फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष / भाग 4 / तोताराम सनाढ्य

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राज्य-प्रबंध

फिजी ब्रिटिश सरकार का एक उपनिवेश है। अंग्रेज सरकार की ओर से वहाँ गवर्नर नियत हो कर जाता है। गवर्नर की सहायता के लिए व्यवस्थापक और कार्यकारिणी सभाएँ हैं। इन सभाओं का सभापति गवर्नर होता है। व्यवस्थापक सभा में गवर्नर के चुने हुए दस सरकारी अफसर सदस्य होते हैं। फिजियन लोगों के सरदारों की सभा अपनी ओर से दो सदस्य भेजती है और छह सदस्य सर्वसाधारण द्वारा चुने जाते हैं। गवर्नर कार्यकारिणी सभा का काम, चीफ जस्टिस, अटार्नी जनरल, नेटिव कमिश्नर, इमिग्रेशन विभाग के एजेंट जनरल और रिसीवर जनरल की सहायता से करता है। बाहर से आये हुए माल पर जो कर लगाया जाता है वही अधिकतर वहाँ आमदनी का जरिया है। सन 1911 में कुल आमदनी 2,40,304 पौंड 14 शिलिंग हुई, इसमें से 1,46,628 पौंड 6 शिलिंग 3 पैंस आमदनी उस महसूल से हुई जो बाहर से आयी हुई वस्तुओं पर लगाया गया था। जो आदमी व्यापार करते हैं उन्हें लाइसेंस लेना पड़ता है। विशेष-विशेष पेशेवालों पर भी कर लगता है। सन 1911 ई० में Building Tax Ordinance घर बनाने का कानून पास हुआ और सब घरों पर कर लगने लगा। फिजी के आदिम निवासियों में प्रत्येक बालिग पुरुष को 10 शिलिंग से ले कर 1 पौंड तक प्रतिवर्ष टैक्स देना पड़ता है। फिजी की जमीन पर वहाँ के आदिम निवासियों का अधिकार है। यह जमीन पट्टे पर उठाई जाती है। सरकार पट्टे के रुपयों को इकट्ठा करके फिजियन जमींदारों में बाँट देती है।

कृषि और व्यापार

फिजी में तीन चीजों की खेती ज्यादातर होती हैं- गन्ना, केला, और नारियल। फिजी की भूमि गन्ने के लिए विशेषतया उपयोगी है और नदियों और समुद्र के किनारे की जमीन में तो बड़ी कसरत से गन्ना पैदा होता है। मुख्यतया छह जिले गन्ने की खेती के लिय प्रसिद्ध हैं-

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जिला

गन्ने की खेती (एकड़ में)

रेवा

10000 एकड़ गन्ने की खेती होती है

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14000 ,, ,, ,,

लतौका

15000 ,, ,, ,,

नबुआ

6000 ,, ,, ,,

रकीराकी

1200 ,, ,, ,,

लवासा

10500 ,, ,, ,,

अकेली सी० एस० आर० कंपनी ही 60 हजार टन चीनी प्रतिवर्ष तैयार करती है। केला भी फिजी में बहुतायत से होता है। वैसे तो केला फिजी में सैकड़ों वर्षों से होता है; परंतु 1848 ई० में चीन से केले के पौधे लाए गए थे। चीनी पौधे कद में बहुत छोटे होते हैं और तूफान और आँधी उन्हें विशेष हानि नहीं पहुँचा सकती। सन 19०9 से 1911 तक 41,172 डिब्बे केले आस्ट्रेलिया को और 1,17,479 डिब्बे केले न्यूजीलैंड को भेजे गए।

इनके अतिरिक्त कपास, कॉफी, मक्का, तंबाखू, अंडी, चावल इत्यादि भी फिजी में पैदा होते हैं। रस्सी इत्यादि बनाने के लिए केतकी भी फिजी में पैदा की गयी है।

इमीग्रेशन विभाग

प्रायः तीन तरह के आदमी फिजी में शर्तबंदी में काम करते हैं:

(1) भारतवासी, (2) फिजी के आदिम निवासी, (3) पलिनिशीयन लोग।

इनमें आदिम निवासियों को रखने में तो ज्यादा खर्च पड़ता है और वे मजदूरी भी नहीं करते, पलीनीशियन लोगों ने अब अत्याचारों से तंग आ कर शर्तबंदी में काम करना बंद कर दिया है। अतएव बेचारे भारतवासियों को ही सैकड़ों मुसीबतों के सहते हुए और मार खाते हुए कुलीगीरी का काम करना पड़ता है। कलकत्ता और मद्रास में सरकारी इमिग्रेशन एजेंट हैं। ये लोग आरकाटियों को नौकर (Recruiters) रखते हैं। ये आरकाटी लोग हमारे भोले-भाले भाइयों को बहकाया करते हैं। कोई चौबों की शक्ल में मथुरा में घूमता है, तो कोई हरिद्वार में पंडा बना बैठा है, कोई रियासत में कहता है कि 'कुलियों को 22 रुपये माहवारी नौकरी हम दिलवाते हैं। हमारा यह काम स्वार्थ का नहीं, यह गवर्नमेंटी काम है', तो कोई कानपुर में सेठ बना हुआ जेब में घड़ी डाले हुए और हाथ में छड़ी लिए हुए कहता है 'हम तुमको नौकरी दिलवाएगा, कलकत्ते में हमारी जमैका नाम की धर्मशाला बन रही है। हम नौ आने रोज देगा।' कोई डाक्टर बन जाता है तो कोई सिपाही के भेष में घूमता हुआ गाँववालों को बहकाता है। तात्पर्य यह कि यह धूर्त आरकाटी पुराने जमाने के राक्षसों की तरह नाना प्रकार के भेष धारण करके हमारे भाइयों को बहकाया करते हैं। एक समाचार-पत्र के संपादक ने अपने एक संपादकीय लेख में लिखा था।

"In no country in the world would this state of matters be tolerated for a moment and we think the position serious."

अर्थात "संसार के किसी देश में यह बातें सह्य न होंगी, हम इस स्थिति को गंभीरतापूर्वक ध्यान देने योग्य समझते हैं।"

आगे चल कर संपादक जी ने लिखा है :

"There is now a number of recruiting agents…….who have done all that man can do to treat the labourers as a preserve for them to plunder.

Contractors are everywhere plundering and seizing the labourer and selling him for something like Rs.210 or more per head, of which the poor labourer receives not even a pinch of salt. Thus the very essence of scoundrelism, an absolute traficing in human flesh, of which the responsible Government takes no notice, is tolerated everywhere, while schemes permitting of the labourer, proceeding to the labour districts in a state, where all the comfort which he desires, are sternly suppressed.

अर्थात "अब बहुत-से आरकाटी पाए जाते हैं, जिन्होंने यह समझ रखा है कि मजदूर हमारे लूटने के लिए ही बनाये गए हैं और जिन्होनें मजदूरों को बहकाने और बेचने में कोई उपाय बाकी नहीं छोड़ा। ये ठेकेदार लोग जगह-जगह मजदूरों को बहका रहे हैं और पकड़ रहे हैं और 210 रुपये प्रति मनुष्य के हिसाब से बेच रहे हैं। इन 210 रुपये में उस बेचारे मजदूर को एक कानी कौड़ी भी नहीं मिलती। यह बदमाशी, मनुष्यों का क्रय-विक्रय, हर जगह पर सह्य समझा जाता है, और गवर्नमेंट जो हमारी रक्षा की उत्तरदाई है इस पर ध्यान भी नहीं देती। परंतु किसी रियासत के जिले में मजदूरों के भेजने के लिए तो स्कीम तैयारी की जाती है-चाहे इन रियासतों में मजदूरों को अभीष्ट आराम और सुख हों-तो वह स्कीम बड़ी सख्ती के साथ रद्द कर दी जाती है।"

उपरोक्त कथन सर्वथा सत्य है, परंतु इसे सुनता कौन है? रियासतों में मजदूर नहीं भेंजने चाहिए। क्यों? इसलिए कि ऐसा करने से हिंदुस्तानियों को लाभ होने की संभावना है! हमारे आरकाटी सेठों की जो ट्रिनीडाड, जमैका, क्यूबा, नेटाल, होंडुरास, फिजी नामक धर्मशालाएँ हैं (क्योंकि आरकाटी लोग इन टापुओं को अपनी धर्मशाला बताते हैं) उन्हीं को मजदूरों के भेजने की आवश्यकता है!

इस विषय को हम यहीं छोड़ते हैं, आगे उपसंहार शीर्षक अध्याय में इस पर विस्तृत रूप से लिखेगें।

कमीशन की नियुक्ति

सन 1913 ई० में भारतवर्ष से एक कमीशन नियुक्त हुआ, सरकार ने इस कमीशन में दो आदमी मुकर्रर किए थे। एक तो मिस्टर मकनील साहब और दूसरे खुर्जा निवासी सेठ नत्थीमल के भतीजे श्रीयुत चिम्मनलाल जी। जब हम लोगों ने सुना कि कमीशन आ रहा है तो हमें बड़ी प्रसन्नता हुई। ये लोग सितंबर के महीने में फिजी पहुँचे। यद्यपि हम अभी इस कमीशन के कार्यों की आलोचना करना ठीक नहीं समझते, तथापि इस विषय में हमें थोड़ा सा निवेदन हमें करना है। जब कोठियों के गोरे लोगों को यह ज्ञात हुआ कि कमीशन आने वाला है तो कई दिन पहले से उन्होंने हमारे भाइयों को धमकाना आरंभ कर दिया। उन्होंने भारतवासियों से कहा "देखो तुम्हारे लिए कमीशन आ रहा है। अगर तुमने हमारे खिलाफ एक भी बात कही तो फिर समझ लेना कि बस तुम्हारी आफत आ गयी। कमीशनवाले तो दो-चार दिन में यहाँ से चले जाएँगे और तुम्हें हमारे यहाँ पाँच वर्ष तक काम करना है। खबरदार! यदि एक भी बात मुँह से निकाली, नहीं तो हम घूसों से तुम्हारा मुँह तोड़ देंगे। इस प्रकार डराए गए लोगों ने कमीशन के सामने क्या कहा होगा, यह आप स्वयं सोच सकते हैं। जब कमीशन के सदस्य लतौका में पहुँचे तो मिस्टर मैकनील तो दौरे पर गए, लेकिन श्रीयुत चिम्मनलाल जी कुछ अस्वस्थ होने के कारण लतौका होटल में ही रहे। एक दिन क्या हुआ कि एक गोरे ओवरसियर ने एक भारतवासी के इतने घूंसे मारे कि बेचारा अधमरा हो गया, घूंसों के मारे उस के मुँह से खून गिरने लगा और उसके दो दांत भी टूट गए! उसी दशा में वह उन दांतों को हाथ पर रख कर चिम्मनलाल जी के पास लाया और कुल हाल कह सुनाया। श्री चिम्मनलाल जी ने उसे एक चिठ्ठी दे कर थाने में जाने के लिए कहा। वह थाने को जा रहा था कि बीच में ओवरसियर साहब मील गए और उनहोंने उसे खूब धमकाया और कहा 'सब्र करो चार दिन बाद चिम्मनलाल चले जाएँगे, क्या चिम्मनलाल तुम्हारे बाप है? पाँच वर्ष के लिए हम तुम्हारा बाप है। कमीशन के जाने पर हम तुम्हारी गर्मीं सब निकल देंगें, वह बेचारा इस धमकी में आ गया और चुप रह गया।

जिन-जिन कोठियों में कमीशन गया वहाँ प्लैंटर लोगों के सामने ही हमारे भाइयों से प्रश्न किए गए। अत्याचारी के सामने उसके विरुद्ध गवाही देना बहुत ही कठिन काम है। यह काम और भी कठिन हो जाता है, जब पाँच वर्ष उस अत्याचारी के नीचे और काम करना हो। कमीशन के सदस्य नोकोमोदी भी गए थे, जहाँ से कि वाइनी वकासी नामक कोठी एक मील थी। इसी कोठी में कुंती नामक चमारिन रहती है। खेद है कि कमीशन के सदस्यों ने कुंती से पूछताछ करने का कष्ट ही नहीं उठाया।

हम लोगों ने श्रीयुत चिम्मनलाल जी की सेवा में एक पत्र द्वारा निवेदन किया था। इस पत्र में अपने कष्टों का हाल लिखा गया था और सुधार के लिए प्रार्थना की गयी थी। पत्र का सारांश यह था:

"जितने ओवरसियर होने चाहिए, सब विवाहित होने चाहिए। इन लोंगों का भारतीय रीति-रिवाज और हिंदी भाषा से थोड़ा-बहुत परिचित होना आवश्यक है, जिससे कि वे हम लोगों के दुःख-सुख को समझ सकें।

प्रायः कुली-इंस्पेक्टर ओवरसियर या बड़े साहब के घर जा कर ब्रांडी उड़ाते हैं उसका कर्तव्य है कि खेत में जा कर हम लोगों के कष्टों की जाँच करें और उनके निवारणार्थ प्रयत्न करें। जो आदमी ओवरसियर का काम कर चुका हो, उसे कुली-इंस्पेक्टर नियुक्त नही करना चाहिए, क्योंकि जो आदमी पहले ओवरसियरी का काम कर लेता है उसके दिल में दया और शील का लवलेश भी नही रहता। कुली-इंस्पेक्टर भी विवाहित होनें चाहिए। उनके के लिए यह अत्यंत आवश्यक होना चाहिए कि वे हिंदी भाषा बोल सकें और समझ सकें। प्रति मास उन्हें प्रत्येक कोठी में जा कर रिपोर्ट लिख कर लानी चाहिए।

जो लोग भारतवर्ष से आ कर यहाँ मर गए हैं, उनका धन सरकारी खजाने में जमा है। हम यह पूछते हैं कि सरकार ने उसे किस काम में व्यय किया? क्या सरकार का यह कर्तब्य नही है कि उस धन से दो-एक स्कूल ही बनवा दे, जिससे कि हम लोगों के अपने बच्चों को पढ़ाने का सुभीता हो!

