फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष / भाग 2 / तोताराम सनाढ्य
विषय सूची
- 1 फिजीद्वीप
- 2 भिन्न-भिन्न स्टेटों में बाँट दिए गए
- 3 काबुली पठानों पर अत्याचार
- 4 काले रंग से घृणा
- 5 सौदागरों के अत्यचार
- 6 200 भारतवासियों को धोखा दिया गया!
- 7 फिजी के कानून से विवाह
- 8 गोरे बैरिस्टर और वकील
- 9 गोरा बैरिस्टर 1925 पौंड हजम कर गया
- 10 भारतवासी बैरिस्टर का बुलाया जाना
- 11 फिजीद्वीप के बारे में
फिजीद्वीप
फिजी द्वीपसमूह प्रशांत महासागर में स्थित है। उसके पश्चिम में न्युहैब्रीडीज है। भूमध्यरेखा के दक्षिण में देशांतर के 15 अंक से ले कर 22 अंक तक और पश्चिम में अक्षांश की 175 डिग्री से ले कर 177 डिग्री तक फैला हुआ है। इसमें सब मिला कर 254 द्वीप हैं। इनमें से लगभग 80 टापुओं में आदमी रहते हैं। फिजी द्वीपसमूह का क्षेत्रफल 7435 वर्गमील है। सन 1911 की जनगणना के अनुसार फिजी की जनसंख्या 1,39,541 है। इन द्वीपों में दो द्वीप सबसे बड़े हैं। एक तो वीती लेवू (Viti Levu) और दूसरा वनुआ लेवू (Vanua Levu)। इनके अतिरिक्त कंदावू और तवयूनी नामक टापू भी बड़े-बड़े हैं। इनकी भूमि बड़ी उपजाऊ है और विशेषत: पूर्व की ओर यह द्वीप बहुत कुछ हरा-भरा दीख पड़ता है। यहाँ पर कितने ही पहाड़ हैं, जिनकी चोटी हजारों फिट ऊँची हैं। समुद्र के किनारे-किनारे नारियल के बहुत पेड़ होते हैं। यहाँ रतालू, शकरकंद और नारंगी बहुत पायी जाती है। यहाँ पर पहले बहुत कम जानवर थे। फिर पीछे से बहुत-से जानवर भेजे गए। गाय, बैल, घोड़ा, बकरी, जंगली सूअर इत्यादि थोड़े बहुत पाए जाते हैं। कबूतर, तोता, बतख इत्यादि चिड़ियाँ भी जो गर्म मुल्कों में प्राय: हुआ करती हैं, देखने में आती हैं। सन 1866 ई० में यहाँ पर न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया से बहुत-से यूरोपियन आ-आ कर बसने लगे। सन 1874 ई० में यह द्वीपसमूह ब्रिटिश सरकार के हाथ में आ गया और ब्रिटिश राज्य का उपनिवेश भी कहा जाने लगा। फिजी की राजधानी सुवा है, जो कि विती लेवू के दक्षिण पर स्थित है। फिजी के विषय में विस्तारपूर्वक आगे चल कर लिखेंगे।
भिन्न-भिन्न स्टेटों में बाँट दिए गए
फिजी में एक नुकलाओ नामक एक टापू है। यहाँ पर भी एक डिपो है। हम लोग, जो कि कुली के नाम से पुकारे जाते हैं, यहीं उतारे जाते हैं। ज्योंही हमारा जहाज वहाँ पहुँचा त्योंही पुलिस ने आ कर उसे घेर लिया, जिससे कि हम वहाँ से भाग न जाएँ। हम लोगों से वहाँ गुलामों से भी बुरा बर्ताव किया गया। लोग कहा करते हैं कि दासत्व-प्रथा संसार के सब सभ्य देशों से उठ गयी है। यह बात ऊपर से तो ठीक मालूम होती है परंतु वास्तव में नितांत भ्रममूलक है। क्या आप इस कुली-प्रथा को दासत्व-प्रथा से कम समझते हैं? इसी न्यायशील ब्रिटिश सरकार के राज्य में यह प्रथा जारी रहे यह कितने खेद की बात है। क्या अब बर्क, ब्राडला जैसे निष्पक्ष अंग्रेज इंग्लैंड में नहीं रहे।
थोड़ी देर के बाद डाक्टर आया और उसने हम सबकी परीक्षा की। सब लोगों के कपड़े हौज में एक साथ डाल कर गर्म किए गए। कोठीवालों को पहले से ही एजेंट जनरल ने आज्ञा दे दी थी कि आ कर अपने-अपने कुली नुकलाओ डिपो से ले जाओ। कोठीवालों ने प्रत्येक मनुष्य का व्यय दो सौ दस रुपये इमीग्रेशन विभाग में पहले से जमा करा दिया था। एजेंट जनरल की आज्ञानुसार वे लोग नुकलाओ डिपो में पहुँचे। वहाँ पर छोटे कुली एजेंट ने हम सब को भिन्न-भिन्न स्टेटों में जाने के लिए विभक्त कर दिया। फिर उस एजेंट ने हम सबको बुलाया और प्रत्येक से कहा, "तुम आज से पाँच वर्ष तक के लिए अमुक साहब के नौकर हुए" मैंने कहा 'मैं नौकरी नहीं करता। मैं बिका नहीं हूँ। मेरे बाप या भाई ने किसी से कुछ ले कर मुझे बेच नही दिया है। मैंने भी किसी से कुछ नहीं लिया। जब मैंने तीन-पाँच की तो दो गोरे सिपाहियों ने धक्के दे कर मुझे नाव पर चढ़ा दिया। इस प्रकार सब लोग भिन्न-भिन्न स्टेटों में बाँट दिए गए।
स्टेट का हाल- स्टेट में रहने के लिए कोठरियाँ मिलती हैं। प्रत्येक कोठरी 12 फुट लंबी 8 फुट चौड़ी होती है। यदि किसी पुरुष के साथ उसकी विवाहिता स्त्री हो तो उसे यह कोठरी दी जाती है और नहीं तो तीन पुरुषों या तीन स्त्रियों को यह कोठरी रहने को मिलती है। दिखाने के लिए तो यह नियम बनाया गया है "Employers of Indian labourers must provide at their own expense suitable dwellings for immigrants, The style and dimension of these buildings are fixed by regulations." यानी 'जो लोग भारतवासी मजदूरों को नौकर रखेंगे, उन्हें अपने खर्च से उन मजदूरों को रहने के लिए अच्छे निवास-स्थान देने होंगे। इन मकानों की बनावट, लम्बाई, ऊँचाई, चौड़ाई इत्यादि नियमों से स्थिर की जाएगी।' पाठकों यही तीन आदमियों के रहने, उठने, बैठने, सोने, खाना बनाने इत्यादि के लिए 12 फुट लंबी 8 फुट चौड़ी उचित निवास-स्थान है। परमात्मा ऐसे अच्छे मकान में किसी को न रखे। जिन तीन आदमियों को यह कोठरी मिलती है उनमें चाहे कोई हिंदू हो या मुसलमान, अथवा चमार-कोली कोई क्यों न हो। यदि कोई ब्राह्मण देवता किसी चमार-कोली इत्यादि के संग आ पड़े तो फिर उनके कष्टों का क्या पूछना है। और प्रायः ऐसा हुआ करता है कि ब्राह्मण लोगों को चमारों के साथ रहना पड़ता है।
