फालतू लड़का / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'

Gadya Kosh से
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वह कई दिनों से बीमार चल रहा था। सय्या-ग्रस्त था। मैं उसे देखने के लिए गया। वह मुझे एकटक ताक रहा था। शायद मुझे पहचान नहीं पा रहा था। उसकी जीर्ण-शीर्ण काया को देखकर मुझे भी पहचानने में दिक्कत हो रही थी।

वह वही लड़का था। बहुत अच्छा फुटबॉल खेलता था। क्रिकेट भी। गोली खेल, गुल्ली डंडा, गुलेल, घुड़दौड़ आदि सब कुछ में वह माहिर था। दिन भर खेलता रहता था। पढ़ाई-लिखाई की बात करने पर कहता था कि पढ़ाई-लिखाई में मुझे मन नहीं लगता है। शायद, वह मुक्ति का आस्वाद पा चुका था।

उसकी माँ बर्तन मांजकर... गोइठा बेचकर ...उसका लालन-पालन कर रही थी। कंगाली की चरम स्थिति थी। पर वह बेखबर होकर घूमता-फिरता था। लोग उसे फालतू लड़का करते थे। मां-बाप अपने बच्चों को उसके साथ खेलने को मना करते थे। उस समय तो नहीं, पर आज समझता हूँ कि सच में समाज की एक श्रेणी के लड़के फालतू होते हैं। सस्ते होते हैं।

खबर मिली कि वह मर गया। जीवन-बंधन से मुक्त हो गया। अब वह महाकाश में उन्मुक्त होकर तारों के बीच घूमता फिरेगा।

कोई नहीं रोया। फालतू लड़के के लिए कौन रोएगा? पर उसकी माँ खूब रोयी। वह अकेली रोयी थी...जी भरकर!