फिनिक्स, खण्ड-11 / मृदुला शुक्ला
आबेॅ गंगा कपड़ा पिन्है के पहिनें उलटी-पुलटी केॅ रंग देखेॅ लागली। बाहर जाय वक्ती ओकरोॅ माथोॅ पर छोटोॅ रं के कत्थई बिन्दी रहेॅ लागलोॅ छेलै। हाथोॅ में जे बैग राखै छेलै, ओकर्हौ बदली देलेॅ छेलै। ओकरोॅ जिनगी के किताबोॅ में बड्डी तेजी सें अदृश्य पन्ना सिनी जुड़ै लेॅ चाहै छेलै। साँझे घुमै लेली सड़कोॅ पर निकलै तेॅ आँखी में केकर्हौ प्रतीक्षा जागतें रहै। ठोर के कोना केकरो अभिवादन, मुस्कुरावै लेली तत्पर रहै, वसन्त केहनोॅ होय छै, यहेॅ बुझै लेली मन जेना भटकै छेलै।
ई सब बात के अर्थ जबेॅ तांय गंगा समझतियै, तबेॅ तांय निवेदिता आरू माय भागलपुर आवी गेलै। परीक्षा खतम होला के बादे सें निवेदिता आगू पढ़ै लेली दिल्ली जाय लेॅ जिद करी रहली छेलै। मतरकि ऐला के चार दिन बादे इन्दु बीमार पड़ी गेली। धीरें-धीरें बोखार उग्र रूप धारण करी लेलकै। गंगा एकदम्मे नरभस होय गेली। छठा-सतवाँ दिनो जबेॅ रोग नै छुटलै तबेॅ इन्दु अंट-संठ बकेॅ लागलै। दू डॉक्टर बदली चुकलोॅ छेलै। रोग पकड़ाय नै रहलोॅ छेलै। रामप्रसाद बाबू स्कूल के इन्सपेक्सन में व्यस्त छेलै, यै लेली गंगा नें हुनका खबर नै करलेॅ छेलै। हौ दिन बाबूजी केॅ टेलीग्राम भेजै के चिन्ता में छेली। निवेदिता बहिनी केॅ पकड़ी केॅ कानेॅ लागली। रात भर पट्टी दै-दै केॅ बोखार उतारला के बाद गंगा नें बैंक सें छुट्टी लै के सोचलकी। फेनू दवाय लेॅ भी बाहर जाना छेलै, यै लेली ऊ बैंकोॅ दिश दरखास्त लै केॅ चल्ली गेली। तखनिये प्रशान्त सें भेट होय गेलै।
पनरहे दिनोॅ में गंगा के उड़लोॅ रंगत देखी केॅ प्रशान्त रुकी केॅ खाड़ोॅ होय गेलै। प्रशान्तो केॅ देखी केॅ गंगा के आँख डबडबाय गेलै। प्रशान्त के पूछला पर गंगा के गल्लोॅ भरी ऐलै आरू आँखी सें दू बूँद लोर ढलकी गेलै। ई देखी केॅ प्रशान्त भौचक्का खाड़ोॅ रही गेलै। बैंकोॅ के भीड़-भाड़ देखी केॅ प्रशान्त नें धीरें सें कहलकै, "जा पहिने दरखास्त दै केॅ आवोॅ।" तबेॅ गंगा केॅ होश ऐलोॅ छेलै।
लौटी केॅ रस्ता में गंगा नें इन्दु के बीमारी के पूरा हाल कहलकै। प्रशान्त नें वहीं ठां गंगा केॅ रिक्शा पर बैठाय केॅ ओकरोॅ घरोॅ के पता पूछी लेलकै आरू फेनू आपनोॅ स्कूटर डॉक्टर के डिस्पेन्सरी दिश मोड़ी देलकै।