पहले छह महीने के कष्ट -पहले छह महीने तक स्टेट से रसद मिलती है और इसके लिए 2 शिलिंग 4 पेंस प्रति सप्ताह के हिसाब से काट लिए जाते हैं। प्रतिदिन 10 छटाँक आटा, 2 छटाँक अरहर की दाल और आधी छटाँक घी के हिसाब से सप्ताह भर की रसद एक दिन मिल जाती है। हम लोगों के वास्ते जो कि भारी-भारी फावड़े ले कर दस घंटे रोज कठिन परिश्रम करते थे, भला ढ़ाई पाव आटा एक दिन के लिए कैसे पर्याप्त हो सकता है। हम लोग 4 दिन में सप्ताह भर की रसद खा कर बाकी दिन एकादशी व्रत रहते थे, अथवा कहीं किसी पुराने भारतवासी से उधार आटा-दाल मिल गया तो उसी से अपना पेट भर लेते थे।
काबुली पठानों पर अत्याचार
एक बार एक आरकाटी ने 60 काबुली पठानों को बहका कर फिजी में भेज दिया। इन लोगों से डिपोवालों ने कहा था कि तुम्हें पलटन में बड़ी-बड़ी नौकरियाँ मिलेंगी। ये लोग खूब मोटे ताजे थे और पलटन में नौकरी पाने की इच्छा से फिजी जाने को राजी हुए थे। परंतु जब वे फिजी पहुँचे तो उन्हें वहाँ कुली का काम करना पड़ा। रसद भी उन्हें उतनी ही दी गयी जितनी औरों को मिलती है, यानी ढाई पाव आटा और आध पाव दाल के हिसाब से सात दिन का सामान एक दिन में दे दिया गया। वे लोग एक सप्ताह की रसद को चार दिन में खा कर बैठ गए। फिर जब उनसे काम करन को बोला गया तो वे बोले "खाना लाओ, तो काम करें।" इस पर पुलिस को खबर दी गयी। फिर क्या था कांस्टेबल और इंस्पेक्टर आ धमके। स्टेट के गोरे ने कहा 'देखिए साहब ये 60 बदमाश कुली हमें मार डालने और लूट लेने की धमकी देते थे। तब काबुलियों ने कहा "हम लोग सिर्फ खाना माँगते हैं, बिना खाए काम न करेंगे, और हमने कुछ नहीं कहा।" पुलिस लौट गयी, काबुली काम पर न गए। फिर उस गोरे कोठीवाले ने काबुलियों से काम पर जाने के लिए कहा। काबुलियों ने फिर भी वही जबाव दिया। गोरा फिर पुलिस को बुला लाया। अबकी बार पुलिस ने उन निहत्थे काबुलियों पर गोली चला कर धमकाया। काबुलियों ने कहा हम तो वैसे ही भूखों मरे जाते हैं, और आप हम पर गोली चलाते हैं। इस पर पुलिस फिर लौट गयी। घायल काबुली अस्पताल भेजे गए।
तदनंतर उन काबुलियों से कहा गया चलो नुकलाओ डिपो में तुम लोगों के रहने खाने-पीने, रहने और नौकरी का ठीक प्रबंध कर दिया जाएगा। इस बात पर वे सहमत हो गए और सब के सब नुकलाओ डिपो में लाए गए। उन्हें खाना बनाने के लिए चावल इत्यादि दे दिए गए और वे अपना भोजन तैयार करने लगे। इधर इमीग्रेशन विभाग के गोरे अफसरों ने 500 फिजी के आदिम निवासी जंगल में छिपा दिए थे। ज्योहीं काबुली लोग मुँह में कौर देना चाहते थे, त्योंही एक सीटी बजायी गयी। देखते-देखते 500 आदिवासी उन निःशस्त्र कबुलियों पर आ टूटे और उन्हें पकड़-पकड़ कर समुद्र के किनारे ले गए। काबुली लोग जबरदस्ती डोंगियों पर बैठा दिए गए और भिन्न-भिन्न कोठियों में विभक्त कर दिए गए।
यह थी इमीग्रेशन विभाग की न्यायप्रियता और बहादुरी। इस पर कितने ही निष्पक्ष समाचार-पत्रों ने खूब खरी-खरी सुनायी थीं; पर कौन ध्यान देता है। कठिन परिश्रम
सब लोग नित्य प्रात:काल उठाये जाते हैं और सबको रोटी तैयार करके पाँच बजे खेत पर पहुँचना होता है। जो स्त्रियाँ बच्चे वाली होती हैं, वे अपने बच्चे को खेत पर ले जाती हैं। लगभग प्रत्येक मनुष्य को 1200 फुट से ले कर 1300 फुट लंबी और 6 फुट चौड़ी गन्ने की लैन कुदाली से दिन-भर को नराने के लिए दी जाती है। इसको Full task पूरा काम कहते हैं। डाक्टर प्रायः लिख दिया करते हैं कि इन लोगों को 'पूरा काम' दिया जाय। जो डाक्टर साहब 30 या 40 जरीब चलने से हाँफ जाते हैं और रुमाल से मुँह पोछने लगते हैं, वे ही बेचारे भूखे लोगों से कठिन परिश्रम करवाते हैं। पर उन लोगों से इतना काम नहीं होता। फिर क्या है, चट ही दूसरे दिन सम्मन आ जाता है और मजिस्ट्रेट के सामने कचहरी में मामला पेश हो जाता है। मजिस्ट्रेट पूछता है 'फलां तारीख को तुमने पूरा काम क्यों नहीं किया? वह कहता है 'काम इतना अधिक था कि नहीं हो सका।" मजिस्ट्रेट यह बात सुन कर कहता है "हमारा सवाल यह नहीं है कि शक्ति से बाहर काम था। हमारा सवाल तो यह है कि फलां तारीख को काम पूरा किया या नहीं।' 'हाँ या नहीं' जो सवाल हम पूछें, उसी का जबाब दो। अधिक मत बको।" बेचारे मजदूर को लाचार हो कर यह कहना पड़ता है "हाँ, सरकार काम पूरा न हो सका।" बस फिर क्या है, दफा कायम हो जाती है। मजिस्ट्रेट 10 शिलिंग से ले कर 1 पौंड तक जुर्माना ठोंक देता है। इस प्रकार बेचारों का 15 या 20 दिन का वेतन जुर्माने में ही चला जाता है। मासिक वेतन एक पौंड दो शिलिंग पूरा काम करने पर मिलता है। लेकिन पूरा काम प्रति सैकड़ा पाँच आदमी से अधिक नहीं कर सकते, और ये आदमी भी पाँच या छह महीने से अधिक लगातार पूरा नहीं कर सकते। मेरे 21 वर्ष के अनुभव में 40000 भारतवासियों में मुझे एक भी ऐसा नहीं मिला जिसने लगातार पाँच वर्ष तक पूरा काम किया हो। साधारण मनुष्य 10 शिलिंग यानि साढ़े सात रुपये मासिक से अधिक नहीं कमा सकते। इस पर भी फिजी में खाद्य-पदार्थ भारतवर्ष से दूने तेज हैं और क्या कहें, सैकड़ों भूखों मरते हैं। कितने ही लोगों को इतना कठिन परिश्रम करने पर भी आधे पेट ही रहना पड़ता है।
ओवरसियरों के अत्याचार
ओवरसियर हम लोगों पर मनमाने अत्याचार करते हैं। कितने ही हमारे भाई वहाँ पर कठिन परिश्रम के डर से और ओवरसियरों की मार और जेलखाने के भय से फाँसी लगा कर मर गए हैं। बहुत दिन नहीं हुए जबकि जबकि कई मद्रासी नबुआ की कोठी में इसी कारण फाँसी लगा कर मर गए थे। इन लोगों की मृत्यु का कारण वहाँ की मृत्यु- विवरणी से ज्ञात हो सकता है। प्रत्येक जिले में हम लोगों के दुःख-सुख की जाँच करने के लिए यद्यपि इमीग्रेशन-विभाग की ओर से कुली-इंस्पेक्टर नियत हैं, पर ये गोरे इंस्पेक्टर लोग हमारी वास्तविक स्थिति को कभी प्रकट नहीं करते। कोठीवालों के यहाँ ब्रांडी उड़ानेवाले ये महाशय हम दीन-हीन भारतवासियों के दुःख निवारणार्थ कब प्रयत्न कर सकते हैं?
