फाॅक्र / सुषमा गुप्ता
"माँ, कल से मैं बाहर नल पर पानी भरने नहीं जाऊंगी।" तेरह साल की लाली रोते हुए बोली।
"क्यों री, क्या हुआ?"
"माँ, वो ढाबे वाले बिशन चाचा है न, रोज रास्ता रोक लेते है। कहते है अंदर ढाबे में चल बढ़िया-बढ़िया खाना खिलाऊँगा। अजीब ढंग से हाथ लगाते है, मुझे बहुत गंदा-सा लगता है।"
"करमजला, हरामखोर, उसकी इतनी हिम्मत। याद नहीं उसे तू हरि सिंह ट्रक डाइवर की बेटी है। अब के फेरा पूरा करके आएगा जब अमृतसर से, सारी करतूत बताऊँगी जन्मजले की। तेरे बाप ने चीर के रख देना है।"
"पर माँ बिशन चाचा से तो सब डरते है। उनके भाई तो वह सफेद जीप वाले नेता के काम करते है न और उनके भाई के पास हमेशा बंदूक भी तो रहती है वह बड़ी सी."
बिल्लो का चेहरा फक्क पड़ गया। आँख के आगे सुखिया की लाश घूम गई, जिसकी घरवाली का हाथ पकड़ लिया था बिशन ने और खूब लठ्ठ बजे थे दोनों में। फिर एक दिन अचानक सुखिया गायब हो गया। पाँच दिन बाद नदी में मछलियों खाई लाश मिली उसकी। सबको पता है क्या हुआ और किसने किया पर मजाल किसी की हिम्मत हो जाए बोलने की।
"सुन लाली। कल से तू पानी लेने नहीं जाऐगी और स्कूल छोड़ने लेने भी मैं आऊँगी। अब से ये फाॅक्र पहनना बिल्कुल बंद। कल से सूट पाईं और दुप्पटा ले के सिर ढक के जाईं।"
"पर माँ..."
"पर वर कुछ नहीं। ऊँट-सी हो गई, ओढ़ने पहनने की ज़रा अक्ल नहीं। किसी और की क्या गलती और खबरदार कुछ पापा को बोली तो।"
लाली हैरानी से अपने घुटनों से लम्बी फाॅक्र देखने लगी।