बर्टन साहब ने अपनी पुस्तक Fiji of To-day के 243 वें पृष्ठ में लिखा है 'कंपनी नही चाहती कि हिंदुस्तानी लोग पढ़ें।' क्या कंपनी यह चाहती है कि हम भारतवासी सदा अशिक्षित और प्लैंटरों के गुलाम ही बने रहें?

जो हमारे भाई भारतवासी अपनी युवावस्था में कंपनी का काम करते है, वे जब बूढ़े हो जाते हैं तो उनकी परवरिश करने वाला कोई नही रहता। वे बेचारे फिजी में भूखों मरते है। कुली-एजेंट का यह कर्तव्य है कि अपाहिज आदमियों को भारतवर्ष भेंज दें। इसका व्यय सरकार को उस रुपये में से देना चाहिए जोकि मृत भारतवासियों का सरकारी खजाने में जमा हो।

हिंदुस्तानियों को जो वेतन वहाँ मिलता है वह बहुत थोड़ा है। इस पर भी सरकार खाद्य-पदार्थों पर बहुत कर लगता है। उदाहरणार्थ, दाल पर फि टन 3 पौंड ड्यूटी है, इसलिए इतने कम वेतन में काम नही चल सकता। यहाँ की कुछ चीजों का भाव सुन लीजिए। आटा एक शिलिंग का 6 पौंड, चावल एक शिलिंग का 4 पौंड और दाल एक शिलिंग की 4 पौंड।

जो गोरे लोग बलात् हमारे देश की स्त्रियों पर पाशविक अत्याचार करते हैं, उन्हें खूब कड़ी सजा मिलनी चाहिए।

सरदार वह होना चाहिए जिसको कुली-एजेंट खुद मँगवाए और स्वयं उसे कोठी में भेजें। सरदार का संबंध सीधा कुली-एजेंट से होना चाहिए, न कि ओवरसियरों से। ओवरसियर लालच दे कर गिरमिटिया सरदारों से खूबसूरत ओरतों को मँगवाते हैं और जो नही लाते तो सरदारी से उनको छुड़ा देते हैं। सरदारों को उनके सब कर्तव्य समझा देने चाहिए। कुली एजेंटों को चाहिए कि सरदारों के काम पर कड़ी दृष्टि रखें। बर्टन साहब ने 'फिजी आफ टुडे' में 210 पन्ने पर लिखा है कि एक ओवरसियर ने एक सरदार से कहा कि तुम जा कर एक रूपवती स्त्री ले आओ। वह सरदार लिखा-पढ़ा होशियार था, उसने ऐसा करने से इंकार कर दिया। इसी वास्ते ओवरसियर ने सरदार को खूब मारा और उल्टी उसके उपर नालिश कर दी। बेचारे सरदार को छह महीने की जेल हुई। पादरियों ने इस पर लाट साहब के पास अर्जी भेंजी। तब कहीं वह सरदार जेल से छूटा। वह दुष्ट ओवरसियर कोठी से निकाल दिया गया।

जिन कोठियों में 15 से अधिक छोटे-छोटे बच्चे होतें हैं, उनमें एक नर्स रखी जाती है, जो की स्त्रियों के काम पर जाने पर उनके बच्चों की देखभाल करती है। नर्स के काम के लिए हिंदुस्तानियों से सलाह ले कर विश्वसनीय स्त्रियाँ रखनी चाहिए। कितनी ही धूर्त नर्से कुट्टिनी का काम करतीं हैं।

भूमि के विषय में भी हम सबको बहुत कष्ट है। हम लोगों को फिजियन लोगों को पैसा देना पड़ता है, तब वे बड़ी मुश्किलों से राजी होते हैं। इस पर भी जो सरकार की मर्जी में आया तो जमीन मिली और नहीं तो सब प्रयत्न और धन व्यर्थ जाता है। दिन पर दिन हम लोगों के लिए कड़े कानून बनाये जाते हैं। गोरा जितनी जमीन लेना चाहे उसको उतनी मिल सकती है। वह सस्ती से सस्ती 2 शिलिंग से 3 शिलिंग बीघे तक खरीद सकता है। कानून बनानेवाले वे ही गोरे हैं जिनकी हजारों बीघे भूमि है और जोकि हम भारतवासियों को भूमि देना पसंद नहीं करते हैं। हमारे भाई जब जंगल काट कर तैयार करते हैं तब उनकी जमीन छीन ली जाती है। जिन के पास चार या पाँच वर्ष से सरकारी जमीन है, उनको सरकार से नोटिस मिला है कि जब सरकार को आवश्यकता होगी तब छह महीने का नोटिस दे कर सरकार निकाल देगी।"

हमारे दुर्भाग्य से श्रीयुत चिम्मनलाल जी बीमार पड़ गए और कमीशन उन स्टेटों में जा भी नहीं सके जो जंगल में बसी हुई है। और जहाँ की गोरे लोग हमारे भाइयों को और अधिक कष्ट देते हैं।

श्रीयुत चिम्मनलाल जी दबेऊलेबू जिला रेवा में फिजियनों के एक स्कूल का उत्सव देखने के लिए गवर्नर के साथ गए थे। वहाँ पर एक फिजियन जमींदार ने श्रीयुत चिम्मनलाल जी से हाथ मिलाते वक्त अपनी भाषा में कहा था -"क्या आप नहीं जानते कि आपके देश की स्त्रियाँ गिरमिट में काम करने के लिए इस देश में आती हैं और उन पर यहाँ पर तरह-तरह के जुल्म किए जाते हैं? क्या इन स्त्रियों को देख कर आपकी आँख से लोहू नहीं निकलता? "खेद है कि श्रीयुत् चिम्मनलाल जी फिजी की भाषा नहीं जानते थे। मै वहीं पीछे खड़ा हुआ था और चाहता था कि कोई दुभाषिया इस बात को श्री चिम्मनलाल जी को समझा दे, देखें वे इसका क्या उत्तर देते हैं! पर खेद है, ऐसा नहीं हुआ। यदि ऐसा होता भी तो एक सहृदय भारतवासी के लिए तो इसका केवल एक उत्तर था, वह यह कि लज्जा से मुख नीचा करके दो आँसू बहाता।

मेरी राम-कहानी

फिजी में अपने पहुँचने का हाल मैं लिख चुका हूँ। मैं नौसुरी नामक कोठी में भेज दिया गया था। वहाँ पर ओवरसियर ने आठ फुट लंबी आठ फुट चौड़ी कोठरी दी, जिसमें मुझे और एक मुसलमान तथा एक चमार को रहने के लिय आज्ञा दी गयी! मैंने उस ओवरसियर से कहा कि मैं इन लोगों के साथ रहना ठीक नहीं समझता। पर ओवरसियर ने मुझे ललकार कर कहा-"जाओ हम नहीं जानटा, रहना होगा।" तत्पश्चात मैंने अपने साथियों से कहा कि आप ही कृपा करके किसी दूसरी कोठरी में चले जाइए। जैसे-तैसे वे रात को एक दूसरी कोठरी में जाने को राजी हुए। प्रात:काल हम तीनों लोगों के लिय एक लोहे की हाँड़ी मिली, उसे वे लोग Iron Cost कहते हैं। इस हाँड़ी की प्रशंसा करना मेरी शक्ति के बाहर है। वह काली हाँड़ी मानो कुली-प्रथा की कालिमा को प्रकट कर रही थी। कोई दो घंटे में मैंने उसे साफ किया, और फिर उसमे चावल चढ़ा दिए। मैंने चावल चढ़ाए ही थे कि इतने में वह चमार और मुसलमान ओवरसियर को ले कर चले आये। उन लोगों ने शिकायत कर दी कि वह हाँड़ी हमको नहीं दी गयी। ओवरसियर ने मुझे आज्ञा दी कि इन लोगों को हाँड़ी दो, पीछे तुम भोजन बनाना। मुझे हाँड़ी देनी पड़ी। फिर मै एक स्वतंत्र भारतवासी के यहाँ गया और उससे हाँड़ी ले कर अपना काम चलाया। पहले छह महीने में जो सामान एक सप्ताह का मुझे मिलता था, उसे मै चार दिन में ही खा डालता था और शेष दिन स्वतंत्र भारतवासियों से माँग-जाँचकर काम चलाता था और अपनी क्षुधा देवी को नमस्ते करके संतोष धारण करने की प्रार्थना किया करता था। परंतु मेरी दयालु क्षुधा देवी कंपनी के दाल-चावल को देखते ही सुरसा का पथ पकड़ लेती थी। यद्यपि मैं कुली-प्रथा की कालिमा को प्रकट करने वाली भैरवदेव के रंग की हाँड़ी को बड़ी शीघ्रता से माजता था तथापि वह अपनी कालिमा को नहीं त्यागती थी। इतने में मेरी दयालु क्षुधादेवी क्षण-क्षण मुझे ललकार-ललकार कर ओवरसियरों से कुछ ही कम दुःख देती थी और संपूर्ण रसद को चार ही दिन में चाटकर पाँचवे दिन कालोनियल शुगर रिफायनिंग कंपनी, फिजी के कर्मचारी और रसद का एक्ट पास करनेवालों को आशीष दिया करती थी। क्षुधा देवी कभी मुझसे युद्ध में हार जाती थी तब मै खीच-खाँच कर किसी सप्ताह में रसद पाँच दिन को कर लिया करता था। एक दिन मैंने अपने मैनेजर से कहा कि मुझे रसद और मिलना चाहिए। मैनेजर ने कहा "वेल टूम आडमी हाय की घोरा"? मैंने उत्तर दिया "था तो आदमी लेकिन इस कुदाली ने मुझे घोड़ा बना दिया है। इसी कुदाली ने मेरी क्षुधादेवी को जगाया है।" मैनेजर हँस पड़ा और कहा अच्छा चिट्ठी ले जाओ। मैं वह चिट्ठी खाने का सामान देनेवाले साहब के पास दुकान में ले गया। 2 पौंड यानी एक सेर कच्चे चावल मिले। मैनेजर के पास ले आया। उसने कहा हमारे सामने राँधो, मैंने भात बनाकर तैयार किया। उसके सामने तीन हिस्सा खा गया, तब तो मैनेजर साहब चकित हुए। उसके दूसरे सप्ताह से मुझे रसद कानून से एक सेर अधिक मिलने लगी। चौथे सप्ताह में एक व्यक्ति ने मैनेजर से कहा कि मुझे भी रसद अधिक मिले, मेरे भी खाने-भर को नहीं होती। तोताराम को तो मिलने लगी है। मैनेजर ने कहा, कानून के मुताबिक दिया जायगा। उस दिन से मेरे लिए भी अधिक मिलना बंद हो गया। उसी दिन से क्षुधादेवी फिर सताने लगी। पहले मुझे भी फुल टास्क यानी पूरा काम दिया गया था, पर वह इतना अधिक था कि मुझसे कभी नहीं हो सकता था। ओवरसियर मुझे बहुत तंग किया करता था। ज्योहीं मेरे काम को देखने आता, दो-चार थप्पड़ मुँह में जमा जाता था! एक बार मैंने मन में ठान लिया चाहे कैद में भले ही जाना पड़े, परंतु इस दुष्ट ओवरसियर को मारे बिना नही छोड़ूँगा। एक दिन यह ओवरसियर साहब कोट-पतलून पहने और हैट लगाये हुए झूमते-झामते आये और आते ही एक घूंसा मेरे सिर में जमाया। गोरे लोग घूंसे लगाने में तो बड़े तेज होते हैं, उस घूंसे से मेरा सिर भन्ना गया। मैं चुप रह गया, ओवरसियर साहब क्यों माननेवाले एक डबल घूँसा फिर लगा ही तो दिया। अबकी बार मुझे क्रोध आ गया। मैंने कुदाली तो रख दी और एक साथ ओवरसियर की टाँगों में सिर डाल कर ऐसा पटका कि धड़ामधम नीचे चित्त जा पड़े। गिरते ही मैंने दोनों पाँव साहब की छाती पर जमा दिए और फिर मारना शुरू किया। इतने घूँसे मारे कि ओवरसियर साहब के दो दाँत टूट गए, मुँह से लोहू निकलने लगा, कनपटी फूट गयी। पाठक! यह न समझें कि यह काम मैंने बड़ी वीरता से किया था, मुझे इस बात का डर था कि कहीं अगर यह उठ बैठा तो मुझे मार डालेगा, और मार डालना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी, क्योंकि पीछे से वह बेकसूर (not guilty) सिद्ध हो कर छूट जाता। बस इसी डर के मारे मुझ में चौगुना जोश आ गया था। साहब के इतने घूँसे लगे कि वे नशे में हो गए और नीचे से बोले That will do अर्थात् बस करो, भाई बस। मैं उन दिनों अंग्रेजी बिलकुल नहीं समझता था। मैं नहीं समझा कि 'दैट विल डू" क्या होता है? मैं इसका तात्पर्य यही समझा कि अभी इसमे बल है। बस फिर मैंने दाहिने हाँथ के घूँसे जमाना प्रारंभ किया। अब की बार ओवरसियर साहब ने हाथ हिलाकर कहा 'बौय नो' नो के मानी मैं समझ गया और मैंने उसे छोड़ दिया। तत्पश्चात मैंने उससे कहा "अगर तुमने नालिश की तो समझ लेना जान से मार डालूँगा।" वह ओवरसियर टूटी-फूटी हिंदी बोल लेता था और थोड़ा समझ भी लेता था। उसने मुझसे कहा कि यह बात किसी से कहना नहीं। मैं उसका अभिप्राय समझ गया। बात यह थी कि अगर उस कोठीवाले को खबर लग जाती कि गोरा एक कुली से पिट गया है तो वह गोरे को निकाल देता और यह कहता कि जो आदमी 100 कुलियों से काम लेने के लिए रखा गया है, यदि वह एक से पिट गया तो वह नौकरी के योग्य नही! मैंने भी सिर हिला दिया कि मैं नहीं कहूँगा। फिर ओवरसियर साहब ने कहा "आज से हम-तुम Friend (दोस्त) हुए।" यद्यपि मैं उसकी भाषा नहीं समझता था, पर पर उसकी आकृति और कहने के ढंग से उसका भाव समझ लेता था। और वह जो दो-चार अशुद्ध हिंदी के शब्द बोलता था उन्हें मैं अच्छी तरह से समझ लेता था। फिर उसने अपने पास से कई पैंस दे कर नारियल मँगाए और एक नारियल मेरे हाथ में दिया कि इसको तोड़ कर इसका पानी पियो और एक अपने हाथ में लिया। पीते वक्त ओवरसियर साहब ने कहा "Good luck" (गुड लक)। मैं समझा तो नहीं; परंतु मुझे उसके चेहरे को देख कर हँसी आ गयी और मैंने कहा कि आज तो साहब समझ गया होगा कि 'गुड लक' कैसा होता है!

