फिल्मकार टेरेन्टिनो के निर्मम प्रहार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 25 मार्च 2013
भारत के युवा फिल्मकारों में अपने देश से अधिक चर्चित टेरेन्टिनो की फिल्म 'जेंगो' देखकर समझ में आता है कि उसकी बेबाकी और उसकी फिल्मों में हिंसा का अतिरेक तथा संवादों में अपशब्दों के इस्तेमाल उसकी लोकप्रियता का एक कारण हो सकता है। उसकी फिल्म में शरीर के स्तर पर हिंसा से अधिक मनुष्य के पारंपरिक सोच को तोडऩे के प्रयास में होने वाली हिंसा अधिक है और ये काबिलेतारीफ है कि पारंपरिकता के शीशमहल में उसकी फिल्में मदमस्त हाथी की तरह घुसती हैं। शायद इस कारण भी वह युवा फिल्मकारों में लोकप्रिय है। उसका बिंब विधान और ध्वनि संरचना भावों को बहुत आवेग के साथ प्रस्तुत करते हैं। पाश्र्व संगीत और पूरी ध्वनि संरचना ही संवादों से ज्यादा मुखर स्वरूप में सामने आती है।
'जेंगो' में प्रस्तुत घटनाक्रम १८५८ का बताया गया है अर्थात अमेरिका के गृहयुद्ध के दो वर्ष पूर्व का समय। फिल्म में दक्षिण अफ्रीका मूल के श्याम अमेरिकन लोगों के साथ दक्षिण अमेरिका में किए गए अत्याचारों का विवरण लिंकन के साहसी फैसले पर मोहर लगाता है और आश्चर्य होता है कि मनुष्य इतना बर्बर हो सकता है। बहरहाल, इस फिल्म में दक्षिण अमेरिका का एक अत्यंत बर्बर जमींदार के साथ उसके दाहिने हाथ के रूप में प्रस्तुत पात्र भी दक्षिण अफ्रीका मूल का नीग्रो ही है और वह अपने ही लोगों पर जुल्म ढाने के काम में अपने मालिक से भी अधिक अमानवीय है। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि ही यह देख लेती है कि नायक अपने जर्मन मूल के मित्र के साथ 'गुलाम' खरीदने का स्वांग कर रहा है और वह केवल अपनी पत्नी को स्वतंत्र करने के लिए आया है। यह बात भारतीय संदर्भ में बड़ी महत्वपूर्ण है। अंग्रेजों के साम्राज्य के दिनों में कुछ भारतीय ही विदेशी हाथों को मजबूत करते थे और अपनों पर जुल्म ढाने में उन्हें आनंद मिलता था। इनमें से ही अनेक लोगों ने आजादी के बाद स्वयं को परम देशभक्त भी सिद्ध कर दिया और सत्ता पक्ष के साथ हो गए।
प्राय: दलित और दमित वर्ग से अपनी शिक्षा और योग्यता के बल पर सफल होने वाला व्यक्ति अपने को सफल वर्ग का स्वाभाविक सदस्य दिखाने के थका देने वाले काम में लग जाता है और अपने वर्ग के लोगों की उपेक्षा करता है। दमित वर्ग से उभरकर उच्च अधिकारी बने व्यक्ति प्राय: अपने विगत को भुलाने की कोशिश करते हैं। यही प्रवृत्ति हमने तरक्की करके ऊंचे ओहदों पर बैठने वाली महिलाओं में भी देखी है। सत्तासीन महिलाएं सत्ता के शतरंज में रम जाती हैं। सत्ता शब्द भाषा में स्त्रीलिंग मान जाता है, परंतु उसका चरित्र पुरुषों वाला है। हॉलीवुड की प्रशंसा करना होगी कि उसने अपने राष्ट्रीय घावों पर फिल्में बनाना हमेशा जारी रखा। अश्वेत अफ्रीकन मूल के अमेरिका निवासियों पर अनगिनत फिल्में बनी हैं। स्टीवन स्पिलबर्ग की 'कलर पर्पल' की कहानी है कि अफ्रीका से जबरन गुलाम लाने वाले जहाज पर गुलाम विद्रोह करके कब्जा कर लेते हैं, परंतु जहाजी बेड़ा उन्हें अमेरिका लाता है और उन पर अमेरिका की अस्मत पर हमला और संपत्ति को कब्जे में लेने के संगीन आरोप लगते हैं। उनके पक्ष में एक बूढ़ा वकील आता है और अदालत में भूतपूर्व अध्यक्षों की आदमकद तस्वीरों की ओर जज का ध्यान आकर्षित करता और समानता तथा स्वतंत्रता के लिए उनके किए गए संग्राम की याद दिलाते हुए अपनी दलीलें प्रस्तुत करता है।