हौ दिन सें जेना घरोॅ के मुखिया के जिम्मेवारी प्रशान्ते पर आवी गेलै। बरसा में भिंजी गेला सें इन्दु के छाती में ठण्डा लगी गेलोॅ छेलै। डॉक्टर नें बोखार पुरानोॅ समझी केॅ टायफाइड के दवाय चलाय रहलोॅ छेलै, जैं सें ऊ कमजोर होलोॅ जाय रहली छेलै। नया डॉक्टरोॅ के दवाय सें ऊ ठीक तेॅ होय गेली, मतरकि बारी-बारी सें निवेदिता आरू गंगो बोखार के चपेट में आवी गेली। रामप्रसाद बाबू केॅ टेलीग्रामो डाकविभाग के गड़बड़ी सें समय पर नै मिलेॅ पारलोॅ छेलै, स्कूली कामोॅ सें बाहर चल्लोॅ गेलोॅ छेलै। बादोॅ में खबर पावी केॅ ऐलै तेॅ सब्भे कुच्छू ठीके-ठाक होय गेलोॅ छेलै। ई सिनी में गंगा आरू प्रशान्त हठाते एक-दोसरा के सुख-दुख के भागीदार समझेॅ लागलै। गंगा आपनोॅ कुंठा सें बाहर आवी गेलोॅ छेली। निवेदिता के पत्राकारिता के पढ़ाय वास्तें भी ऊ बाबूजी केॅ तैयार करी लेनें छेली आरू ओकरोॅ नामो लिखाय देलकी।
गंगा आपनोॅ मन के सब्भे अरमान निवेदिते सें पूरा करै लेलेॅ चाहै छेली। स्त्राी के आपनोॅ व्यक्तित्व होना चाहियोॅ, ओकरा सब क्षेत्रा में आगू आना चाहियोॅ। हीन भावना सें ग्रसित होय केॅ हथियार डालै के एकदम खिलाफ छेली गंगा। त्याग खाली औरते के गुण नै छेकै आरू जीयै के हक औरतो केॅ छै। रूपा वक्ती ऊ छोटी छेली, यै सें रूपा केॅ नै उबारेॅ पारलकी, मतरकि आबेॅ हर लड़की के दुख ओकरोॅ दुख छेकै। जीवन सें भागै वाला रूपा के सिद्धान्त ओकरा बहुत्ते दुख पहुँचाय छेलै। मतरकि छोटकी बहिन केॅ दिल्ली छोड़ी केॅ ऐली तेॅ दीवार पकड़ी केॅ कानेॅ लागली। बहिन के अभाव ओकरा मथेॅ लागलै। खाली घोॅर ओकरा फेनू पथरावेॅ लागलोॅ छेलै।
इन्दु रामप्रसाद बाबू लुग चल्ली गेलै। गंगा अकेली होय आपनोॅ जिनगी के हिसाब करी केॅ सोचेॅ लागली, " जों समय नें ओकरा सें बहुत कुछ लेनें छै, तेॅ ओकरा लौटाय भी देनें छैµमाय-बाबूजी के चेहरा पर बदललोॅ खुशी, समाज में इज्जत, बैंक के नौकरी के प्रतिष्ठा आरू प्रशान्त केरोॅ साथ। एक नया उजास सामन्हैं में छै, थोड़ोॅ टा धुंधलका के साथेंµजेना चाँदनी रात में कुहासा के चादर जेकरोॅ शीतल स्पर्श सें रहस्यमय लोक खुली गेलोॅ रहैµसब्भे कुच्छू साफ आरू स्पष्ट नै होथौं, आकर्षक आरू जीवन सें भरपूर लागै छै।
कोय एतना नजदीक कैन्हेें होय जाय छै, जबेॅकि कोय समानतो नै होय छै। ओकरोॅ बचपन के सखी रधिया आरू ओकरो में कोय समानता नै छेलै। समाज, जाति, हैसियत; कोइयो रं के समानता नै होल्हौ पर एक दोसरा के प्रति दुर्निवार आकर्षण रहै आरू आय्यो रधिया ओकरोॅ सबसें नजदीक छै। होन्हैं केॅ उच्च पदाधिकारी प्रशान्त, सब दिन अंग