फिनिक्स, खण्ड-3 / मृदुला शुक्ला
रधिया यै बीचोॅ में एकदम्में असकल्ली होय गेली। गंगा आपनोॅ घरोॅ के टहल-टिकोर आरू उत्सवे में ओझरैली छेली। बीहा के भीड़-भाड़ खतम होत्हैं गंगा बीमार पड़ी गेली। जबेॅ एक दिन रधिया ऐली तेॅ गंगा घरोॅ सें निकली केॅ आमोॅ गाछी के नीचें खटिया बिछाय केॅ दोनों बैठी गेली। गंगा केॅ कमजोर देखी केॅ रधिया के भी मूँ सुक्खी गेलै। गंगा के कान्हा पर एक ठो फोड़ो निकली गेलोॅ रहै, जेकरोॅ टोपोॅ सें बोखार होय गेलोॅ छेलै। घोॅर ओझरैलोॅ छेलै, नवल आरू रामप्रसाद बाबू बाहरोॅ के कामोॅ में व्यस्त छेलै, यै लेली गंगा तीन दिनोॅ सें फोड़ा के जलन सें छटपटाय रहली छेली आरू कोय उपायो नै होय रहलोॅ छेलै। किशोर उमर के दोनों सखी एक दोसरा सें ढेर सिनी बात करै लेली चाहै छेली, मतरकि तकलीफोॅ सें गंगा निढाल होय रहलोॅ छेली। रधिया वहाँ सें उठी गेली आरू, "आवै छिहौं गंगा" कही केॅ ऊ वहाँ सें सीधे शशिधर वैदोॅ के घोॅर दीस चलली। बेरा झुकी गेलोॅ छेलै, यै लेली झटकी केॅ जावेॅ लागली। रस्त्है में मनटुन मिली गेलै। रधिया देखी रहलोॅ छै कि आयकल वें जहाँ जाय छै, मनटुन भी केना केॅ वाँही पहुँची जाय छै। रधिया के माय नें बाहर निकलै के पहिनें ओकरा दुनिया के बहुत्ते बात समझाय देलेॅ छै, यै लेली ऊ छौड़ा सिनी सें खूब सचेत रहै छै, तहियो मनटुन ओकरा अच्छा लागै छै, यहो सच छेकै। गंगा सें रधिया बरस भर बड़ी छै मतरकि गरीबी नें ओकरा अनुभव के बहुत्ते सीढ़ी देखाय देनें छै। मनटुन गंगा के रिश्ता में फुफेरोॅ भाय लागै छै। ओकरी माय नैहरे में रहै छै, यही लेली वहो यहीं रहै छै। मनटुन केॅ देखी केॅ भी रधियां अनठाय देलकै, तबेॅ मनटुने टोकी देलकै, "रधिया असकरे कहाँ जाय रहली छैं?"
रधिया नें हँसी केॅ कहलकै, "गंगा लेॅ दवाय लानै लेॅ जाय छियै, शशिधर वैदोॅ के घोॅर।"
मनटुन साथे चलेॅ लागलै, रधियां फेनू पूछी लेलकै, "तोहें कहाँ जाय छोॅ।"
"हम्में तेॅ तोरा देखी केॅ ऐलोॅ छी। चलें नी थोड़ोॅ देर पुरनका ईनारा तरफ।" रधिया नें आँख गुरेड़ी केॅ मनटुन केॅ देखलकी, कैन्हें कि इस्कूलोॅ में बदमास सिनी छौड़ा जबेॅ कोय लड़की सें अंट-संट बात बोलै छै, तेॅ यहेॅ कहै छै कि चल पुरनका ईनारा तरफ। मनटुन हँसेॅ लागलै तेॅ रधिया नें धमकाय केॅ कहलकी, "हम्में फूफू केॅ कही देभौं कि तोहें इस्कूल पढ़ै लेली नै, बदमाश छौड़ा के साथें इहे सब सीखै लेॅ जाय छौ।"
मनटुन नें चिढ़ी केॅ कहलकै, "जो-जो बड़का इन्द्रासन के परी छेकी तोहें नी।" रधिया अन्दर सें दुखी होली बस कहलकी, "तभिये तेॅ कहै छिहौं कि तोहें आपनोॅ रस्ता लेॅ।"
रधिया समझी रहली छेली कि नै तेॅ वें मनटुन केॅ कुछू बतावेॅ पारतै, नै अपनी माय केॅ आरू तेॅ आरू, वैं ई बात अपनी सखी गंगा केॅ कही केॅ भी ओकरोॅ मोॅन नै दुखैतै। वैद्य जी के दवाय लै केॅ रधिया एकदम सरपट दौड़ली गंगा के पास ऐली आरू इन्दु हाथोॅ में दवाय दै केॅ बोललकी, "बड़की माय, वैद्यजी कहनें छै कि कल तांय फोड़ा बही जैतै, तबेॅ घाव सूखै लेली दवाय देभौं।" इन्दु मने-मन बड़ी परेशान छेली। रधिया नें जबेॅ संझा बेरियां दवाय लानी केॅ देलकै, तबेॅ अन्दर तांय खुश होय गेली। वें सखुआ के दोना में चूड़ा आरू बुनिया मिलाय केॅ रधिया केॅ खाय लेली देलकै आरू पुछलकै, "बीहा में तोहें ऐली छेलैं की नै गे रधिया?"
