फिर काशी लौटे / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
न जाने क्यों बदरीनारायण से लौट कर हृषीकेश में ज्यादा दिन टिकने का दिल न हुआ। जल्दी ही हमने काशी चलने का निश्चय कर लिया। पर पाँवों ने जवाब दे दिया। बदरीनाथ की यात्रा में तो किसी प्रकार पाँवों में चिथड़े लपेट कर चलते आए। मगर अब क्या किया जाए यह ख्याल हुआ। अंत में तय किया कि जैसे-तैसे हरद्वार पहुँच कर वहाँ से रेल से ही काशी चलें, चाहे जो हो। यह दूसरी बार मजबूरन बिना टिकट के ही रेल पर चढ़ने का इरादा था। असल में मेरे स्वभाव के विपरीत यह बात हैं कि कोई भी काम छिपके या चोरी से किया जाए। इसमें मेरी आत्मा काँपती है और ऐसा करने में मैं अपने को निहायत ही कमजोर पाता हूँ। जो कुछ करना वह साफ-साफ ललकार के बहादुरों की तरह करना यही मुझे पसंद है। जाल फरेब से दूर भागता हूँ। मैं जानता हूँ, दुनिया में कभी-कभी इन चीजों की भी जरूरत पड़ जाती है और अच्छे-से-अच्छे काम भी खराब हो जाते अगर कुछ ऐसी बातें न की जाए। लेकिन करूँ क्या?बेबसी जो ठहरी। इसलिए तय किया कि जहाँ मौका मिला गाड़ी पर बैठूँगा। उसमें न तो छिपूँगा। न चुपके से निकल के भागूँगा। अधिकारी लोग अगर पकड़ के कोई दंड करेंगे तो बर्दाश्त करूँगा। उनसे साफ-साफ कह दूँगा कि पाँवों की मजबूरी से ही मैंने ऐसा किया, या करने का निश्चय कर लिया है। इसी विचार से हरद्वार चला।
मगर वहाँ तो प्लेटफार्म पर पहुँचना भी बिना टिकट के असंभव था। इसलिए आगे बढ़ के ज्वालापुर में ट्रेन में बैठा। मगर लक्सर में ही उतरना पड़ा। वहाँ गाड़ी बदली तो रेल के अधिकारियों ने मना किया कि आगे ट्रेन पर मत चढ़िए। मगर मैं कब माननेवाला था। फलत: काशीवाली ट्रेन पर जा बैठा और मुरादाबाद तक बेखटके आ गया। हाँ, मुरादाबाद में टिकट जाँचनेवाले ने उतार कर मुझे स्टेशनवालों के हवाले किया। दिन के नौ-दस बजे होंगे। मैंने स्टेशनवालों से कहा कि रोक लिया है तो भोजन तो दीजिए। उन बेचारों ने कहा कि जाइए महाराज! बस, फिर क्या था, मैं शहर में गया, खा-पी कर नदी की रेत पैदल पार की और अगले स्टेशन पर ट्रेन पकड़ी। वहाँ से तो कुछ ऐसा हुआ कि निरबाधा दूसरे दिन बनारस आ धमका, प्लेटफार्म पर उतर कर मैं सीधे पूर्व-ओर बढ़ा। किसी ने रोक-टोक न की। फलत: मैं बढ़ता ही गया बेधड़क और स्टेशन के बाहर चला आया। याद नहीं कि अपारनाथ मठ में गया या कहाँ। भरसक वहीं गया और ठहरा।
यह तो ठीक है कि योगियों की आशा न थी। लेकिन शास्त्रों में माथापच्ची करने को भी जी नहीं चाहता था। इसलिए शीघ्र ही गंगा तट पकड़ कर आगे की ओर बढ़ा। बरसात सिर पर थी। फिर भी मजा आया। गाजीपुर होता बक्सर के निकट कोटवा नारायणपुर आ गया फिर वहाँ से आगे बढ़ के उजियार होता भरौली पहुँचा। वहाँ एक संन्यासी बाबा का मठ है। वहीं ठहरा।