जब ओवरसियर लोग किसी से नाराज होते हैं, तो उस पर दलेल बोल देते हैं। दलेलवाले को सब आदमियों से अलग बहुत कड़ा काम करना पड़ता है। वहाँ अकेले में जाकर ये ओवरसियर लोग उसे खूब पीटते हैं। पहले तो बेचारे नालिश ही नहीं करते, क्योंकि उन्हें डर लगा रहता है कि इन्हीं साहब के आधिपत्य में हमें पाँच वर्ष तक काम करना पड़ेगा और यदि कोई करता भी है, तो गवाह न मिलने के कारण मुकदमा ख़ारिज हो जाता है। ऐसे कितने ही दृष्टांत हमारे देखने में आये हैं जिनमें ओवरसियरों के डर के मरे भाई इत्यादि निकट संबंधी भी गवाही नहीं दे सके हैं। इसी दलेल के बहाने ओवरसियर लोग हमारी कितनी ही देश-बहनों पर अत्याचार करते हैं। उदाहरणार्थ, कुंती नामक चमारिन का वृतांत यहाँ लिखना अनुचित न होगा।
कुंती पर अत्याचार
आरकटियों ने कुंती और उसके पति को लखुआपुर जिला गोरखपुर से बहका कर फिजी को भेज दिया था। इन लोगों को वहाँ बड़े-बड़े कष्ट सहने पड़े। इस समय कुंती की अवस्था 20 वर्ष की थी। बड़ी कठिनाईयों से कुंती 4 वर्ष तक अपने सतीत्व की रक्षा कर सकी। तदनंतर सरदार और ओवरसियर उसके सतीत्व को नष्ट करने के लिए सिरतोड़ कोशिश करने लगे। 10 अप्रैल, 1912 को ओवरसियर ने कुंती को साबू केरे नामक केले के खेत मे सब सब स्त्रियों और पुरुषों से पृथक घास काटने का काम दिया, जहाँ कोई गवाह न मिल सके और चिल्लाने पर भी कोई न सुन सके। वहाँ उसके साथ पाशविक अत्याचार करने के लिए सरदार और ओवरसियर पहुँचे। सरदार ने ओवरसियर के धमकाने पर कुंती का हाथ पकड़ना चाहा। कुंती हाथ छुड़ा कर भागी और पास की नदी में कूद पड़ी लेकिन दैव-संयोग से जयदेव नामक एक लड़के की डोंगी पास में ही थी। कुंती डूबते-डूबते बची। जयदेव ने उसे डोंगी पर चढ़ाकर पार किया। जब कुंती ने यह बात अपने कोठीवाले गोरे स्वामी से कही तो उसने जबाब दिया "चलो जाओ खेत का बात हम सुनना नहीं माँगता।" तत्पश्चात 13 अप्रैल तक कुंती काम पर न गयी। 14 अप्रैल को 20 जरीब घास उसे खोदने को दी गयी और उसके पति को एक मील की दूरी पर काम दिया गया, कुंती का पति भी इतना पीटा गया की वह भी अधमरा हो गया! कुंती ने यह समाचार किसी से लिखवा कर 'भारत मित्र' में छपवा दिया, भारत सरकार की उस पर दृष्टि पड़ी और कुंती के मामले की जाँच फिजी में करायी गयी। इमिग्रेशन अफसर वहाँ पहुँचा और कुंती को बहुत धमकाया। पर कुंती ने यही कहा कि जो कुछ मैंने 'भारत मित्र' में छपवाया था, बिलकुल ठीक था। यहाँ पर कुंती के धैर्य और साहस की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। नदी में कूद कर उसने अपने सतीत्व की रक्षा की और पराधीन होने पर भी उसने इमिग्रेशन अफसर को फटकार बताई।
क्या कुंती के इस दृष्टांत को सुन कर भी हमारे भाई इस कुली-प्रथा को रोकने का प्रयत्न नही करेंगे?
नारायणी
इस नाम की एक स्त्री नादी जिला की नावो नामक कोठी में काम करती थी। इसके एक बच्चा पैदा हुआ जो कि मर गया। बच्चा पैदा होने के दो-तीन दिन बाद ही ओवरसियर ने चाहा की वह काम पर चले, यद्यपि सरकारी नियम के अनुसार बच्चा पैदा होने पर तीन महीने तक कोई स्त्री काम पर नहीं जा सकती। पर गोरा ओवरसियर भला ऐसे नियमों को क्यों मानने लगा! नारायणी ने कहा "मेरा बच्चा मर गया है, मैं काम पर न जाऊँगी। इस पर उस ओवरसियर ने इतना पीटा कि वह एकदम बेहोश हो कर गिर पड़ी। पुलिस के गोरे सब-इंस्पेक्टर ने आ कर जाँच की और उस स्त्री को अस्पताल पहुँचाया। ओवरसियर गिरफ़्तार किया गया। सुवा नगर की बड़ी अदालत Supreme Court तक यह अभियोग पहुँचा। जब सुवा में यह स्त्री उतारी गयी तो उसमे इतनी भी शक्ति नहीं थी कि एक फर्लांग भी पैदल चल सके। इसीलिए कचहरी तक खाट पर रख कर लायी गयी थी। अभियोग के अंत में वह गोरा ओवरसियर निरपराध (not guilty) हो कर छूट गया। उस बेचारी पर इतनी मार पड़ी थी कि उसका मस्तिष्क खराब गया था, वह अभी तक पागल सी रहती है। न्याय का यह ज्वलंत दृष्टांत है! श्वेत रंग की महिमा अपार है! इस प्रकार के कितने भी अत्याचार वहाँ नित्य-प्रति हुआ करते हैं। ये ओवरसियर लोग जूतों की ठोकरों से भारतवासियों को पीटना खूब जानते हैं और घूसों की मार से जड़ से दाँत तोड़ना भी खूब जानते हैं। ये लोग कपड़े जला देते हैं, लात मार कर खाना फ़ेंक देते हैं, और हम लोगों को मनमाने कष्ट देते हैं। ये सब भीतरी दुःख हैं। बिना गवाह के कचहरी में जाना वृथा हो जाता है। 1912 ई० में मैं जिला नदी की कचहरी में बैठा था, वहाँ पर मैंने एक मामला मजिस्ट्रेट के इजलास पर होते देखा। एक मद्रासी ने नवकाई के कंपनी अस्पताल के श्वेतांग डाक्टर (सुप्रिटेंडेंट) पर नालिस की थी। उसका बयान इस तरह हुआ- "मैं हाथ के दर्द से व्याकुल हो कर कोठी में काम न कर सकने पर अस्पताल में भर्ती हो गया। दिन-रात हाथ के दर्द से व्याकुल रहता हूँ। अस्पताल के सरदार ने मुझ को दो डोल दे कर कुँए से टंकी में पानी भरने को कहा। मैंने जबाब दिया "मैं हाथों के दर्द से लाचार हूँ, पानी नहीं भर सकता। अगर काम करने लायक होता तो काठी में ही रहता। अस्पताल में क्यों आता? यह सुन कर सरदार ने मुझे निर्दयता से पीटा, मैं चिल्लाया, पीछे मेरे डाक्टर साहब ने आ कर पूछा क्या बात हैं? सरकार ने कहा "यह आदमी हुक्म नहीं सुनता, पानी नहीं भरता।" डाक्टर से मैंने कहा मेरा हाथ दुखता है इस बात को आप जानते हैं। हाथ के दर्द से मैं खाली डोल नहीं उठा सकता, पानी से भरा किस तरह उठेगा? उस नर पिशाच डाक्टर ने भी मुझे ठो कर और घूंसों से मारा। घूंसे की चोट से मेरे दांत जख्मी हो गए, नाक से लहू बह कर मेरी कमीज तर हो गयी। मैं बेहोश हो कर गिर पड़ा। बेहोशी की दशा में उठा कर मुझे टट्टी की कोठरी में बंद करके बाहर से ताला लगा दिया गया। यह घटना शाम चार बजे की है, जब मुझे होश आया तब मैंने अपने आपको टट्टी की कोठरी में बंद पाया। मैंने जहाँ पर मैले का बर्तन रहता है उस द्वार से एक लकड़ी का तख्ता उखाड़ा। उसी रास्ते से कोठरी से निकल भागा। भाग कर हुजूर के पास आया। हुजूर ने जिला डाक्टर के पास भेजा। वहाँ से यहाँ बुलाया गया हूँ। मेरी इस घटना के समय बहुत आदमी देखते थे। डाक्टर के डर से मेरी गवाही कोई न देगा। मेरे गवाह जो यहाँ आये हैं उनको भी डाक्टर ने धमका दिया है।"
