फिदायीन / संजय पुरोहित
न्यूज़ चैनल के दिल्ली स्टूडियो में चहल-पहल थी। पार्टी जो चल रही थी ‘‘फिदायीन‘‘ यानी शुभेन्दु के लिये। ख़तरनाक रिपोर्टिंग के लिये सिर पर कफ़न बांध कर बैठने वाले शुभेन्दु के दोस्तों ने उसका उपनाम फिदायीन‘‘ ही रख दिया था। ‘‘फिदायीन जिसकी एक परिभाषा उन लोगों ने स्थापित कर दी, जो कभी मौत से ख़ुद नज़रें नहीं मिलाते। जन्नत तक पहुँचने की गारन्टी देकर मासूम बच्चों और किशोरों के कोरे काग़ज़ के समान मस्तिष्क में ये उकेर देते हैं-घृणा, विद्वेष और आतंक। ज़िंदगी के यौवन भरे ख़ुशहाल बसन्त देखने की अवस्था में इन्हें ज़िहादी बनाया जाता है। मासूमों के दिलो-दिमाग़ में ये बात बिठा दी जाती है कि वे पवित्र युद्ध कर रहे हैं, जहाँ से रास्ता सीधा जन्नत में जाकर समाप्त होता है।
क्या शुभेन्दु फिदायीन‘का मतलब नहीं जानता था । वह अपने इस नये नाम को पसन्द करता था। कभी-कभी तो यह भी कह उठता कि आख़िरकार जनता को सच्चाई का आईना दिखाना भी तो एक पवित्र युद्ध के मानिन्द है और वो इस युद्ध का फिदायीन है। इच्छा और कसक को देखते हुए शुभेन्दु को अन्ततः चुन ही लिया गया कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में रिपोर्टिंग के लिये। शुभेन्दु बड़ा ख़ुश था, आख़िरकार दो साल से वो यही तो माँग रहा था। रेल दुर्घटना या बाढ़, संसद में विपक्षियों का शोर और सत्ता पक्ष का बचाव, भ्रष्टाचार में लिप्त नौकरशाह या अनैतिकता में फंसे नेता, भूखमरी या बेकारी- ऐसे विषयों से अब वो उकता गया था। अपनी रिपोर्टिंग के लिये उसने अपनी जान की कभी परवाह नहीं की लेकिन फिर भी वो अपने काम से संतुष्ट नहीं था। उसे तो वो दिखाना था, जो कभी नहीं देखा गया था। शुभेन्दु को चुनौतियाँ पसन्द थी। चुनौतियों से भिड़ना उसकी फ़ितरत में था और कश्मीर के लिये कवरेज करने के मायने उसे अच्छी तरह मालूम थे। गुज़रे कुछ सालों में ख़बर उत्पाद बन गए। टीवी चैनल उत्पादक, कार्मिक सेल्समैन और जनता उपभोक्ता। जिस सेल्समैन में क़ाबिलियत होगी, उसका ही माल बिकेगा। माल बिकेगा तो चैनल को रेटिंग में आरोह मिलेगा। देश भर के रिपोर्टर कच्चा माल इन चैनल्स के स्टूडियो पहुँचाते हैं, जहॉँ से इस माल की फिनिशिंग कर करोड़ों घरों में परोसा जाता है। इन सबसे बेपरवाह शुभेन्दु तो बस सच्ची पत्रकारिता करना चाहता था, जहॉँ एक ओर रोमाँच था तो दूसरी ओर ख़तरा था। शुभेन्दु ख़ुशी-ख़ुशी घर लौटा। माँ और बाबूजी को ख़बर सुना कर सरप्राइज देना चाहता था। किंतु हुआ इसके बिल्कुल उलट। माँ ने ऐसा रोना शरू किया कि विपक्षी दलों के पूरक पर पूरक प्रश्न की तरह ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। कहाँ तो उसने सोचा था कि इस बार शुभेन्दु से शादी के लिये हॉँ करवाकर ही बात करेगी, कहाँ शुभेन्दु ने तो उसे बड़ी चिन्ता में डाल दिया था। बाबूजी ने उसे लाख समझाया ‘‘कश्मीर के हालात ऐसे नहीं हैं जैसे कि तुम समझ रहे हो, वहाँ पल-पल खतरा है।‘‘
‘‘बाबूजी, क्या आप ये समझते हैं कि मैं अकेला टीवी पत्रकार हूँ, जो कश्मीर में रिपोर्टिंग करूंगा । वहाँ तक़रीबन 20 चैनल्स के जर्नलिस्ट हैं, और फिर मेरे साथ कैमरामैन ज़फर भी तो है, जो हर पल मेरे साथ रहेगा। शायद आपको यह मालूम नहीं है कि कश्मीर के हालात बदल रहे हैं, वहाँ फ़िल्मों की शूटिंग हो रही है टूरिस्ट फिर से बड़ी संख्या में आने लगे हैं‘‘ शुभेन्दु ने तर्क दिया।
