फिर गए दिन जूते के! / मनोहर चमोली 'मनु'
अब वो दिन दूर नहीं जब हमारे यहाँ जूता फेंकने की परंपरा शुरू हो जाएगी। विरोध् करने और जताने का ये नया युग है। जिसमें विरोध् करने के पारंपरिक तौर-तरीकों में जूता फेंकने का एक और तरीका जुड़ गया है। जूता चलाना ज़बान चलाने से भी ज़्यादा धारदार है! गोली दागने से भी ज़्यादा असरदार है! जूता फेंक कर मारने वाला युगपुरुष बन जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। रातों-रात समूची दुनिया में छा जाए, तो चमत्कार से कम नहीं।
क्या ज़माना आ गया है। हर किसी को हर किसी की ख़बर है। पहले किसी को किसी की परवाह ही नहीं होती थी। पर आज! आज तो पूरी दुनिया एक मुहल्ला हो गयी है। दूर देश में किसी ने किसी पर जूता फेंक कर मारा! जूता ही तो था। निशाना लगा भी नहीं। फिर भी पूरी दुनिया की ख़बर बन गई । अब वो दिन दूर नहीं जब कोई भी किसी पर जूता फेंक कर मारेगा। एक कहावत चल पड़ी है-‘जूता खा कर इज्जत बचाओ’। पतन की भी कोई सीमा नहीं रही। भई ज़माना भले ही गर्त में पहुंच गया हो। हमारे यहाँ तो नाक प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाती है। जूता फेंकना तो दूर यदि ये भी कह दिया न कि ‘निकालूँ जूता?’ तो समझो गई इज्जत। अपनी इज्जत अपने हाथ। अब पता नहीं कौन सा पत्रकार था और कौन देश के महामहिम। पर सुनते ही रूह कांप रही है। जूता फेंक के मारा। अब लगा न लगा। क्या फर्क पड़ता है। अब तो सुनते हैं कि जिसने जूता फेंका उसके बायें और दांये पैर पर शोध् होने जा रहा है। जिस कंपनी का जूता था। वो कंपनी मुनाफे का रिकार्ड तोड़ रही है। वही रंग-रूप के जूते ध्ड़ल्ले से बिक रहे हैं। उसे जूते की बोली लगी तो अब तक की सबसे उची बोली में वो जूता बिका। फिर चोरी भी चला गया। मानो कोहिनूर हीरा हो। वो जूता जिस रंग का था,वो रंग दुनिया में सबसे अपशकुन माना जा रहा है। अब तो ये भी सुनने में आ रहा है कि जूता फेंकने वाले को नये युग का सूत्रपात करने वाला लीडर माना जा रहा है।
यानि एक नया युग शुरू हो गया है। दुनिया में जूता विरोध् का, क्रांति का, असंतोष का, बहिष्कार का प्रतीक बन गया है। खैर जो भी हो। हमारे यहाँ ये परंपरा नहीं है। जूता पांव तक ही सीमित है। अभी तक काली पट्टी पहनना, काले झण्डे दिखाना, मशाल जुलूस निकालना, नारे लगाना, घेराव करना ही हमारे यहाँ विरोध् के कामचलाउ तरीके थे। अलबत्ता घोर असामाजिक कार्य करने वाले का मुंह काला कर जरूर गधे पर बिठाने की परंपरा भी हमारे यहाँ है। इसकी कभी-कभी पुनरावृत्ति भी हो जाती है। बस। इससे ज़्यादा हमारे यहाँ कुछ नहीं होता। पर देखो न। अब क्या होगा। देखा-देखी, ये बुराई हमारे यहां भी पनपेगी। ज़रूर पनपेगी। सबसे पहली गाज़ नेताओं पर ही गिरेगी या अधिकारियों पर। धरना -प्रदर्शन करने वालों पर या नेताओं- अधिकारियों से मिलने-जुलने वालों पर खुफिया विभाग और सुरक्षाकर्मी खास नज़र रखेंगे। वो अब यही देखेंगे कि लोग सीधे ही खड़े रहें। कोई झुक तो नहीं रहा? किसी का हाथ उसके पैरों की और तो नहीं जा रहा। जैसे ही कोई जूता निकालने की कोशिश करेगा उससे पहले ही सुरक्षाकर्मी उसे दबोच लेंगे। ऐसे सुरक्षाकर्मियों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाएगा। भई कमांडों और विशेष सुरक्षाकर्मी गोली से, बम से तो नेताओं और अध्किारियों की सुरक्षा कर सकते हैं। पर जूता निकाल कर एक बार हवा में ही उछाल दिया तो मिट्टी पलीत तो हो ही गई समझो। अब न तीर पर, न तलवार पर, न गोली पर, न बंदूक पर, न ही बम पर किसी का ध्यान जाएगा। अब तो बस सीधे पैरों पर ही नज़र रखी जाएगी। मिलने-जुलने वालों को कहा जाए कि बीस पफुट दूर जूते-चप्पल उतार कर नंगे पैर आएं। संभव है कि चप्पल और ऐसे जूते पहन कर आने की अनुमति ही न दी जाए, जो झट से उतार कर पफंेके जा सके।
एक ओर सभी राजनेता ऐसी किसी घटना से बचने के उपाय खोज रहे हैं,जहां जूता फेंकना तो दूर, जूता शब्द ज़बान पर ही न आए। वहीं राजनीतिक दल ऐसे कार्यकर्ताओं को सीधे टिकट देने पर विचार करने जा रहे हैं,जिसने कार्यकर्तागिरी के दौरान विपक्षी दलों के नेताओ या शासन-प्रशासन के नुमाइन्दों पर तीन या तीन से अधिक बार जूते फेंके हों। उधर सुनते है कि सरकार शीघ्र ही ऐसे अधिनियम को पास कर कानून बनाने पर विचार कर रही है कि जूता फेंक कर मारने वाले को यदि वो सरकारी कर्मचारी है तो नौकरी से निकाला जा सकता है। यदि बेरोजगार है,तो आजीवन उसे सरकारी नौकरी से वंचित रखा जा सकता है। सरकार हर जोड़ी जूता खरीदने को लाइसेंसयुक्त करने जा रही है। ताकि हर जूते पर कोड अंकित हो सके। हर फेंके जाने वाले जूते के मालिक की पहचान हो सके।
लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर पाठक से अपील की जाती है कि अपना जूता भूल कर भी घर से बाहर यूं ही न छोड़ें। जूते किसी को पहनने के लिए न दें। इस वैश्वीकरण की दुनिया में कुछ भी संभव है।