फिज़ा / मुकेश श्रीवास्तव
फिजॉ फिजॉ ने बच्चे को स्कूल की बस पे बैठा के घर की तरफ का रुख किया ही था। अचानक एक छोटा बच्चा उसकी हाथ मे एक कागज थमा के यह कहते हुये भाग गया कि ‘आपको ये कागज उन अंकल ने देने के लिये कहा है’ वह कुछ समझ और सम्हल पाती तब तक वह लडका सडक के पार की गली मे न जाने कहां खो गया था। और जिस अंकल की तरफ इशारा किया था उस तरफ भी उसे कोई नजर नही आया। कागज का पुरजा अभी भी उसकी हथेलियों मे किसी अंगारे सा दबा दहक रहा था। पर वह उस कागज के टुकडे को कुछ डर और कुछ बदहवाशी मे फेक भी नही पा रही थी, और यह भी नही समझ पा रही थी कि वह इस टुकडे का क्या करे।
लिहाजा इसी उहापोह की स्थिति मे उस कागज के टुकडे को हथेलियों मे लिये दिये जल्दी जल्दी घर की तरफ बढ चली। न जाने कव उसके हाथों ने उस टुकडे को अपने कपडों मे छुपा लिया। और अपनी उखडी सांसों को सहेजते हुये व चेहरे पे उभर आयी बदहवासी को छुपाने के लिये। अपने सिर के पल्लू के आदतन सही किया, आंचल से नाक व माथे पे चमक आयी पसीने की बूंदों को पोछा और सीधे किचन की तरफ चली आयी। सासू मॉ कुरान शरीफ पढने के लिये बैठी थीं। अब्बू रोज की तरह अखबार मे मुॅह गडाये चाय की चुस्कियों मे व्यस्त थे। साहिल जल्दी जल्दी दाढ़ी पे हाथ साफ कर रहे थे। ननंद कॉलेज के लिये जल्दी जल्दी तैयार हो रही थी। लिहाजा किसी को फिजॉ के चेहरे को देखने की फुरसत न थी। इस बात से उसे कुछ तसल्ली मिली।
फिजा के हाथ तेजी तेजी रसोंई के काम निपटाते जा रहे थे पर दिमाग उससे ज्यादा तेज चल रहा था, और अंदाज लगा रहा था सोच रहा था कि कौन हो सकता है यह कागज देने वाला ये तो उसे समझ ही आ गया था कि ये उसको कोई दूर से चाहने वाले प्रेमी ने ही भेजा है। पर वह कौन हो सकता है यह नही समझ पा रही थी। कागज का टुकडा अभी भी उसके शरीर से चिपका हुआ था। दहक रहा था। पर वह इसे छुपाये भी तो कहां छुपाये।
ज्वाइंट फेमली मे कोई जगह कोई कोना अपना नही होता। कोई जगह कोई भी अलमारी व्यक्तिगत नही होती। इस बात की कमी उसे आज कुछ ज्यादा ही खल रही थी। खैर,,, फिजा ने उसे फिलहाल वहीं रहने दिया जहां था। पर मन ही मन उस कागज के मजमून को कहां और कब पढा जाये ये सोचती जा रही थी। इसी दौरान उसने जल्दी जल्दी चाय और नास्ता तैयार किया। नंनद का चाय नास्ता उसके कमरे मे जा के दे आयी। पति का चाय व नास्ता डाइनिंग टेबल पे सजा के उन्हे बता भी दिया कि नास्ता तैयार है जल्दी तैयार हो के कर लें। सासू जो अब नमाज से उठ चुकी थी और अब्बू के बगल मे बैठ के अखबार के दूसरे पन्ने मे मशगूल हो गयी थी। उन दोनो को भी उनके पास ही चाय पहुचा दिया।
कामवाली आ गयी थी उसे उसने कपडे छांटने के पहले झाडू पोछा करने को कहा।
इसके बहाने सब को सुनाते हुये कि वह बाथरुम मे जा रही है। कोई काम हो तो जल्दी से बता दे वर्ना वह नहा के ही निकलेगी।