‘‘बेटे, मुझे मालूम है कि तुम जो एक बार ठान लेते हो, उसे करके ही दम लेते हो, पर वहाँ हर दिन आतंकवादी हमले करते हैं, हज़ारों की संख्या में लोग मारे जा चुके हैं। अब तो सुना है कि अपने ज़िस्म पर बम बांध कर विस्फोट कर देते हैं। वो क्या कहते हैं उनको....हाँ, ‘फिदायीन, और तुम कहते हो कि हालात बदल रहे हैं । पूरा भारत पड़ा है, हज़ारों विषय हैं, जिन पर तुम रिपोर्टिंग कर सकते हो, आगे तुम्हारी मर्ज़ी‘‘ बाबूजी ने हारी हुई बाज़ी को समेटते हुए कहा। फिदायीन का उल्लेख आते ही शुभेन्दु मुस्कुरा उठा, बोला, बाबूजी ये फिदायीन आम लोगों और पत्रकारों से नहीं लड़ते। उनकी लड़ाई तो सिक्योरिटी फोर्सेज और सरकार से है, वैसे भी बाबूजी, मैं तो दुनिया को वो दिखाना चाहता हूँ, जो कभी नहीं देखा गया हो‘‘ बाबूजी उसकी मुस्कुराहट का अर्थ नहीं समझ पाए, किंतु अनमने ही उन्होंने अपनी नाराज़ पत्नी को संभाला।
श्रीनगर पहुँचते ही उसने अपने कार्यालय को संभाला। ओ.बी.वेन की छतरी से सेटेलाइट के माध्यम से दिल्ली से सम्पर्क बनाया। सिग्नल मिला, इसका मतलब यह हुआ कि अब वह हर पल दिल्ली के न्यूज सेन्टर से जुड़ा हुआ है।
कश्मीर में शुभेन्दु को फ़िज़ां कुछ बदली-बदली सी लगी । हाँ, कुछ ओछे नारे ज़रूर दीवारों पर लिखे हुए थे, जिन्हें पढ़ कर शुभेन्दु का मन ख़राब हो जाता था। तिरंगा कहीं-कहीं फौजी छावनी या सरकारी इमारतों पर देखने को मिल जाता था, जिससे उसके हिन्दुस्तानी मन को संतोष मिलता था।
कश्मीर में हर दूसरे दिन कहीं न कहीं आतंकवादियों से फौज की छुटपुट मुठभेड़ होती रहती थी। कहीं जवान शहीद होते तो कहीं दहशतगर्द। ज़िंदगी और मौत की लड़ाई लड़ने वाले दोनों पक्ष अपने उद्देश्य से अनजान बस गोलियाँ दागते रहते। कई बार तो इनके बीच मासूम बच्चे, निर्दोष युवक और महिलाएँ भी फँस जाती। हर गोली कश्मीर में मरने वाले निर्दोषों के स्कोर बोर्ड को आगे सरकाती हुई अनजाने ज़िस्मों में धंस जाती।
शुभेन्दु इन घटनाओं से आहत हो जाता, किंतु उसे तो अपनी ड्यूटी करनी ही थी। गोलीबारी में अनजाने ही हुए शहीदों के शवों को गाड़ियों में जाते हुए देखकर वह द्रवित हेा जाता। बतौर पत्रकार वह जानता था कि एक जवान के मरने का मतलब है भारत के किसी सुदूर शहर-गाँव के एक घर का बेहाल हो जाना। एक कमाऊ सदस्य का जाना, एक बेवा का विलाप, नासमझ बच्चों का अनाथ होना, वृद्ध माँ-बाप को बूढ़ी हड्डियों के थके शरीर के साथ पुनः जीवन जीने की लड़ाई के लिये तैयार होना। लेकिन इन सबसे अनजान भारत भाग्य विधाताओं के निर्णयों की पालना के लिये हर पल मौत के रास्तों पर बालू मिट्टी लगाते ये जवान लड़ रहे हैं, बस लड़ते जा रहे हैं। वर्षों से जीवन-मृत्यु का ये खेल जारी है।
