फिनिक्स, खण्ड-4 / मृदुला शुक्ला
गंगा ढेर सिनी संगतिया साथें इस्कूल जाय रहली छेलै। रधियो साथें चली रहलोॅ छेलै। रधिया गमी रहली छेलै कि रोजे नांखी नै तेॅ गंगा बोली-बतियाय रहली छै, नै हँसी-मजाक करी रहली छै, चालोॅ में फुरती नै छै। रधिया सें नै रहलोॅ गेेलै तेॅ पीछू सें ओकरोॅ बालोॅ के रिबन के फूल खोली देलकै। गंगा नें उलटी केॅ देखी लेलकै, मतरकि कुछू नै बोललकी। आखिर में रधियैं पुछलकै, "आय की बात छेकै गंगा, एकदम्में चुप छौ।" सुमनो साथें छेली, वहो कहेॅ लागलै, "हम्मू देखी रहलोॅ छियैµगंगा दी एकदम्मे चुप-चाप चली रहली छै।"
गंगा नें भारी मनोॅ सें कहलकै, "आवेॅ हम्में सिनी यहाँ नै रहवै। तोरा सिनी के साथें खेलवोॅ, इस्कूल जैवोॅ छूटी जैतै। पता नै दोसरा जग्घा में हमरा सिनी रं लोगोॅ केॅ पूछत्हौ छै की नै?"
"कैन्हें जैभौ आरू कहाँ जैभौ" दुनू नें एक्के साथ पुछलकै।
"बाबूजी माय सें बात करै छेलै कि आबेॅ देवघर जैतै। परमानपुर वाली चाची तेॅ हरदम्मे कुच्छू-न-कुच्छू बोलत्हैं रहै छै, आबेॅ नयकी चाचीयो ओतना बढ़ियां सें बात नै करै छै।"
है सब सुनी केॅ रधिया आरू सुमन के मूँ सुक्खी गेलै। बाकी छौड़ियो सिनी बोलेॅ लागली, "कहिया जैभौ, फेनू कहिया ऐभौ, शहरिया तेॅ नै होय जैभौ।" तबेॅ तांय इस्कूल आवी गेलै।
जखनी गंगा इस्कूल के रस्ता में है बात बोली रहली छेलै, तखनिए मीना आरू लक्ष्मीयो बात सुनी रहलोॅ छेलै आरू वैं घोॅर आवी केॅ परमानपुर वाली केॅ सब बात बताय देलकी।
दोसरे दिन भोरे-भोर कुइयाँ पर परमानपुर वाली नें अखाड़ा संभाली लेलकी। बात कुछू नै छेलै। इन्दु नहाय चुकली छेलै आरू पूजा के पानी भरै लेॅ ऐली तेॅ देखलकी कि सौंसे ईनारा पर परमानपुर वाली धोय वाला कपड़ा छितरैलेॅ छै। मूँ धोय केॅ सौंसे नालियो घिनैलेॅ छेलै। कन्हौं जग्घोॅ नै देखी केॅ इन्दु नें आपनोॅ कपड़ा समेटलकी आरू कपड़ा सिनी केॅ पैरोॅ सें टारी केॅ एक पैर ईनारा पर राखलकी। पूजा वाला बाल्टी रस्सी कुंइया में उतारलकी, तखनीए परमानपुर वाली के बेटी रेखा रस्सी ऊपर खीचेॅ लागली। इन्दु गोस्साय केॅ बोलली, "है की करल्हैं गे रेखा, पूजा के बाल्टी छुवी देलैं, आबेॅ फेनू बाल्टी मली केॅ पानी निकालै लेॅ पड़तै। एक डेग तेॅ जग्घोॅ माय नें छोड़लेॅ नै छौ।"
बस तेज-तर्रार परमानपुर वाली नें बात लोकी लेलकी, "हौं हे दीदी, बेटी बिहाय गेलौं तेॅ हम्में घिनाही होय गेलां, आरू हमरी बेटी आँखी में गड़ेॅ लागल्हौं। जखनी लोर चुआय केॅ रेखिया बाप केॅ बरतुहारी भेजै छेल्हौ, तखनी हम्में निक्की छेलां।"
इन्दु गम्भीर प्रकृति के स्त्राी छै। आठ बड़ी गोतनी होला के बादो आपनोॅ मान-सम्मान बचैल्हे राखै छै। वें मूँ नै लगाय लेॅ चाहलकी। वाँही ठां कानू-टोला के मथुरो माय खाड़ी छेली। भूँजा भुंजाय लेली इन्दुहें बोलैलेॅ छेली। यै सें भीतरे-भीतर गोस्सा पीवी केॅ बोललकी, "हम्में तेॅ कहियो रेखिया आरू आपनोॅ बेटी केॅ दू रं बुझवे नै करलेॅ छिहौं आरू एखनी नेम-टेम के कारनें आपने बच्चा बुझी केॅ डाँटी देलिहौं। यै में केकरोॅ कौनें केतना करलेॅ छै, खोलै के की ज़रूरत छै।"
परमानपुर वाली नें मथुरा माय केॅ सखियारना शुरू करी देलकी, "हम्में तेॅ सौंसे घरोॅ के काँटा छेकियै। आबेॅ रेखियो बाप के करलोॅ-धरलोॅ निगली गेलै तेॅ हमरोॅ विसाते की?"
