फासीवाद, साम्प्रदायिकता और दलितजन / मुकेश मानस

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हिन्दुस्तान के दलित समुदायों के लिए सांप्रदायिकता और फासीवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। कहना चाहिए कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हिन्दुस्तान का इतिहास इस बात का साक्षात प्रमाण है। मौजूदा हालात में तो इन दोनों को अलग करके देखा ही नहीं जा सकता है।

फिर भी ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो जानते-बूझते हुए इन दोनों को अलग-अलग खानों में रखकर देखते हैं। कुछ लोग अपनी सीमाओं के कारण ऐसा कर जाते हैं। विस्तृत अध्ययन, व्यावहारिक अनुभव की कमी, दलितों के संबंध में भारतीय इतिहास की आधी-अधूरी जानकारी और संकुचित नज़रिए के कारण ये लोग ऐसा करते हैं। कई बार इन चीजों पर चलताऊ ढंग से कुछ कहने या लिखने के कारण भी ऐसा हो जाता है। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि ऐसे लोगों में दलित राजनीतिज्ञ और विचारक भी बड़ी संख्या में शामिल हैं।

ऐसे लोगों और संगठनों की संख्या भी बहुत ज्यादा है जो समझ-बूझकर और बखूबी सोच-विचार कर ऐसा करते हैं। वे लोग इसके दूरगामी नतीजों के बारे में पूरी तरह से सचेत होते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? ये लोग अपने छोटे-बड़े स्वार्थों की खातिर ऐसा करते हैं, उनके स्वार्थ उनकी जाति, धर्म और वर्गीय हितों से जुड़े हुए होते हैं। ये छोटे-बड़े स्वार्थ क्या हैं? वे लोग कौन हैं जो अपने स्वार्थों की खातिर ऐसा करते हैं? एक सचेत दलित विचारक के लिए इन चीजों की पहचान करना बेहद जरूरी है।


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हिन्दुस्तान के पूरे इतिहास पर अगर दलित परिप्रेक्ष्य में पुनर्विचार किया जाए तो पता चलता है कि सांप्रदायिकता और फासीवाद का तथाकथित हिंदू धर्म या आजकल के तथाकथित हिंदुत्व से बड़ा पुराना और गहरा नाता है। यहां यह बात भी साफ़ हो जानी चाहिए कि तथाकथित हिंदू धर्म और तथाकथित हिंदुत्व कोई दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं। आज के संदर्भ में दोनों एक ही हैं। हिन्दू धर्म का विकसित रूप आजकल का तथाकथित हिन्दुत्व है जो पहले से कहीं ज्यादा आक्रामक और हिंसक है। उसे लगातार राजसत्ता और उससे जुड़े धार्मिक संस्थानों का संरक्षण और समर्थन मिलता रहा है। आज भी यह बात उतनी ही सच है। इसलिए हिन्दुस्तान में सांप्रदायिकता और फासीवाद की समस्या को दलित समुदायों और राजसत्ता के पूरे इतिहास के संदर्भ में रखकर ही देखा जाना चाहिए।

हिन्दूधर्म को आदि धर्म बताया गया है। वैदिक धर्म को भी आदि धर्म बताया गया है। मगर वैदिक धर्म कोई धर्म नहीं है, वह एक प्रकार की प्राचीन सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था है। बौद्ध धर्म, जैन धर्म, इस्लाम, सिख धर्म, इसाई धर्म और आर्य समाज का इतिहास हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म के बाद शुरू होता है। हिन्दू धर्म के वर्चस्ववादी स्वरूप, उसकी जकड़बंदियों और उसमें लगातार पनपने वाली विकृतियों के चलते ही हिन्दुस्तान में दूसरे धर्मों का उदभव हुआ है और उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है। यही कारण हैं जिनके चलते बहुसंख्यक दलित लोग हिन्दू धर्म से बाहर आते रहे हैं और दूसरे धर्मों में जाते रहे हैं।