क्षेत्रा सें बाहर बिताय वाला, यहाँ के सम्पन्न घरोॅ के युवा केना केॅ ओकरोॅ करीब आवी रहलोॅ छै, जेना कोय ग्रह आपनोॅ धूरि सें छिटकी केॅ दोसरोॅ ग्रह मेें आवी गेलोॅ रहेॅ। एकरोॅ परिणाम तेॅ नै ऊ ग्रह जानै छै, नै पृथ्वीवासिये। कुछूओ परिणाम हुवेॅ पारेॅ एकदम्मे अप्रीतिकरो। गंगा सशंकित होय गेली कि मन के ई कमजोरी कहीं ओकरोॅ सौंसे ज़िन्दगी नै बर्बाद करी दै। ओकरा एत्तेॅ उच्चोॅ सपना नै देखना चाहियोॅ। मतरकि मनोॅ पर लगाम लगाना एतनो आसान नै होय छै।
फेनू ऊ शामो आविये गेलै। शनिचर छेलै। प्रशान्त नें भारी मनोॅ सें बैंक में आवी केॅ कहलकै, "आय बाहर चाय पीयै लेॅ चलना छै।"
ऊ छुट्टी के बाद प्रशान्त साथें निकली गेली। प्रशान्त कुच्छू नै बोली रहलोॅ छेलै। खाली गंगा के बातोॅ पर "हूँ-हाँ" करी रहलोॅ छेलै। प्रशान्त होटल तरफ नै जायकेॅ, बूढ़ानाथ के गंगा किनारी तरफ जावेॅ लागलै। गंगा नें एक बेर मजाको करलकै, "ई तरफ कोॅन चाय मिलै छै, यहाँ तेॅ खाली गंगे जी के पानी मिलथौं; वहेॅ पिलावै लेॅ आनलेॅ छौ की?"
प्रशान्त कहलकै, "आय हिन्ने घूमै के मोॅन होय रहलोॅ छै।"
मटमैलोॅ रँ दिन छेलै, थोड़ोॅ-थोड़ोॅ रूक्खोॅ रं सूरज। गंगा प्रशान्त के गम्भीरता देखी केॅ थोड़ोॅ बेचैन हुएॅ लागलै, "की बात छेकैµआय बहुत उदास दिखै छौ।"
प्रशान्त बतैलकै, "हमरोॅ बदली होय गेलोॅ छै।"
गंगा के कण्ठोॅ में कुच्छू अटकलोॅ नाँखि लगलै। मतरकि नारी सुलभ लज्जा आरू गंगा के अन्तर्मुखी स्वभाव दोनों नें ओकरा रोकी लेलकै। प्रशान्तो नें आपनोॅ भाव केॅ बहै सें रोकल्हैं राखलकै। आपनोॅ मनोॅ के अन्दर जे आकर्षण वैं महसूस करनें छेलै, ऊ सिनी बात अभी तांय प्रशान्त नें खुली केॅ नै बतैलेॅ छेलै, कैन्हें कि गंगा हेनोॅ लड़की के संवेदनशील मनोॅ के थाह पाना मुश्किल छेलैµकहीं गंगा के साथे नै छुटी जाय, कहीं ओकरा बुरा नै लगी जाय। गंगो सोची रहली छेलैµएतने संक्षिप्त छेलै ओकरोॅ सपना के आकाशो। आपनोॅ मनोॅ के उच्छवास दबैनें वैं सब कुछ सुनी आरू सही रहली छेलै। नै तेॅ कोय अधिकार छै कि वैं प्रशान्त केॅ रोकी लै आरू नै तेॅ वहूँ नें कोय अधिकार देनें छै कि प्रशान्त ओकरोॅ मनोॅ के कोना में झाँकेॅ पारेॅ। एतन्है बोलेॅ पारली, "नौकरी वाला केॅ तेॅ जाय लेॅ पड़बे करै छै। हमरो बदली हुएॅ पारै छै, एकरोॅ की करभौ।" फेनू रुकी केॅ कहलकै, "ऐना तेारोॅ साथें जे समय बीतलै, ऊ याद रहतौं।" बस एकरंगोॅ परदा के पटाक्षेप होय गेलै।