रधिया इन्दु के बातोॅ सें हरखित होय के बदला बुझी गेली, तहियो कहलकी, "ऐली छेलियै, आरू एखनी हम्में नै खैभौं, पेट दुखाय छै। कल खाय लेभौं।"
"अच्छा ठीक छै, घोॅर लेने जो" इन्दु कही केॅ कामोॅ में लगी गेली। रधिया के जी छोटोॅ होय गेलै। वैं तेॅ गंगा के तकलीफ सोची केॅ दवाय लानी देलेॅ छै, ओकरा मेहनताना कैन्हें दै रहली छै, ओकरा ई सब चीजोॅ के लालचो नै छै, तहियो गरीबोॅ केॅ लोगें एन्हें समझै छै। रधिया बोललकी कुछू नै। गंगा दरदोॅ सें बेहाल छेली। गोयठा के आगिन सुलगाय करी केॅ रधिया पानोॅ पत्ता सें गंगा के घाव सेकेॅ लागली। थोड़ोॅ आराम मिललै, तखनीए रधिया के आँखी सें दू बूँद लोर चूवी केॅ गंगा पीठी पर गिरी गेलै। गंगां पीछू मुड़ी केॅ देखलकै आरू रधिया के लोर देखी बोलली, "धूर पगली, कानै कैन्हें छैं, आबेॅ तेॅ दरदो नै छै।" प्रेम, विश्वास आरू दोस्ती के गहराई के व्याख्या करै के, नै तेॅ समझै के उमिर रहै, नै समझाय के, तहियो बिना कोय माध्यमोॅ के भावना के सन्देश दूनो के हृदय तांय पहुँची गेलोॅ रहै। गंगा तखनिए सोची लेलकै कि रधिया के दोस्ती वैं नै छोड़ेॅ पारतै, चाहे सौंसे गाँव चिढ़ावै।
रधिया तेज-तर्रार छौड़ी छै। साँवरी रंग केµमतरकि तेज तीक्खोॅ नाक-नक्श वाली। पढ़ै-लिखै में भी अच्छा छै, दुनियादार आरो व्यवहार कुशलो। पिछलका दिवाली पर गंगा के घरकुण्डा सबसें सुन्दर बनलोॅ रहै। रधिया के माय माटी के काम करी रहली छेली आरू रधियो माय के कामोॅ में मदद करै लेली पहुँची जाय। असल तेॅ ओकरा गंगा के पास जाय के मोॅन रहै। ई बेर गंगा ननिहर सें ऐली तेॅ ओकरोॅ मामी नें ट्विंकल के दू ठो हरा सबुज रंग के रिबन देनें रहै। गंगा नें ओत्तेॅ सुन्दर फीता रधिया केॅ पनसोखा लगाय केॅ दै देलकी। रधिया, ओकरा आपनोॅ टुटलका बक्सा में छिपाय केॅ राखी देलकै। दिवाली के समय में रूपा दी के परीक्षा नजदीक छेलै, नवल भैयो केॅ फुरसत नै छेलै यै लेली ओकरोॅ घरकुण्डा नै बनलोॅ छेलै आरू यै वास्तें गंगा कनमुँही छेली। तभीये रधियां कहलकै, "तोहें देखियैं, सबसें सुन्दर तोरोॅ घरकुण्डा हम्में बनाय देभौं। एखनी सबकेॅ बनावेॅ दैं, केकरहोॅ सें कुछू नै कहियैं।" आरू सच्चे रधिया नें बड्डी सुन्दर घरकुण्डा बनैलकै। ओकरा में झरोखा, दरवाजा, कोठा, कागज के पंखा लटकाय देलकी। आरू दिवारोॅ पर सुन्दर चिड़िया, फूलोॅ के तस्वीरो बनाय देलकी। गंगा तेॅ एकदम्में खुश होय गेली आरू रधिया नें जेना दोस्ती के करजा उतारी देलकै।
