फिनिक्स, खण्ड-6 / मृदुला शुक्ला
गंगा कॉलेजोॅ सें आवी केॅ घरोॅ के कुछु काम करी रहलोॅ छेलै। इन्दु के मोॅन हिन्नें ठीक नै रही रहलोॅ छै। रूपा के दुख नें ओकरा झकझोरी देनें छै। तखनिए दरवाजा पर तीन-चार ठो रिक्शा रुकलै। रामप्रसाद बाबु बाहर झाँकलकै तेॅ देखै छै कि हुनकोॅ छोटका भाय, भाभऊ, लतिकिया माय, मनटुनवा माय, रधिया आरू रधिया माय सब्भे उतरी रहलोॅ छै। हुनी किंकर्त्तव्यमूढ़ नाँखि ठाड़ोॅ रही गेलै। गंगा के आवाज मिललै तेॅ बाहर ऐली। चाची केॅ पकड़ी केॅ कानेॅ लागली। गामोॅ में खबर पहुँचलै तेॅ सौंसे गाम सहमी गेलै। आखिर में नै रहलोॅ गेलै तेॅ सब पहुश्ँची गेलै। रामप्रसाद बाबु नें क्रिया-कर्म भी बाहरे जाय केॅ करी देलेॅ छेलै कि इन्दु आरू बच्चा सिनी के घाव आरू गहरा होय जैतै।
बाहरोॅ के लोग सिनी पुरसिस करी-करी केॅ जाय रहलोॅ छेलै। आबेॅ घरोॅ सें जे लोग ऐलै, वै नें सब्भे के बाँध तोड़ी देलकै। गंगा नें रधिया केॅ देखलकी तेॅ पँजरोटी पकड़ी केॅ भोकार पारी केॅ कानेॅ लागली। बचपन के सखी, एतना बड़ा दुखोॅ में बहली तेॅ दूर तक चलली गेलै। दोनों के लोर रूपा दी लेॅ एक होय गेलोॅ छेलै।
परिवारोॅ के ऐला सें रामप्रसाद बाबु के दुखोॅ के जमलोॅ पत्थर पिघलेॅ लागलै। दुक्खोॅ के किस्सा होतें-होतें दुपहर ढली गेलै। भूख-पियास सब्भे तेॅ हेराय गेलोॅ रहै, मतरकि बच्चा सिनी भी साथे रहै, यै लेली इन्दु आरो रामप्रसाद बाबु खाय-पीयै के इन्तजामोॅ में उठलै, तेॅ रधिया माय नें घरोॅ के काम संभारी लेलकी। छोटकी काकी यही लेॅ दोनों माय-बेटी केॅ लेनें ऐलेॅ छेली। राती एक बेर जबेॅ सब बैठलै तेॅ रूपा के दुखोॅ के गठरी फेनू खोली केॅ इन्दु कानेॅ लागली। माय के दरद कोय विध कम नै होय वाला छै, तहियो सब्भैं विधि के बात कही केॅ सान्त्वना देलकै।
गंगा-रधिया जबेॅ अकेली होली तेॅ गंगा नें रधिया के हाल पुछलकै, "तोरोॅ ससुरार केन्होॅ छौ? फेनू कबेॅ सोसरार जैभैं?"
रधिया बात टारी देलकी, "गंगा, हममें आभी पढ़ै लेॅ चाहै छियै, तोहें पढ़िये नी रहली छैं?"
"गामोॅ में आरू कोय लड़की इस्कूल जाय छै कि तोरा जेरा के?" गंगा थोड़ोॅ अचम्भा सें पूछलकै।
"नै, ऊपर किलास में तेॅ कोय नै जाय छै, हमरोॅ पढ़ाय भी छुटी गेलोॅ छै।"
"तोहें तबेॅ सोसरार जैभैं तेॅ केना पढ़भैं?"