मजिस्ट्रेट ने बयान सुन कर गवाह बुलाये। पर वे मद्रासी के पक्ष से विरुद्ध निकले। डाक्टर साहब के वकील ने बहुत बहस की। लाचार पक्ष पुष्ट न होने से मद्रासी की हार हुई। डाक्टर साहब जीत गए। फैसले में डाक्टर निर्दोष ठहरे। डाक्टर साहब ने मजिस्ट्रेट साहब से अपने खर्चे की प्रार्थना की। दयालु मजिस्ट्रेट बोले कि जब यह आदमी मेरे पास आया था तो चोट से इसका मुँह फुटबाल के समान फूल गया था। तिस पर आप खर्च लौटाना चाहते हैं। खर्च नहीं मिलेगा। बस डाक्टर चले गए।
मद्रासी को उसका मालिक ओवरसियर पकड़ कर काम पर ले गया। उस मद्रासी का नाम रामदास था।
काले रंग से घृणा
स्टीमरों पर काले रंग के कारण हम लोगों को अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं। प्रथम तो यह कि बैठने के लिए हम लोगों को बहुत ही बुरा स्थान मिलता है। यूरोपियन लोगों की कोठरी की ओर तो जाने के लिए भी आज्ञा नहीं है। चाहे हम पूरा किराया देने के लिए उद्यत हो पर हमें तो भी अच्छी जगह बैठने के लिए भी नहीं मिलती। एक बार मैं एण्डी केपा नामक स्टीमर पर चढ़ कर सुवा से लतौका को गया। मुझे वहाँ बिठाया गया जहाँ की सूअर इत्यादि जानवर भी बिठाये जाते हैं। कई कारणों से मुझे ज्वर आ गया था। रात्रि को पानी बरसने लगा और मेरे पास केवल एक ही कम्बल था। मेरे कपड़े सब भीग गए थे और जाड़े के मारे मैं थरथरा रहा था। मैंने बहुत प्रार्थना की कि मुझे एक अच्छी कोठरी मिल जाय, मैं पूरा-पूरा भाड़ा उसका दे दूँगा, पर कुछ सुनवायी न हुई। लाचार हो मुझे वहीं पड़ा रहना और भीगना पड़ा। यह बर्ताव मेरे जैसे अशिक्षित व अल्प-शिक्षित भारतवासियों के साथ ही नहीं किया जाता, बल्कि बड़े-बड़े सुशिक्षित भारतवासियों के साथ भी किया जाता है। कितने ही बंदरगाहों पर तीसरे दर्जे तक के गोरे योंही निकाल दिए जाते हैं और दूसरे दर्जेवाले भारतवासियों के मोज़े, पाजामे इत्यादि सब कपड़े उतारे जाते हैं और निःसंक्रमक (disinfect) किए जाते हैं।
फिजी में सी० एस० आर० नामक एक बड़ी कंपनी है जो खाँड का व्यापार करती है। वह हम लोगों के गन्ने मोल लेती है। जिस मनुष्य का गन्ना वहाँ जाता है उसे एक रसीद दी जाती है। सप्ताह में एक दिन इस रसीद से गन्नेवालों को रुपया मिलता है। कंपनी के गोरे अफसर हम लोगों के हाथों से जब रसीद लेते हैं तो पहले दूर से ही उसे लोहे के चिमटे से पकड़ते हैं और फिर उसे जलती हुई गंधक का धुआँ देते हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि ऐसा क्यों करते हो, तो यही कहते हैं कि तुम लोग काला आदमी है। तुम्हारे हाथ की छुई हुई रसीदों से हमको बीमारी हो जाने का डर है, इसलिए हम इन रसीदों का रोग दूर करते हैं।
एक बार मैं अपने एक मित्र के साथ एक अंग्रेज बैरिस्टर के कार्यालय में गया। वहाँ पर एक भारतवासी अपने इजहार लिखा रहा था। बैरिस्टर साहब ने अपनी मेम साहब से कहा कि रुमाल से अपने मुँह और नाक बंद कर लो, नहीं तो इस काले आदमी के मुँह से निकलने वाली हवा से तुमको रोग हो जायगा। यद्यपि यह आदमी मेम साहब से बहुत दूर पर खड़ा हुआ था, पर तब भी श्वेतांग बैरिस्टर साहब ने ऐसा कह ही दिया! पाठक! ये वे ही बैरिस्टर साहब हैं जो कि हमारे भाइयों की बदौलत ही हजारों पौंड प्रतिवर्ष कमाते हैं।
कंपनियों के कार्यालय के बरामदों तक हम लोग नहीं जाने पाते। यदि भूल से चले भी गए तो धक्का मार कर धकेल दिए जाते हैं।
उपर्युक्त प्रकार के कितने ही दुख हमें काले रंग के कारण हर रोज सहने पड़ते हैं। हम लोग, जो अपने को ब्रिटिश राज्य की प्रजा समझते हैं, जब अपने घर भारतवर्ष से बाहर निकलते हैं, तो यह बर्ताव हमारे साथ किया जाता है तब हमारी आँखे खुल जाती हैं।
सौदागरों के अत्यचार
फिजी के अंग्रेज सौदागर हम भारतवासियों की भलायी कभी नहीं चाहते। पहले तो कितने ही हमारे भाई पाँच वर्ष तक कठिन परिश्रम करते-करते ही यमलोक को चले जाते हैं। यदि कोई परमेश्वर की कृपा से पाँच वर्ष तक काम करके स्वतंत्र (Free) हो जाते हैं और खेती काम करना चाहते हैं तो यूरोपियन सौदागर उनके काम में अनेक बाधाएँ डाल देते हैं! गन्ने की खेती में गोरों का माल 14 शिलिंग प्रति टन के हिसाब से लिया जाता है, पर हम लोगों का माल चाहे वह गोरों के माल से अच्छा ही हो, 9 शिलिंग फी टन से अधिक पर नहीं बिकता! कितने ही भारतवासी फिजी में केले का व्यापार करते हैं। बहुत-सा केला वहाँ से आस्ट्रेलिया भेजा जाता है। आस्ट्रेलिया में जा कर तो हम लोग व्यापार कर ही नहीं सकते। ये यूरोपियन सौदागर इस लिए केले के जिस संदूकक का दाम आस्ट्रेलिया में 14 शिलिंग लेते हैं उसी को हम लोगों से दो या तीन शिलिंग में खरीद लेते हैं। मक्का के जिस बोरे के लिए वे हमें दस शिलिंग से अधिक नहीं देते उसे स्वंय 18 शिलिंग में बेचते हैं। हम लोगों को हार कर उन्हें माल बेचना पड़ता है, न बेचें तो क्या करें?
200 भारतवासियों को धोखा दिया गया!
फिजी में बाईनर साहब एक पुराना प्लैंटर हैं। उसने 800 एकड़ भूमि पट्टे पर ले ली। उस भूमि में बहुत-सा जंगल था, साहब ने सोचा की इस जंगल को यदि अपने व्यय से कटवाएँगे तो 1000 हजार से कम खर्च नहीं पड़ेगा, इसलिए यदि किसी तरह भोले-भाले भारतवासियों को धोखा देने से काम चल जाय तो ठीक है। यही विचार कर उसने कोई 200 भारतवासियों को बुलाया और कहा, हमारे पास 800 एकड़ भूमि है, जिसको जितनी भूमि की आवश्यकता हो, हम से ले सकता है। इस जमीन को साफ कर लो और इसे जोतो या बोया करो। इस प्रकार चिकनी-चुपड़ी बातें कह कर उसने कुल भूमि उन भारतवसियों में बाँट दी और उनको एक-एक कागज पर लिख दिया कि इस भूमि को तुम 5 या 10 वर्ष तक काम में लाना और एक पौंड प्रति एकड़ के हिसाब से दाम देना। उन विचारों ने बड़े परिश्रम से और अपने पास के पौंड खर्च करके उस जंगल को काटकर ठीक किया और उसमे एक वर्ष खेती की। दूसरी वर्ष के प्रारंभ होते ही बाईनर साहब ने उन सब भारतवासियों को वहाँ से निकाल दिया और जमीन छीन ली। उन बेचारों बहुत कहा-सुनी की पर सब व्यर्थ!
