फिर जेल में─ बाँकीपुर / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
जब मैं बाँकीपुर जेल में पहुँचा तो दो-एक साथी वहाँ पहले से ही थे। जहाँ तक मुझे याद है, वहाँ महीनों रहना पड़ा। मजिस्ट्रेट ने शायद फैसले में मेरे लिए कोई श्रेणी न लिखी थी और गवर्नमेंट को ही फैसला करना था। ठीक नहीं याद है। लेकिन देर होने से यही कहना उचित होगा कि सरकार को ही फैसला करना था। गर्मी के दिन और पुराने मच्छरों की सेवा इन दो बातों के खयाल के साथ शाम को ही बैरक में बंद हो जाने की मिलान करने पर कैदियों के कष्टों का कुछ आभास मिल सकता है। मैं और हमारे साथी तो मसहरी लगाने के आदी थे। इधर गर्मी की हालत यह कि शाम को ही ज्यादा होती है। जैसे-जैसे रात बीतती जाती है वह कम होने लगती है। लेकिन अप्रैल का अंत और मई ये काफी गर्म होते हैं। उधर मच्छरों का ज्यादा जोर भी शाम को ही होता है। ज्यादा रात बीतने पर उसका हमलाधीमा पड़ जाता है। फिर सुबह होने के पहले कुछ जोर लगाते हैं। उनकी ज्यादा हनहनाहट शाम को और प्रकाश के पहले सवेरे रहती है।
पटने के मच्छर भी पुराने मुछंदर हैं। ये जाड़े में भी मरते नहीं। इसलिए अपने काम में काफी अनुभव रखते हैं। जब कि और जगहों में जाड़े में नाममात्र को ही या बिलकुल ही मच्छर रह नहीं जाते। तभी पटने में सबसे ज्यादा होते हैं! और जब बरसात में अन्यत्र उनकी महती सेना अजेय बन के खड़ी हो जाती है, तो पटने में ये सबसे कम पाए जाते हैं। गर्मियों में जाड़े की अपेक्षा पटने में कम रहते हैं और बाकी दुनिया में जाड़े से ज्यादा। बरसात से कम गर्मियों में पाए जाते हैं। लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि क्या इस बात में सचमुच पटना 'तीन लोक से मथुरा न्यारी' को चरितार्थ करता है? लेकिन बात सही है। सभी का यह अनुभव है। बिहार के गया, मुजफ्फरपुर आदि प्रमुख शहरों की भी प्राय: यही दशा है। मगर पटने की तो ठीक ही यही है। इसका कारण भी है।
म्युनिसिपलिटी का प्रबंध ऐसा रद्दी है कि गंदे पानी की नालियाँ खुली हुई रहती हैं। उनमें बराबर पानी रहने से वहीं मच्छर पैदा होते हैं। इन नालियों को भीतर जमीन में बंद रखने का कोई प्रबंध अब तक भी नहीं हो सका है। हालाँकि, पटना बिहार की राजधानी है। गया आदि भी की यही दशा है। ये नालियाँ जाड़े में ज्यादा गंदा पानी रखती हैं। इसीलिए सबसे ज्यादा मच्छर जाड़े में पाए जाते हैं। गर्मियों में धूप के कारण प्राय: छोटी नालियाँ सूख जाती हैं और बड़ी नालियों में भी कम गंदीगी रह पाती है। इसी से मच्छरों की सेना कम हो जाती है। लेकिन वर्षा में तो पानी पड़ने से बराबर ही नालियाँ यों ही धुलती रहती हैं और गंदा पानी रख पाती हैं नहीं। इसीलिए सबसे कम मच्छर उसी समय रह जाते हैं।
हाँ, बैरक में बंद हो जाने पर नींद कैसे आए और मच्छरों से पिंड कैसे छूटे, यह भारी समस्या आ खड़ी हुई। मसहरी तो मिल नहीं सकती थी, जैसी कि अब मिल रही है। गर्मी का तो कोई उपाय और भी न था। पंखा भी मिले तो रात भर चलाता कौन रहे? फिर तो नींद ही हराम हो जाए। पंखे मिलें भी कैसे? सरकार का कानून भी तो कुछ निराला ही था।
कहते हैं कि जरूरत ही सब चीजें पैदा करती हैं। हमें भी नींद की जरूरत थी। नहीं तो मर ही जाते। यह भी ठीक ही है कि नींद और मौत समान ही हैं, जहाँ तक तकलीफों के महसूस करने का सवाल है। और अगर इन्सान खूब थका-माँदा और पस्त हो तो नींद बिना बुलाए ही आती है। इसीलिए मैं बैरक के भीतर ही घंटों टहलता रहता। इससे व्यायाम भी होता और कुछ समय भी कट जाता था। थकावट तो होई जाती थी। फिर तो गहरी नींद आ जाती और न मच्छर ही मालूम पड़ते, न गर्मी। इसी प्रकार हमने उस भारी समस्या को सुलझा ही तो लिया।