कोठी में डाक्टरी परीक्षा

एक बार एक डाक्टर साहब परीक्षा लेने के लिए आये। मैंने सोचा कि यदि कहीं इन्होंने मेरे लिए Full task लिख दिया तो बस काम करते-करते दम निकल जाएगा। कई सौ मजदूर डाक्टर साहब को घेरकर खड़े हो गए और डाक्टर साहब अपनी स्टैथस्कोप लगा कर जाँच करने लगे। जब मैंने देखा कि मेरे नाम के पुकारे जाने में थोड़ी देर है, मैं एक फर्लांग दूर चला गया और वहाँ से भागता हुआ आया। डाक्टर साहब ने मुझे भागते हुए नहीं देख पाया, क्योंकि वहाँ भीड़ बहुत थी। मेरा नाम पुकारा गया, मैं हाजिर हुआ। मेरा दिल दौड़ने के कारण धड़कने लगा था। ज्योहीं स्टौथकोप लगाई गयी, त्योहीं डाक्टर ने कहा, "क्या तुम्हें कोई बीमारी हो गयी है?" मैंने कहा "मुझे दमा हो गया है।" डाक्टर ने कहा, "कलकत्तेवाले डाक्टर ने तो यह लिखा ही नहीं कि तुम्हें दमा है।" मैंने कहा "उन दिनों मेरी बीमारी दबी हुई थी और बहुत कुछ सेहत थी। अब दमा फिर उखड़ आया है।" डाक्टर साहब बातों में आ गए और उन्होंने 'आधा काम' लिख दिया।

इस प्रकार मुझे झूठ बोलना पड़ा। अगर मै चालाकी न चलता तो मेरे नाम पूरा काम लिखा जाता और काम करते-करते मेरे प्राण जाते, जेलखाने में पड़ा-पड़ा भूखों मरता और ओवरसियरों की मार खानी पड़ती सो अलग। अस्तु, मैं मर्त्यलोक के यमराज ओवरसियर की मार से एक प्रकार बच गया, अब यमलोक के यमराज मुझे इस झूठ बोलने के लिए भले ही दंड दें, मैं उसे सहर्ष सह लूँगा। मैं आधा काम करता और 6 पैंस रोज कमाता था। 5 वर्ष तक मुझे जो-जो कष्ट भोगने पड़े उन्हें मैं ही जानता हूँ। पाँच वर्ष बाद जब मैं स्वतंत्र हुआ तो मेरे ऊपर 15 शिलिंग का कर्ज था। लीजिए पाठक! मैंने 5 वर्ष तक कठिन परिश्रम करके और भूखों मर के क्या कमा पाया! केवल मैं ही नहीं, हमारे सैकड़ों भाई जो गिरमिट से छुटकारा पाते हैं तो उनके पास एक कौड़ी भी नहीं होती। हाँ दो-चार आदमी भले ही ऐसे निकलें जो गिरमिट में काम करके दस-पाँच रुपये प्रति वर्ष बचा लें। स्वतंत्र होने पर मैंने कुछ पौंड उधार ले कर थोड़ी-सी जमीन पट्टे पर ली और गन्ने की खेती करने लगा। जब मुझे खेती में कुछ लाभ हुआ तो मैंने सोचा कि अब घर चिट्ठी भेजनी चाहिए। मैंने बीच में चिट्ठी यह सोच कर न भेजी थी कि यदि मेरे घरवालों ने मेरे कष्टों का वर्णन पढ़ा तो वे घबड़ा जाएँगे। जब फिजी में आये हुए मुझे 8 वर्ष हो गए तो मैंने एक पत्र अपने भाई को, जो कलकत्ते में मुनीमगिरी करता था, भेजा। इस पत्र में मैंने विस्तारपूर्वक उन सब कष्टों का वर्णन किया था जोकि मुझे फिजी में गिरमिट में काम करने में सहने पड़े थे।

मैं अपने हृदय में विचार करता था कि मेरा भाई मेरा पता पा कर बड़ा प्रसन्न होगा। जब पत्र को भेजे हुए डेढ़ महीना हो गया तो पत्र की प्रतीक्षा करने लगा। अंत में एक पत्र कलकत्ते से आया। ज्योहीं मुझे पत्र मिला, मुझे बड़ी उत्कंठा उसे खोलने की हुई। पत्र खोलते ही मैंने पढ़ा- "तुम्हारे भाई ने ज्योहीं तुम्हारे कष्टों का विवरण पढ़ा कि उसके दिल में बड़ा धक्का लगा और उसे बड़े जोर से बुखार चढ़ आया, दो दिन तक बराबर बुखार चढ़ा रहा, तीसरे दिन अकस्मात उसका देहांत हो गया!" इस हृदय-विदारक समाचार को सुनकर मुझे दुःख हुआ और मुझे बाल्यकाल की सब घटनाएँ एक-एक करके स्मरण आने लगीं, जबकि मैं अपने भाई के साथ भोजन किया करता था। जब मैं उन कष्टों का स्मरण करता हूँ जो उस दुष्ट आरकाटी के कारण सहने पड़े तो मेरे हृदय के घाव फिर हरे हो जाते हैं और मेरे मुख से सहसा यही शब्द निकलते हैं- हा! परमात्मन् यह कुली-प्रथा कब बंद होगी और इन धूर्त आरकाटियों से हमारे भाइयों का कब पिंड छूटेगा!"

इधर जब मेरी माँ को मेरा कुछ समाचार न मिला तो उसे बड़ी भारी चिंता हुई। गाँव के लोग कहते हैं कि एक बार एक साधू लड़का मेरे ग्राम हिरनगौ में आया। कहा जाता है कि उस लड़के की सूरत मुझसे कुछ मिलती-जुलती थी। ज्योहीं मेरी माँ ने सुना कि कोई साधू मेरी शक्ल का आया हुआ है त्योहीं वह साधू के पास गयीं और दौड़ कर उसे पकड़ लिया और कहने लगीं- "बेटा क्यों साधू हो गया है? अब तो अपनी दुखित माँ पर दया कर और जटा मुड़ा कर अपने घर में रह।" उस साधू ने कहा, "माँ! मैं तेरा लड़का नहीं हूँ। मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, मैं तो क्षत्रिय हूँ।" पर मेरी माँ का मस्तिष्क मेरी याद करते-करते इतना विचलित हो गया था कि वह साधु की बात पर विश्वास ही नहीं करती थी! आख़िरकार वह साधु तंग हो कर मेरे गाँव से भाग गया!

कोई दो वर्ष परिश्रम करके मैंने फिजियनों की भाषा पढ़ी और उसे अच्छी तरह समझने और बोलने लगा। एक वर्ष तक मैंने बढ़ई का काम सीखा, तदनंतर धातुकार का भी काम मैंने बहुत दिनों तक सीखा था। फोटो लेना मैंने इस उद्देश्य से सीखा था कि मैं खेतों पर भारतीयों के चित्र लूँ! मैंने छिपकर ऐसे कितने ही चित्र लिए थे, जिनमें गोरे लोग भारतीय स्त्रियों और पुरुषों को पीट रहे थे। मेरा विचार इन चित्रों को 'सरस्वती' मासिक पत्रिका में छपवाने का था। लेकिन एक दिन जब मैं सुवा शहर को गया हुआ था तो एक अपरिचित मनुष्य बनावटी चिठ्ठी मेरे नाम की लेकर आया और सब तस्वीरें माँग कर ले गया! घर आ कर मैंने चिट्ठी पढ़ी तो उसकी लिपि कुछ मेरी लिखावट से मिलती थी। इसी से उसका दाँव चल गया। मैंने बहुत चाहा कि मामला चलाऊँ; परंतु वह मनुष्य लापता हो गया और मुझे स्वदेश को आना था, इसलिए मैं चुप हो गया। तसवीर जाने के दो दिन बाद मुझको एक सरकारी सिपाही ने आ कर हुक्म सुनाया कि आज से किसी खेत में कंपनी या कोठीवालों के मजदूरों की तसवीर न खींचना। अगर उदूल हुक्मी करोगे तो अभियोग चलाया जाएगा और सजा होगी।

यह तो पहले लिख चुका हूँ कि मैं खेती करने लगा था। एक बार सन 1910 ई० में जबकि मेरी गन्ने कि खेती तैयार थी, एक बड़ा भारी तूफान आया और मेरी तमाम खेती नष्ट हो गयी। तत्पश्चात मैंने फिर उधार लेकर कार्य आरंभ किया। परमेश्वर की कृपा से फिर थोड़ा-बहुत लाभ होने लगा।

मैं प्राय: यह किया करता था कि अपना काम अपने नौकरों पर छोड़ कर कोठियों में जाया करता था और वहाँ जा कर अपने भारतीय भाइयों की दशा देखा करता था और उन्हें उनकी भलायी की सलाह दिया करता था। फिजी की बीसियों कोठियाँ मैनें स्वयं जा कर देखी थी और उनके समाचार ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन को दिए थे। उपरोक्त सभी भारतीय भाइयों के दुःख-निवारणार्थ यथाशक्ति प्रयत्न करती थी। सभा का पत्र-व्यवहार मै हिंदी में किया करता था।

