फिनिक्स, खण्ड-7 / मृदुला शुक्ला

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गंगा भागलपुर आवी केॅ पहिनें मौसी के घरोॅ में समान राखलकी आरू बैंकोॅ में नया नौकरी के शुरुआत करलकी। आरो फेनू दू महीना बाद नया घोॅर मिलला पर अलग रहेॅ लागली। मौसी नै चाहै छेलै कि कुँवारी लड़की असकल्ली रहेॅ। मतरकि हुनका बेटा-बहू-बेटी केॅ संकोच बुझाय छेलै। रामप्रसाद बाबू नें पहिनें यहेॅ समझाय केॅ भेजलेॅ छेलै कि जेतना जल्दी हुवेॅ सकौं, अलग मकान मिलथैं अलग रहै के कोशिश करिहैं, यै सें रिश्ता बनलोॅ रहै छै।

देवघर सें चलै वक्ती इन्दु के आँखी सें लोर चुवेॅ लागलै। अभियो इन्दु चाहै छेलै, गंगा के बीहा-शादी करी घोॅर बसाय दै के. गंगा के नौकरीयो सें इन्दु केॅ कोय खुशी नै छेलै। इन्दु केॅ रूपा के याद आवी जाय छेलै। एक बेटी बीहा करीयो केॅ सुख नै भोगलकी आरू एक बेटी बीहा नामे सें गोस्साय जाय छै।

गंगा नें मनें-मन संकल्प करी लेनें छेलै कि जीवन में बस एक्के लक्ष्य रखतै कि माय-बाबूजी खुश रहेॅ, मतरकि बीहा या आपनोॅ घोॅर संसार के सपना नै देखतै। कालेजोॅ में मुकुल नें ओकरोॅ नगीच आवै के कोशिश करनें छेलै। गंगा ओकरा दोस्ती सें बेसी बढ़ैलेॅ नै देलकी, पसन्दो रहला पर ओकरा रूपा के मरै वक्ती के तकलीफ याद आवी जाय छेलै आरू वैं आपना केॅ दोसरा दिश मोड़ी लै छेलै। रामप्रसाद बाबू नें एक-दू जग्घोॅ बातो चलैलकै आरू हुनका लागलैµबात बनियो जैतै, मतरकि विद्रोहिनी गंगा बापोॅ के सामनें तनी गेली, "मनुष्य-जीवन लेली की बीहे सम्पूर्णता छै? तेॅ रूपा दी कैन्हें नी सम्पूर्ण होलै?" वैं बापोॅ सें बहसो करेॅ लागै। दहेजलोभी समाज के मांग आरो खोटा सिक्का चलावै के प्रयास, दूनो खतरा समझी केॅ ही गंगा काँही शादी लेॅ तैयार नै होली। शुरू-शुरू में ऊ तमाशा समझी केॅ तैयारो होय जाय छेली कि ई समाज बिना पैसा के हुँकारी भरै नै पारेॅ, आरू बाबू केॅ एतना सामर्थ्य छेवे नै करै कि आपनोॅ जाति के कुल खानदान वाला सुयोग्य पात्रा केॅ कीमत दिएॅ पारेॅ। ओकरोॅ बाद आपना केॅ प्रदर्शन के वस्तु बनै सें वैं एकदम्में इनकार करी देलकी। घरोॅ में बीहा के गप्पो बन्द करी देलकी। यै सें इन्दु नौकरी होला पर आरू निराश होय गेली। मतरकि गंगा नौकरी पावी केॅ आपनोॅ अस्तित्व-बोध आरू सार्थकता सें भरी गेलोॅ छेली। रामप्रसाद बाबू के आबेॅ ओतना तंगहाली दिन नै रहै। बँटवारा के बाद कुच्छू अनाजो आवी जाय छेलै, नवलो सें कुच्छू मदद मिली जाय छेलै। भागलपुर में पोस्टिंग होला सें हुनी थोड़ोॅ निश्चिंत छेलै। इन्दु के अपराधिन भाव देखी केॅ गंगा मने-मन सोचै छेलै, बेटा के नौकरी वास्तें एतना मनौती-पूजा धरना करै वाली माय, बेटी के नौकरी के खबरो केकर्हौ सुनावै में संकोचै छै। समाज के ई कतना बड़ोॅ विडम्बना छेकै। ई विडम्बना केॅ तोड़ै लेॅ लागतै। विकास बाबू, ओकरोॅ जीजा आपनोॅ मरजी सें बीहा करला के बाद, एक दोसरोॅ प्राणी के जीवन बर्बाद करीयो केॅ घोॅर-समाज में इज्जतदार रही जाय छै आरू रूपा दी आपनोॅ करम के दोष आकि आपनोॅ कमी समझी केॅ तिल-तिल मरै छै, ई दू नजर सें देखै वाला समाज में बीहा हेनोॅ बराबरी के रिश्ता केना रखलोॅ जावेॅ पारै छै। मतरकि इन्दु के समाज में बेटी के नियम आरू सिद्धान्त तेॅ नै चलै वाला छै। ऊ वैं समाजोॅ में ही जीयै छै। इन्दु जहाँ जाय छै, चार ठो जनानी बीहा के प्रसंग उठाय केॅ दस बात सुनाय छै। व्यंग्य-बाण सहै के इन्दु के आदत छै। आबेॅ बेटी के खुशी सोची केॅ चुप्पीयो लगाय केॅ रही जाय छै, लोगोॅ केॅ बड़का अजगुत लागै छै कि माय केना आराम सें छै, जबेॅ बेटी कमाय रहली छै आरू बीहा नै होलोॅ छै।

