फिर एक सुहानी याद आई / मनोहर चमोली 'मनु'

Gadya Kosh से
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बात उन दिनों की है जब आपसे मेरी बात चल रही थी। सगाई की तिथि तय होने वाली थी।

परिचित कहते, ‘भई वहां बात-वात भी होती है कि नहीं।’

मैं कहता, ‘वहां मोबाइल नहीं है। मेरे पास है। वहीं से फोन नहीं आता तो मैं क्यों करूं।’

मुझसे ऐसा उत्तर सुनकर कमोबेश सभी यही कहते, ‘इतना अंहकार ठीक नहीं।’ जबकि मेरा मानना था आपको पहल करनी चाहिए। एक तो मेरे पास मोबाइल था। आपके पास नहीं था। आप कहीं से भी मुझे फोन कर सकती थीं।

मेरी परिचित शिक्षिका बार-बार कहती, ‘लड़कियां खुद पहल नहीं करती। कुछ भी हो। तुम्हें आस-पड़ोस में ही सही फोन करना चाहिए। शादी से पहले हुई बातों-मुलाकातों का अपना महत्व है।’

मैं उनकी बात से सहमत तो था। पर मेरा मानना था कि पहले आपको ही मुझे फोन करना चाहिए। कई महीने यूं ही निकल गए। मैं मन ही मन सोच रहा था कि कैसी लड़की से जीवन की डोर बंध रही है। मैं होता और मेरे पास नंबर होता तो मैं आए दिन फोन करता। एक वो है कि अभी तक एक काल तक नहीं की। तभी एक दिन अचानक आपका फोन आया। एक अजनबी लड़की की कभी न सुनी हुई अजीब-सी आवाज मेरे कानों पर पंहुची। मुझे लगा था कि तुम ही हो। पर मैं फिर भी ‘हैलो-हैलो’ करता रहा। आपने कहा, ‘मैं बोल रही हूं।’

यह सुनते ही पता नहीं मुझे क्या हुआ। मैं काफी देर चुप ही रहा। आप उधर से ‘हैलो-हैलो’ करती रहीं। आपने फोन रख दिया था। उस रात मैं सो ही नहीं पाया। खुद को कोसता रहा। मुझे अपने व्यवहार से ही ऐसी उम्मीद न थी। पर अब हो भी क्या सकता था।

कई दिन यूं ही गुजर गए। फिर एक दिन आपका फोन आया। अब आपने बताया कि घर पर बेस फोन लग गया है। आपने नंबर भी दिया। मैंने तुम्हें मोबाइल खरीद कर देने की बात कही तो आपने कहा, ‘नहीं। घर पर फोन लग तो गया है। जब मुझे बात करनी होगी तो मैं आपसे कर ही लिया करूंगी।’

फिर क्या था। बातों का सिलसिला चल पड़ा। आज आलम यह है कि अगर बात न हो तो ऐसा लगता है कि वक्त ठहर गया है। कुछ खो गया है। कितनी भी व्यस्त दिनचर्या हो, बीच-बीच में मन और मस्तिष्क लौट-लौट कर तुम्हारी और जा पंहुचता है।

ऐसे कई अवसर आए जब हम मिल सकते थे। मेरे सभी प्रस्ताव तुमने खारिज कर दिये। मुझे लगता है कि तुम सोती बहुत हो। जरूरत से ज्यादा व्रत रखती हो। टी.वी. बहुत देखती हो। इधर -उधर गप्पें खूब लड़ाती हो। अक्सर तुम्हें जुकाम और खाँसी की शिकायत रहती है। तुम आइसक्रीम भी खूब खाती होंगी। ऐसा आपसे हुई बातों से मुझे लगा है। जब इस संबंध में बात करना चाहता हूं तो आप टाल जाती हो। जब ज़िद कर अधिकार से पूछता हूं तो खिलखिलाकर हँसने लग जाती हो।

आप अक्सर एक ही बात कहती हो, ‘बस। कुछ समय और इंतजार कर लो। मैं तुम्हारी सब गलतफहमियां दूर कर दूंगी।’

पता नहीं क्यों। मुझे अनजाना-सा डर लगा रहा कि जैसा मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूं, अगर तुम वैसी ही हो,तो मेरा क्या होगा। फिर हमारा विवाह हुआ। आज विवाह को हुए तीन साल हो गए। वाकई तुम्हारी बात ठीक निकली। मेरी सारी गलतफहमियां दूर हो गईं। आज में गर्व के साथ कह सकता हूं कि तुम मेरी जीवनसंगिनी ही नहीं हो, मेरी मार्गदर्शक भी हो। ये ओर बात है कि शादी को बाद भी हम साथ-साथ नहीं हैं। एक-दूसरे से दूर हैं। मगर इस जीवन का भी अपना आनंद है। अब जब कभी मुझे शादी से पहले के दिन याद आते हैं, तो मैं अनायास ही मुस्करा जाता हूं।