कोठीवाले कितने ही गोरे मुझसे इतने नाराज हो गए थे कि कितनी ही कोठियों में मेरा जाना बंद करवा दिया था! जिन कोठियों में मैं अपने भारतीय भाइयों से मिलने जाता था वहीं वे मुझे निकलवाने का यथाशक्ति प्रयत्न करते थे। एक बार मैं एक कोठी में घूमते-घूमते पहुँचा। कोठी के भीतर घुसने की तो मुझे आज्ञा थी नहीं, अतएव मैं सड़क के किनारे बैठ कर जोर से भजन गाने लगा। भजन गाने का मेरा उद्देश्य यही था कि जब कोई गाना सुनेगा तो अवश्य मेरे पास मेरा गाना सुन कर आयेगा। कितने ही आदमी कोठी के बाहर सड़क पर मेरे निकट आ गए। मैंने गाना बंदकर उनसे बातचीत करना प्रारंभ किया। बातें करते- करते मेरी दृष्टि एक मुसलमान युवती पर पड़ी। उसकी आकृति को देख कर यह ज्ञात होता था कि मानो वह अभी रोए देती है! उस स्त्री की छोटी लड़की उसके निकट खड़ी हुई थी। मैंने उस स्त्री से पूछा, "क्या तुम्हें कोई खास तकलीफ है?" यह सुनते ही उस स्त्री की अश्रुधारा बहने लगी और उसने रोते-रोते मुझे अपना हाल सुनाना प्रारंभ किया। उसने कहा, मेरा नाम ललिया है और मेरे पति का नाम इस्माइल है। कई वर्ष हुए, जब मैं अपने पति के साथ कानपुर में रहती थी। मेरा पति स्टेशन से यात्रियों का बोझा ढोया करता था और इस तरह जो आठ-दस पैसे जो कमाता था उसमें हम तीनों- यानी पति, मैं और यह छोटी लड़की गुजर करते थे। एक दिन मेरा पति मजदूरी करने के लिय गया हुआ था, मैं घर पर थी। इतने में एक आदमी मेरे घर पर आया और उसने मुझसे कहा, 'तुम यहाँ बैठी हो और वहाँ तुम्हारे मालिक के बड़ी चोट आ गयी है! वह कई संदूक लिए जा रहा था, वह संदूक उसके पाँव पर गिर पड़े और कई जगह बड़ी भारी चोट पहुँची। अगर तुम उसे देखना चाहती हो तो मेरे साथ चलो।' मैं घबरा गयी और उसके साथ चलने को राजी हो गयी। यह मुझे ले कर एक बड़े मकान के दरवाजे पर पहुँचा। मुझसे कहा देखो इसी में तुम्हारा मालिक है, यह डाक्टर साहब का मकान है। बिना डाक्टर साहब की आज्ञा के इसमें जाना ठीक नहीं। थोड़ी देर ठहरो अभी डाक्टर साहब आते होंगें। थोड़ी देर बाद ही एक आदमी कोट-पतलून पहने चश्मा लगाये आ पहुँचा। जो आदमी मुझे घर से लिवा लाया था उसने डाक्टर साहब से कहा, "देखिए डाक्टर साहब यह उसी आदमी की औरत है जिसका कि आप इलाज कर रहें हैं। यह अपने मालिक से मिलना चाहती है।" डाक्टर साहब ने कहा अभी हम नही मिलने देगा। कैसे अहमक हो समझते नहीं! इस वक्त उसके दिल पर बड़ी भारी चोट है। उसकी जान आफत में है। यदि उसने अपनी औरत को देखा तो इसमें शक नहीं कि उसकी जान निकल जाएगी और इस औरत को भी बहुत घबराहट होगी। अभी चार-पाँच दिन उसका इलाज हम कर लें, फिर उससे मिला लेना, वह कहीं भागा नही जाता है।" पहले आदमी ने कहा "हुजूर इसके पास कुछ खाने को नहीं है, यह कहाँ जाय?" डाक्टर साहब ने कहा, "अच्छा इसका और इसकी लड़की के खाने का इंतजाम कर दो।" इस प्रकार मैं अपनी छोटी लड़की के साथ वहीं रह गयी। दस दिन तक वह आदमी मुझे बहकाता रहा कि अब तुम्हारे मालिक को सेहत हो रही है, आज नही कल उससे मिलना। दस दिन बाद फिर वे ही डाक्टर साहब आये। मैंने उनसे अर्ज की मेरे मालिक से मिला दो। डाक्टर साहब बोले "तुम अभी तक यहीं बनी हो! वह तो कोई चार-पाँच दिन हुए हमारे शफाखाने से चला गया। हमने बहुत कहा अभी आराम नही हुआ अभी ठहर जा, पर उसने कहा कि मेरे बाल-बच्चे भूखों मरते होगें मैं नही ठहरूँगा।" इस लिए मैं ना-उम्मीद हो कर वहाँ से निकल आई। मार्ग में तीन आदमी दूर-दूर खड़े हुए मुझे मिले। पहले आदमी ने कहा-कहाँ जाती हो? किस की तलाश में हो? मैंने सारा किस्सा कह सुनाया। उस आदमी ने कहा- तुम्हारे आदमी का नाम इस्माइल था। मैंने कहा-हाँ। तब उसने बड़े अचंभे के साथ कहा- अरे वह तो कलकत्ते भेज दिया गया, उसे आरकाटी ने बहका दिया था। मैं बड़ी घबराई। थोड़ी दूर पर दूसरे आदमी ने भी ये ही बातें कहीं। आगे चलने पर तीसरे आदमी ने कहा, "पीछे तुम्हारा पति अपने घर पर आया था, उसे तो आरकाटी ने बहका दिया कि तेरी स्त्री कलकत्ते भेज दी गयी; इसलिए वह तो कलकत्ते गया। अगर तुझे उससे मिलना हो तो जल्दी तू भी कलकत्ते जा। मै कलकते जाने पर राजी हो गयी। उस आदमी ने मुझे बहुत-से आदमियों के साथ जो कलकत्ते आ रहे थे, भेज दिया। जब मै कलकत्ते की डिपो में पहुँची तो मुझे पता लगा कि मेरा मालिक तीन दिन हुए फिजी भेंज दिया गया है! इसके बाद मैं भी इस लड़की के साथ यहाँ भेज दी गयी। आज तीन वर्ष हो गए, मैं इस कोठी में काम करते-करते मरी जाती हूँ, मुझे नही मालूम मेरा मालिक कहाँ हैं। मैं तुम्हारा बड़ा अहसान मानूगीं, अगर तुम उससे मुझे मिला दो।" इतना कह कर वह स्त्री फूट-फूट कर रोने लगी। और उसकी लड़की भी अब्बा-अब्बा कहकर रोने लगी। मैंने उससे कहा बेटी! तुम मुझे अपने मालिक का नाम, अपनी सास-ससुर वगैरह का नाम और अपना सब हाल लिखवा दो, मै तुम्हारे मालिक को तलाश करूँगा। मैंने अपनी डायरी में उसका सब हाल लिख लिया और उसे तसल्ली दे कर मैं स्टीमर पर सवार हो कर कई घंटे के बाद सुवा आ पहुँचा। सुवा आते ही मैं एजेंट जनरल के पास गया और मैंने उनसे प्रार्थना की कि कृपया आप अपने आफिस के क्लर्क से कह कर एक सूची बनवा दीजिये जिसमें कि गत तीन वर्ष में आये हुए इस्माईलों की कोठियों के पते हों। एजेंट जनरल ने मुझे से कहा, "हम यह काम करवाने का तुम्हारा नौकर नहीं हैं। मैंने एक व्यक्ति से सुना की कोठी में इस्माइल नामक एक पुरुष हैं। मैंने उसी कोठी में जाने का निश्चय किया। जब मै स्टीमर पर सवार होकर उस कोठी में पहुँचा तो मैने इस्माइल को बुलवाया और मैंने उसकी स्त्री के विषय में पूछा। इस्माइल के मुख पर कुछ पसीना आ गया और वह बोला- "मेरी औरत ललिया थी।" मैंने उससे कह दिया की तुम्हारी औरत अमुक कोठी में, जो यहाँ से 500 मील पर है, काम करती है। मैं तुम्हारी ओर से एक अर्जी पंद्रह दिन की छुट्टी के लिए एजेंट जनरल के नाम लिखे देता हूँ।, तुम इस पर अपने दस्तखत करों। अर्जी लिख कर मैंने अपने साथ ली। तदनंतर नाव पर सवार हो मैं उस कोठी में पहुँचा जहाँ की ललिया काम करती थी। जब मैंने उससे यह हाल कहा तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई और प्रसन्नता के कारण उसकी आँखों मे आँसू आ गए। मैंने उसकी ओर से भी एक अर्जी एजेंट जनरल के नाम लिखी। दोनों अर्जी ले कर मैं एजेंट जनरल के पास गया। एजेंट जनरल बड़ा नाराज हुआ और उसने कहा- "जाओ हम नही जानटा, कोठी वाला जाने।" मैं बड़ा हैरान था कि क्या करूँ। अंत में मैंने सोचा, चलो कोठीवाले के पास ही चलें और उसी से छुट्टी के लिए कहें। तत्पश्चात मैं ललिया को ले कर कोठीवाले के पास गया। कोठीवाले ने हम दोनों को फटकार कर कहा- "मानते ही नही, क्यों मुझे तंग करते हो! हमारा काम 'सफर' करेगा।.........गन्ना कटने के लिए तैयार है। जाओ हम छुट्टी नही देगा।"

लौटकर मैंने विचार किया कि किसी दूसरी तरकीब से अभी छुट्टी दिलाऊँगा। इधर क्या हुआ, इस्माइल काम करते- करते और अपनी स्त्री व लड़की की फिक्र से बीमार पड़ गया। उसने अर्जी दी, वह अस्पताल भेज दिया गया। अस्पताल के डाक्टर ने उसे काम पर वापस कर दिया और लिख दिया, इसे कोई रोग नही, बहाना बनाता है। बेचारा फिर काम पर वापस आया। अब की बार उसकी तबियत और भी ज्यादा खराब हो गयी। वह अस्पताल फिर भेजा गया, बड़े डाक्टर ने उसे देखा और लिख दिया "इसको कोढ़ की बीमारी है, यह बहुत कमजोर है इससे काम नहीं होगा। अगर बैठे-बैठे तनख्वाह देना चाहते हो तो भले ही दो। बेहतर तो यह होगा कि इसे इंडिया को वापस भेंज दो। जहाज चौदह या पंद्रह दिन में जाने वाला है।' कोठी के मालिक ने यही विचार कर लिया कि इसे शीघ्र ही हिंदुस्तान भेज देना चाहिए। जब मुझे यह खबर लगी तो मै फिर उस अस्पताल में पहुँचा। मैंने इस्माइल से पूछा तो उसने कहा कि डाक्टर के कहने के मुताबिक ये मुझे जबरदस्ती अभी हिंदुस्तान भेजनेवाले हैं। अब मै अपनी औरत से कैसे मिलूँगा? मैंने सोचा कि यह तो बड़ा अनर्थ हुआ। मैं झटपट ही एक बैरिस्टर के पास गया और मैंने उसे दो गिन्नी अपने पास से इसलिए दिया कि किसी तरह प्रयत्न करके इसे अभी हिंदुस्तान जाने से रोक लिया जाय। बैरिस्टर साहब ने प्रयत्न करके पूछताछ की और कहा कि अब तो उसका जाना निश्चित हो गया। अब क्या हो सकता है? जहाज छूटने वाला था। मैं वहाँ से चलकर जहाज के निकट आया, देखा तो इस्माइल को जहाज में सवार पाया। इस्माइल की हार्दिक अभिलाषा थी कि वह अपने स्त्री से मिले। भारतवर्ष को जहाज छूटते वक्त इस्माइल के नेत्र अश्रुओं से परिपूर्ण थे। यद्यपि असह्य दुःख के कारण मुझसे वह कुछ कह नही सकता था; पर उसकी आकृति से दुःख टपकता था। मुझे भी उस समय हार्दिक खेद था। मैंने दिल में सोचा की मेरा प्रयत्न सब व्यर्थ गया और मैंने ललिया से जो प्रतिज्ञा की उसे मै पूरी न कर सका। मैंने जहाज के एक खल्लासी से कह दिया था कि इस्माइल की देखभाल रखना। यह बीमार है, इसे यथाशक्ति सहायता देना। जहाज रवाना हो गया, मैं 'जैसी भगवान की इच्छा' कह के घर लौट आया। जब वह जहाज भारतवर्ष से फिजी लौटा तो उस खल्लासी ने मुझसे कहा कि हिंदुस्तान की जमीन पर पैर रखते ही कलकत्ते में इस्माइल की मौत हो गयी। मुझे सुनकर बड़ा खेद हुआ, मैं सोचने लगा कि यह समाचार मैं ललिया को कैसे सुनाउगाँ! वह इस्माइल से मिलने की राह देखती होगी। मै कड़ा दिल कर के ललिया की कोठी को रवाना हुआ। वहाँ पहुँचकर पहले तो मैंने उससे कहा कि तुम्हारा पति हिंदुस्तान भेज दिया गया। वह फूट-फूटकर रोने लगी। मैंने तसल्ली दे कर कहा, अब तुम्हारे गिरमिट के थोड़े दिन बाकी हैं तुम्हें भी हिंदुस्तान चार महीने बाद भिजवा देगें। दूसरे दिन इतवार को मैंने उसकी मृत्यु का हाल सुना दिया। सुनते ललिया को मूर्च्छा आ गयी और वह बीमार पड़ गयी। बड़ी कठिनाई से 15 दिन में उसे थोड़ा-बहुत आराम हुआ। अपने दुःख को वह स्वयं ही जानती थी। इस दुर्दशा में भी कोठीवाले उससे बराबर काम लेते रहे! धिक्कार है सहस्त्रवार ऐसे पौंड, शिलिंग और पैसों पर जिनके लिए प्लैंटर लोग मनुष्य जाति पर ये अत्याचार करते हैं। ये अर्थपिशाच और धनलोलुप प्लैंटर कहते हैं:

"Material resourses of the colonies cannot be developed without these labourers."