रधिया के चेहरा के चमक खतम होय गेलै, धुधयैलोॅ हेन्होॅ मूँ लै केॅ रधिया बैठी गेली। गंगा कुरेदी-कुरेदी पूछेॅ लागली तेॅ जेना कुइयाँ सें आवाज आवी रहलोॅ रहै, होन्हे रधिया नें कहना शुरू करलकै, "गंगा, हमरा सिनी के बीहा तेॅ कनिया-पुतरा के खेल छेकै। बाबु नहियें रहै, माय नें गामोॅ डरोॅ सें जेना-तेना बिहाय देलकै। दुलहा एकदम बोकोॅ छै। आपनोॅ सास नै छौं। सौतेली सास भारी बदमास छौं। आबेॅ की बतैहियौं कि तीन महीना हम्में सोसरारी में केन्होॅ नरक रँ जिनगी काटलेॅ छी।"
गंगा चुप होय गेली, समझी गेली कि सोसरारी के कोय बात सें रधिया केॅ तकलीफ होय छै। ओकरा रूपा दी याद आवी गेलै। केना केॅ रूपा दी भी नै चाहै कि कोय ओकरोॅ सोसरारी के बात करेॅ। तबेॅ गंगे ढेर सिनी खिस्सा-गप सुनावेॅ लागली। "रधिया, रूपा दी केॅ जों तोंय देखी लेतिहैं तेॅ हुनकोॅ सोसरारी के सब्भे लोगोॅ के गल्ला दबाय के मोॅन करतियौ।" गंगा उत्तेजना सें हाँफेॅ लागली। अन्दरोॅ के क्रोध सखी केॅ सामना पावी केॅ उमड़ेॅ लागलै।
"गंगा, आबेॅ जेतना जल्दी रूपा दी केॅ भुलैभौ, अच्छा होतौं। बड़की काकी के चेहरा देखै छौ, कुच्छू बोलै नै पारै छै। जिनगी यहेॅ रं होय छै, औरत चाहै छौटोॅ घर सें रहेॅ कि बड़ोॅ घरोॅ के, बस सहै लेली बनली छै।" गंगा नें चौकी केॅ रधिया केॅ देखलकै, तबेॅ धीरें-धीरें रधिया सब्भे टा खिस्सा बतैलकी, मनटुन केना तरह-तरह सें ओकरा आपनोॅ बातोॅ सें विश्वास दिलाय छेलै कि तोरा छोड़ी हम्में रहेॅ नै पारवौं। कत्तेॅ बेर ओकरा लेली दोसरा लड़का सें लड़ी-भिड़ी जाय। वैं नें बाहर जाना-आना बन्द करी देलकै, तेॅ घोॅर आवी केॅ मिलेॅ लागलै।
रधियो केॅ मनटुन पर पूरा विश्वास छेलै। मतरकि वैं जानै छेलै कि दोनों के मिलना कोय विध नै हुएॅ पारै छै। यै लेली रधिया आपनोॅ मनोॅ में दुख दबाय केॅ बीहा लेली तैयार होय गेली। कानी-बाजी केॅ सोसरार गेली, तेॅ वहाँ ससुर, सौतेली सास सें लै केॅ मालिक तांय भेजै लेली तैयार रहै। कहला पर कहै कि तोहें कोय यार राखलेॅ छैं की, आ कि कामचोर छैं आरो यै लेली सबकेॅ बदनाम करै छैं। मालिकोॅ के नीयत अच्छा नै छेलै, यै लेली वैं घरोॅ के सब्भे काम करेॅ लागलीµसौतेलोॅ देवर-ननद के कपड़ा धोना, गोबर-काठी धान उसनना, सब्भे कुच्छू।
मतरकि एक दिन ससुरे ओकरोॅ दुल्हा केॅ मालिकोॅ के खेतोॅ पर भेजी केॅ ओकरोॅ कोठरी में घुसी ऐलै। ऊ अचेत सुतली छेलै, ओकरा पकड़लो नै छेलै कि केना ओकरोॅ भक्क सें नींद टूटी गेलै। वैं ससुरोॅ केॅ विलाय नाँखि पंखा-डंडी सें मारी केॅ भगाय तेॅ देलकी, मतरकि ओकरोॅ डोॅर नै गेलै आरू दुसरे दिन भोरे ऊ माय लुग भागी के चललोॅ ऐली। आबेॅ चाहै छै कि मैट्रिक के परीक्षा पास करी केॅ आपनोॅ पैरोॅ पर केन्हौ केॅ खाड़ी होय जाय। ओकरा ऊ दुल्हा आरू ऊ सोसरार नै चाहियोॅ।
गंगा सुनी केॅ अवाक रही गेली। एन्होॅ भी होय छै। एतना सुपढ़ लड़की के करमोॅ में लेल्होॅ दुलहा केॅ बांधी केॅ चाचा सिनी खुश होय छै, आरू ससुर एन्होॅ कसाय कि बेटी-बहुओ नै बुझै छै। रातकोॅ सन्नाटा जेना दूनो सखि के सामनां एक एन्हो संसार देखाय रहलोॅ छेलै, जे बड्डी भयानक छेलै। जीवन एतना कष्ट आरू रहस्य सें भरलोॅ छैµसे पहिनें कहाँ सोचनें छेलै दूनों नें। बचपना छेलै तेॅ सोचै छेलैµजिनगी एन्हे कटी जैतैµमाय बाबूजी के प्यार आरू डाँट आकि पढ़ाय-लिखाय में। मतरकि आबेॅ यहेॅ जानलियै कि हमरा सिनी केॅ आपनोॅ रक्षा आपन्हैं करना छै। ई बीहा-शादी सब भरम छेकै, कोय केकर्हौ प्यार नै करै छै, नै साथे निभाय छैµयहेॅ सब सोचत्हैं ऊ सिनी सुती गेलै।