निवेदिता आई0 एस0 सी0 में पढ़ी रहली छेलै, यै लेली इन्दु गंगा के पास नै जावेॅ पारै छेली। गंगा के घोॅर लेला पर थोड़ोॅ दिन लेली व्यवस्था करै वास्तें इन्दु, निवेदिता ऐली रहै, फेनू चल्ली गेलै। यही सब के बीचोॅ में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन नें जोर पकड़ी लेलकै। स्कूल-कॉलेज सब बन्द होय गेलै। विद्यार्थी-समाज के जुड़ला सें बात, किताब-कॉपी के महंगाई सें लै केॅ प्रेस बंदी तक के बड़का जनआंदोलन तक पहुँची गेलै। गंगा निवेदिता लेली परेशान होय रहली छेलै। वैं सोचलेॅ छेलै कि समय पर परीक्षा होय गेला सें निवेदिता आय माय केॅ यहाँ लानेॅ पारतै। मतरकि सरकार आरू जनता के बीचोॅ में रस्साकशी चली रहलोॅ छेलै। सरकार सब्भे उपाय करियो केॅ परीक्षा नै लिएॅ पारलकै, तबेॅ सरकारी आदेश सें स्कूल-कॉलेज बंद होय गेलै। गंगा नें तबेॅ निवेदिता आरू माय केॅ आपन्हे यहाँ बोलाय लेलकी। घोॅर आबेॅ भरलोॅ-पुरलोॅ लागै छेलै। इन्दु के पश्चातापो थोड़ोॅ कम होय रहलोॅ छेलै कि दुनिया बड्डी तेजी सें बदली रहलोॅ छै आरू देश चलाय वालीयो केकर्हौ बेटीये छेकी, सोची केॅ मनोॅ में परिवर्तन होय रहलोॅ छेलै।

बैंकोॅ में लंच ब्रेक छेलै। बाहरी गेट पर थोड़ोॅ देर लेली सीकड़ अटकाय केॅ सब्भे स्टाफ आपनोॅ टिफिन खाय रहलोॅ छेलै। गंगो नें आपनोॅ टिफिन खोली केॅ खैवोॅ शुरू करलेॅ छेलै कि "प्लीज, मुझे बैंक-मैनेजर का कमरा बता सकेंगी" के आवाजोॅ सें आँख ऊपर उठैलकी। सामनां में एक सूटेड-बूटेड सुदर्शन युवा पुरुष खाड़ोॅ ओकर्हैं सें पूछी रहलोॅ छेलै। शायद ज़रूरी काम होतै, यै लेली बाहर के दरबान सें कही केॅ अन्दर आवी गेलोॅ छेलै। मतरकि पहले दाफी अन्दर ऐलोॅ होतै आकि कन्सट्रक्शन के कामोॅ सें कमरा सिनीयो अदल-बदल होय गेलोॅ छै, यै लेली थोड़ोॅ भरमाय गेलोॅ होतै। गंगा नें चपरासी केॅ बोलाय केॅ मैनेजर के रूम में आगन्तुक केॅ भेजवाय देलकी। लंच खतम होत्हैं मैनेजर नें ओकरा बोलवाय केॅ परिचय करवैलकै, "ये हैं प्रशान्त कुमार प्रियदर्शी। हमारे परम मित्रा रहे हैं, उनको नया पासबुक खुलवाना है।" गंगा नें 'जी' कही केॅ फार्म सिनी भरवाय के औपचारिकता पूरा करी देलकी। पासबुक खोलै वक्ती परिचय कर्ता के नाम पुछलकी तेॅ प्रशान्त ठकमकाय गेलै, "अभी तो मैं यहाँ सिर्फ़ आपको और मैनेजर साहब को जानता हूँ, नया ही यहाँ आया हूँ।" तभीए गंगा के नजर आपनोॅ मोहल्ला के विनोद बाबू पर पड़लै जे आपनोॅ पैसा निकालै लेली ऐलोॅ छेलै। हुनकोॅ काम पूछी केॅ गंगा नें हुनकोॅ नाम परिचयकर्त्ता में दै देलकै। प्रशान्तो के उधेड़बुन खतम होय गेलै। "पासबुक कल मिल जायेगा" कही केॅ ऊ आपनोॅ जग्घा पर काम करेॅ लागली। प्रशान्त मैनेजर के रूमोॅ सें निकली केॅ ओकरोॅ टेबुल पर ऐलै आरू 'थैंक्स' कही केॅ चललोॅ गेलै। गंगो उड़लोॅ नजरोॅ सें देखी केॅ आपनोॅ काम करेॅ लागली।