अर्थात बिना इन मजदूरों के उपनिवेशों के द्रव्य-साधनों में उन्नति नहीं हो सकती। हमारी समझ में मनुष्यों को दासत्व-श्रृंखला में बाँधने में यह लाख गुना बेहतर है कि उपनिवेश ऊजड़ और कंगाल बने रहें।

आस्ट्रेलिया की सैर

हम लोगों में बहुत-से ऐसे होंगें जो यह भी नही जानते होंगें कि आस्ट्रेलिया में सौ-दो सौ भारतवासी रहते हैं या नही। इस बात का कारण हमारे अनुत्साह के सिवाय और क्या हो सकता हैं? हम लोगों के हृदय में इस बात की इच्छा ही उत्पन्न नही कि दूसरे देशों में रहनेवाले अपने भारतीय भाइयों के बारे में जानने का प्रयत्न करें। और न हो, तो सैर करने के लिए ही हम में से दस-पाँच आदमियों को ऐसे द्वीप-द्वीपांतरों में जाना चाहिए, जहाँ कि भारतवसी बसे हुए हैं। हमारे यहाँ के राजा-महाराजा और सुशिक्षित धनवान पुरुष भी जब सैर करना चाहते हैं तो सीधे इंग्लैंड या फ्रांस को चल देते हैं।

एक बार सैर करने के लिए मैंने आस्ट्रेलिया जाने की इच्छा की। आस्ट्रेलिया की सरकार से मुझे आज्ञा लेनी पड़ी। मैं सिडनी पहुँचा। तत्पश्चात मैं वहाँ के एक होटल में चला गया और सात शिलिंग देकर वहाँ ठहर गया। गोरे लोंगो से अलग मुझे एक कमरा दिया गया। मैं उस कमरे में जा कर लेट रहा। मेरे पहुँचते ही वहाँ हल्ला हो गया 'काला आदमी आया है।' बस, फिर क्या था, कितनी ही स्त्रियाँ और पुरुष मुझे देखने के लिए मेरे कमरे पर आये! भीड़ के मारे मेरी तबियत हैरान थी। मेरे विषय में कोई कुछ कहता था, कोई कुछ। एक स्त्री मुझसे बोली "औल ब्लैक' हैव यू गौट नों सोप।" पर मैंने उसकी बात का उत्तर देना ठीक न समझा। मुझे इस बात का डर था की अगर कहीं इन लोगों को यह ज्ञात हो गया की मैं थोड़ी अंग्रेजी बोल और समझ सकत हूँ तो ये बातें पूछते-पूछते मेरा पिंड न छोड़ेंगें। मैंने एक साथ जोर से फिजियन भाषा में कहा, "लाकौ सालेबू न औसो ज्यौसौं" अर्थात 'चले जाओ, कोठरी बहुत भर गयी हैं।' यह सुन कर बहुत से लोग चले गए, लेकिन तब भी कितनी ही स्त्रियाँ वहीं खड़ी रहीं। मुझे प्यास लगी तो मैंने अपना लोटा बैग से निकाला। लोटे को देखते ही वे चिल्लाने लगीं "come, Come, look at this water pot" यह आवाज सुनकर और भी भीड़ इकट्ठी हो गयी। भीड़ में से एक स्त्री बोली यह मँजता है, दूसरी बोली यह कभी नहीं माजा जाता, इतने में इतने में एक तीसरी स्त्री उसे उठा ले गयी और नहाने के साबुन से उसे साफ करने लगी। भला नहाने के साबुन से लोटा किस तरह साफ हो सकता था? तदनंतर किसी अन्य स्त्री ने कहा की इसमें sand soap (बालू का साबुन) लगाओ। ऐसा किया जाने पर वह लोटा साफ हो गया। इसके बाद मैंने पाखाने जाना चाहा और मै लोटा लेकर चलने लगा तो फिर सबको आश्चर्य हुआ। जब मै पखाने से लौटा तो होटल की मैनेजर स्त्री ने कहा 'You habe sapoiled our latrin' तुमने हमारा शौचालय खराब कर दिया मैंने क्रुद्ध हो कर कहा, 'Then given me back my seven shillings, I will not stay here.'-"तो मेरे सात शिलिंग लौटा दो। मै यहाँ नहीं ठहरूँगा।"

मैंने सोचा कि यहाँ रहने से बहुत-सी असुविधाएँ होंगी, चलो किसी हिंदुस्तानी भाई के यहाँ चल कर ठहरें।

यहाँ पर दो-चार बातें आस्ट्रेलिया-प्रवासियों के विषय में कहना अनुचित न होगा। आस्ट्रेलिया में कोई 6644 भारतवासी हैं। आस्ट्रेलिया में अब और भारतवासी नहीं बसने पाते। "शिक्षा की परीक्षा" जिसका कि आविष्कार नेटाल ने किया था, आस्ट्रेलिया में भी प्रचलित है। आस्ट्रेलियन अफसर नए आनेवाले भारतवासी की परीक्षा लेते है कि वह अंग्रेजी पढ़-लिख सकता है या नहीं, और जबरदस्ती भारतवासियों को फेल कर देते हैं और आस्ट्रेलिया में नहीं घुसने देते। यह मुफ्त की परीक्षा देते समय परीक्षा देनेवालों के जो हार्दिक भाव होते हैं उन्हें वे ही अच्छी तरह जान सकते हैं, जिन्होंने कभी इस तरह की परीक्षा दी हो। आप उस बेचारे की स्थिति पर तो ध्यान दीजिये जो की सात समुद्र पार से अनेक कष्ट सहता हुआ बहुत रुपये खर्च करके, आया हो और फिर परीक्षा में फेल करके वापस कर दिया जाय। क्या ही अच्छा हो यदि 'दुष्टं दुष्टवदाचरेत' की निति से भारतवर्ष में आनेवाले आस्ट्रेलियन लोंगो की हिंदी में परीक्षा ली जाय!

लेकिन यह खैरियत है कि आस्ट्रेलियन लोग दक्षिण अफ्रीकावालों की तरह बहुत निर्दयी नही हैं। जो 6644 भारतवासी आस्ट्रेलिया में बस गए हैं, उन पर आस्ट्रेलियन सरकार अत्याचार नही करती। यद्यपि आस्ट्रेलिया में नये भारतवासी नहीं बसने पाते, पर सैर करने के लिए या जलवायु परिवर्तन के इए मेलबोर्न नगर के वैदेशिक विभाग (Department for external Affairs) से आज्ञा मिल जाती है। परंतु इसमें भी एक बड़ी बाधा हैं, वह यह कि 100 पौंड की जमानत देनी पड़ती है। जो भारतवासी आस्ट्रेलिया में बस गए हैं, उनमें अधिकतर पंजाबी, सीख और पठान हैं। सीख लोग ज्यादातर गेंहूँ खेती करते हैं और पठान लोग ऊँट रखते हैं। पढ़े-लिखे ये लोग बिलकुल नहीं। परंतु हर्ष की बात हैं की ये लोग यूरोपियन लोगों की तरह जमीन व घर सकते है, राजनीतिक अधिकार भी उनको प्राप्त हैं, चुंगी की मेंबरी के लिय वोट भी दे सकते है। सर्वसाधारण की संस्थाओं में जा सकते हैं और होटलों में ठहर सकते हैं। पुलिस भी उन पर विशेष अत्याचार नही करती।

पहले कुछ निम्न कोटि के गोरों ने भारतवासी सिक्खों और पठानों से छेड़छाड़ की थी; परंतु जब उसके प्रत्युतर में भारतवासियों ने दो-चार डंडे जमा दिए तो फिर छेड़ने का साहस उन्हें न हुआ! आस्ट्रेलियन लोगों लोगों में प्राय: यह भाव प्रचलित हो गया है कि भारतवासी बड़ी जल्दी क्रुद्ध हो जाते है और लाठी लेकर सीधे हो जाते हैं, इसलिए इनसे छेड़छाड़ करना ठीक नहीं! कुछ भी क्यों न हो, हम यह अवश्य कहेंगें कि प्राय: आस्ट्रेलियन लोग दक्षिण अफ्रीकावालों से हमारे साथ बर्ताव करने में कई गुने अच्छे हैं। हाँ, एक बात बड़े आश्चर्य की हैं, वह यह कि आस्ट्रेलियन लोग इस बात पर कोई आपत्ति नहीं करते की हिंदुस्तानी पुरुष आस्ट्रेलियन स्त्रियों से विवाह करे। उनकी पॉलिसी यह है कि चूँकि हिंदुस्तानी आस्ट्रेलिया में रुपया कमाते हैं, इसलिए उन्हें इस रुपये को यहीं खर्च करना चाहिए।

आस्ट्रेलियन स्त्रियाँ बड़ी खर्चीली होतीं हैं और जो कोई उनसे विवाह करता है तो उसकी आय का अधिकांश मेमसाहब ही खर्च कर डालती हैं! पठन लोगों ने ही अधिकतर आस्ट्रेलियन स्त्रियों से विवाह किया है, और थोड़े बहुत सिख भी ऐसे हैं जिन्होनें कि इन स्त्रियों के साथ शादी की है। इन स्त्रियों को अथवा इनकी संतति को ये लोग आस्ट्रेलिया से किसी दूसरी जगह नहीं ले जा सकते। आस्ट्रेलियन सरकार की यह बात न्यायसंगत नही है। यह बात सच है कि हमारे देश के लोगों ने निर्धन आस्ट्रेलियन स्त्रियों से विवाह किया हैं पर इससे यह अवश्य प्रकट होता है कि आस्ट्रेलियन लोग काले रंग से बहुत घृणा नही करते हैं।

होटल से मै चला आया और किसी हिंदुस्तानी का घर तलाश करने लगा। अकस्मात मुझे एक जानता-पहचानता अंग्रेज मील गया जो कि फिजी में काम करता था। वह मुझे सिडनी से 15 मील दूरी पर ले गया और मुझे मेवाराम नामक एक पंजाबी जाट का घर दिखा दिया। मेवारामजी के दरवाजे पर मैं गया। मेवारामजी से मैंने सारा हाल कह सुनाया। उन्होंने मेरा बड़ा आदर-सत्कार किया। मेवारामजी ने एक आस्ट्रेलियन स्त्री से विवाह कर लिया था और वे मिस्टर मेव के नाम से पुकारे जाते थे। मेरे लिए मेवारामजी ने दो-तीन शिलिंग के सेव और अंगूर ला दिए। भूखा तो मै था ही, खा कर खूब सोया। कई दिन मैं मेवारामजी के यहाँ रहा। फिर सिडनी इत्यादि को सैर करता हुआ मै स्टीमर द्वारा फिजी को चला आया।

फिजी में अब कैसे भारतवासियों के जाने की आवश्यकता है?

कुली बन कर शर्तबंदी में तो वहाँ एक भी भारतवासी को कभी न जाना चाहिए, पर कोई अपना खर्चा करके जाना चाहे तो जा सकते हैं। जो आदमी लुहारी का काम जानते हों, या घोड़ों के नाल लगाना जानते हों, उनकी गुजर वहाँ बहुत अच्छी तरह हो सकती है। ऐसे आदमी तीन रुपये रोज कमा सकते हैं। फिजी में सर्वेयर लोगों की बड़ी जरूरत है। निस्संदेह सर्वेयरों को वहाँ खुब आमदनी हो सकती है। वकील बैरिस्टर भी वहाँ जा कर अच्छी आमदनी कर सकते हैं। लेकिन जो वकील या बैरिस्टर स्वार्थी हों और रुपया कमाना ही जिनके जीवन का लक्ष्य हो वे फिजी को न जायें, क्योंकि फिजी में तो मणिलाल जी के समान वकीलों बैरिस्टरों की आवश्यकता है। सबसे ज्यादा जरूरत फिजी में हिंदुस्तानी डाक्टरों की है। यदि भारतवर्ष से कोई डाक्टर वहाँ चले जाएँ तो अपने भाइयों को बड़ी सहायता पहुँचेगी। जो बैरिस्टर वहाँ जाना चाहें उनको अपनी डिग्री का प्रमाण-पत्र साथ ले जाना चाहिए। जिनको भारतीय भाइयों के साथ हार्दिक प्रेम से बरतने और उनके आंतरिक दुखों के विमोचन के उपाय सोचने में जमुहाई आये उन महाशयों को वहाँ जाना उचित नहीं है। जिनके हृदय में शांति, दया, क्षमा, परोपकार, देश-सेवा, दिनों का उद्धार ये गुण बस रहे हों उन्हीं से प्रवासी भाइयों का उद्धार हो सकता है। जिनको निरंतर पैसे की धुन के सिवाय और कुछ नहीं सूझता हो वे महाशय कृपा करके फिजी न जायें।

धन्य हैं वे लोग जो स्वार्थ को त्याग कर प्रवासी भाइयों के दुःख में भाग ले रहे हैं और कुटुम्ब से मुँह मोड़ टापुओं में जा कर अपने भाइयों को धैर्य दे रहे हैं।

