फिनिक्स, खण्ड-2 / मृदुला शुक्ला

Gadya Kosh से
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"अगे गंगा, आपनोॅ छोटका भाय केॅ देखल्हैं?" , हरगौरी काका नें गंगा सें पुछलकै। बाप बनै के खुशी सें हुनकोॅ मूँ चमकी रहलोॅ छेलै। गंगा नें पुरखिन नाँखि हाथ चमकाय केॅ कहलकी, "हों, कत्तेॅ बेर कहियौं कि देखी लेलियै, सुतले तेॅ रहै छै हरदम, नै आँख खोलै छै, नै कान। हम्में की खेलवै ओकरोॅ साथें, दिन-रात पड़लोॅॅ रहै छै।" तखनिये काकी के मालिस वास्तें सुरसतिया कोठरी में घुसलै आरू गंगा के नजर ओकरी बेटी रधिया पर पड़ी गेलै। बस गंगा के मोॅन उछाहोॅ सें भरी गेलै। गामोॅ के आरू छौड़ी सिनी चुगलखोरी करतें रहै आरू गुपचुप-गुपचुप दोसरा के शिकायत बतियावै, मतरकि रधिया केॅ एकरा सब सें कोय मतलब नै रहै, खाली हँसै-हँसाबै के काम आरू दोसरा के मदद करना ओकरोॅ काम छेलै। यै लेली गंगा-रधिया में बड़ी दोस्ती रहै। बाल उमिर जात-पात की मानै छै, बन्धन केॅ भी की समझै छै, मतरकि रधिया केॅ एकरोॅ थोड़ोॅ बहुत गियान छेलै। यै लेली वैं थोड़ोॅ संकोच करै छै। गंगा रधिया के लेनें जेन्हैं आपनोॅ जेरा में गेली कि आरू छौड़ी सिनी मूँ बनाय-बनाय केॅ हटी गेली। केकरो पेट दुखावेॅ लागलै, केकरो माय बोलावेॅ लागलै आरू डेंगा-पानी के खेल बिगड़ी गेलै। रधिया भी वही स्कूलोॅ में पढ़ै छेलै, यै लेली खुली केॅ तेॅ कोय कुछ नै बोललकी, मतरकि...रधिया हँसी केॅ कहै लागली, "कैन्हें हो मीना दी, खेल कैन्हें बिगाड़ै छौ हो, हम्में तोरा, नै तेॅ तोहीं हमरा छुवी दिहौ। हम्मी चोर बनी जैभौं।" गंगा एतना बात कुछू नै बूझेॅ पारलकी।

फागुन के महीना चली रहलोॅ छेलै। रौदी में भी तेजी आवी गेलोॅ छेलै, मतरकि गंगा के खेल खतमे नै होय रहलोॅ छेलै। इन्दु के काम-काज बढ़ी गेलोॅ छेलै। घरोॅ में परसोती आरू नया बच्चा के कारण काम भी बढ़ते छै। रूपा भी माय साथें काम में हाथ बंटाय छेलै, मतरकि ओकरोॅ क्लास ऊपर होला सें रामप्रसाद बाबू नै चाहै छेलै कि वैं समय बर्बाद करेॅ। गामोॅ के मौगी सिनी केॅ ई सब अजगुत लागै छेलै आरू कनफुसकी करतै रहै। मामा-फुफू तेॅ एकदम्मे बोली दै, "अहे रामप्रसाद दुलहैन, बेटी की सरंगों में दीया जरैथौं की हे? आय गे माय, कचहरी में वकीलाय करतीत कि डागडर बनी जयतीत? ओकरा लड़का नाँखि पढ़ाय लेॅ बैठाय दै छौ आरू आपनेॅ खटी रहली छौ। लूर-ढंग सिखावौ, गरीबोॅ के बेटी केॅ ई सब नै सोभै छै।"

गंगा केॅ तेॅ मामा-फूफू केॅ देखत्हैं चिढ़ लागी जाय छै। मूँहे लगी तड़-तड़ जवाब देवोॅ शुरू करी दै छै। ओकरोॅ बदला में मामा-फूफू इन्दु के नैहरा तक ओरान करी केॅ दोसरोॅ ऐंगन में प्रवचन करेॅ लागै छै। हर घड़ी इन्दु गंगा केॅ समझाय छै, दुलारोॅ सें, गोस्सा करी केॅ, कहियो-कहियो मारीयो दै छै, मतरकि कोय लाभ नै होय छै। इन्दु केॅ लागै छै कि जहिया सें रधिया आवेॅ लागली, तब्भे सें गंगा आरू बहकी गेली छै। यै लेली कत्तेॅ बेर रधिया केॅ डाटियो दै छै, "अगे रधिया, हरदम खी-खी कैन्हें करतें रहै छैं।"

