे पृथ्वी थिएटर के निर्माण में भी ढेर सा धन लगा चुके थे। 'अजूबा' रूस के सहयोग से बनने वाली थी और कानूनी अनुबंध भी हो चुका था परंतु शूटिंग शुरू होते-होते रुस का बिखराव व आर्थिक पराभव शुरू हो गया था। स्वयं शशि के साधन भी सूख चुके थे और अनेक कारणों से फिल्म बनने में कई वर्ष लग गए। परिणामस्वरूप घाटा दूर करने के उद्‌देश्य से बनाई गई मसाला फिल्म और अधिक घाटा दे गई।

उपरोक्त सभी काररणों से शशि कपूर नैराश्य से घिर गए और नकारात्मक दृष्टिकोण आ गया। अपनी पत्नी के जीवनकाल में शशि कपूर हर तरह से अनुशासित जीवन बिताते थे परंतु 'उत्सव' के लिए बढ़ाया गया वजन व शराबनोशी और विपत्तियों के भार के कारण बीमारियों ने घेर लिया। लंबे समय तक शशि कपूर मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में रहे और शराबनोशी से वे तौबा कर चुके थे। तब तक शायद देर हो चुकी थी परंतु एक बात समझ में नहीं आती कि जब यश चोपड़ा ने उन्हें 'वीर जारा' में भूमिका का प्रस्ताव दिया तो उन्होंने इंकार कर दिया। जाने क्यों वे तब सिनेमा की मुख्यधारा से नहीं जुड़ना चाहते थे गोयाकि उनकी मन की दशा कुछ ऐसी ही थी जैसी गुरुदत्त के 'प्यासा' के गीत में ध्वनित होती है 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?' यही भूमिका अमिताभ बच्चन ने 'वीर जारा' में अभिनीत की। अमिताभ बच्चन का दृष्टिकोण हमेशा सकारात्मक रहा है। अनेक बीमारियों के बाद भी वे काम करते रहे हैं। क्या कमाल की जीवन ऊर्जा है।

शशि कपूर को उनकी सार्थक फिल्मों के निर्माण और बतौर एक्टर लंबी पार्टी के कारण दादा फालके पुरुस्का से नवाजा जा रहा है, जिसे लेने वे दिल्ली नहीं जा सकते। अक्ल और पुरस्कारों के साथ यही त्रासदी जुड़ी है कि वे उम्र के उस दौर में मिलते हैं जब उनकी जरूरत ही नहीं रहती।