इस प्रकार के कितने ही दृष्टांत दिए जा सकते हैं, पर स्थानाभाव के कारण नहीं लिखे गए। पाठक स्थाली-पुलाक-न्याय (डेगची के चावल) से उनका भी अनुमान कर लें।
फिजी के कानून से विवाह
फिजी में जो आदमी अपनी स्त्री की मेरिजकोर्ट (marriage court) में रजिस्ट्री करा लेता है, वही उसका हकदार होता हैं। विवाह हो जाने पर मजिस्ट्रेट के सामने स्त्री-पुरुष दोनों को जाना पड़ता है, वहाँ पर मजिस्ट्रेट दोनों की राजी पूछ कर उन्हें एक-एक सर्टिफिकेट दे देता है। जो कि विवाह का सर्टिफिकेट कहलाता है। रजिस्ट्री करायी 5 शिलिंग देना पड़ता है। हमारी धार्मिक रीति से जो विवाह किए जाते हैं, बिना रजिस्ट्री कराए फिजी के शासन-नियमों के अनुसार वे ठीक नहीं समझे जाते हैं। यदि कोई भारतवासी फिजी में अपनी विवाहिता स्त्री के साथ जाए और वहाँ जा कर विवाह की रजिस्ट्री न कराए तो उस पुरुष का धन मृत्यु के पश्चात उसकी स्त्री को नहीं मिल सकता। वह धन इमीग्रेशन दफ्तर को भेजा जाता है। जिन आदमियों का कोई उतराधिकारी नहीं होता उनका धन भी इमीग्रेशन कार्यालय को भेजा जाता है। इमीग्रेशन विभागवाले उस धन को भारतवर्ष में भेजते हैं। परंतु आरकाटी जिन लोगों को बहका कर ले जाते हैं प्रायः उनका नाम, जाति और पता बिलकुल झूठा लिखवा देते हैं। इमीग्रेशन आफिस से वह धन उसी पते पर भेजा जाता है। जब कुछ पता नहीं चलता तो वह धन लौट कर फिजी में वहीं पहुँच जाता है। इस प्रकार आरकाटियों की बदमाशी से मृत आदमी का धन उसके माता, पिता, भाई इत्यादि संबंधियों को भी नहीं मिलता।
क्या हम आशा कर सकते हैं कि भारत सरकार इस प्रकार के अन्याय को रोकने का प्रयत्न करेगी? फिजी संबंधी कानून के विषय में भी फिजी-प्रवासी लिखा-पढ़ी कर रहे हैं, परंतु अभी तक कोई फल नहीं निकला।
गोरे बैरिस्टर और वकील
यदि कोई भारतवासी गोरे बैरिस्टरों और वकीलों के पास जाता है तो वे एक गिन्नी के काम के लिए दस-दस गिन्नी ले लेते हैं। कितने ही बैरिस्टर तो यहाँ तक धूर्तता करते हैं कि पहले मनमाना मेहनताना ले लेते हैं और फिर कोर्ट में जाते भी नहीं! कुछ गोरे बैरिस्टर यह करते हैं कि पहले कुछ पौंड ले लेते हैं और अभियोग की पेशी के एक दिन पहले रात को कहला भेजते हैं कि अगर हमको पाँच गिन्नी और लाओ तो हम तुम्हारी पैरवी करेंगे, अन्यथा नहीं। बेचारे रात को दूसरा बैरिस्टर भी नहीं कर सकते, अतएव लाचार हो कर पाँच गिन्नी देनी पड़ती है। यदि उनसे कहा जाए कि हमारे दाम वापस दे दो तो वे यही कहते हैं, "हम लोग वापस नहीं दे सकते।" भारतवासियों के कितने ही मुकदमे यों ही ख़ारिज हो गए हैं क्योंकि गोरे बैरिस्टर ठीक समय पर नहीं पहुँचते। यदि कोई झगड़ा किसी भारतवासी और गोरे में वहाँ हो जाए, तो प्राय: गोरे बैरिस्टर यह किया करते हैं कि रुपये तो भारतवासी से पैरवी करने के लिए लेते रहते हैं और फिर अभियोग में गोरे का पक्ष ले कर गोरे को ही जिता देते हैं! हमारे जो भाई दस-दस घंटे काम करके कठिन परिश्रम से थोड़ा-बहुत कमाते हैं उसे ये गोरे बैरिस्टर छल-कपट से ठग लेते हैं, बेचारे भारतवासी उन पर रुपयों के लिए नालिश भी नहीं कर सकते, क्योंकि गोरे बैरिस्टर अपने श्वेतांग भाई के विरुद्ध अभियोग में काम करना स्वीकार ही नहीं करते।
गोरा बैरिस्टर 1925 पौंड हजम कर गया
फिजी की राजधानी सुवा में बर्कले नाम के एक बैरिस्टर हैं। एक बार 45 पंजाबी सिक्ख उनके निकट गए और प्रार्थना की "हम दक्षिण अमरीका में अर्जेंटाइन प्रजातंत्र (Argentina republic) राज्य को जाना चाहते हैं। हमने सुना है कि वहाँ पर हमको बहुत मजदूरी मिलेगी। परंतु फिजी से कोई स्टीमर दक्षिण अमरीका को नहीं जाता, क्या करें, कैसे जाएँ? गोरे बैरिस्टर ने मन में सोचा चलो ये लोग अच्छे चंगुल में आ फँसे। फिर उन सिक्खों से बातें बना कर कहा "यदि तुम में से प्रत्येक 4 पौंड जमानत के दे, 5 पौंड मेरे मेहनताने के दे और 16 पौंड किराये के दे तो मैं स्टीमर तैयार कराके तुम को सीधा अर्जेंटाइना भेज सकता हूँ।" सिक्ख लोग बातों में आ गए और बैरिस्टर की आज्ञानुसार पच्चीस-पच्चीस पौंड दे दिए। इनमें केवल 16 पौंड की उसने रसीद दी इस प्रकार उस बैरिस्टर ने 1925 पौंड इन लोगों के ले लिए और अपनी सब धन संपत्ति अपने पुत्र के नाम कर दी।
पंजाबियों ने सुप्रीम कोर्ट में नालिश की। बीसियों पौंड उनके और व्यय हुए, तब जा कर कहीं डिग्री मिली, पर अब उस बैरिस्टर के पास क्या था। एक कौड़ी भी वसूल न हुई। बेचारे रो-पीट कर रह गए। कितने ही दीन-हीन हो गए और एक सिक्ख तो इसी के दुख में मर गया!