सब अपने अपने काम मे लगे रहे। पति ने ही कहा जाओ मै भी आफिस के लिये निकल रहा हूं। उधर नंनंद ये बात सुनने के पहले ही कॉलेज को निकल गयी थी।
खुलता हुआ गेहुऑ रंग, पानी दार चेहरा व बोलती हुयी बडी बडी ऑखों वाली फिजा को जो भी एक बार देखता दूसरी बार देखने की इच्छा जरुर रहती। लबों से कम और आखों से ज्यादा बोलने वाली फिजा अभी उस उम्र मे ही थी जब लडकियों के मन मे नये नये और कोमल कोमल सपने संजोती हैं अपने आस पास किसी ऐसे चेहरे के ढूंढती हैं जो उनके इन एहसासो बातों को समझे सराहे उसकी खूबसूरती व अदाओं पे फिदा हों। कुछ कसमे वादे हों मिलना मिलाना हो। पर यह सब वह सोच पाती इसके पहले ही मॉ बाप ने साहिल से उसका पल्लू बांध दिया। साल के अंदर ही मॉ बन गयी और घर ग्रहस्थी मे फंस गयी।
वैसे तो उसकी जिंदगी मे कोई कमी नही। साहिल मियॉ भी सीधे साधे और सरल इंसान हैं। ज्यादातर अपने आफिस और बिजनेश के काम मे मसरुफ रहते हैं। कम बोलने की फितरत है। पर उससे फिजॉ को काई परेशानी नही पर कभी कभी इतना कम भी बोलना भी चुभ जाता है खाश कर के जब वह अपनी कुछ बातें उनसे शेयर करना चाहती हो। चूंकि फिजां को किशोरवय से ही ग़ज़ल शेरो शायरी पढना लिखना और गुनगुना अच्छा लगता रहा है। उसकी इस तबियत की वजह से ही उसे लगता कि जिंदगी मे कोई ऐसा तो साथी हो जिससे हल्के फुल्के माहौल मे हंसा बोला जाये। एक दूसरे से शालीनता से छेड़ छाड़ करते रहा जाय। कोई तो हो जो उसकी कभी तो तारीफ करे। पति पत्नी के रिश्ते के अलावा भी कुछ ऐसे पल हों जब वह सिर्फ और सिर्फ कोमल एहसास महसूसे और जिये जायें। पर साहिल का धीर गम्भीर स्वभाव इन सब से अलग था। मगर इन सब बातों के बाद भी वह अपनी दुनिया और बच्चों परिवार के साथ खुश रहती।
पर,, कमल और कुमुदनी से भरे पूरे खूबसूरत तालाब की तरह जो अपनी ही रौ मे हल्की हल्की लहरों के साथ बहती जिंदगी मे। थोडा सा हलन चलन उस दिन हुयी जिस दिन उसने अपने पड़ोस मे आये नये नये परिवार के मुखिया गुलशन साहब से मुलाकात हुयी।
‘गुलशन’ उनका तखल्लुश था सही नाम तो कुछ और ही था। जिसे बहुत कम ही लोग जानते थे। गुलशन साहेब की लम्बी चौडी कद काठी। काली गहरी ऑखें। क्लीनशेब्ड चेहरे पे एक अलग ही जादू जगाती थी। फिर उनका बोलने का बिंदास लहजा। भारी आवज किसी को भी अपने जादू मे ले लेने के लिये काफी थी।
जिससे फिजॉ भी न बच सकी। जब उसे ये पता लगा गुलशन साहब भी एक अच्छे गजलगो हैं और उनका तरन्नुम भी महफिलों मे जान डाल देता है। तो वह भी उनके व्यक्तित्व के जादू मे बहती गयी। पर उनसे जान पहचान का सिलसिला महज इतना था कि कभी कदात ईद बकरीद मे एक दूसरे के यहां आना जाना। या फिर कभी उनके घर के सामने से निकलते हुये दिख भर जाना था।
