फिर भी / पद्मजा शर्मा
मेरी सहेली है नमिता। हंसमुख और ऊर्जा से भरपूर। लेकिन वह कई दिन से तनावग्रस्त लग रही थी। एक दिन मैंने हिम्मत करके पूछ ही लिया-'क्या बात है नमिता, आजकल कुछ बुझी-बुझी, सुस्त-सुस्त रहती हो। कहीं खोई-खोई रहती हो। जहाँ होती हो लगता ही नहीं कि हो। हम कुछ बात करते हैं तुम्हारा ध्यान कहीं ओर रहता है।'
बहुत कुरेदा तो वह बोली-'यार, अब तो स्थिति थोड़ी ठीक हुई है।'
मैंने कहा-'क्या हुआ, कुछ बताओगी भी या पहेलियाँ ही बुझाओगी।'
उसने बताया कि इनके पास गुपचुप किसी औरत के फोन आते थे। अक्सर वह औरत मेरे पति को फोन तब करती जब मैं घर से बाहर होती। मैंने दफ्तर से अचानक जब-जब छुट्टी ली तब-तब मुझे इस सच्चाई का एहसास हुआ। उसका फोन आता। मैं उठाती तो फोन कट जाता। मैं करती तो उसका फोन बन्द हो जाता और ये मेरी उपस्थिति में अव्वल तो उठाते ही नहीं थे और अगर उठा लिया तो परिस्थिति देख कर उसे धीरे से कहते 'मैं बाद में करता हूँ' या फिर नेटवर्क न मिलने का बहाना बनाकर इधर-उधर होकर बात करते। चेहरा और लहजा बता देता है कि आप किससे, किस डिग्री पर बात कर रहे हैं। बात में कितना ताप है। मुझे बुरा लगता। कई दफे सोचा उस औरत को कोई कड़वी-सी बात कह ही दूँ। पर कहने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाई. लगता घर की शांति के लिए चुप रहना चाहिए. कभी लगता अपना सिक्का ही खोटा है तो दूसरे को क्या दोष दिया जाए.
एक दिन फिर उसका फोन आया। संयोगवश मैंने ही उठाया। उसने फोन काट दिया। मैं जानती थी कि अब उसका फोन कुछ समय के लिए बन्द रहेगा और मेरा नम्बर देख लिया तो कभी रिसीव नहीं करेगी। मैंने आधे घंटे बाद दूसरे नम्बर से उसे फोन मिलाया। उधर से 'हैलो' आया। वही थी। मैंने अपना परिचय देते हुए उसके पति का मोबाइल नम्बर मांग लिया। वह सकपका गई. बड़ी मुश्किल से कह पाई 'याद नहीं हैं।'
मैंने कहा 'तुम्हें मेेरे पति का मोबाइल नम्बर याद है। अपने पति का नहीं?' और मैंने फोन रख दिया। पहले ये मुझसे प्यार जताते थे। पर अब नाराज और चिढ़े हुए रहते हैं। कभी-कभी नफरत भरे भाव से कहते हैं 'औरतें ओछी बुद्धि और शर्म बेचकर खा गईं। वे बेवफा होती हैं।'
तब मैं कहती हूँ 'फिर भी औरतों की आँखों में थोड़ी बहुत शर्म बाकी है।'
क्योंकि अब उसके फोन इनके पास नहीं आते।