फिनिक्स, खण्ड-12 / मृदुला शुक्ला

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गंगा फेनू असकल्ली होय गेली। जिनगी फेनू झाड़-झंखाड़ोॅ सें ओझरावेॅ लागलै। मनोॅ के अंदर घुरियैलोॅ-तपलोॅ रेगिस्तान उगी गेलोॅ छेलै। बहुत दिन बाद वसंत के झोंका ऐलै भी तेॅ कतना क्षणिक होलै ओकरोॅ समय। रात में तकिया के रूइया भीजी केॅ प्रशान्त के याद के गवाही देत्हैं रहलै। दिन भर गंगा आपना केॅ व्यस्त राखै छेली, कोशिश करै कि कोय अन्दर में छिपलोॅ टीस केॅ नै जानेॅ पारेॅ। दुख तेॅ खाली आपनोॅ होय छै, मोमबत्ती रं गलै छै, सुख सबके होय छै, सुगन्ध नाँखि फैलै छै। यै लेली तेॅ गंगा एक तरफ अन्दरे-अन्दर सिमटली जाय आरू सुख बाँटै लेली आपन्हे बँटली जाय रहली छेलै।