ऐसे लोगों के जाने से फिजी के दुखित भारतीय लोगों के बहुत कुछ कष्ट दूर हो जाएँगे। फिजी के वर्तमान गवर्नर Sir Bickam Sweet Escott bde उदार और न्यायप्रिय हैं और हम यह बात निस्संदेह कह सकते है कि ऐसा अच्छा गवर्नर फिजी में कभी नही आया। गवर्नर साहब कहते हैं "हमारी हार्दिक इच्छा है कि फिजी के भारतवासी सुशिक्षित हो जाँय और यहाँ के राज्य-संबंधी कार्यों में भाग लेने लगें।" फिजी की उन्नति खास तौर पर वहाँ के भारतवासियों की उन्नति पर निर्भर हैं, क्योकि जो वहाँ के आदिम निवासी हैं वे धीरे-धीरे कम होते जाते हैं। वहाँ 40,000 भारतवासी हैं, जो वहाँ के यूरोपियन लोगों की संख्या से 12 गुने हैं। भारतवर्ष के किसी बंदरगाह से न्यूजीलैंड या आस्ट्रेलिया होते हुए फिजी जा सकतेहैं। आस्ट्रेलिया होकर जाने में वहाँ उतरने की आज्ञा पहले से मँगानी होगी, पर न्यूजीलैंड होकर जाने में कोई विशेष दिक्कत नहीं होगी। और सबसे सस्ता मार्ग तो यह है की British India Steam Navigation Company के उन जहाजों से जाएँ जो कि 'कुली जहाज' कहलाते हैं। इन्ही जहाजों से हम कुली लोग बहका कर भेजे जाते हैं। इन जहाजों से जानेवालों यह भी ज्ञात जाएगा कि जहाजों पर हमारे भाइयों को कितने कष्ट दिए जाते हैं; परंतु इन जहाजों का आना-जाना ठीक-ठीक निश्चित नही रहता।

स्वदेश की यात्रा

है ऐसौ कोऊ अधम मनुज जगमाँहीं
जाके मुख सों वचन कबहूँ निकस्यौ यह नाही
"जन्मभूमि अभिराम यही है मेरी प्यारी
वारो जापै तीन लोक की संपत्ति सारी"
सात समुंदर पार विदेशन सों करि विचरन
भयो नाहीं घर चलन समय हर्षित जाकौ मन?

(जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी)

उपर्युक्त कथन अक्षरशः सत्य है। शायद ही संसार में कोई ऐसा अधम मनुष्य निकले जिसका कि मन विदेश से अपने घर को आते समय प्रसन्न न हुआ हो। इक्कीस वर्ष फिजी में रह कर मेरे हृदय में अपनी मातृभूमि और माता के दर्शन करने कि लिए उत्कट इच्छा उत्पन्न हुई। मैंने अपना यह विचार डाक्टर मणिलाल जी से कहा, उन्होंने कहा अगर तुम वहाँ जा कर कुछ काम करो तो तुम्हारा जाना ठीक है। मैंने कहाँ, न तो मुझमें इतनी बुद्धि है और न मैं कुछ अधिक पढ़ा-लिखा ही हूँ। मैं वहाँ अपने भाइयों कि क्या सेवा कर सकूँगा। श्रीयुत मणिलालजी ने कहा "तुम्हारे लिए एक काम मैं बताता हूँ कि तुम गाँवों जा कर कुली-प्रथा के विरुद्ध प्रचार करो और अपने ग्रामीण भाइयों को यहाँ के कष्टों को बता दो।" मैंने भी यही कहा कि मैं आपकी आज्ञा को पालन करने का यथाशक्ति प्रयत्न करुगाँ। तत्पश्चात मैंने इमिग्रेशन विभाग को इस बात को सूचना दी कि मै भारतवर्ष को जाना चाहता हूँ। वहाँ से उत्तर आया कि 27 मार्च, 1914 को सुवा से स्टीमर कलकत्ते को चल देगा। वहीं सुवा पहुँचना चाहिए। इसके बाद फिजी के हर जिले से प्रतिनिधि आ कर एकत्रित हुए और सुवा में मुझे एक अभिनंदन-पत्र दिया गया। यद्यपि में इस आदर के योग्य कदापि नहीं था तथापि 'आज्ञागुरुणांह्यविचारणीया' अर्थात गुरुओं की आज्ञा मानना ही धर्म है, यह सोच कर मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया! इन लोगों ने भी मुझे यही आज्ञा दी कि तुम जाकर गाँव के लोगों में हमारे दुखो को सुनाओ और आरकाटियों के विरुद्ध यथाशक्ति आंदोलन करो। जिस समय मैं उन लोगों से विदा हुआ उस समय मेरे हृदय में खेद और हर्ष दोनों के भाव उत्पन्न हो रहे थे। खेद, इसलिए था कि मैं अपने भाइयों से जुदा हो रहा था और हर्ष इसलिए कि मैं अपने मातृभूमि को आ रहा था।

इमिग्रेशन विभाग ने पहले से विज्ञापन दे रखा था कि जो कोई हिंदुस्तानी जाने वाला हो वह सुवा में हमारे कार्यालय पर आये। इस समाचार को पाकर कोई 1300 भारतवासी Immigration Office में एकत्रित हुए। कितने ही तो इनमें अपना घर, खेत, मॉल-असबाब सब बेंच कर स्वदेश को आने की तैयारी कर चुके थे। इस आशा से उन्होंने अपने वस्तुओं को आधे व तिहाई मूल्यों पर दे दिया था! परंतु इनमें से कुल 833 आदमी लिए गए, शेष सब धक्का मार कर निकाल दिए। एक भारतवासी का, जो फिजी में रहता था, पिता भारतवर्ष में मर गया। उसकी माँ की चिठ्ठी फिजी में पहुँची कि मै भूखों मरी जाती हूँ, कौड़ी पास नही, जैसे हो तैसे जल्दी चले आओ। वह बेचरा भागता हुआ आफिस में पहुँचा। जब वह भीड़ से निकल कर भीतर जाने लगा तो एक गोरे सिपाही ने उसे पकड़ लिया और उसे कोठरी में बंद कर दिया। दूसरे दिन उस पर यह अभियोग लगाया गया कि इमिग्रेशन के आफिस का मार्ग रोक रहा था। बस उस पर 10 शिलिंग जुर्माना हुआ और भारतवर्ष को आने की आज्ञा उसे नहीं मिली। उसके हृदय में अपनी विधवा माँ के देखने की उत्कट इच्छा थी, परंतु उस सिपाही की धूर्तता के कारण वह भारतवर्ष आने से रोक दिया गया। पाठक-गण! क्या आप उस मनुष्य के दुःख का अनुमान कर सकते हैं?

तदनंतर हम लोंगो को सुवा डिपो में जाना पड़ा। वहाँ पर नित्यप्रति हम लोगों की हाजिरी होती थी। वहाँ भी हम लोंगो के साथ पशुओं के समान वर्ताव किया जाता था। एक बेचारे भारतवासी से कहीं यह अपराध बन पड़ा कि उसने नीबू के पेड़ से एक नीबू तोड़ लिया। सो भी किसलिए? इसलिए कि उसका छोटा-सा बच्चा नीबू के लिए बहुत देर से रो रहा था फिर क्या था, गोरे साहब ने हाथ पकड़कर उसे घसीट डाला, नीबू हाथ से छीन कर फेंक दिया और उसको जो टिकट भारतवर्ष जाने के लिए मिला था वह छीन लिया और उसे वहाँ से निकाल दिया! उसे फिजी में ही रहना पड़ा। रेल पर पहुँचने पर जब रेल छूट जाती है और बैठने नहीं पाते तो हम लोगों को बड़ा खेद होता है, यद्यपि हमें इस बात की आशा रहती है कि चार-पाँच घंटे बाद दूसरी ट्रेन मिल जाएगी, तो फिर उस मनुष्य को कितना रंज हुआ होगा जिसे कि एक नीबू तोड़ने के अपराध में फिजी में वर्ष भर और रहना पड़ेगा और कष्ट भोगने पडेंगें!

जहाज चलने के एक दिन पहले इमिग्रेशन आफिस के क्लर्क ने हम लोगों से पूछा, कितने रुपये घर लिए जा रहे हो? क्योकि वह बात वहाँ पर लिखी जाती है। कितने ही हमारे मूर्ख भाइयों ने लिख दिया कि हम 2000 रुपये या 4000 रुपये लिए जाते हैं। पीछे से कलकत्ते पहुँचने पर मुझे ज्ञात हुआ कि इनके पास एक कौड़ी भी नही थी, कलकत्ते से घर तक के लिए किराया भी तो था नही! ये लोग यह नहीं समझते कि झूठ लिखा देने से बहुत हानि होती है। जब कभी कोई फिजी-प्रवासी भारतवासियों के दुःख वर्णन करता है तो इमिग्रेशन आफिसवाले यह प्रमाण पेश करते हैं कि देखो इतने लाख रुपये प्रतिवर्ष कुली लोग कमा कर फिजी से भारतवर्ष ले जाते हैं। इसके अतिरिक्त इमिग्रेशन आफिस के क्लर्क लोग तो शून्य का कुछ मान ही नही समझते। किसी कुली ने कहा, हम 15 रुपये घर लिए जाते हैं; पर क्लर्क साहब ने एक शून्य और बढ़ा कर 150 रुपये लिख दिए। इसके अतिरिक्त कोई छल्ला, अँगूठी इत्यादि पहने हो तो उसका भी मूल्य दस-बीस गुना लिख देते हैं! उदाहरणार्थ कोई चाँदी का छल्ला पहने हुए है तो क्लर्क साहब पूछते हैं 'यह छल्ला किते का हैं?' उसने कहा, हुजूर! यह आठ आने का है!! क्लर्क साहब कहते हैं, यह छल्ला आठ आने का है? यह कम से कम आठ रुपये का हैं। हम इसका दाम रजिस्टर में आठ रुपये लिखता है। यह कहकर उस छल्ले के दाम आठ रुपये लिख दिए। इस प्रकार से लिखे गए रुपयों का जोड़ यदि लाखों पर पहुँचे तो इसमे आश्चर्य ही क्या है।

'जहाज में बैठने में भी इमिग्रेशन विभाग के हैड क्लर्क साहब बड़ा कष्ट देते हैं। यदि किसी आदमी के पास अधिक सामान हो तो उसे बड़ी तकलीफ सहनी पड़ती है। क्लर्क साहब एक बार जितना सामान एक आदमी ला सकता हैं उतना ही लाने देते हैं। दूसरी बार फिर नहीं जाने देते, चाहे उसका सामान डिपो में वहीं पड़ा रह जाय।

हम लोग भेंड़-बकरियों की तरह भर दिए गए। मार्ग की कठिनाईयों के वर्णन करने की आवश्यकता नहीं। एक बार जबकि हमारे भाइयों को जहाज में खाना बँट रहा था और एक गोरा डाक्टर हाथ में बेंत लिए दो-एक भारतवासी को मारता जाता था, मैंने फोटो से उसकी तस्वीर खींची। गोरे डाक्टर को यह बात ज्ञात हो गयी वह मेरे पास आया और मुझसे कहा 'जरा इस फोटो को मुझे दीजिये। देखें आप कैसा खींचतें हैं, मैंने धोखे में आ कर प्लेट सहित कैमरा दे दिया, उसने झट से मेरा कैमरा और प्लेट इत्यादि को समुद्र में फ़ेंक दिया। मैं देखता रह गया!

जहाज में हम 833 भारतवासी फिजी से लौटकर आये थे। इनमें से लगभग 500 के पास तो कलकत्ते से घर तक जाने के लिए किराया भी नही था। जो लोग कहते हैं कि टापुओं में जाकर भारतवासी धन बटोर लाते हैं उन्हें आँखे खोल कर उपर्युक्त बात पर ध्यान देना चाहिए। मुझे फिजी से चलते समय एक विश्वस्त सूत्र से ज्ञात हो गया था कि मेरी तलाशी ली जाएगी। अतएव मैंने अपने सदूक पर से अपने नाम को तारकोल से मिटवा दिया और अपने एक मित्र का नाम लिखवा दिया। इस संदूक में बहुत-से कागज-पत्र ऐसे थे जिनमें की फिजी-प्रवासी भारतवासियों के दुखों और कष्टों का वर्णन था और कितने मजिस्ट्रेटों के फैसलों (Judgement) की प्रतिलिपि भी थी। श्रीमान गाँधीजी, श्रीयुत मणिलालजी इत्यादि से जो पत्र व्यवहार हुआ था, उसकी नकलें थीं। यद्यपि इन वस्तुओं में कोई वस्तु हानिकारक नही थी, पर मुझे ख्याल था कि फिजी के गोरे मेरा पीछा जहाज में भी नहीं छोड़ेंगे। आख़िरकार तलाशी हुई। असली संदूक तो, जिसमें कि कागज-पत्र थे, मेरे एक मित्र के पास था, पर एक दूसरे ट्रंक की तलाशी ली गयी। जहाज में हम लोगों ने चंदा इकट्ठा किया और 18 आदमियों को घर तक जाने के लिए दाम दिए। मैंने विचार किया की कलकत्ते चलकर हम लोग मिल कर किसी बैरिस्टर के पास चलेंगे और अपने दुखों का वर्णन लिखवाकर एक प्रार्थना-पत्र सरकार की सेवा में भेजेंगे। इस बात के लिए मैंने साठ आदमियों को तैयार भी कर लिया था और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए थोड़ा चंदा भी इकट्ठा कर दिया था। अप्रैल 1914 को हम लोग कलकते आ पहुँचे। अपनी मातृभूमि के दर्शन कर हम लोगों का हृदय गद-गद हो गया। खेद की बात है कि जिन लोगों को मैंने बैरिस्टर के पास चलने के लिए तैयार किया था, वे जहाज से उतरते ही इधर-उधर चले गए और मैं अकेला ही वहाँ रह गया! हिरनगौ में घर पहुँचकर अपनी माँ के चरण छूने से मुझे जो प्रसन्नता हुई वह अवर्णनीय हैं!