फिजॉ के मन मे कई बार ये खयाल भी आया कि उनसे ग़ज़ल के लिये इस्लाह लिया जाये। इसके लिये साहिल भी तैयार हो गये थे पर सास ससुर कॉफी पुराने खयाल व कड़क मिजाज के होने से उसकी हिम्म्त न पड़ी। उसे अपने घर से जब भी कहीं आना जाना होता तो गुलशन साहब के घर के सामने से ही हो के जाना होता था। पर कभी उसकी हिम्मत अपने से बात करने की नही हुयी। धीरे धीरे यह एहसास भी उसके मन की कहीं गहराइयों मे दब ढ़क से गये थे। उनके अलावा उसे और कोई ऐसा शख्स तो नही याद आ रहा था जो उसको इस तरह से ख़त भेज सकता होगा। हालाकि वह यह भी सोचती जा रही थी कि गुलशन साहेब एसा नही कर सकते उनकी पत्नी तो उनसे कहीं ज्यादा खूबसूरत और जहीन है। हां कालोनी या आस पास मे कोई और हो जो उसे किसी और नजर से देखता हो जिसका उसे अन्दाजा नही तो बात अलग है।
फिजॉ ने कंपकंपाते हाथो से बाथरुम का दरवाजा बंद किया उसकी चटखनी को गौर से देखा कि बंद है कि नही। फिन नल खोल दिया पानी की धार धड़ धड़ कर के बात्टी मे गिरने लगी। तब अपने कुतें मे छुपाये खत को खोला।
अब,,, उसकी नजरे खत पे थी ...
दोस्त,
आदाब,
मुझे नही पता तुम इस खत को पा के कैसा महसूस करोगी। मेरे बारे मे क्य सोचोगी। पर इतना जरुर है कि बहुत सोचने समझने और कई दिन विचारों के समंदर मे डूबने उतराने के बाद मैने यह खत तुम्हे लिखने का फैसला लिया है। अब तुम हमे सजा देती हो या कुछ और हमे नही पता। पर इतना तय है फिजॉ जी इधर कुछ दिनो से न जाने क्यंू मै आपकी तरफ आकर्षित होता गया मुझे खुद पता नही। वैसे तो खुदा की दुआ से बंदे की जिंदगी मे न कोई ग़म है और न कोई खलिश। एक इन्सान अपनी जिंदगी मे जो कुछ भी चाहता है उससे ज्यादा नही तो कम भी नही है। इंशाअल्लाह ने टीक ठाक सेहत दे रखी है ठीक ठाक बीबी है प्यारा से दो बच्चे हैं। अच्छी नौकरी है। सब कुछ गुडी गुडी है।
और शायद ऐसा ही आप के साथ भी है।
तो फिजॉ जी, जिंदगी आपके शहर मे आने तब अपनी रफतार और खूबसरती से चली भी आ रही थी। पर न जाने क्यूॅ जब से आप से मुलाकात हुयी तो न जाने क्यूूं मन कुछ कुछ भटकने लगा। और जितना भी मन को कहीं और ले जाने की कोशिश करता हूं आप की काली गहरी बोलती ऑखें मुझसे बतियाने लगतीं। और मै भी उनसे गुफतगू करने लगता हूं, और घंटो किया करता हूं।
सच आप मे जो कशिश है वह हर वक्त मुझे अपने गिर्दाब मे लिये रहती है। चाह के भी नही निकल पाता।
कई बार अपने मन से मैने पूछने जानने की भरपूर कोशिश की भी इस उम्र मे इस मुकाम पे ऐसा क्यूं ऐसा क्यूं। पर जितना ही सोचता हूं उतना ही उलझता जाता हूं।
दिल और दिमाग दोनो जानते हैं इन सब बातों को कोई मतलब नही। कुछ हासिल भी नही होना। पर हर बार दिल पारे की तरह छटक के गिर जाता हूं और फिर फिर मै उन्हे बटोरने समेटने मे लग जाता हूं। हर बार नाकामियाबी ही हाथ लगती है।
हालाकि मुझे कोई जिस्मानी भूख नही है। कोई मुहब्बत का इरादा भी नही है पर न जाने क्यंू आपसे मिलना आपको देखना आपको महसूसना अच्छा लगता है। बस लगता है मेरी रुह आपके आस पास ही रहे। आपकी खुशबू को अपने लम्स लम्स मे संजोता रहूं। आपकी इन झील सी आखों के आबे हयात को पीता रहूं। आपके इस मासूस खामोश चेहरे को देखता रहूं। बस...