गंगा नें पुछलकै, "तोहें आपनोॅ घरकुण्डा नै बनैभौ।" रधिया हँसी देलकै, "धुर, हमरा सिनी गरीब-गुरबा केॅ तेॅ घरे होय छै घरकुण्डा रं।"
गंगा चकराय जाय छै कि रधिया एतना बुधगरी केना होय जाय छै कखनू-कखनू। केना सब बातोॅ के जवाबो फुराय जाय छै। नवल के रिजल्ट अच्छा होलै तेॅ रामप्रसाद बाबू नें सुल्तानगंज में नाम नै लिखाय केॅ टी0 एन0 बी0 कॉलेज, भागलपुरोॅ में नाम लिखाय के सोचलकै। पैसा के अभावोॅ में हुनी कोय रस्ता सोची रहलोॅ छेलै।
हिन्नें परमानपुर वाली के स्वभाव एकदम्में बदललोॅ लागै छै। जहिया सें खेत बिकैलोॅ छै, वैं रोज कोय न कोय बहाना लगाय केॅ कानै-बाजै छै, "हमरोॅ कोखी में दू टा बेटी छै, एना खेत बिकतै तेॅ हमरा सिनी केॅ खाय लेली कुच्छू नै बचतै।" इन्दु सब्भे कुछू सुनियो-बुझी केॅ बहरी बनी केॅ रही जाय छै। आखिर जनानी जात इहै सब सहै लेली बनैलेॅ छै विधाता नें।
आभी तेॅ नवल के नाम लिखाय लेली माथा पर चिन्ता छेवे करलै कि रूपा के मधुश्रावनी आवी गेलै। गामोॅ में रही केॅ कुछू छोड़हो नै पारोॅ। रोज-रोज गीत-नाद हुवेॅ लागलै। रधिया भी आवै आरू लहकी-लहकी केॅ गीत गावै। ओकरा हरदम आभास रहै कि मनटुन भी कंही-नेॅ-कंही सें ओकर्है देखी रहलोॅ छै। हिन्नें रधिया लम्बो होय गेली छै। तेरहवों बरस लागलोॅ छै, देह अभी छरहरे छै मतर देह आरू गला दोन्होॅ में लचक बहुत्ते छै। गंगो मगन छैµओकरा बड़का के चिन्ता सें की लेना।
घरोॅ में खरचा बढ़ी गेलोॅ छै। केना पुरतै सब्भे खरच एकरा सें समाज केॅ की मतलब। ब्राह्मण-समाज में परम्परा केॅ जोगना, जान के जोगवोॅ रं होय जाय छै। एक बेर हँसाय होय गेल्हौं तेॅ सात पीढ़ी तांय वहेॅ जाप होतेॅ रहतौं, तबेॅ ओकरा तेॅ मरने दाखिले समझोॅ। रामप्रसाद बाबू आरू इन्दु मने-मन जोड़-घटाव लगाय छै। ऊपर-ऊपर बतियाय छै।
ई साल जेकरोॅ-जेकरोॅ बीहा होलोॅ छेलै, सब्भे के मधुश्रावणी होलै, तेॅ सब्भे के दुल्हा ऐलै। सास सिनी आपनोॅ जमाय केॅ खिलाय-पिलाय में व्यस्त छेलै। पसीना केॅ अँचरा सें पोछै छै। मगर इन्दु के मोॅन झमान छेलै। रूपा के दुल्हा नै ऐलोॅ छेलै। रूपा जहिया सें लौटली छै, ऊपरोॅ सें तेॅ हँसत्हैं रहै छै, मतरकि लागै छैµआपन्हें में डूबली रहेॅ। गम्भीर तेॅ ऊ पहिनें सें छेलै, मतरकि आबेॅ आरू गम्भीर होय गेली छै। एक दिन इन्दु नें रामप्रसाद बाबू केॅ कहवो करलकै कि "रूपा के मोॅन नै लागै छै।"
गंगा नें ई सुनी केॅ तुरन्ते खबर रूपा केॅ दै देलकी, "रूपा दी, माय नें बाबूजी सें कहै छेलौ कि रूपा केॅ आबेॅ बीहा के बाद यहाँ मोॅन नै लागै छै।" रूपा नें बहिनी केॅ थप्पड़ देखाय केॅ मुस्काय केॅ कहलकै, "गंगा तोरा ई सिनी बात करै में बड्डी मोॅन लागै छौ, देखै छियौ।" गंगा वहाँ सें भागी गेली।