भारतवासी बैरिस्टर का बुलाया जाना
जब हमको इतने कष्ट सहने पड़े, तो हम लोगों ने सोचा कि यदि कोई भारतवासी बैरिस्टर फिजी में आ जाए तो ठीक हो। गोरे बैरिस्टर लिखते कुछ हैं और हम लोगों को सुनाते कुछ और ही हैं। हमारे साथ सहानुभूति रखना तो दूर रहा, हमें घृणा की दृष्टि से देखते हैं, इसलिए ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि कोई हिंदुस्तानी बैरिस्टर यहाँ आ कर रहे। हम लोग श्रीमान प्रात:स्मरणीय गांधीजी का नाम बहुत दिनों से समाचार पत्रों में पढ़ा करते थे और उनके परोपकारी कार्यों के विषय में भी थोड़ा बहुत जानते थे। अतएव हम लोगों ने एक सभा की। इस सभा के सभापति श्रीयुत रूपराम जी थे। सर्वसम्मति से निश्चय किया गया कि एक पत्र श्रीमान गांधीजी के पास भेजना चाहिए जिसमें हमारे कष्टों का संक्षिप्त विवरण हो और गांधीजी से प्रार्थना की जाय कि वे किसी बैरिस्टर को फिजी भेजने का प्रबंध करें। पत्र लिखने का कार्य मुझे सौंपा गया और मैंने अपनी तुच्छातितुच्छबुद्धि-अनुसार एक पत्र लिखा। पत्र का सारांश यह था "हम लोग फिजी में गोरे बैरिस्टरों से अनेक कष्ट पा रहे हैं। ये गोरे लोग हम पर नाना प्रकार के अत्याचार करते हैं और हमारे सैकड़ों पौंड खा जाते हैं। यहाँ पर एक भारतवासी बैरिस्टर की बड़ी आवश्यकता है। श्रीमान एक प्रसिद्ध देशभक्त हैं, अतएव हमें आशा है कि आप हमारे ऊपर कृपा करके किसी भारतवासी बैरिस्टर को यहाँ भेजने का प्रबंध करेंगे। इस विदेश में आपके अतिरिक्त कोई सहारा नहीं है।" श्रीमान गांधीजी ने कृपा करके पत्रों के कुछ उद्धृत अंशों का अनुवाद कई समाचार-पत्रों में छपवा दिया और मेरे पास एक पत्र भेजा। पत्र की प्रतिलिपि निम्नलिखित है:
श्रावण वदी 8, सं० 1967
"आपका खत मिला है। वहाँ के हिंदी भाइयों का दुख की कथा सुनके मैं दुखी होता हूँ। यहाँ से कोई बैरिस्टर को भेजने का मौका नहीं है। भेजने जैसा कोई देखने में भी नहीं आता है। जो इजा परे उसका बयान मुझे भेजते रहना। मैं यह बात विलायत तक पहुँचा दूँगा।
स्टीमर की तकलीफ का ख्याल मुझे बराबर यहाँ पाता है। यह सब बातों के लिए वहाँ कोई इंगरेजी पढ़ा हुआ स्वदेशाभिमानी आदमी होना चाहिए। मेरे ख्याल से आवेगा तो मैं भेजूँगा।
आपके दूसरे खत की राह देखूँगा।
मोहनदास करमचंद गांधी का यथायोग्य पहुँचे।।"
जिन गांधीजी ने अपने भाइयों के लिए सारा जीवन व्यतीत किया है, जिन्होंने 4000 पौंड की वार्षिक आय छोड़कर भारतवासियों के दुख मोच-नार्थ कुली तक का काम किया है, जो कि अपने देशबंधुओं के लिए कई बार जेल भी गए हैं, उन्हीं श्रीमान गांधीजी का उपर्युक्त पत्र है। इस पत्र में भी गांधीजी की महान आत्मा और पूर्ण देशभक्ति की झलक दीख पडती है। गांधीजी से महापुरुष ने यह पत्र हिंदी में लिखा है यह बात हिंदी के लिए कितने गौरव की बात है! इस पत्र से हिंदी की राष्ट्रीयता भी प्रकट होती है।
गांधीजी के छपाए हुए लेख को "इंडियन ओपिनियन" में श्रीमणिलालजी, एम० ए०, एल-एल० बी०, बैरिस्टर-एट-ला ने पढ़ा। उन दिनों वे मौरीशस में काम कर रहे थे। श्रीमणिलालजी भारतवर्ष के एक प्रसिद्ध देशभक्त हैं। कांग्रेस में आप बहुत दिनों से भाग ले रहे हैं। अपने देश के शिक्षित भाइयों के सामने मणिलालजी का परिचय इस क्षुद्र पुस्तक में देना वृथा है। आपने मौरीशस में बहुत कुछ कार्य किया था। आपने वहाँ कुली जाना बंद करा दिया, जो भारतवासी वहाँ पर थे उनकी बहुत कुछ सहायता की, वहाँ कानून में हेर-फेर कराया और कष्टदायक फ्रेंच नियमों से हिंदू-मुसलमानों को मुक्त करा दिया। पहले मौरीशस में जेलखानों में हमारे भाइयों की चोटी और दाढ़ी काटी जाती थी और खाने-पीने में भी बहुत गड़बड़ होती थी। यह श्रीमान मणिलाल जी का ही काम था कि उन्होंने इन बातों को बिलकुल बंद करा दिया।
श्रीमान मणिलाल जी ने गांधीजी के उक्त लेख को पढ़ कर हम लोगों से पत्र-व्यवहार किया। फिजी में हम लोगों ने मणिलाल जी के लिए 172 पौंड चंदा किया। इसमें से 45 पौंड उन्हें स्टीमर के भाड़े को भेज दिए और शेष से उनके लिए कानून की किताबें खरीदीं और उनके लिए घर इत्यादि का प्रबंध किया। परंतु कुछ दिनों बाद मणिलाल जी का हिंदी में पत्र आया, जिसमें उन्होंने लिखा था "हमारे संबंधी हमें इस बात की सम्मति नहीं देते कि हम फिजी जायँ। हम नैटाल जा रहे हैं, वहाँ श्रीमान गांधीजी से राय ले कर जैसा कुछ होगा लिखेंगे। यदि न आ सके तो हम आप के दाम वापस कर देंगे।" जब श्री मणिलाल जी का यह पत्र मिला तो हमारी आशा-लता मुरझाने लगी। फिर एक सभा की गयी। सर्व-साधारण की आज्ञानुसार मैंने पुनः एक पत्र गांधीजी के पास भेजा। इतने में श्री मणिलाल जी नैटाल पहुँचे। गांधीजी ने मणिलाल जी से यही कहा कि आपने जो वचन दिया है उसका पालन करना उचित है। मणिलाल जी फिजी आने को राजी हुए। स्वनामधन्य गांधीजी ने कृपाकर एक पत्र हम लोगों को फिर भेजा, पत्र की लिपि निम्नलिखित है-
"आपका पत्र मिला है। मी० मणिलाल डाक्टर के लिए मैंने तार भेजा था। उसका जबाव आपने न भेजा। इस पर से मैं समझा कि आप लोग उसको मुक्त करने में राजी न थे, दूसरे सबबों के लिए भी मणिलाल जी फिजी ही जाने का निश्चय किया। गत शुक्रवार के रोज ये भाई केप से निकल चुके हैं, आप को तार भी दिया हूँ। आस्ट्रेलिया हो कर वहाँ पहुँचेंगे।
मेरी उमीद है आपके सब अब राजी होवेंगे और मी॰ मणिलाल जी की अच्छी तरह बरदास करोगे। उनका रहना खाने का बंदोबस्त वहाँ के लोगों ने हाल तुरत में करना चाहिए! सब भाइयों का उत्तेजन मिलेगा तो अवश्य मी० मणिलालजी वहाँ स्थायी बनेगें।
फेर कुछ लिखना होगा तो लिखना
मोहनदास गांधी के यथायोग्य।"
27 अगस्त, 1912 को मणिलालजी फिजी की राजधानी सुवा पहुँचे। हम लोगों ने उनके स्वागत का यथाशक्ति प्रबंध किया था। जिस दिन उनका स्वागत किया गया था, उस दिन हम फिजी प्रवासी भारतवासियों को जो प्रसन्नता हुए थी वह अकथनीय है। सैकड़ों भारतवासी वहाँ एकत्रित हुए थे। उस दिन स्टीमर से सैकड़ों ही हमारे भाई दूसरी जगहों से आये हुए थे। फिजी के आदिम निवासी लोगों को भी उस दिन बड़ी खुशी हुई। कठिन परिश्रम और दौड़-धूप के कारण बहुत-से भारतवासियों के मुख पर स्वेदबिंदु झलक रहे थे। अहा! वह दृश्य कैसा रमणीय था! सड़कों पर तिल-भर भी जगह नहीं थी, खचाखच आदमी भरे हुए थे। फिजी के दो एक अंग्रेजी पत्रों के संवाददाता घबड़ाव हुए इधर से उधर घूम रहे थे। उन्हें इस बात का पता नहीं था कि यह हो क्या रहा है? मणिलाल जी उतारे गए और बंगले में ठहराए गए। तदनंतर संध्या के समय फिजी-निवासी भारतवासियों की ओर से उन्हें स्वागत का अभिनंदन-पत्र दिया गया। अभिनंदन-पत्र में उनसे यही प्रार्थना की गयी थी कि आप हमारे भाइयों की गिरी हुई दशा को सुधारें और कृपाकर हम लोगों की सहायता करें। मणिलाल जी ने एक छोटा सा व्याख्यान दिया और उसमे उन्होंने कहा "मैं यथाशक्ति आप की सेवा करने का प्रयत्न अवश्य करूँगा।" अत्यंत हर्ष की बात है कि मणिलाल जी अपनी प्रतिज्ञा को पूर्णतया पालन करने में तत्पर हैं।