इन्दु वहाँ सें हटी केॅ आविये रहली छेली कि गंगो कुल्ला करै लेॅ कुइयाँ पर पहुँची गेली। इन्दु पूजा के पानी बाल्टी आरू रस्सी लै केॅ आवेॅ लागली तेॅ कहलकी, "हम्में तोरा सें नै सकवौं हे परमानपुर वाली।" एतना सुनत्हैं परमानपुर वाली हाथ नचाय-नचाय बोलेॅ लागली, "सब्भे टा जोॅड़ तरे-तर काटन्हों जा आरू सीधियो बनली जा। बित्ता भर के बेटी गंगा हमरा बदमासिन कहै छै, बज्जातिन कहै छै। मीनिया नें हमरा बताय छेलै आरू माय हमरा झगड़ाहिन बनाय छै।"
परमानपुरवाली केॅ सप्तम सुर में बोलतें आरो माय के आँखी के लोर देखी केॅ गंगा आगू आवी केॅ बोलेॅ लागली, "तोहें सच्चे कत्तेॅ झूठी छौ चाची, हम्में कहिया तोरा बदमासिन कहनें छियौं।"
"हे देखौ मथुरा माय, एखनिहौ हमरा झुट्ठी कहै छै आरू केना हमरा आँख फाड़ी-फाड़ी ताकै छै।"
गंगा आरू तनी गेली, "हमरोॅ माय केॅ कनैभौ तेॅ कहवे करभौं।" परमानपुरवाली नहैवोॅ छोड़ी केॅ गोदी वाला बेटा लै केॅ कानै तेॅ लागली। इन्दु गंगा केॅ आगू खींची केॅ दू-तीन थप्पड़ मारी केॅ आपनोॅ कोठरी दिश चलली गेली।
गंगा वाँहीं ठां गोड़-हाथ पटकी-पटकी आरो जोरोॅ सें कानेॅ लागली। एक सुर में गीत भी गावेॅ लागली आरू जतना बुद्धि गामोॅ-देहातोॅ सें सीखलेॅ छेलै, ओन्है करी-करी केॅ कानेॅ लागली, "हे हो भगवान, जौनें हमरा मार खिलावै छै, ओकरा तोंही देखिहौ हो भगवान। मीनिया माय मन्थरा बनी गेली छै, हम्में कुछ नै कहलियै आरू हमरोॅ चुगली करनें छै, ओकर्हौ देखिहौ भगवान, जौनें हमरोॅ माय केॅ कनैनें छै, ओकरहौ कनैहियौ।"
गंगा के ई नाटक देखी केॅ रूपा आरू इन्दु सन्न रही गेली। गंगा नें ई सब कहिया सीखी लेलकै। एतना उदण्ड तेॅ गंगा नै छेली। बड़ा जेठा के एतना अपमानो करै लेॅ सीखी रहली छै। रूपा माय केॅ इशारा करी केॅ आगू बढ़ली आरू गंगा केॅ डाँटलकी, "बहुत होय गेलौ, बन्दकर रोना आरू चल माय पास, कोय अच्छा लड़की एन्होॅ-एन्होॅ बात बोलै छै की?"