गाँव से बहुत दूर पूर्व गंगा के उत्तर एकांत में एक वटवृक्ष था। सुबह वहीं जा कर ठहरता, स्नानादि कर के भिक्षा के समय गाँव में वापस आता और मठ पर भोजन करता। जब आगे बढ़ने लगा तो महंत श्री शिवप्रसाद गिरि ने रोक लिया। बोले, चातुर्मास्य (वर्ष) में कहाँ जाइएगा?यहीं ठहरिए। मेरे दिल में भी बात बैठ गई और रुक गया। महंत जी मुझे 'परमहंस जी', कह के पुकारते और मुझसे प्रेम बहुत करते थे। गाँववाले किसानों से भी मेरी कुछ ऐसी ही मुहब्बत हो गई कि एक प्रकार फँस जाना पड़ा। बस, दिन का अधिकांश समय उस दूरवर्ती एकांत वटवृक्ष के तले बिताता और रात में मठ में रहता। इस प्रकार चातुर्मास्य बिताया। भरौली के लोग रामायण का गाना बहुत ही सुंदर करते थे। वहाँ एक-दो भजन गानेवाले भी अच्छे थे। इसलिए रामायण का गाना और भी जमता था। शंकरगढ़ के बाद वहीं पर यह मनोरम गान का संसर्ग मिला।
महंत श्री शिवप्रसाद गिरि के एक चेले थे जो काशी से वेदांत पढ़ आए थे। सयाने थे। उनका एक चेला था श्री रामचंद्र गिरि। वह लड़का ही था। थोड़ा-बहुत पढ़ता था। महंत जी काफी धनवाले थे। वे बार-बार कहते थे कि मैंने लोगों को बहुत ही ऋण दिया है और छत्तीस हजार रुपए केवल सूद के नाम पर वसूल किए हैं। गाँव के सभी गृहस्थ उनके शिष्य (चेले) थे और कर्जदार भी थे। सभी के खेत उनके पास रेहन थे। मगर जोतते वही लोग थे। महंत जी रुपयों के ब्याज लेते थे। इतने रुपए ऋण पर दिए! मगर वसूल तहसील की कोई चुस्त व्यवस्था न थी कि ताकीद की जाए। फलत: गृहस्थ लोग लापरवाही से उनके रुपए शीघ्र चुका न सकते और सूद-दर सूद में बचे-खुचे खेतों को धीरे-धीरे उनके हवाले करते जाते। महंत जी फायदे में थे। गृहस्थ लोग पामाल थे। मुझे देख कर बड़ा क्षोभ हुआ। खाता-पीता था तो मैं मठ में ही। फिर भी मौका पा कर गृहस्थों को चेतावनी देता था कि सँभल जाए और उनसे संसर्ग छोड़ें या कम करें नहीं तो नमक के बर्तन की तरह गल जाएगे। मेरी पक्की धारणा थी कि संन्यासी का बाना धारण कर धन जमा करना पाप है और वह पाप का धन जहाँ जाएगा उसे गला देगा। इसलिए उन्हें समझाता था। चेला बनने से भी रोकता था। मगर सुनता कौन?
ठीक समय तो याद नहीं। मगर वर्ष बीतने के बाद मेरे विचार बदले और आगे जाने के बजाए काशी जा कर दर्शन, व्याकरण, वेदादि के अध्ययन की धारणा हो आई। सोचा कि जंगल, पहाड़ों की खाक खूब ही छानी योगी तपस्वी का भी पता लगाया। भटके भी काफी। मगर हाथ कुछ न आया। भगवान तो अभी दूर-के-दूर ही रहे। इसलिए चलो शास्त्रों का मंथन करें और देखें उनमें क्या है। हृषीकेश (कैलाश) वाले वृद्ध महात्मा की बात भी याद हो आई। महंत जी और उनके चेले ने भी कहा कि पढ़िए। फिर तो विचार दृढ़ हो गया। उधर महंत जी के चेले का जो चेला था श्री रामचंद्र गिरि, उसे भी लोग काशी भेज कर पढ़ाना चाहते थे। इसलिए हम दोनों साथ ही जाए यह तय पाया। वह तो धनी महंत का चेला था। इसलिए उसे मासिक व्यय के लिए पैसे मिलने का तय पाया। मगर मुझे तो पैसे की परवाह थी नहीं और पैसे बराबर देता भी कोई क्यों?काशी में तो विरागी साधुओं के खान-पान का प्रबंध था ही। फिर और चाहिए ही क्या?फलत: हम दोनों ही काशी आ गए। जहाँ तक याद है, सन 1909 ई. के आरंभ की ही बात है। रामचंद्र गिरि तो कर्णघंटा मठ में ठहरा और मैं उसी अपारनाथ मठ में। इस प्रकार संन्यासावस्था का प्रथम खंड समाप्त कर हमने दूसरे खंड में पदार्पण किया।