रात भर जागीयो केॅ रधिया गंगा सें पहिन्हैं उठी केॅ कामोॅ में लगी गेली। दुपहर तांय रसोय सिनी बनाय केॅ काकीयो बच्चा सिनी केॅ तैयार करी देलकी। रधिया नें सौंसे घोॅर चमकाय देलकी। हिनका सिनी के ऐला सें आरो बच्चा-बुतरू के काँय-कच-कच सें घोॅर थोड़ोॅ गनगनावेॅ लागलोॅ छेलै।
सब्भे केॅ जबेॅ जाय लेली तैयार देखलकै तबेॅ रामप्रसाद नें भाय केॅ कहलकै, "ऐतेॅ रहियौ, हम्में तेॅ आभी घोॅर नै जैभौं।" गोतनी केॅ जाय लेली तैयार देखी केॅ इन्दु, जे कल्हू सें चुप्प मूरत बनली छेली, बुक्का फाड़ी केॅ कानेॅ लागली। परिवार में एक्के साथ रहला पर सुख-दुख मिली-बाँटी केॅ जीयै के आदत पड़ी जाय छै। आपनोॅ आदमी लेली मोॅन हरदम्मे दुखी रहै छै, असकल्लोॅ दुख पहाड़ बुझावै छै। छोटकीयो नें भी इन्दु के पांजो भर पकड़ी केॅ समझैलकी, "वैं हर महीना आवै के कोशिश करतै आरू यहाँ तेॅ दीदी बाबा वैजनाथ छै, हुनिये मन केॅ साहस देतौं।" गंगा के काकी समदी केॅ कहेॅ लागली, "आबेॅ दीदी वास्तें तोंही रूपा, तोंही गंगा छेकी। तोरा बहादुर बनै लेॅ पड़त्हौं। दीदी के स्वास्थ्य अच्छा नै छै, ध्यान राखिहौ।"
गंगा नें रधिया केॅ भरोसोॅ दिलैलकै कि वैं देवघर विद्यापीठ सें मध्यमा के परीक्षा दिलाय वास्तें बात करतै आरू बाबूजी सें सलाह करी केॅ खबर करी देतै। ओकरा अन्दर सें मजबूत होना छै, तभिये वें पढ़ेॅ पारती। "
रधिया कानेॅ लागली, लोर केॅ पोछी केॅ कहलकी, "गंगा, तोहें तेॅ सब्भे कुच्छू जानै छौ। जीवन में बेसी कुच्छू नै चाहै छेलियै। तोरोॅ भाय केॅ भी हम्में समझाय दै छेलिहौं कि बड़ा जातोॅ के छेकौ, तेॅ होन्हे रहौ, हेन्हे जीयै देॅ। मतरकि मनटुन तेॅ बात सें खाली सपना देखाय छेलौं। बीहा के बाद सोसरारी में हम्में बहुत्ते चाहलियै कि दुल्हा थोड़ोॅ टा हमरो मान-सम्मान समझेॅ, मतरकि वहो नै हुएॅ पारलै। आबेॅ पढ़ाय ही जिनगी बचावेॅ पारेॅ।"
गंगा नें जैतेॅ-जैतेॅ पूछी लेलकै, "मनटुन भैया की अभियो आवै छौ।" पुछला पर रधिया चुप होय गेली। गंगा समझी गेली कि मनटुन के प्रति गंगा के हृदय में अभियो प्यार के अंकुर बचलोॅ छै, भले वें परिणाम सोची केॅ भयभीत छै।
सब्भे विदा होय गेलै। आय फेनू दुखोॅ के समुन्दर में सौंसे परिवार छटपट करत्हैं रहलै।
एतना-एतना अनुभव सें गुजरी केॅ घरोॅ में सब्भैं कुच्छू दिन सोचत्हैं रहलै। पढ़ाय-लिखाय में भी ढीलापन आवी गेलै। फेनू रामप्रसाद बाबू आरू इन्दु के टोकला के बाद पढ़ाय-लिखाय साथें निवेदिता केॅ भी पढ़ाना शुरू करलकी। सतरह-अठारह बरसोॅ में जे तरंग मनोॅ में जगै छै, सब्भे कुच्छू नया लागै छै, आपनोॅ हमउम्र लड़का केॅ देखी केॅ आपनोॅ भविष्य के जीवनसाथी के कल्पना करै के मोॅन करै छै, ऊ सब गंगो के मनोॅ में उठै, मतरकि रूपा आरू रधिया के परिणाम सें वैं आपना केॅ दोसरा कामोॅ में ओझराय केॅ थकाय दै छै। कखनू इन्दु के सेवा, कखनू घरोॅ के सबटा समान लाना, कखनू निवेदिता केॅ पढ़ाना आरू आपनोॅ पढ़ाय सें वैं पलो भर आराम नै करै छै। हिन्नें सें दू टा सातवाँ के लड़की केॅ ट्यूशनो पढ़ावेॅ लागली छै।
नवलो स्कूलोॅ में पढ़ावेॅ लागलोॅ छै, जैं सें घरो कम आवेॅ पारै छै। बीहो-शादी सीधा-सादा ढंगोॅ सें गामें में जाय केॅ करी लेलेॅ छेलै। इन्दु अभी तांय खटिया सें उठी केॅ पहिलोॅ रं नै होली छेली, यै लेली गंगा कम उमिरोॅ में ही पुरखिन बनी गेली।