बाहर जाना तो जेल में यों ही मना है सिवाय काम के लिए जाने के। अपने ही बैरक में या उसके हाते में रहो। तिस पर तुर्रा यह कि हम तो ठहरे राजनीतिक बंदी। इसलिए हमारे लिए तो और भी मनाही थी कि किसी से मिल न सकें। बैरक में ही चरखा चलाने का काम करते थे।
जेल में जाते ही मेरे साथ एक और समस्या खड़ी हुई। वह थी खान-पान की। पहली बार तो उसमें सख्ती रही। अपने ही हाथ से पानी भर के कुएँ से लाता था। खाना-पीना पूर्ववत चलता था। उसमें छूतछात चलती ही थी। वह निभ भी गई। अब यह दूसरा मौका यू.पी. के बजाए बिहार में पड़ा, जहाँ क्षमा हो, खान-पान में हजार चौका-चूल्हा रखने पर भी बड़ी गंदगी रहती है। सनातनी लोग छूतछात का ढोंग तो बहुत करते हैं। मगर लोहे की बालटी जो शुरू में आई तो टूट जाने तक मिट्टी से कभी मली नहीं जाती! कुएँ पर पड़ा या लटका हुआ डोल या कुंडी तो गंगा की धारा ही होती है! उसमें तो सभी जाति और धर्म के लोग पानी पीते हैं! यहाँ तक कि हाथ से निकाल-निकाल के पीते हैं! मैंने दरभंगा और दूसरी जगहों की संस्कृत पाठशालाओं तक में यही देखा है। हालाँकि, वहाँ कुलीनता की नाक काटनेवाले ब्राह्मण पंडितों के जत्थे रहते हैं। फिर भी छुआछूत का पाखंड बहुत रहता है। विपरीत इसके, ज्यों-ज्यों पश्चिम में जाइए त्यों-त्यों यह ढोंग और चौके की लीपा-पोती कम होती जाती है। मेरठ वगैरह में तो प्राय: खत्म ही है। मगर जगह कपड़े और बर्तनों की सफाई वहाँ खूब रहती है। बिहार के भनसिया (रसोइया) का कपड़ा जितना ही गंदा होता है, पश्चिमवाले का उतना ही साफ। जगह भी साफ रखते हैं, बर्तन की तो एक दास्तान ही सुनाए देता हूँ।
बिहार के एक साथी के साथ मैं मुजफ्फर नगर जा रहा था। मेरठ में गाड़ी से उतर के पास की धर्मशाले में गया। कुएँ पर डोल पड़ा था। बगल में साफ मिट्टी भी थी। जोई आता था वह मिट्टी डोल में लगाता, उसे पानी से धोता और पानी निकाल के पीता। फिर चला जाता। घंटों यह बात मैं देखता रहा। साथी को भी दिखाया। डोल भी ताँबे का था। जो चमचमाता था। फिर भी कुएँ पर पड़ा रहने के कारण जो ही आता उसे पानी पीने के पूर्व धो लेना जरूरी समझता। यों भी ज्यादातर पक्की कलईवाले बर्तन ही वे लोग काम में लाते हैं। वे देखने में साफ मालूम होते हैं। यहाँ तो लोटा, थाली वगैरह देखते ही तबीयत बिगड़ जाती है। मालूम पड़ता है कभी धोए जाते ही नहीं। कभी राख या मिट्टी से मले ही नहीं जाते। गंदे धातु के बर्तन तो जहरीले होते हैं। हाँ,यह ठीक है कि धीरे-धीरे धोने-धाने का यह रिवाज भी उठता जा रहा है।
मैंने असहयोग के जमाने में छूतछात की यह सख्ती तो की थी और उसे निभाया भी था। मगर कई कटु अनुभव मुझे हुए। एक तो मैंने देखा कि मेरी देखादेखी और लोगों ने दूसरी बातों के लिए जेल में अड़ंगे डाले और नाहक जेलवालों को बारबार तंग किया। अड़ंगे तो दो-एक बार मुझे भी डालने पड़े। मगर सिर्फ खान-पान की सफाई और छूतछात के ही लिए। जेलवालों ने इसे समझ कर माना भी। मगर दूसरे लोगों ने इस बात को उन्हें दिक करके के मानी में लिया और तरह-तरह से दिक किया। गोया,मैंने उनके लिए एक प्रकार से रास्ता साफ कर दिया! यह बात मुझे खटकी। यह भी देखा कि जब जेल में लोग यों ही सैकड़ों तरह के अड़ंगे खड़े कर रहे हैं तो मैं भी उसी श्रेणी में खामख्वाह गिना जाऊँगा। क्योंकि दुनिया उस छुआछूत को तो समझ सकती नहीं। साथ ही, जेलवालों को मेरे चलते कभी-कभी बड़ी दिक्कतें उठानी पड़ीं। क्योंकि कुएँ का पानी मिलना सर्वत्र आसान न था। जेल में कुएँ रहें और वे खुले हों तो साधारण कैदी उनमें गिर के मर जाए। इसलिए जेलवालों को इसका खयाल करके ही सब प्रबन्ध करना पड़ता है। और फिर मेरे जैसे वहाँ जाते ही कौन हैं?