रूपा के सोसरारी सें सन्देश-भाड़ लै केॅ जे कुटुम्ब ऐलोॅ छेलै, वहीं कहलकै, "डिपार्टमेन्टल परीक्षा पड़ी गेला के कारणें विकास बाबू नै आवेॅ सकलै, पीछू ऐतै।" खैर थोड़ोॅ उदास रं ही मधुश्रावणी बीती गेलै आरू रामप्रसाद बाबू इन्दु के साँसों में साँस ऐलै।
जोॅन दिनां विधकरी आरू कुटुम्ब सिनी विदा होलै, ओकरोॅ अगले दिन बिहाने-बिहान हरगौरी बाबू नें झगड़ा शुरू करी देलकै। रामप्रसाद बाबू तीन दिन के छुट्टी के बाद आपनोॅ नौकरी पर जाय वास्तें तैयार होय रहलोॅ छेलै। यही बीचोॅ में हरगौरी रामप्रसाद बाबू के सामनें आवी केॅ बोलेॅ लागलै, "छोटका के तबीयत खराब छै, डॉक्टर केॅ देखाना छै भागलपुरोॅ में। जाय रहलोॅ छौ तेॅ हमरा रुपया देनें जहियोॅ।" रामप्रसाद बाबू ठकमकैलोॅ रं खाड़ोॅ होय गेलै। पैसा नै छै, ई बात की हरगौरी नै जानै छै। हुनी भाय के मूँ देखी केॅ कहलकै, "एखनी कही रहलोॅ छैं, आभी कहाँ सें पैसा ऐतै।" एकरा पर हरगौरी तमतमाय केॅ बोलेॅ लागलै। रामप्रसाद बाबू नें हरगौरी के ई रूप नै देखनें छेलै। मंझलोॅ भाय परमेश्वर आरू परमानपुर वाली के स्वभाव थोड़ोॅ तेज छेलै, मतरकि हरगौरी पर हुनका बहुत्ते भरोसा छेलै। वैं बूझै छेलै कि रामप्रसाद बाबू केना केॅ परिवार चलाय रहलोॅ छै आरू घरोॅ पर पैसा खरचा वास्तें लानी केॅ रामप्रसाद बाबू नें हरगौरी केॅ ही दै छेलै, वें भाय के हिम्मतो बढ़ाय छेलै। इन्दु कोठरी में नवल के कपड़ा समेटी रहली छेली। जोर-जोर सें बोलतें सुनी केॅ वहाँ ऐली। छोटका के मोॅन खराब जानी दौड़ली हरगौरी दुलहैनी लुग जाय केॅ कहेॅ लागली, "की होलोॅ छै छोटका केॅ, सरदी केना होय गेलै, तोहें पानी में भींजली होवौ। यही सें बच्चा केॅ सरदी होय गेलै।"
"नै दीदी, हमरा तेॅ सरदी नै होलोॅ छै, मतरकि एकरोॅ सरदी-खाँसी छुटी नै रहलोॅ छै।" आपनोॅ बच्चा गोतनी गोदी में दै केॅ हरगौरी दुलहैन खाड़ी होय गेली। तब तांय हरगौरी झपटलोॅ ऐलै आरू कनयैनी सें कहेॅ लागलै, "चलोॅ तोरा नैहरा पहुँचाय दै छिहौं, यहाँ तोहें खटत्हैं-खटत्हैं मरी जैभौ आरू बच्चा दवाय बिना मरी जैतौं।"