एक दिन रधिया एकदम डम्मक-डम्मक अमरूद गंगा लेली लै केॅ ऐली। गंगा केॅ रधिया के स्नेह देखी केॅ मोॅन गदगद होय गेलै। अमरूद लानी केॅ रूपा केॅ भी देलकी। गंगा केॅ इन्दु नें दोसरा तरफ सें भी समझाय के कोशिश करलकी, मतरकि गंगा नें साफ कही देलकी, "स्कूलोॅ में गंगा ही पढ़ाय में सबसें आगू छै आरू मास्टर जी नें कही देनें छै कि ई बेर रधिया ही किलासोॅ में फसर््ट होतै, यै लेली हम्में रधिया के साथ नै छोड़वै, तोहें कहै छैं कि पढ़ै-लिखै में ध्यान देना चाहियोॅ तेॅ मीना, सोनिया, बिन्दू तेॅ कखनू पढ़ै के गप्पे नै करै छै, ओकरोॅ साथें रही केॅ हमरा की करना छै।"

दिन यहेॅ रं बीती रहलोॅ छेलै। रधिया फर-फर छर-छर करलै आवै आरू गंगा केॅ उड़ैनें कोय तरफ लै केॅ चली दै। कखनू पछियारी ओसरा पर बंसखटिया बिछाय केॅ मेंहदी लगाय लेॅ बैठी जाय, कखनू गाछी नीचें कौड़ी खेलै।

यही सब में एक दिन गंगा रधिया साथें घोॅर घुसली कि इन्दु नें रुक्खोॅ आवाज में रधिया केॅ कहलकी, "गंगा तेॅ नै समझेॅ पारै छै मतरकि तोहें तेॅ होशियार छैं, है रं बउऐवोॅ कि अच्छा लागै छै लड़की जातोॅ केॅ। आपनोॅ गोड़ एत्तो बाहर नै निकालना चाहियोॅ कि लोगें टोकेॅ लागेॅ।"

गंगा केॅ तखनी आपनोॅ माय पर बड्डी गुस्सा ऐलै। रधिया इन्दु के बड़ी इज्जत करै छेलै। इन्दु सें बात सुनी केॅ ओकरोॅ आँख लोराय गेलै आरू कुछू देर ठमकली खाड़ी रही केॅ धीरें-धीरें चल्ली गेलै। तबेॅ इन्दु नें गंगा केॅ कहलकी, "गंगा आबेॅ बड़ोॅ होला बेटी, घरोॅ के काम में मोॅन लगावोॅ।" गंगा बिना कुछू बोल्है घोॅर घुसली तेॅ देखै छै कि चचेरी फूफू बैठली छै। प्रणाम करी केॅ गंगा केसर फूफू सें सटी गेली आरू पूछेॅ लागली, "तोहेें कखनी ऐलोॅ फूफू, देखौ नै पारलिहौं।"

फूफू नें दुलार करी केॅ ओकरोॅ ओझरैलोॅ बाल देखी बोलेॅ लागली, "तोहें एत्ती बड़ी होय गेली आरू माथा झारै के लूर-ढंग नै ऐलोॅ छौ। फराको कत्तेॅ गंदा होय रहलोॅ छौ। जो जल्दी सें साफ-सुथरा होय जो। रूपा के देख्तहार आवी रहलोॅ छै।" गंगा उजबुक नाँखि देखी रहली छेली कि इन्दु नें रसोय घरोॅ सें पुकारी लेलकै। इन्दु गंगा के स्वभाव जानै छेली यै लेली पुचकारी केॅ बोलेॅ लागली, "एक ठो तोंही तेॅ हमरी बुधियारी बेटी छोॅ आरू रूपा तेॅ आय नै कल सोसरार चली जैती, तबेॅ तोंही हमरा सिनी केॅ चाय चू पीयै लेॅ देभौ नी!"

गंगा फुली केॅ कुप्पा होय गेली आरू दौड़ी-दौड़ी केॅ सब्भे टा काम करेॅ लागली।

देख्तहार ऐलै आरू रूपा केॅ पसन्दो करी केॅ चल्लोॅ गेलै। केसर फूफू बीच में पड़ली छेलै। ई अहसानोॅ सें रामप्रसाद बाबू आरू इन्दु बिछी-बिछी जाय रहलोॅ छेलै। मतरकि खरचो ढेर होय गेलोॅ छेलै। सात आदमी के जोड़ भर धोती, ग्यारह रुपया विदाय, मछली-मांस, दही, मिठाय, पान, सब खरचा असकल्ला आदमी राम प्रसाद बाबू जुटैत्हैं-जुटैत्हैं हलकान होय गेलै। केसर फूफू नें भरोसा दिलाय देलकै कि "बरोॅ के तरफ सें आरू कोय फरमाइश नै होतौं आरू एत्तेॅ बढ़िया घोॅर-बोॅर मिलना भागे के बात छेकै।"

रूपा के बीहा के दिन परीक्षा के बाद पड़तै, ई सुनी केॅ चार महीना के राहत पावी केॅ इन्दु आरू रामप्रसाद बाबू के जानोॅ में जान ऐलै।