हिन्दूधर्म शुरुआत से ही फासीवादी और सांप्रदायिक प्रकृति का रहा है। पुराणों, उपनिषदों, स्मृतियों से लेकर हिन्दू धर्म के समर्थन में आजकल भी लिखी जाने वाली सैकड़ों पुस्तकों में इस बात के सबूत भरे पड़े हैं। आधुनिक फासीवाद और सांप्रदायिक संगठनों के आधार ग्रंथ भी यही पुस्तकें हैं। पुराने ग्रंथों में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें कोई ईश्वरीय रूप, तथाकथित अवतार या वर्चस्व और सत्ता के प्रतीक इस तथाकथित हिन्दू धर्म की रक्षा के उददेश्य से ‘दूसरों’ की हत्याएं करते फिरते हैं। ये ‘दूसरे’ लोग कौन हैं? क्यों तथाकथित ईश्वरीय रूप इनकी हत्याएं करते दिखाई पड़ते हैं। दरअसल ये लोग आदि दलित हैं। ये लोग आरंभ से ही हिन्दू धर्म के प्रतिकूल आचरण करते रहे हैं? ये लोग शुरू से ही हिन्दू धर्म के लिए एक चुनौती की तरह रहे हैं। इन लोगों को इन धार्मिक पुस्तकों में राक्षस, चंडाल, दैत्य, असुर जैसे नामों से अपमानित किया गया है। उनको बुरी शक्तियों के स्वामी के रूप में चित्रित किया गया है। यही लोग हैं जिन पर हिन्दू धर्म के तथाकथित संरक्षक और उद्धारक जानलेवा हमला करते रहे हैं। हिन्दू धर्म में इन लोगों पर किए जाने वाले हमलों या उनकी हत्याओं को धर्मरक्षा के नाम पर तर्कसंगत ठहराया जाता रहा है। धर्म की रक्षा के नाम पर तानाशाही और फासीवादी आचरण का एक पूरा का पूरा इतिहास इन धर्मग्रंथों में देखने को मिलता है।

आगे चलकर हम देखते हैं कि इन धर्मग्रंथों में धर्मसंबंधी आचरण और अनुशासन की एक पूरी की पूरी व्यवस्था बनती दिखाई पड़ती है। राजसत्ता के पूरी तरह से अस्तित्व में आने के बाद राज्य के संचालकों पर इस व्यवस्था के कर्ता-धर्ता इन आचरण सिद्धांतों और अनुशासन संबंधी नियमों का पालन करवाने के लिए दवाब डालते थे। इनका पालन करने वालों को ‘धर्मप्रिय’ और इनके प्रतिकूल आचरण करने वालों को ‘विधर्मी’ कहा गया है। इनके विरुद्ध आचरण करने वाला चाहे राजा हो या आम आदमी, सबके साथ एक समान सलूक किया जाता है। राजा के राज्य को नेस्तनाबूद कर दिया जाता है। शंबूक, बाली, रावण, बलि आदि इस बात के ठोस उदाहरण हैं। इनके खिलाफ तथाकथित धर्मरक्षकों की ओर से दिए गए तर्क जग ज़ाहिर हैं।