"रधिया साथें खेलथौं, ओकरे साथें पनसोखा बनैथौं तेॅ आरो की सिखथौं। रूपा तोहें तेॅ पार-घाट लगी गेलोॅ, आबेॅ बहिनी केॅ सम्हारोॅ।" हल्ला-गुल्ला सुनी केॅ गोतिया के ननद मनटुनवा माय आवी केॅ खाड़ी होय गेलै। कनरस-सुख में डुबली आगू-आगू आरो बोलेॅ लागली, "अहे भौजी, हौ रधिया छौड़ी दिन-रात बभनटोली में मंडरैथैं रहै छै। फिरकी रं नाचथैं रहतौं आरू हमरोॅ मनटुन तेॅ एकदम्मे सीधा, कखनू ओकरा सें है किताब मांगथौं, कखनू हौ किताब, बस संग-संग खी-खी करै छै।"
रधिया के शिकायत सुनी केॅ गंगा के आँख कपारोॅ पर चढ़ी गेलै। ओकरा याद आवी गेलै कि ओकरोॅ परम प्यारी सखी के पीछू मनटुन भैया दिन-रात घूमै छै, चिढ़ावै छै आरू फूफू दोष रधिया केॅ दै रहलोॅ छै। चिढ़ी गेली गंगा आरू हाथ-मूँ बनाय केॅ बोलेॅ लागली, "तोहें की जानै छौ फूफू कि मनटुन भैया आपनोॅ जेरो छोड़ी केॅ रस्ता में इमली गाछी तर खाड़ोॅ रहै छों आरू एक दिन तेॅ रधिया केॅ हवाई मिठाय दै रहलोॅ छेलौं, रधिया नें डाँटलकै आरो सब्भे छौड़ी चिढ़ावेॅ लागलै आरू तबेॅ भागलोॅ छेलौं मनटुन भैया।"
एतना खुल्ला आरोप सुनत्हैं मनटुन माय आगिन होय गेली आरू गंगा सें उलझी गेली।
इन्दु कोठरी में है सिनी रामकथा सुनी केॅ आरू गंगा के हिम्मत देखी लाजोॅ सें गड़ली जाय रहली छेलै। है दस-ग्यारह बरस के गंगा केना केॅ भिड़ी जाय छै बड़का सें, आरू यें कत्तेॅ बात सुनवैती। तबेॅ दुर्गा बनली गंगा केॅ रूपा कोठरी में खींची करी केॅ आनलकी।
हौ दिन इन्दु आपनोॅ दुख, क्षोभ आरो बेबसी सें भरी केॅ पंखा के डंडी सें गंगा केॅ खूब मारलकै आरो कही देलकै, "गामोॅ के पंचैती में पड़ै के तोरा कोय ज़रूरत नै छै आरो नै तेॅ रधिया सें तोरा दोस्ती रखना छै। खेल-कूद सब बन्द।"
ऊ रात इन्दु खूब कानली। रामप्रसाद बाबू आरो नवल घरोॅ में नै छेलै। रूपा नें खाना बनाय केॅ परमानपुर वाली आरू नयकी चाची दुन्हू केॅ बोलैलकी तेॅ परमानपुरवाली नें कहलकै, "पीछू खाय लेवै, तोरा सिनी खाय लेॅ। एखनी माथोॅ दुखाय छै।" नयकी के बच्चा नै सुतलोॅ छेलै, ओकरा सुताय केॅ खाय के बात कही देलकै। पहिनें घरोॅ में कुछ होय जाय तेॅ नयकी सब्भे केॅ मनाय-सुनाय लै छेलै। इन्दु ओकरा थोड़ोॅ बेसी मानथौं छै, मतरकि जहिया सें खेत बिकलोॅ छै, परमानपुर वाली नें ओकरा चढ़ाय-बढ़ाय देलेॅ छै। रूपा नें छोटोॅ भाय-बहिन सिनी केॅ खिलाय माय केॅ खाय लेॅ कहलकै, मतरकि इन्दु बिछौना पर सें नै उठली। आखिर इन्दु, रूपा आरो गंगा होन्हे केॅ सूती रहली। भोरे देखलकैµहड़िया-पतली खाली करलोॅ कॉबी पर धरलोॅ छै; माने उठी केॅ वै सिनी खाय लेलेॅ छेलै, बिना एकरा सिनी केॅ उठैल्हैं।
तीन दिन बाद रामप्रसाद बाबू ऐलै तेॅ घरोॅ के रंगे-ढंग ही उदास लागलै। इन्दु के चेहरा बुझलोॅ-बुझलोॅ आरू निवेदिता के खेलवोॅ-चहकवोॅ सब बन्द। तनाव आरू चुप्पी हवा में सुंघी केॅ हुनियो उदास होय गेलै। बादोॅ में इन्दु लेली सब्भे के व्यवहार सुनी केॅ हुनी सोचेॅ लागलै कि आबेॅ गामोॅ में आपनोॅ परिवार केॅ रखना बेकार छै। सबके घोॅर बसी गेलै। माताजी भी आबेॅ नहिये रही गेली छोॅत, जे सब्भे केॅ डोरी में बाँधै छेली। आबेॅ जेकरा जेना मोॅन रहेॅ पारै छै। हुनी इन्दु केॅ कही देलकै कि "अगला महीना सब्भे देवघर चलोॅ, वाँही नोन-रोटी खैयोॅ, मतरकि ई माहौल में बच्चा सबकेॅ छोड़ना ठीक नै होतै।"