इसके तीन दिन बाद फिजियन लोगों ने भी मणिलालजी का स्वागत बड़ी धूमधाम से किया। कोई छह या सात सौ फिजियन इकट्ठे हुए। उन्होंने मणिलालजी को निमंत्रित किया और उनके स्वागत के उपलक्ष में फिजियन पुरुष व स्त्रियों ने खूब नृत्य और गान किया। फिजियन लोगों में यह रीति है कि जिस मनुष्य को प्यारा समझते हैं और जिसका कि बहुत कुछ आदर-सत्कार करना उन्हें अभीष्ट होता है, उसके गले में वे अपने यहाँ के बड़े सरदार की लड़की के हाथ से माला पहनवाते हैं। यहाँ यह कहना बाहुल्य-मात्र है कि मणिलाल जी को भी यह माला पहनाई गयी थी। हम लोगों को फिजियन लोगों के इस उत्साह को देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ। कितने ही फिजियन अपनी भाषा में कह रहे थे "आज हमारे लिए बड़े हर्ष की बात है कि हमें एक ऐसे पढ़े-लिखे भारतवासी के स्वागत करने का सौभाग्य हमारे मित्र पंडित तोताराम के द्वारा प्राप्त हुआ। जब से फिजी देश बसा है तब से आज तक कोई इतना सुशिक्षित भारतवासी यहाँ नहीं आया। आप जैसे सुशिक्षितों की यहाँ अत्यंत आवश्यकता है, इस देश में आपको और आपके भाइयों को ईश्वर चिरायु करे। आप हम लोगों को भी अपने भाइयों की तरह समझना।" तत्पश्चात मि० मणिलाल जी ने भी एक मनोहर वक्तृता दी। मि० साम मुस्तफा ने फिजियन्स की भाषा का तजुर्मा अंग्रेजी में मि० मणिलालजी को समझाया, फिर संध्या को विदा हो कर मेरे यहाँ भोजन हुआ। प्रात: होते ही वे दुरुलुलु थाने के पास महाजन अलगू से मिलने को गए। वहाँ पहुँचते ही उन्होंने मारे खुशी के धूर-गोलों में आग लगा दी। आवाज होते ही मजिस्ट्रेट ने हुक्म दिया कि बंद करो, नहीं तो सम्मन मिलेगा। संध्या के तीन बजे मणिलालजी श्रीमान बाबू रामसिंह की लंच पर सवार हो कर सुवा को चले गए।
फिजीद्वीप के बारे में
फिजी का इतिहास- फिजी के प्रचीन इतिहास के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। बहुत कुछ अनुसंधान करने पर भी इस विषय में कोई निश्चित बात ज्ञात नहीं हुई। इसका कारण यही है कि मिशनरियों के जाने से पहले फिजीवाले लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे। इतिहास के अन्वेषकों का मत है कि ये लोग न्यू गायना से यहाँ पर बसे; पर यह बात निराधार-सी है। इस विषय में अद्यपर्यंत कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं मिला। हाँ पोलिनिशियन लोगों की भाषा में और इनकी भाषा में थोड़ी-सी समानता पायी जाती है। पर इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिला कि पोलिनिशियन लोग कब और कैसे फिजी में आये। सन 1643 ई० में Tasman नाम का एक डच ने इसे आविष्कृत किया था। जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं, यह द्वीप 1876 ई० में ब्रिटिश सरकार के हाथ में आया। रतूमा नामक द्वीप इसमें सन 1879 में मिला दिया गया।
जनसंख्या:
सन 1911 ई० की अप्रैल को जो मर्दुमशुमारी हुई थी, उससे ज्ञात हुआ कि फिजी की जनसंख्या 1,39,541 है।
नाम जाति |
पुरुष |
स्त्री |
योग |
यूरोपियन और दूसरे गोरे |
2403 |
1304 |
3707 |
वर्णसंकर अर्ध गोरे (Half-caste) |
1217 |
1841 |
2401 |
भारतवासी |
26073 |
14213 |
40286 |
पोलिनिशियन |
2429 |
329 |
2758 |
फिजी के आदिम निवासी |
46110 |
40986 |
87096 |
चीनी निवासी |
276 |
29 |
305 |
रोतुमन |
1043 |
1133 |
2176 |
मिश्रित |
457 |
355 |
812 |
80008 |
59533 |
139541 |
जलवायु
फिजी की आबोहवा बहुत अच्छी है। भूमध्य रेखा के निकट के देशों में इतना अच्छा जलवायु बहुत कम पाया जाता है। मलेरिया का तो फिजी में अभाव ही है। इसके अतिरिक्त और भी कितने ही प्रकार के ज्वरों और रोगों का वहाँ नाम-निशान भी नहीं। फिजी के दक्षिण-पूर्व के कोने से जो पछुआ हवा चलती है उससे फिजी की गर्मी शांत हो जाती है। फिजी में हैजा और प्लेग कभी नहीं फैलते। मच्छर फिजी में बहुत हैं, परंतु मलेरिया उनसे पैदा नहीं होता। चीता, सिंह, साँप, बिच्छू इत्यादि फिजी में बिलकुल नहीं पाए जाते। परंतु मक्खियाँ फिजी में बहुत ज्यादा होती हैं, इतनी ज्यादा कि उनके मारे नाक में दम हो जाता है। फिजी की राजधानी सुवा में लगभग 107 इंच पानी प्रतिवर्ष बरसता है। फिजी में अकाल का विशेष डर नहीं क्योंकि थोड़ा बहुत पानी वहाँ हर महीने में बरसा ही करता है। परंतु आँधी वहाँ बड़े जोर की आती है, इस कारण खेती को बड़ी हानि पहुँचती है, और केलों की खेती के लिए तो ये आँधियाँ बहुत ही हानिकारक होती हैं।
फिजी के आदिम निवासी
पहले फिजी के आदिम निवासियों की अपनी सभ्यता थी, परंतु जब से फिजी ब्रिटिश अधिकार में आया है तब से काफी परिवर्तन हो गया है। पहले इन लोगों में अनेक परम्पराएँ प्रचलित थी, परंतु अब वे क्रमशः नष्ट हो गयी हैं। कोई 250 वर्ष पहले इन लोगों में यह रीति थी कि जब कोई फिजियन बहुत वृद्ध हो जाता था तो कुछ फिजियन युवक मिल कर उसके पास जाते थे और कहते थे "कोई को सिंगनी बिया बीऊ न बूरा-बूरा "अर्थात क्या तुम संसार को नहीं छोड़ना चाहते? जब वह कुछ उत्तर नहीं देता था तो उसको भूनकर खा जाते थे।
विवाह की रीति जो इन लोगों में प्रचलित थी, वह भी बड़ी अद्भुत थी। एक गाँव का फिजियन जा कर दूसरे गाँव की किसी कन्या को भगा कर अपने घर ले आता था। तब फिर उस लड़की के गाँववाले उस आदमी पर धावा बोलते थे। इधर लड़के की तरफ भी कितने ही आदमी लड़ने को तैयार रहते थे। फिर दोनों ओर से खूब लड़ाई होती थी। यदि वर पक्षवाले जीतते तो उस लड़की का विवाह पुरुष से कर दिया जाता था और लड़कीवाले विजयी होते तो लड़की अपने गाँव को लौट जाती थी ओर उसका विवाह किसी दूसरे के साथ कर दिया था। पति के शव के साथ पहले फिजियन लोगों की स्त्रियाँ भी जीवित ही गाड़ दी जाती थीं। जब किसी मनुष्य का मित्र मर जाता था तो वह अपने बाएँ हाथ की सबसे छोटी ऊँगली काट कर उसके साथ गाड़ देता था। परंतु अब ये कुरीतियाँ बहुत कम हो गयी है, क्योंकि अधिकांश फिजियन ईसाई हो गए हैं। विवाह की वह रीति भी नहीं रही है। कन्याएँ अब अपने आप वर को चुन लेती हैं। उनके माता-पिता उनके इस कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते। फिजियनों में 16 वर्ष से कम की कन्याओं और 25 वर्ष से कम के पुरुषों का विवाह नहीं होता। यद्यपि ऊँगली गाड़ने की प्रथा अब खत्म हो गयी है, पर तब भी दब-छिप कर थोड़े बहुत आदमी अपनी ऊँगली काटकर गाड़ देते हैं! मैंने कितने ही ऐसे आदमी देखे हैं जिनकी ऊँगली कटी हुई है। अपने मित्र व भाई मृतक के साथ अंगुली काट कर गाड़ देने से ये लोग "मांते बाता" यानी मित्र के प्रेम के वश उसके साथ मरने का परिचय देते थे। ये फिजियन अपने मित्र के मरने पर प्रेमपद को कैसा पूरा करते थे!