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तथाकथित हिन्दूधर्म के तथाकथित धर्मग्रथों में जो व्यवस्था बनती दिखाई पड़ती है वह आगे चलकर ‘वर्णव्यवस्था’ का रूप अख्तियार कर लेती है। वर्णव्यवस्था को सत्ता संस्थानों से भी लगातार समर्थन मिलता रहा है। वर्णव्यवस्था में बहुसंख्यक दलित आबादी सबसे निचले पायदान पर आती है। वर्णव्यवस्था ने इस बहुसंख्यक आबादी को लगातार सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और मानवीय अधिकारों से महरूम किया है। आज भी यह काम उसी तरह से शोषण के विभिन्न रूपों में जारी है। बहुसंख्यक दलित आबादी प्राचीनकाल से ही इस अमानवीय वर्णव्यवस्था के खिलापफ विद्रोह करती आई है। लेकिन इन विद्रोहों को लगातार तमाम अवैध और अनैतिक तरीके अपनाकर समय-समय पर दबाया-कुचला जाता रहा है। कभी यह काम हिंसक ढंग से किया गया तो कभी-कभी यह काम उदारवादी ढंग अपनाकर किया गया है। आधुनिक काल में गांधी ने यह काम उदारवादी ढंग से अंबेडकर पर सामाजिक दवाब डालकर पूरा किया। अंबेडकर ने दलितजन के लिए अलग चुनाव क्षेत्रों की मांग रखी थी। इससे हिन्दू धर्म का समूचा अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता था। आमरण अनशन करके गांधी ने अंबेडकर पर दवाब डाला कि वे अपनी मांग छोड़ दें। दरअसल, गांधी ने हिन्दू धर्म को बचाए रखने के लिए ही आमरण अनशन की धमकी दी थी। दलित अंबेडकर और उदार हिन्दू गांधी के बीच समझौता हुआ जिससे ‘पूना पेक्ट’ सामने आया। इससे आधुनिक युग के उभरते हुए सबसे बड़े दलित आंदोलन को काफी नुकसान पहुंचा और उसकी गति लगभग थम-सी गई। इस समझौते ने बाद में ज्यादा हिंसक और आक्रामक हिन्दुत्व को जन्म दिया। इस पूरी यात्रा में हिन्दू धर्म के फासीवादी चरित्र का लगातार विकास हुआ है।

हिन्दू धर्म के संचालकों और संरक्षकों ने हमेशा से दूसरे धर्मों को अपने ‘दुश्मन धर्मों’ के रूप में देखा है। उन्होंने उन्हें प्रतिद्वंद्वी या चुनौती के रूप में नहीं देखा है। इसलिए उन्होंने हमेशा दूसरे धर्मों के अनुयायियों के साथ ‘दुश्मनों’ जैसा बर्ताव किया है। बौद्धधर्म और उसके अनुयायियों के साथ हिन्दू धर्म के तथाकथित संरक्षकों का बर्ताव इस बात का सशक्त उदाहरण है। हिन्दू धर्म के लिए बौद्ध धर्म एक जबरदस्त चुनौती बनकर आया था। हिन्दुस्तान के पूरे इतिहास में यह धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसके खिलाफ हिन्दू धर्म के फासीवादी और सांप्रदायिक दोनों रूप एक साथ देखने को मिलते हैं। बौद्धधर्म ने दलितों को एक मानवीय और समतापूर्ण माहौल दिया। उन्होंने बड़ी तादाद में इसे अपनाना शुरू किया। इससे हिन्दू धर्म के संरक्षकों ने बौद्धधर्म के विचारों और व्यवहार पर एक साथ हमला किया और उसे लगभग नेस्तनाबूद कर दिया। तत्कालीन हिन्दू राजाओं और वर्चस्वकारी शक्तियों द्वारा बौद्धधर्म के विरुद्ध उनके फासीवादी और सांप्रदायिक चरित्र का एक रूप है तो बौद्ध धर्म के मानवतावादी विचारों और आचरण व्यवस्था का विकृत बनाकर उसे हिन्दू धर्म का अंग मानना और किसी ईश्वरीय अवतार को न मानने वाले गौतम बुद्ध को ‘ईश्वरीय अवतार’ बना डालना उसका दूसरा रूप है। मानवीय सम्मान प्रदान करने वाले बौद्ध धर्म को सत्ता के बल पर इतना विकृत कर दिया गया कि वह अब किसी के काम का नहीं रहा।