उपसंहार

इस अंतिम अध्याय में मुझे कुली प्रथा के विषय में कुछ कहना है।

जो कोई उपनिवेशों में जाकर गिरमिट में काम करनेवाले भारतवसियों को अपनी आँखों से देखेगा उसे यह अवश्य ज्ञात हो जाएगा कि राज-कर्मचारियों कि लिए हुए विवरण और कमीशनों की लिखी हुई रिपोर्टें प्राय: प्रवासी भारतवासियों की वास्तविक स्थिति को प्रकट नही करती। सूक्ष्म दृष्टि से देखनेवाले को यह फौरन ज्ञात हो सकता है कि कुली-प्रथा दासत्व का नया संस्करण मात्र है। Sir Charles bruce ने The Broad stone of empire नामक पुस्तक में लिखा है कि "जब गोरे उष्ण देशों में शारीरिक परिश्रम न कर सके तो फिर काले मजदूरों की आवश्यकता हुई। दासत्व-प्रथा के बंद होने के पहले कितने ही उपनिवेशों में हब्शी लोग ही मजदूरों का काम करते थे, परंतु जब दासत्व-प्रथा बंद हुई तो स्वतंत्र हब्शी लोग इस कार्य को अत्यंत नीच और दासोचित समझने लगे! कुछ उपनिवेशों में वहाँ के आदिम निवासी इतने असभ्य थे कि वे नियमित रूप से खेती का काम न कर सके। यही बातें कुली-प्रथा के जन्म का कारण हुई और इसी प्रथा से कुली मौरीशस, नेटाल,ट्रिनिडाड, जमैका, ब्रिटिश गायना इत्यादि को भेजे जाने लगे।"

सन 1857 ई० में लार्ड सेलिसबरी ने इस प्रथा के विषय में लिखा था कि अंग्रेजी राज्य ने भारतवर्ष में मारकाट बहुत कम करा दी है, इस कारण आबादी बहुत बढ़ गयी है, इसलिए लोंगो को खाने-पीने का आराम नहीं है, अतएव भारतवासियों का उन देशों में जाना अच्छा है जहाँ कि उन्हीं अपने देश से अधिक मजदूरी मिले। लार्ड सेलिसबरी ने अंत में लिखा था-

" A bove all things we must confidenty expect, as an indispensable condition of the proposed arrangements, that the colonial laws and their administrationwill be such thatIndian settlers, who have completed the terms of service to which they agreed, as the return for the expense of bringing themto the colonies, will be free men in all respects, with privileges no whit inreriwr to those of any wther clan of Her majesty's subjects resident in the colonies.

(सप्ताहिक भारतमित्र, 1 जून, 1914)

अर्थात सर्वोपरि बात यह है कि प्रस्तावित प्रबंध की इस अटूट शर्त पर हमें विश्वासपूर्वक आशा करनी चाहिए कि उपनिवेशों के कानून और उनका प्रयोग ऐसा हो कि जिन प्रवासी भारतवासियों के शर्तनामे की मियाद पूरी हो जाएगी, वे उपनिवेशों में अपने लाए जाने के कष्ट के बदले में सब प्रकार से स्वतंत्र होंगें और उपनिवेशों में रहने वाली महारानी की अन्यदेशीय प्रजा के अधिकारों से उनके अधिकार किसी प्रकार कम न होंगें।"

यह कहना अनावश्यक है कि लार्ड साहब ने जो आशा दिलायी थी वह बिलकुल निर्मूल निकली। उपनिवेशों में जो दुःख हमारे भइयों को दिए जाते हैं, उनका अंत नहीं हैं। इससे सरकार को भी कष्ट होता है क्योंकि वहाँ के भारतवासियों पर जब अत्याचार होता है तब यहाँ पर आंदोलन होता हैं। राजकीय उपनिवेशों में गोरे प्लैंटर हम लोगों के साथ गधे और कुत्ते जैसा व्यवहार करते हैं। यदि यह व्यवहार किसी अन्य राष्ट्र के लोगों के साथ किया जाता तो यह कुली-प्रथा कभी की बंद हो गयी होती। फिजीद्वीप में कुछ जापानी शर्तबंदी में लाए गए थे। यद्यपि गोरे लोंगो ने हम भारतवासी कुलियों से कहीं अधिक सुविधाएँ जापानियों के लिए रखी थीं; पर तब भी लगभग एक-तिहाई जापानी कड़ा काम करते-करते मर गए! तब जापान सरकार ने अपने जापानियों को वहाँ से लौटा लिया। सुलेमान द्वीप के निवासी भी इसी तरह गिरमिट में काम करने के लिए फिजिद्वीप में लाए हैं। यह भारतवासी ही हैं जो चने चबाकर 12 घंटे काम कर सकते हैं। मैं अपने 12 वर्ष के अनुभव से कह सकता हूँ, जितना काम एक भारतवासी मजदूर एक दिन में कर सकता हैं उतना काम तीन अंग्रेज, जापानी या चीनी मजदूर एक दिन में कठिनता से कर सकते हैं, यदि दोनों की असुविधाएँ समान हों और दोनों को एकसा खाना दिया जाय। फिजीवालों ने जब चीन-सरकार से मजदूरों के लिए प्रार्थना की तो चीन-सरकार ने साफ मना कर दिया। क्या हमारी सरकार ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि कुली-प्रथा बंद न की जाय? क्या सरकार का यह कर्तव्य नहीं है कि अपनी प्रजा की रक्षा करें? जापानी, सुलेमानी और पालीशीयन लोगों ने फिजी में कुलियों का जाना बंद करा दिया तो फिर हमारी सरकार ही इस बात की क्यों आज्ञा देती है कि जितने कुली चाहो इस देश से भर कर ले जाओ? जिस देश के स्वतंत्रता-प्रिय लोगों ने दासत्व-प्रथा को उठाने के लिए तन-मन-धन से प्रयत्न किया, हा! उसी देश के लोग दासत्व-प्रथा जैसी कुली-प्रथा के पृष्ठपोषक बने हैं, यह कितने खेद की बात है? कामन्स की सभा में जब श्रीमान डोंग्लास हाल ने इस विषय में पूछा था तो श्रीमान मोंटेगू ने, जो उपसचिव हैं, कहा था:

"It may add that the recent Inter Departmentas Committee under Lord Sanderson has recommended that the system be allowed to continue subject to certain recommendation in regard to particular colonies and they are under discussion."

अर्थात "मैं कह सकता हूँ कि पिछली अंतर्विभागीय कमेटी ने, जिसके कि प्रधान लार्ड सैंडरसन थे, यह सिफारिश की है कि कुली-प्रथा जारी रखी जाए और खास-खास उपनिवेशों में कुछ सुधार किए जाएँ और इन सुधारों के विषय में अभी बातचीत चल रही हैं।

तब तो हम जानते जब अंग्रेज लोग कुली-प्रथा में शिलिंग रोज पर भेजे जाते और खाने के लिए साढ़े चार सेर आटा और सवा सेर कच्ची दाल सात दिन को दी जाती, पानी पीने को एक टिन का लोटा और खाना रखने के लिए एक टिन की थाली, सोने के लिए तीन आदमी को कुली लैन की एक कोठरी दी जाती और जमीन पर मूसे की खोदी हुई मिट्टी पर बिना खटिया गद्दा-तकिये के सोना पड़ता और तीन बजे रात में उठ कर काम पर जाने की तैयारी करनी होती, काम पर दिन में एक-दो बार ओवरसियर की किक (लात ठोकर) लगती तो फिर लार्ड सैंडरसन और श्रीमान मौंटेगू क्या यही कहते की कुली-प्रथा जारी रखी जाय?

जब राजर्षि गोखले ने Indentre system कुली-प्रथा के विरुद्ध एक प्रस्ताव को कौंसिल में पेश किया था तो सरकारी सदस्य क्लार्क साहब ने इस बात को मंजूर किया था कि शर्तबंदी के असली नियम कुलियों को नहीं समझाए जाते। सन 1912 के सरकारी गजट के 316 वें पृष्ठ पर क्लार्क साहब लिखते हैं:

It is perfectly true that terms of the contract do not explain to the coolies the face that if he does not carry out his contract or for other offences (like refusing to go to hospital when ill, breach of discipline etc,) he is to incur imprisonment or fine.

अर्थात "यह बात बिलकुल ठीक हैं कि शर्तबंदी में जो नियम रखे जाते हैं उनमें से किसी नियम से कुली को यह बात ज्ञात नहीं होती कि अगर वह शर्त के अनुसार काम पर न कर सकेगा, अथवा कोई दूसरा अपराध करेगा (जैसे बीमार होने पर अस्पताल को ना जाना, आज्ञा-भंग करना इत्यादि) तो उस पर जुर्माना होगा या उसे कैद होगी।

खेद तो हमें इस बात का है कि इन सब बातों को जानते हुए भी क्लार्क साहब ने कुली-प्रथा का समर्थन किया था! संभवत: क्लार्क साहब यह चाहते हैं कि उपनिवेशों के प्लैंटरों के स्वार्थ के लिए भारतवासियों के अधिकार, स्वतंत्रता और जीवन तक को नष्ट कर दिया जाय!

जहाँ तक हमें ज्ञात है, अब केवल सूरीनाम ही एक ऐसा विदेशी उपनिवेश है जहाँ ब्रिटिश उपनिवेशों की भाँति कुली भेजे जाते हैं। वैसे तो सभी उपनिवेशों में हम लोगों के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जाता हैं, पर आश्चर्य और दुःख तो हमें इस बात का है कि ब्रिटिश उपनिवेशों में विदेशी उपनिवेशों कि अपेक्षा और बुरा बर्ताव हम लोगों के साथ किया जाता हैं। W.W.Pearson ने, जो दक्षिण अफ्रीका गए थे, एक लेख जुलायी के माँडर्न रिव्यू में पुर्तगाल के पूर्वी अफ्रीका के विषय में लिखा है। पियरसन साहब के कथन का सारांश यह है कि जो आदमी ब्रिटिश साम्राज्य में पैदा होने का घमंड रखता हो और जो यह विचार करता रहा हो कि ब्रिटिश झंडे के नीचे सब लोगों के साथ न्याय और समानता का बर्ताव किया जाता है, उसे यह देख कर बड़ी लज्जा आयेगी कि जो बर्ताव पुर्तगालवालों के उपनिवेशों में भारतवसियों के साथ किया जाता है वह उससे कहीं बेहतर है जो ब्रिटिश उपनिवेशों में उनके साथ किया जाता है।