फिजियन लोग नित्यप्रति के कार्यों में चाहे विदेशी वस्त्र व्यवहार करें, पर जब उनके यहाँ कोई त्योहार होता है तो वे सदा अपने हाथ की बनाई हुई चीजों को ही काम में लाते हैं। हम लोगों को जो कि विवाह के अवसर पर सैकड़ों रुपये विदेशी वस्तुओं के खरीदने में व्यय कर देते हैं, फिजियनों से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। फिजियन लोगों में जब पुत्र उत्पन्न होता है तो फिजियन स्त्रियाँ तीन रात तक जागरण करती हैं और रात को घर में दीपावली की तरह खूब उजाला करती हैं। जब पहले-पहल फिजी आविष्कृत हुआ था तब ये लोग इतने नासमझ थे कि इन्होंने दियासलायी की डिबिया के लिए पचास-पचास एकड़ भूमि दे दी थी। पर वे अब बहुत बुद्धिमान हो गए हैं। अधिकांश लोग ईसाई हो गए हैं। उनके लिए गाँव-गाँव में ईसाईयों के स्कूल हैं जहाँ कि फिजियन भाषा पढ़ाई जाती है। सब मांसभक्षी हैं। तीर-कमान और बरछा, ये ही उनके हथियार हैं। घूँसा मारने में वे बड़े निपुण हैं। वे सुअरों को भी घूंसों से मार डालते हैं।
फिजियनों का गिरमिट
हमारे भाई बहनों पर जो अत्याचार फिजी में होते हैं, उनका वर्णन किया जा चुका है। पर ये अत्याचार फिजियन लोगों पर नहीं होने पाते। पहले तो फिजियन लोग शर्तबंदी करके काम करते ही नहीं और यदि गिरमिट (Agreement) में काम करते भी हैं तो अपनी सुविधा के लिए नौकर रखनेवालों से कितनी ही शर्तें लिखवा लेते हैं। जब कोई फिजियन गिरमिट में काम करता है तो वह पहले लिखा लेता है कि दिन-भर में तीन बार भोजन देना होगा, छह महीने बाद कपड़े देने होंगे और साबुन, तंबाखू, मिट्टी का तेल और कंबल इत्यादि देने पड़ेगें। जब तक इस बात को लिखा कर रजिस्ट्री नहीं करा लेता तब तक कोई भी फिजियन काम करने को कदापि राजी नहीं होता।
'COLONY OF FIJI' में एक यूरोपियन ने लेख लिखा है, जिसका आशय है: "फिजी के असली निवासी मजदूरी का काम अच्छी तरह नहीं कर सकते, उनका स्वभाव ही इस कार्य के लिए सर्वथा अयोग्य है। गन्ने की खेती में वही काम बार-बार रोज करना पड़ता है। (जिसे करते-करते जी ऊब जाता है) परंतु भारतवासी कुली इसी कार्य के लिए सर्वथा योग्य हैं और प्लेंटर लोग प्राय: उन्हीं से काम लेते हैं।"
बहुत ठीक! फिजी के असली बाशिंदों को कौन नौकर रखेगा? पहले तो उनके नौकर रखने में खर्च ही बहुत पड़ता है और फिर गोरे लोग उन पर अत्याचार नहीं कर सकते। यह तो भारतवासी कुली ही हैं जिनके घूंसे मारो, पीटो, ठोकरें लगाओ, जिन्हें तनख्वाह मत दो, कैदखाने में भेज दो, कोई सुनने वाला ही नहीं!
निष्पक्ष लेखक हो तो ऐसा हो! फिजी के आदिम निवासी इस कार्य के योग्य नहीं हैं। इसलिए कि उनका स्वभाव ही इस कार्य के लिए अयोग्य है!
अब आप एक फिजियन मजदूर और भारतवासी की तुलना कीजिये। हम लोगों को वहाँ प्रति सप्ताह 5 शिलिंग 6 पैंस मिलते हैं, सो भी तब, जब पूरा काम करें। और सौ आदमियों में 5 से अधिक पूरा काम कभी भी नहीं कर सकते। परंतु जब भी में देखना है कि एक असाधारण परिश्रमी भारतवासी कुली, हर प्रकार के अत्यचार सहते हुए अधिक से अधिक कितना कमा सकता है। प्रति सप्ताह के 5शिलिंग 6 पैंस के हिसाब से एक महीने के 1 पौंड, 2 शिलिंग एक वर्ष के 13 पौंड 4 शिलिंग हुए। इसमे 9 पौंड तो सूखे खाने में ही व्यय हो जाते हैं। सेर-भर आटा और पाव-भर दाल के हिसाब से 9 मन आटा और 4.50 मन दाल हुई। फिजी में आटा 4 आना सेर, दाल 6 आना सेर और मसाला हल्दी, मिर्च इत्यादि 12 आना का का एक पौंड (आधा सेर) इस प्रकार तो कम से कम खाने में ही व्यय होने और साल-भर में एक- दो पौंड जुर्माना हो जाना कोई बड़ी बात नही है, अथवा दस-बीस दिन कि कैद ही हो जाना एक बल्कुल साधरण बात है; इसलिए इसका भी एक पौंड निकाल डालिए और कम से कम डेढ़ पौंड ऊपरी खर्च के लिए रख लीजिए। इस प्रकार कुल मिला कर 111\2 पौंड हुए। इस पर भी अभी कपड़े-लत्ते, तेल, लकड़ी, त्यौहार इत्यादि सबके सब बाकी हैं। 1 पौंड से अधिक कभी भी नही बच सकता। परंतु फिजियनों को सूखे 9 पौंड बचते है क्योंकि उनका खाना, पीना, कपड़ा, लत्ता, तेल साबुन सब प्लैंटरों के जिम्मे होता है और साल भर में 9 पौंड मिलते हैं।
फिजियन लोग पूछताछ करके और सब प्रकार की सुविधाजनक शर्तें लिखाकर तब कहीं रजिस्ट्री करते हैं और हमारे यहाँ आरकाटी बहका कर मजिस्ट्रेट के पास ले जाता है। मजिस्ट्रेट पूछता है "फिजी जाने को राजी हो"? जहाँ मुह में से 'हाँ' निकली कि रजिस्ट्री हो गयी। रजिस्ट्री क्या हुई, केवल हाँ कहने से पाँच साल का कला पानी हो गया।
फिजियनों की भाषा
पहले यहाँ लिखने की कोई भाषा नहीं थी। परंतु जब से ईसाई लोग वहाँ पहुँचे हैं तब से वहाँ के लोग रोमन में अपनी बातों को लिखते हैं और पढ़ते हैं। फिजियन लोगों के नाम भी बड़े अजीब होते हैं, जैसे माद्दु, इयोम्बी, लैबानी, सावे नादा, रातुइरोनी, च्यौ इत्यादि। फिजियन भाषा के दो चार-शब्द भी सुन लीजिए।
तेनाना तमाना तोकाना तादीना वतीना कलौ |
माँ बाप बड़ा भाई छोटा भाई पत्नी ईश्वर |