"एन्होॅ बोल कैन्हें बोलै छौ हो हरगौरी। आरू आय कनियैनी के एत्ते दरद होय गेल्हौं। जखनी सौरी घरोॅ में कनियांय छेल्हौं आरू हम्में पूरा परिवार सेवा-टहल में लागलोॅ छेलिहौं, तखनी तेॅ है दरद नै होलोॅ छेल्हौं केकर्हौ लेली। हमरोॅ बेटी के सोसरारी के चार लोगों के भनसा की बनैलकहों कि तूफान मचाय रहलोॅ छौ।" हरगौरी जबेॅ तांय आरू कुछू बोलतियै, तबेॅ तांय रामप्रसाद बाबू के खाँसी के आवाज सुनी हरगौरी आरू ओकरी कनियांय जे सिसकी-सिसकी केॅ कानी रहलोॅ छेली, कोठरी के अन्दर चल्लोॅ गेलै। रामप्रसाद बाबू बाहर जाय के कपड़ा बदली केॅ ऐंगना के चौकी पर बैठी चुकलोॅ छेलै।
ई हल्ला-गुल्ला सें कनसुओॅ लै वाली जनानी सिनी हिन्नें-हुन्नें सें बहाना बनाय केॅ जमा होय रहली छेली। छोटका बच्चा भी जोर के आवाजोॅ आरू कानवोॅ-वाजवोॅ सें चिल्लाय-चिल्लाय केॅ कानेॅ लागलै। रूपा आपन्हैं केॅ दोषिन समझी केॅ ओहारी केॅ पकड़ी केॅ चुप गम्भीर बनली रहलै। गंगा आपनोॅ बापोॅ के नजदीक जाय केॅ मुकुर-मुकुर मूँ देखी रहलोॅ छेली। हौ पूरा दिन उदास आरू गुमसुम बीतलै। रूपा सोची रहली छेलै कि कल तांय तेॅ चाची के मोॅन एकदम्में ठीक बुझाय छेलै, केन्होॅ ठठाय केॅ हाँसै छेलै, गीत गावै छेलै, कामोॅ में भी मगन छेलै; ज़रूरे कोय जनानी कुटनाय देलकै, जैं सें मोॅन बदली गेलै। इन्दु आपनोॅ कोठरी में जाय केॅ एकदम्मे निढाल पटाय गेली। घरोॅ में ई रं झगड़ा होतैµनै बूझै छेलै। बड़की बनी केॅ सबके छाया दै लेॅ सोचलकी, अवगुन-अभाव सब्भे झाँपी केॅ रक्खै छेलै। सब्भे के प्रति रामप्रसाद बाबू कर्तव्य निभैनें ऐलोॅ छै, मतरकि घर-घर के इहै खिस्सा छै। इन्दु के आँखी सें लोर चूवी गेलै। रामप्रसाद बाबू राती लाला-टोली जाय केॅ कपिलदेव बाबू सें पचास रूपा मांगी लै आनलकै। बिहाने हरगौरी केॅ बोलाय केॅ रुपया दै केॅ कहलकै, "कल हाथोॅ में पैसा नै छेलै, यै लेली नै दियेॅ पारलियौ, आय भागलपुर जाय केॅ छोटका केॅ देखाय आवैं।"
हरगौरी मूड़ी गाड़ल्हैं खाड़ोॅ रहलै। जबेॅ फेनू रामप्रसाद बाबू नें कान्हा पर हाथ धरी केॅ कहलकै तेॅ हरगौरी बाबू कपसी-कपसी कानेॅ लागलै, "भैया हमरा माफ करी देॅ, हम्में तोरा सें बात बनैलिहौं, मतरकि आय हमरा नौकरी रहतियै तेॅ हमरोॅ ई गति नै नी होतियै, परमेसर भैया तेॅ तोरा सें नै नी मांगै लेॅ आवै छौं।"
रामप्रसाद बाबू कहलकै, "आबेॅ जावै लेॅ दौµहै सिनी बात तेॅ होत्हैं रहै छै, बच्चा-बीमारी में हेना लापरवाही सें नै रहलोॅ करोॅ।"
ई रं ऊपरोॅ सें तेॅ हौ दिना सब्भे ठीक्के-ठाक होय गेलै, मतरकि रामप्रसाद बाबू के मोॅन अन्दर सें फाटी गेलै। हुनी समझी गेलै कि आबेॅ ई परिवार ज़्यादा दिनोॅ तांय सम्मिलित नै रहेॅ पारतै, मतरकि रूपा के गौना तांय हुनका गामोॅ में परिवार केॅ रखना ज़रूरी बुझाय रहलोॅ छेलै।