फिनिक्स, खण्ड-23 / मृदुला शुक्ला
गंगा आयकल दोसरे चिन्ता में पड़ी गेलोॅ छै। निवेदिता के कोय खबर नै मिली रहलोॅ छै। देवघर सें माय-बाबुजी बार-बार चिट्ठी दै रहलोॅ छै कि निवेदिता के समाचार बतावोॅ। कुच्छू दिन तांय निवेदिता के चिट्ठी नै मिलला पर सोचलकै कि मकान बदलै के झंझट में बैंकोॅ में ध्यान नै दियेॅ पारलेॅ होतै। आकि पुरनका घरोॅ के पता सें चिट्ठी ऐलोॅ होतै आरू छेदी बाबु के परिवारें फाड़ी देलेॅ होतै। मतरकि एन्होॅ विश्वासो नै होय रहलोॅ छेलै। गंगा के मकान छोड़ला के बाद घरोॅ के मालिक नें ऊ घोॅर केॅ एक वकील के हाथोॅ में बेची देलकै आरू छेदी बाबु केॅ बेआबरू होय केॅ निकलै लेॅ पड़लै। तबेॅ हुनका बड़ा अफसोस होलै कि बेकार एक लड़की केॅ एतना परेशान-हैरान करलियै। छेदी बाबु नें आपन्हैं है बात बैंकोॅ में आवी केॅ गंगा सें कहलकै। चिट्ठी के नै आवै के कोय कारण समझ में नै आवी रहलोॅ छेलै। निवेदिता पत्राकार छेली आरू नौकरी के कोय पक्का जग्घो नै छेलै, कहियो ई अखबार, कहियो ऊ पत्रिका आरू खतरा तेॅ बनले रहै छै। तभिये एक दिन गंगा केॅ निवेदिता के नाम सें लिखलोॅ चिट्ठी के साथें निवेदिता के सखी रोमा के भी चिट्ठी मिललै। रोमा नें गंगा केॅ चिट्ठी लौटाय देनें छेलै आरू बतैलेॅ छेलै कि निवेदिता के कुच्छू पता नै छै, ऊ कत्तेॅ दिनोॅ सें घोॅर नै ऐली छै। गंगा तेॅ सन्न रही गेली। फेनू हिम्मत करी केॅ माय-बाबुजी केॅ खबर करी देलकी। नवलो सुनी केॅ घबरैलोॅ ऐलै, ऊ दिल्ली जाय केॅ पता लगाय के सोची रहलोॅ छेलै कि तभिये खबर ऐलै कि ओकरोॅ छोटका बेटा सीढ़ी पर सें गिरी गेलोॅ छै। भोरे-भोर नवल केॅ फेनू लौटी जाय पड़लै। गंगा आपन्हैं जाय के सोची केॅ टिकट कटवाय के व्यवस्था करी लेलकी। दिल्ली पहुँची केॅ वर्किंग होस्टल गेली। वहाँ कुछुए पता नै लागलै। ओकरोॅ सहेली नें जतना पता देलकै, सब्भे जगह खोजी लेलकी कहीं सें सन्तोषप्रद जवाब नै मिललै। सबसें नजदीकी सहेली रोमा नें बतैलकै, "जे दिन सें निवेदिता बाहर गेली छै, ओकरोॅ एक दिन पहिनें बड्डी रात तांय कुच्छू लिखत्हैं रहली छेलै। कहै छेली कि अगला दिन कोय वी0 आई0 पी0 के इंटरव्यू लेली जाना छै। भोरे ओकरोॅ उठै सें पहिनें ऊ चल्ली गेली छेलै। जबेॅ हौ दिन लौटी केॅ नै ऐली तेॅ सोचलियै कि शहर सें बाहर गेली होतै। मतरकि बाहर गेला सें फोन ज़रूरे करै छेली। चार दिन बितला पर हम्में घबराय गेलियै आरू खोज खबर करेॅ लागलों, फेनू जबेॅ तोरोॅ चिट्ठी मिललोॅ तेॅ पोस्टकार्ड लिखी केॅ भेजी देलिहौं।" गंगा खाली दिमाग आरू सूनोॅ आँख लेनें बस सुनत्हैं रहली। गंगा दिल्ली में पाँच दिन रहियो केॅ निवेदिता के कुच्छू पता नै लगावेॅ पारलकी।
लौटै वक्ती स्टेशन ऐला पर गंगा के मोॅन भोक्कार पारी केॅ कानै के हुएॅ लागलै। सब्भे जग्घोॅ भटकी केॅ देखी लेलकी, खाली ऊपरे-ऊपर सबनें भरोसोॅ देलकै। ओकरा एतना विचलित देखी केॅ रोमा के बहिन जे कॉलेजोॅ में पढ़ै छेली, नें बतैलकै, "दीदी, यहाँ कौन अपराधी है, कौन शरीफ, कुछ पता नहीं चलता है। पत्राकारिता का काम ऐसे भी जोखिम भरा है। लेकिन उस दिन से नितिन भी नहीं आया है। दोनों एक साथ ही कहीं आते-जाते थे। पता नहीं, उसके घरवाले को भी कुछ पता है कि नहीं।" गंगा आबेॅ चौंकली। ई तरफ तेॅ गंगा के धियाने नै गेलोॅ छेलै कि इन्टरव्यू में भी कुच्छू अघटित घटी गेलोॅ रहेॅ, नितिन के घरोॅ सें भी कुच्छू पता लगेॅ पारेॅ। नितिन के बारे में तेॅ निवेदिता भी बतावै छेलै। दूनो नें साथें पढ़ाय करनें छेलै आरू पहिलोॅ नौकरी भी एक्के अखबारोॅ में शुरू करनें छेलै। अलग जगह होला के बादो भेंट-मुलाकात तेॅ होते होतै। मतरकि रोमा सोचेॅ लागली कि रोमा नें नितिन के बारे में चर्चा कैन्हें नी करलकी। तब ताँय ट्रेन आवी गेलै आरू गंगा केॅ लौटना भी ज़रूरी छेलै।
मरली-मुरझैली गंगा केॅ देखथैं माय-बाप बुझी गेलै कि निवेदिता के पता नै लगावेॅ पारलकी। नै मरलोॅ, नै जीत्तोॅ। ई तेॅ रूपा के मृत्यु सें भी ज़्यादा दुखदाई छेलै। लोकापवाद सें तेॅ हुनका सिनी पहिनें से त्रास्त छेलै, आबेॅ बेटी के अता-पता नै पावी केॅ जेना जीते-जी मरी गेलोॅ छेलै।