सिडनी पोयटर अभिनीत 'गेस हू इज कमिंग टू डिनर' महान फिल्म है। इसके कुछ नजदीकी भारतीय रूपांतरण को इस तरह देख सकते हैं कि काल्पनिक कथा का महत्वपूर्ण पात्र वह जज है, जो मुंबई ब्लास्ट जैसे मुकदमे के दरमियान घायलों की गवाही से विचलित होकर मन ही मन मुस्लिम लोगों के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जाता है। उसकी पत्नी भी आज कॉलेज में औरंगजेब पढ़ाकर आई है तथा उनकी इकलौती लाड़ली बेटी, जो टेलीविजन के लिए सियाचिन गई थी, एक मुस्लिम मेजर से प्यार करने लगी है। उसकी पोस्टिंग उच्च तकनीकी ज्ञान प्राप्त करने के लिए अमेरिका हुई है। जाने के पूर्व अपनी प्रेयसी के आग्रह पर वह जज महोदय के घर शाम की दावत पर आमंत्रित है, जहां उसे शादी की बात करनी है। जज साहब और उनकी पत्नी हिल जाते हैं। मेजर के गरीब माता-पिता भी अपने बेटे के आग्रह पर जज साहब के घर आए हैं। वे लोग लखनऊ में पुश्तों से लजीज कबाब की दुकान चलाते हैं। जज साहब का विश्वस्त और पुराना सेवक भी मुसलमान है, वह मेजर साहब अर्थात अपनी ही बिरादरी वाले को घर से चले जाने की सलाह देता है। उसे यह पसंद नहीं कि कोई उसके मालिक को मानसिक तनाव दे। मान लीजिए इसी ड्रामेटिक परिस्थिि मेें फैसला सुनाए जाने के पहले कोई आतंकवादी दल जज साहब के घर घुस आता है और उन्हीं की बिरादरी का मेजर अपने साहस से अकेले ही ढेरों आतंकवादियों को निपटा देता है और जज महोदय की जान बचाता है। तो क्या जज पूर्वाग्रह से मुक्त अपनी बेटी को मेजर से शादी करने देंगे? यही कहानी उलटकर भी बनाई जा सकती है कि जज मुसलमान है और उनकी बेटी हिंदू मेजर से प्यार करती है। वर्तमान भारत में इस तरह की फिल्म मुमकिन नहीं, परंतु अमेरिका में बनाई गई है।
मुंबई बम ब्लास्ट मुकदमे में कुछ हिंदू अफसरों को भी रिश्वत लेकर देश में हथियारों को आने देने के लिए दंडित किया गया है, जैसे उत्तम पोतदार, मनोज भंवरलाल इत्यादि। दरअसल, वह हमला अकेले मुंबई नहीं, पूरे राष्ट्र पर किया गया हमला है और इस तरह की अन्य घटनाएं भी राष्ट्रीय अस्मिता पर हमला है, अत: इसका फैसला साक्ष्य के आधार पर किया गया है और अपराधी का मजहब इसमें महत्वपूर्ण नहीं है। इसी तरह तमाम अन्य आपराधिक प्रकरणों में पुलिस को केवल साक्ष्य पर जोर देना चाहिए और अपराधी का मजहब महत्वपूर्ण नहीं होना चाहिए।
दरअसल, देश की भीतरी मजबूती उसके नागरिकों के चरित्र और दृढ़ इच्छाशक्ति से बनती है और स्वतंत्रता तथा समानता के आदर्श से प्रेरित विचार-शैली ही देश का असली सुरक्षा कवच है। अदालत के फैसलों का सम्मान किया जाना चाहिए और अपराधी के मजहब पर ध्यान नहीं देते हुए साक्ष्य आधारित फैसले की प्रशंसा करना चाहिए। आश्चर्य तो उस समय भी होता है, जब कोई लंपट पति कानून द्वारा पकड़ा जाता है, तब उसकी पत्नी उसके बचाव के लिए आगे आती है, जबकि उसके सम्मान और विश्वास को ठेस पहुंचाई गई है। दरअसल, टेरेन्टिनो अर्थहीन पारंपरिकता पर आक्रमण करते हैं और बेमुरव्वत होकर करते हैं।