मैने बहुत दिन अपने जज्बातों को जब्त किया और आगे भी करे रहता पर आज जब दिल और दिमाग इस बात पे राजी हो गये कि कम से कम एक बार यह शहर छोडने के पहले अपने एहसासों को आप तक पहुचा ही देना चाहिये। भले ही मेरी ये हरकत आपको नागवार गुजरे और मेरी इज्जत आपकी नजरों मे कम हो जाये। पर आज जब मै आपके इस शहर को हमेसा हमेसा के लिये छोड के जा रहा हूं। कारण मेरी एक बेहतर नौकरी हो।
फिजा जी मुझे ये भी नही मालूम आप मेरे बारे मे क्या सोचती है। पर इतना तो मुझे विस्वास है कि घर से निकलते ही आपकी नजरें भी हमे ही ढूंढती हैं। ये बात मैने कई बार छुप छुप के देखकर महसूस की हैं और इसकी वजह कुछ भी रही हो। और यही वजह रही कि मेरी भी हिम्मत हुयी ये खत लिखने की।
इस खत का जवाब भी आप चाहे तो दे और चाहे न दे। उसके लिये मुझे कुछ नही कहना।
फिजाजी मै अपने इन एहसासों को आप तक पहले ही कह देता पर जानता हूं कि आप भी जिंदगी के इस मुकाम पे उस मंजिल के लिये जिसका न कोई पता है न ठिकाना है अपनी खुशहाल जिंदगी को बरबाद नही करेंगी, और मै भी नही नही चाहता।
यही वजह रही है अपने जज्बातों को इतने दिनो तक अपने अंदर दबाये रखने का।
आप पहली और आखरी बार मैने आपको अपनी बाते कह दी।
अब आप मेरे बारे मे सोचेगी और क्या न सोचेंगी इस खत का जवाब भी दंेगी या न देंगी। इन सब बातों के पहले ही मेरा कारवॉ एक नयी राह मे बढ चुका होगा।
और मै आपसे बहुत दूर जा चुका होउंगा। शायद कभी और कभी न मिलने के लिये।
खुदा हाफिज
अलबिदा
गुलशन
फिजा कहानी को कई कई बार पढ चुकी थी। बाल्टी पूरी भर चुकी थी पानी तेजी से बह रहा था। पानी की धार की आवाज मे ही बाहर किसी ट्रक और एक कार की दूर जाती आवाज आ रही थी। फिजा के हाथ का खत न जाने कब पानी की धार के नीचे आ आ के भीग चुका था जिसे उसकी हथेलियां मसल के घबराहट मे बहा चुकी थी। भले ही खत पानी मे भीग के गल के बह गया हो।
पर उसके एक एक हरुफ उसके दिलो दिमाग के सफे पे पूरी चमक के साथ छप चुके थे। जिन्हे न वक्त गला सका न बिन बहे आंसुओं की धार। और पानी की धार पे रईसा खुमार का यह शेर चमक रहा था।
मुहब्बत इबादत है तो इबादत रोज करती हूं
वजू करके तेरे ख़त की तिलावत रोज करती हूं