इस्लाम के साथ हिन्दू धर्म का बड़ा पुराना झगड़ा है। इस्लाम के मानवीय पहलुओं की सराहना करने और उन्हें खुले दिल से अपनाने की बजाए उसे अपना दुश्मन माना गया। शुरू से ही उसके खिलाफ ऐसा व्यवहार अपनाया गया। आज हिन्दुस्तान में इस्लाम के जितने अनुयायी हैं उनमें अधिकतर हिन्दुस्तान के अपने लोग हैं। कहना चाहिए कि ऐसे लोगों में दलितों की संख्या ही अधिक है। इस्लाम के अलावा जिन और धर्मों को दलितों ने अधिक तादाद में अपनाया, उनमें सिख धर्म और इसाई धर्म भी शामिल हैं। इन धर्मों के साथ भी हिन्दू धर्म के संरक्षकों और सत्ता संचालकों ने शुरुआत से ही दुश्मनों जैसा बर्ताव किया है। चाहे मंदिर का मसला हो, चाहे आरक्षण विरोध का, चाहे 1984 के सिख हत्याकांड का या चाहे गुजरात दंगों का सवाल हो, इन सबसे पता चलता है कि इनमें सत्ता की बराबर की हिस्सेदारी रही है। सत्ता चाहे कांग्रेस के हाथ में रही हो या भाजपा के हाथों में। दूसरे धर्मों के खिलाफ हुए दंगों और कत्लेआम में सत्ता का पूरा समर्थन दंगाइयों को मिला है। यह बात एकदम शीशे की तरह साफ है।

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हिन्दू धर्म के फासीवादी और सांप्रदायिक आचरण का संबंध दलितों के साथ दोतरफा हैµ जाति के स्तर पर और धर्म के स्तर पर। हिन्दू धर्म की जातिगत श्रेणीबद्धता के कारण दलितों का हर स्तर पर शोषण हुआ है। इस जातिगत अवमानना और शोषण के चलते ही दलित दूसरे धर्मों में गए हैं। इसमें उनकी मुक्ति की छटपटाहट और चाहत झलकती है। आज तथाकथित हिन्दुत्ववादी जब दूसरे धर्मों पर हमला करते हैं तो यह हमला परोक्ष रूप में दलितों पर ही होता है। हिन्दू धर्म के फासीवादी और अमानवीय ढांचे में दलितजन रह नहीं सकते। अगर वे इससे बाहर जाने का प्रयास करते हैं तो उन्हें सताया जाता है। हिंसात्मक तरीके अपनाकर उनका दमन किया जाता है। अभी तक तथाकथित हिन्दुत्ववादी परोक्ष रूप में ही दलितों पर हमला करते रहे हैं। अब वे सीधे-सीधे दलितों पर हमला करने की स्थिति में आ रहे हैं। आरक्षण विरोधी अभियान छेड़कर और धर्मांतरण पर रोक लगाकर वे इसकी शुरुआत कर चुके हैं। इसलिए इस बारे में अब कोई खामख्याली नहीं है कि तथाकथित हिन्दू धर्म और हिन्दुत्ववाद अपने समग्र रूप में दलितों का विरोधी है।

हिन्दू धर्म और राजसत्ता के फासीवादी रूप की मार दलितों को ही ज्यादा झेलनी पड़ रही है या उन्हें ही ज्यादा झेलनी है। इसलिए इससे मुक्ति की राह भी उन्हीं को निकालनी है। सांप्रदायिकता और फासीवाद से मुक्ति की राह में धर्म परिवर्तन अब दलित आंदोलन को पीछे ले जाने वाला कदम है। आजकल सारे धर्म इतने विकृत हो चुके हैं कि उनसे दलितों का कोई भला नहीं होने वाला है। इसका यह मतलब नहीं है कि दलित लोग कोई नया धर्म बना लें। दलितों को अब इससे आगे का कदम सोचना पड़ेगा। यह कदम क्या होगा जो उन्हें उनकी संपूर्ण मुक्ति की ओर ले जा सके। इस सवाल का जवाब अभी भविष्य की गोद में ही है। मगर यह तय बात है कि सांप्रदायिकता और फासीवाद का मुंहतोड़ और मुकम्मिल जवाब दलितों के पास ही है। इस काम में उन्हें ही लगना है। इस काम को वे समाज में मौजूद प्रगतिशील और जनवादी ताकतों के साथ मिलकर ही पूरा कर पाएंगे। मगर फासीवाद और सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष में नेतृत्वकारी भूमिका उन्हें ही निभानी होगी। फ़िलहाल, मार्च2003 में प्रकाशित