दीनबंधु एंड्रूज की कुली-प्रथा के विषय में सम्मति

जनवरी सन 1914 के माँडर्न रिव्यू में दीनबंधु सी.एफ. एंड्रूज ने कुली-प्रथा के विषय में कितनी ही सारगर्भित बातें लिखी हैं। उनके उक्त लेख का अनुवाद यहाँ देना अप्रासंगिक न होगा। श्रीमान एंड्रूज साहब लिखते हैं- "लेकिन अब मैं देखता हूँ कि कुली-प्रथा का प्रश्न एक जुदा ही प्रश्न है और इस प्रश्न के हल करने से स्वतंत्र भारतवासियों को बहुत लाभ होगा। मेरा विश्वास है कि अब भारतवर्ष में हमारा सबसे पहला कर्तव्य यह है कि हम सब मिल कर यह कानून बनाने के लिए आंदोलन करें कि एक भी भारतवासी कभी भी किसी भी मतलब के लिए शर्तबंदी में कुली बनाकर न भेजा जाय। इस कानून को हम Abolition of Indenture System (कुली-प्रथा का उच्छेद) नाम से पुकारते हैं। शर्तबंदी की इस प्रथा को बंद करने के लिए हमें पहला कारण यह बताना चाहिए कि एक सभ्य देश के लिए यह अनुचित है कि उसके नागरिक अपने को एक प्रकार कि वास्तविक गुलामी में बेच डाले और चूंकि भारतवर्ष अब संसार के एक उन्नतशील राष्ट्रों में स्थान प्राप्त कर रहा है, इसलिए भारतवासी इस बात की दृढ़-प्रतिज्ञा करते हैं कि हम इस कुली-प्रथा को जड़-मूल से नष्ट कर देंगे, क्योंकि यह प्रथा हमारी कीर्ति को नष्ट कर रही है। यदि कुली-प्रथा के पक्ष में कोई यह तर्क पेश करे कि शर्तबंदी में काम करनेवाले भारतवासी कुलियों की आर्थिक स्थिति उनकी उस समय की स्थिति से अच्छी होती है जबकि वे स्वतंत्र थे, तो इसका उत्तर यह है कि यही तर्क तो दासत्व-प्रथा के पक्षपाती पेश करते थे, और इसी तर्क ने दासत्व-प्रथा के बंद होने में पचास वर्ष की और देर लगायी थी! इस तर्क का खंडन विस्तारपूर्वक करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि स्वयं इतिहास ने ही इसका खंडन कर दिया है। यदि कोई यह तर्क पेश करे कि कुली-प्रथा में कुलियों कि रक्षा के लिए बहुत-से नियम बने हुए हैं और कुली-प्रथा में वैसे अत्याचार नहीं होते जैसे कि प्राचीन दासत्व-प्रथा में होते थे, तो मैं उससे बहस नहीं करूँगा। मैं केवल उसे यह दिखा दूँगा कि किसी पिछले साल में जहाँ भारतवर्ष में दस लाख पीछे 37 आदमियों ने आत्महत्या की। वहाँ नेटाल में शर्तबंदी में काम करनेवाले कुलियों में दस लाख के पीछे 662 आदमियों ने आत्महत्या की। यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि इस साल में कोई विशेष कारण आत्मघात के नहीं हुए, आप किसी भी वर्ष को ले लें, सबमें लगभग यही अनुपात रहेगा। जिस प्रथा के इस प्रकार से नतीजे निकलें वह अपने आप अत्यंत निंदनीय है, चाहे उसमें रक्षा के कितने ही नियम क्यों न बनाये जायँ। यदि दूसरी हालतों में इस प्रथा से उत्पन्न हुए दुखों के फल दृष्टिगोचर न हों, तब भी यह प्रथा इतनी भयानक है और इसमें अन्याय और अत्याचार की इतनी आशंकाएँ हैं कि सबसे अधिक बुद्धिमानी की बात यही है कि इस प्रथा को बिलकुल बंद ही कर दिया जाय। यदि हम यह बात तर्क के लिए मान भी लें कि प्लैंटर लोग दयाशील होंगे और हर तरह से कुलियों के रक्षा के नियम काम में लाये जाएँगे तब भी हमें यह बात कहनी पड़ेगी कि यह प्रथा एक उन्नतशील राष्ट्र के लिए सर्वथा अनुचित और अयोग्य है। कोई भी इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता कि इंग्लैंड और अमेरिका में यह प्रथा इसी तरह जारी रहती, जिस तरह कि यह भारतवर्ष में प्रचलित है। स्वंय हम लोग भी भारतवर्ष में इस प्रथा की अमानुषिकता को जान गए हैं और इस प्रथा से हमारा जो समय के सर्वोत्तम वीर और सर्वोत्कृष्ट मनुष्य श्रीमान गाँधी के प्रयत्न का केवल यही फल हो कि उपरोक्त भाव हमारे हृदय में उत्पन्न हो जाएँ और हम कुली-प्रथा के विरुद्ध कार्य में प्रवृत्त हों तो भी गाँधीजी का प्रयत्न निष्फल और व्यर्थ नहीं कहा जा सकता! हम यह मानते हैं कि हमें अपने दूसरे दोषों को भी दूर करना होगा। हम लोग अपनी नीच जातियों के साथ जो अमानुषिक बर्ताव करते हैं उसे दूर करना होगा। हम इन बातों का भी ख्याल रखेंगें। परंतु कुली-प्रथा का प्रश्न एक निकट का प्रश्न हैं।

यदि हम इस प्रश्न का सामना ठीक तरह से और न्याय के साथ करेंगे तो संपूर्ण सभ्य संसार की दृष्टि से हम आदरणीय होंगे। क्या हम सब मिल कर इस बात का प्रतिपादन करेंगे कि कुली-प्रथा बंद कर दी जाय? यदि हम सब इस बात के लिए तैयार हैं तो हम सबको एक साथ मिल कर काम करना चाहिए। क्या हिंदू क्या मुसलमान और क्या ईसाई सबको एक स्वर से यही कहना चाहिए कि कुली-प्रथा बंद कर दी जाय। फिर हमारी इस स्पष्ट और न्याययुक्त प्रार्थना को कोई नहीं रोक सकता। हमें इस बात के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ को तिलांजलि देनी होगी और संसार को यह दिखाना होगा कि हम सिर्फ बातें ही नहीं करते, दृढ़ता से काम भी करते हैं। इसमें हमें अन्य स्वार्थी लोगों के साथ भी न्यायपूर्वक और यथोचित रीति से बर्ताव करना होगा। हमारा विरोध और प्रतिकार भी किया जाएगा। भारतवासियों के अंत: करण इस असह्य अन्याय से विचलित हो गए हैं। परंतु हम यह नहीं जानते कि हम क्या करें! चारों ओर से आदमी चिल्ला रहे हैं, हम क्या करें? हम क्या करें? आओ हम सब मिल कर कुली-प्रथा को बंद करें। यदि हम यह काम करेंगे तो हमारा यही काम उपनिवेशों के स्वतंत्र भारतवासियों के आंदोलन में बहुत कुछ सहायता देगा।"

दीनबंधु एंड्रूज की हम शतमुख से प्रशंसा करते हैं और उनकी कृपा के लिए प्रत्येक भारतवासी उनका कृतज्ञ होगा। दासत्व-प्रथा और कुली-प्रथा में केवल इतना ही फर्क है कि पहली प्राय: जीवन-भर के लिए होती थी और दूसरी निश्चित समय तक के लिए।

हमारा क्या कर्तव्य है

प्रत्येक भारतवासी का यह कर्तव्य है कि इस प्रथा के विरुद्ध आंदोलन में सहायता करे। यह कोई राजविद्रोह का काम नहीं होता है। आरकाटी लोग सरकारी नियमों का भी उल्लंघन करके लोगों को फुसलाते हैं और हम लोग आरकाटियों के विरुद्ध आंदोलन करते है; अतएव हमारी समझ में यह कार्य सर्वथा राजभक्तिपूर्ण है। कई जगह ऐसा हुआ कि कुली-प्रथा के विरुद्ध व्याख्यान देने का प्रबंध किया गया, पर आरकाटियों के बहकाने से लोगों ने इस कार्य को राजविद्रोहपूर्ण समझ कर व्याख्यान के लिए अपना स्थान ही नहीं दिया! कितने खेद की बात है कि नाच-गाने के लिए हम स्थान राजी से दे दें, पर कुली-प्रथा के विरूद्ध लैक्चर के लिए प्रार्थना करने पर भी न दें! समाचार-पत्रों का यह प्रथम कर्तव्य है कि इस कुली-प्रथा के विरुद्ध निरंतर लेख छापें। हिंदी पत्रों में 'भारतमित्र' और अंग्रेजी पत्रों में 'मॉडर्न रिव्यू' को छोड़कर ऐसे बहुत कम समाचार-पत्र हमारे देखने में आये हैं जिन्होंने कि इस ओर विशेष ध्यान दिया हो। हमें उपरोक्त पत्रों के संपादकों की मुक्त-कंठ से प्रशंसा करनी चाहिए और अन्य समाचार-पत्रों को उनके इस प्रशंसनीय कार्य का अनुकरण करना चाहिए। जमींदार लोगों का यह कर्तव्य है कि अपने-अपने गाँवों में लोगों को आरकाटियों के फंदे में न फँसने के लिए उपदेश दें। परमेश्वर ने जिन लोगों को धनवान बनाया है उन्हें उचित है कि इस कार्य में आर्थिक सहायता दें और जगह-जगह पर कुली-प्रथा निवारिणी सभा स्थापित करें। जिन लोगों में वक्तृत्व-शक्ति है उनसे यह प्रार्थना करनी चाहिए कि कभी-कभी दो-चार शब्द इस कुली-प्रथा के विरुद्ध भी कह दिया करें। जो कौंसिल के मेंबर हैं उनका कर्तव्य है कि इस प्रथा के विरुद्ध व्यवस्थापिका सभा में प्रस्ताव पेश करें। यदि इन लोगों से यह कार्य भी नहीं हुआ तो इनको प्रजा का प्रतिनिधि समझना भारी भूल है। हम लोगों को उचित है कि स्वयंसेवक बनें और तीर्थों में यात्रियों को इन धूर्तों से बचायें।

सरकार का क्या कर्तव्य है?

सरकार को उचित है कि बिना विलंब इस प्रथा को बंद कर दे। इस प्रथा के प्रचलित करने के पाप का प्रयाश्चित यही है कि प्रथा फौरन बंद कर दी जाय और ऐसी स्कीम बनायी जाय और ऐसे कार्य खोले जाएँ जिनसे कि अपने देश भारतवर्ष ही में मजदूरों की माँग बढ़े। मध्य प्रदेश में बहुत-सी जमीन खाली पड़ी है, और देशी रियासतों में तो भूमि कि कमी ही क्या है? दूसरे प्रांतों में भी कितने ही जिले ऐसे हैं जिनमें बहुत-सी जगह खाली है। उदाहरणार्थ, संयुक्त प्रदेश में बस्ती जिला, मद्रास में गंजम जिला इत्यादी। सरकार का कर्तव्य है कि इन स्थानों को बसाने का प्रयत्न करे।

कांग्रेस का कर्तव्य है कि विशेष समिति बनाये, जो प्रवासी भारतवासियों के विषय में ज्ञातव्य बातों की हम लोगों को सूचना दिया करे। जो-जो अत्याचार और अन्याय हमारे भाइयों पर दूसरे देशों में किए जाते हैं उनमें से प्रत्येक के लिए समाचार-पत्रों में खूब आंदोलन करना चाहिए।

गवर्नमेंट ने जो 'उद्योग और व्यापार' विभाग खोल रखा है और जिसमें कि लाखों रुपये व्यय होते हैं, सबसे पहले उसका फर्ज है कि सरकार से ऐसे काम खुलवाए, जिनमें भारतवासी मजदूर अपने देश में ही नौकरी पायें।

मेरा विचार है कि जहाँ-जहाँ पर डिपो खुली हुई हैं वहाँ-वहाँ स्वयं जा कर अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार टापुओं के दुखों को सुनाऊँ। पर इस कार्य में मुझे सर्वसाधारण की सहायता की आवश्यकता है। पाठक कृपया मुझे लिखें कि किन-किन नगरों में डिपो खुली हुई हैं। मैं उन स्थानों के नाम अपने भ्रमण के प्रोग्राम में अवश्य लिख लूँगा यथावकाश वहाँ जाने का प्रयत्न भी करूँगा। स्थानाभाव से इस विषय में यहाँ अधिक नहीं लिख सकता।

हमें विश्वास करना चाहिए कि कुली-प्रथा बंद होगी और अवश्य बंद होगी। जब हमारे देश के नेता राजर्षि गोखले उसके विरुद्ध आंदोलन कर रहे हैं तो फिर हमें निराश कभी न होना चाहिए। राजर्षि गोखले ने इस प्रथा के विरुद्ध प्रस्ताव करते हुए कौंसिल में कहा था:

"This motion, the concil may rest assured, will be brought forward again and again, tilltill we carry it to a sucessfull issue. It affects our national self-respect and therefore the sooner the Government recognises the necessity of accepting it, the better it will be for all parties."

अर्थात "कौंसिल इस बात पर विश्वास रखे कि यह प्रस्ताव बराबर कौंसिल में बार-बार पेश किया जाएगा, जब तक कि हम लोग इसमें सफल न हों। इस प्रथा का बुरा प्रभाव हमारे जातीय आत्मसम्मान पर पड़ता है। जितनी जल्दी गवर्नमेंट हमारे इस प्रस्ताव को स्वीकृत करेगी उतनी ही ज्यादा सब लोगों की भलायी होगी।"

सरकार से इस विषय में विशेष प्रार्थना करने की आवश्यकता है। जब तक सरकार प्रजा के हित को अपना हित न समझेगी तब तक प्रजा का असंतोष नष्ट नहीं हो सकता। प्रजा को संतोष देना ही सरकार का सबसे पहला कर्तव्य है।"

पाठकगण! मैंने अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार आपकी सेवा में यह निवेदन किया है। संभवतः कुछ लोग इसे पढ़ कर कहेंगे-'चलो जी, इस कुली की बात को क्या सुनते हो। यदि कोई सुशिक्षित आदमी कहता तो हम सुनते और विश्वास भी करते।' मैं ऐसे सुहृदय(!) लोगों से विनयपूर्वक क्षमा माँगता हूँ और अंत में यही कहता हूँ:

प्रिय देशबंधुओ! आओ हम सब मिल कर कुली-प्रथा के विरुद्ध आंदोलन करें। यदि हम लोगों ने तन-मन-धन से प्रयत्न किया तो परमेश्वर हमारी सहायता अवश्य करेगा।