इसलिए मैंने सोचा कि कोई रास्ता आपध्दर्म का निकालकर इस बला से बचना चाहिए। मैंने पहले बृहदारण्यकोपनिषद में एक आख्यान पढ़ा था कि लगातार सख्त ओले पड़ने से एक बार कुरु देश में बारह वर्ष के लिए अकाल पड़ गया। दाने बिना लोग मरने लगे। मर-मिटे। वहाँ'रैक्व' नाम के एक ऋषि अच्छे विद्वान थे। वे कई दिनों के भूखे थे। इसी बीच कहीं किसी को वैदिक योग कराने का मौका आया। फलत:, दूर से दूत आया उन्हें लेने। मगर भूखों चलना असंभव था और उन दिनों सवारी कहाँ?अगर हो भी तो ऋषि लोगों को उससे क्या काम? उन्होंने सोचा, कहीं से कुछ खाना ढूँढ़ लाऊँ और खाकर देह में बल लाऊँ। तब चलूँ। मगर खाना मिलता कहाँ? बड़ी मुश्किल से हाथीवानों के गाँव में गए और एक से कहा कि खाने की कोई चीज दो। उसने उत्तर दिया कि मेरे पास इस समय कुछ है नहीं। यही उड़द थी जो हाथी के सामने पड़ी है और वह खा रहा है। उन्होंने उस जूठी उड़द में से ही माँगा। हाथीवान ने दे दी। उसके बाद जब वह अपने घड़े से पीने का पानी देने लगा तो ऋषि ने कहा कि तुम्हारे घड़े के जल को पीने से मेरा ब्राह्मणधर्म चला जाएगा! इस पर उसने पूछा कि इसी घड़े के जल में भिंगी हुई जूठी उड़द के खाने से तो धर्म नहीं गया। मगर यही पानी पीने से चला जाएगा? ऋषि ने उत्तर दिया कि हाँ, चला जाएगा। प्राण की रक्षा करनी है और खाना तो और कहीं कुछ मिला नहीं। इसलिए उड़द ले ली। मगर पानी तो बहुत मिलता है। तब यदि तुम्हारा पानी लूँगा तो जरूर धर्म नष्ट हो जाएगा। यह कह के चलते बने। मनु आदि ने भी कहा कि 'प्राणस्यान्नमिंदं सर्वम'। जरूरत पड़ने पर प्राणरक्षार्थ सभी चीजें खाई जा सकती हैं। उन्होंने विश्वामित्रा आदि अनेक ऋषियों के अभक्ष्यभक्षण का उल्लेख भी किया है जो उन लोगों ने आपत्काल में किया था।
बस, इन्हीं सबों के आधार पर मैंने जेल आने से पूर्व ही तय कर लिया था कि इस बार जेल के भीतर वैसी छुआछूत नहीं रखूँगा। वहीं की बनी रसोई खा लूँगा और कल का जल पी लूँगा। हाँ, स्वयं जितनी सफाई कर सकता हूँ उतनी फिर भी करूँगा। मगर जेल में गड़बड़ी का मौका न दूँगा। फलत:, बाँकीपुर जेल से ही मैंने वैसा ही खाना-पीना शुरू कर दिया। हाँ, यह ठीक है कि पानी लाकर अलग सुराही में रखता था और साथियों को कह दिया था कि आप लोग अलग सुराही रख लें। जूठे या गंदे हाथों से कृपया मेरी सुराही न छुएँ। इस प्रकार वह संकट तो टला। नहीं तो अनशन करना ही पड़ता जैसा पहली बार यू.पी. में करना पड़ा था। तब कहीं मेरा प्रबंध हो सका था।
मैंने यह भी तय कर लिया था कि जेल में भरसक कभी अनशन नहीं करना चाहिए। एक तो बनारस के अनशन का कटुतम अनुभव था। दूसरे बात-बात में लोग अनशन करते रहते थे और इस प्रकार उसके महत्त्व को खत्म कर दिया था। मैंने सोचा कि इस बार न तो स्वयं यह काम करूँगा और न औरों को ही मौका दूँगा। मगर खानपान के नियमों की सख्ती रखने से तो खामख्वाह करना ही पड़ता। इसलिए 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी' हो गई।