पन्द्रह अगस्त यानी स्वाधीनता दिवस करीब था। कुछ न्यूज़ चैनलों के संवाददाता इस दिन का इन्तज़ार कर रहे थे। इसलिये नहीं कि ये आज़ादी हासिल करने के हिन्दुस्तान के गर्व का पर्व है, बल्कि इस दिन उन्हें कुछ ऐसा मिल सकता है, जिससे उनके चैनल दूसरों को पछाड़ कर आगे निकल सकते हैं। गोलियों की बौछार या हथगोलों का वार, आरडीएक्स से विस्फोट या बारूदी सुरंग, किसी सरकारी भवन पर मिलिटेंट्स का कब्जा और फिर मौत तक लड़ना, या फिर फिदायीन बन कर सेना के भवनों से जा भिड़ना। कुछ भी संभव रहता है क्योंकि ये भारत की आज़ादी का पर्व है।
तमाम रिपोर्टर्स स्टेडियम के आसपास कुछ होने का इन्तज़ार कर रहे थे। उनकी दिलचस्पी न तो इस में थी कि बुलैटप्रुफ काँच के शीशे के पीछे से नेता क्या भाषण दे रहे थे, ना ही परेड में। वे तो इन्तज़ार कर रहे थे ‘कुछ होने‘ का।
शुभेन्दु स्टेडियम के बाहर अपने कैमरामैन ज़फर के साथ स्टेडियम के अन्दर जाने की औपचारिकताएँ पूरी कर रहा था। अचानक ही उन्हें गोलियों की आवाज़ें सुनाई दी। शुभेन्दु ने ज़फर को कैमरा चालू करने को कहा ज़फ़र ने दौड़ कर अपनी ओ.बी. वैन से तुरन्त ही चैनल के स्टूडियो में सम्पर्क किया, तुरन्त ही चैनल ने अपनी सामान्य ख़बरों को रोक कर श्रीनगर के स्टेडियम के बाहर होने वाली मुठभेड़ को दिखाना शुरू कर दिया-लाईव एण्ड एक्सक्ल्यूसिव। सेना, जम्मू कश्मीर पुलिस के जवान चारों और दौड़ कर हमले के केन्द्र बिन्दु को पहचानने की कोशिश कर रहे थे। इधर शुभेन्दु की रिपोर्टिंग शुरू हो गई अपनी लोकेशन बताते हुए उसने एक ऐसा एंगल लिया, जिसके ठीक पीछे गोली-बारी हो रही थी। कैमरा चालू था।
जवान शुभेन्दु को बार-बार हटने के लिए कह रहे थे। शुभेन्दु ने उन्हें इशारा किया कि वो बस अपनी बात पूरी कर हटने ही वाला है। तभी एक गोली उसके समीप इशारा करने वाले जवान की छाती में धँस गई। कैमरा सब कुछ दिखा रहा था। ज़फ़र को निर्देश थे कि किसी भी सूरत में कैमरा बन्द नहीं होना चाहिए। ज़फ़र कुछ भयभीत था, लेकिन उसका निर्जीव कैमरा जीवन्त था। शुभेन्दु अपने पास खड़े जवान को गोली लगने, उसके गिरने की घटना से भौंचक्का रह गया। वह तुरन्त ही किसी सुरक्षित स्थान को जाना चाहता था। उसने एक कदम बढ़ाया ही था, कि एक गोली पीछे से उसकी गर्दन पर लगी। उसका सर लटक गया। ज़फ़र बदहवास हो गया.... । ज़फ़र उसे दूर ले जाना चाहता था, तभी उसे अपने कान पर लगाये गये हैडफ़ोन पर सन्देश मिला कि कैमरा शुभेन्दु पर फ़ोकस करो। ज़फ़र कुछ समझा नहीं। उसने कैमरा शुभेन्दु के ख़ून से लथपथ शरीर पर किया। उसके शरीर में अभी कुछ जान थी, लेकिन उसका जीवित बचना कोई ख़ास ख़बर नहीं थी, ख़बर तो उसके मरने पर होती, इसलिये कैमरा चालू था। शुभेन्दु ने दर्शकों को वो दिखा दिया जो उन्होंने कभी नहीं देखा। एक रिपोर्टर को गोली लगना और तड़प-तड़प कर उसका मरना। बदहवास ज़फ़र चालू कैमरे को छोड़कर वैन में जा बैठा। शुभेन्दु के ख़ून की धार रास्ता बनाती हुई वहीं चिनार के एक पेड़ की जड़ के आसपास की मिट्टी में मिलने लगी। शुभेन्दु फिदायीन की तरह ही मारा गया। ख़तरनाक विषयों पर रिपोर्टिंग की कसक उसके मस्तिष्क में जीवित विस्फोटकों की तरह बंधी थी। अन्ततः इन मानसिक विचाररूपी विस्फोटकों ने शुभेन्दु का अन्त कर दिया। उस दिन शुभेन्दु का न्यूज़ चैनल ख़ूब देखा गया। टीआरपी शीर्ष पर जा पहुँची। चैनल ने अपने ‘फिदायीन‘ रिपोर्टर की मौत पर गहरा दुःख प्रकट किया और श्रीनगर के लिये एक नये रिपोर्टर को नियुक्त कर दिया।