गंगा वै दिनोॅ सें घुरी-फिरी केॅ आवै आरू आपनोॅ दीदी केॅ देखै। सुनै छेलै, लोगोॅ-वेदोॅ के मुँहोॅ सें कि रूपा आबेॅ कुछुवे दिनोॅ के मेहमान छेकी, फेनू तेॅ पराया होय जैती। यै सबसें ओकरा लागै जेना रूपा दी बदली रहली छै। सच्चे भी, कहियो रूपा सपना में मुस्कै, कहियो आपन्हैं सें बात करै। सुन्दरता पर सिरी चढ़ी रहलोॅ छेलै। इन्दु एक-एक ठो चीज जोड़ी रहलोॅ छेलै। साड़ी, ब्लाउज, चूड़ी, लहठी आरनी। आपनोॅ कानोॅ के पासा तोड़वाय केॅ रूपा लेली बाली बनवाय लेलेॅ छेलै। है सिनी देखी केॅ गंगा सोचैµबीहा कत्तेॅ बढ़िया चीज होय छै। कोय डाँटै भी नै छै। आरू तेॅ आरू, मामा-फूफू भी अशीषतें रहै छै।

फेनू बीहो के दिन आवी गेलै। गंगा नें सच्चे उमिरोॅ सें बढ़ी केॅ काम करलकी। टहल-टिकोर करी-करी केॅ सब्भे के दिल जीती लेलकी। रामप्रसाद बाबू केॅ डेढ़ बीघा खेत बेचै लेॅ पड़लै आरू तबेॅ रूपा के रूप तेॅ जेना फटी पड़लोॅ रहै। गुलाबी बायल साड़ी में गोटा लागलोॅ रहै आरू आँखी में काजर, मांग में सिन्दूर साथें मंगटीका पिन्ही केॅ चेहरा जगमगाय रहलोॅ छेलै। इन्दु के आँख खुशी सें भरी-भरी जाय। नजर नै लगी जाय, यै लेली काजरोॅ के टेमी कानोॅ पीछू में लगाय देलकी। रूपा के दुल्हा विकास बाबू भी सुन्दर छै आरू चाल-ढालोॅ सें शहरुआ। इन्दु देखी-देखी केॅ मुग्ध होली जाय छै आरू देवी मइया, तुलसी-चौरा लगी गल्ला में अँचरा डाली केॅ प्रणाम करै छै। बीहा एना तेॅ अच्छे से निभी गेलै, मतरकि बिहाने थोड़ोॅ कच-कच होय गेलै। विकास के बड़का बहनोय ने मंगढक्की खनि कही देलकै कि चौठारी के बादे विकासोॅ के साथें रूपो के बिदागरी करी दिहौं। इन्दु अँचरा सें लोर पोछेॅ लागली। अन्दर थोड़ोॅ बात गरमावेॅ लागलै। तबेॅ फेनू केसर फूफू ही आगू बढ़ली। वें भाय-भौजाय केॅ समझावेॅ लागली, "भौजी, है सिनी की तमाशा करै छौ। लड़का-लड़की सयानोॅ छै, आपना हँसतै खेलतै, विदा करी दहोॅ खुशी-खुशी, नै तेॅ बीहा के मतलबे की होलै?"

हौ दू-चार दिन गंगा वास्तें जिनगी के खूब बढ़ियां दिन रहै। रूपा तेॅ कनियांय बनी गेलोॅ रहै, निवेदिता छोटिए छेलै, यै लेली गंगा के पूछ बढ़ी गेलोॅ रहै। रंगारंग के खाना, नया-नया कपड़ा आरू ढेर सिनी लोगोॅ के बीचोॅ में विकास बाबू के खातिरदारी में दौड़ै वाली एकटा गंगे छेली। नयका दुलहा विकास बाबू भी ओकरा अच्छा लागलै। बोलै तेॅ ज़रूरे कम छेलै; खाली किताबे पढ़तें रहै, मतरकि गंगा के सखी सिनी के आरू बहनोय सें ओकरोॅ बहनोय सुन्दर आरू सज्जन छेलै, यही गामोॅ के जनानी सिनी कहै छेलै। ई सब में गंगा आपनोॅ सखी सिनी केॅ भूली गेलै।

पाँचवोॅ दिन रूपा सब्भे केॅ कानत्हैं-बाजत्हैं छोड़ी केॅ सोसरार गेली। रामप्रसाद बाबू गंगा केॅ पकड़ी केॅ भोक्कार पारी केॅ कानेॅ लागलै। रूपा हुनकोॅ अभिमान छेलै आरू आँखी के पुतरीयो, ओकरा अलग करै में माय-बाप के करेजा फाटी रहलोॅ छेलै, मतरकि विधि के दस्तूर सामना में सब अच्छा लागै छै। पनरहवैं दिन नवल साथें रूपा नैहरोॅ लौटी ऐलै, तबेॅ सब्भे के मोॅन हरखित होलै।