फिल्मकार फिल्में क्यों रचते हैं? / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्मकार फिल्में क्यों रचते हैं?
प्रकाशन तिथि :21 जनवरी 2015


अन्य व्यवसाय की तरह फिल्म बनाना भी अधिकांश निर्माताआें के लिए मात्र व्यवसाय ही है परंतु हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास में कुछ फिल्मकारों के लिए यह सामाजिक दस्तावेज गढ़ने की तरह रहा है आैर कुछ विरल फिल्मकारों के लिए फिल्म प्रेम-पत्र लिखने की तरह भी रहा है। व्यवस्था के सुराखों से कमाए धन के कारण कुछ रईसजादों के लिए फिल्म बनाना अय्याशी भी रहा है। कुछ लोगों ने अपने भीतर की अनजान बेचैनी को अभिव्यक्त करने के लिए फिल्में बनाई हैं। कभी-कभी कुछ फिल्मकार अपने पारिवारिक रिश्तों की मरम्मत के लिए भी फिल्में बनाते हैं। इतना ही नहीं इस खेल में अनेक पति फिल्मकार पत्नी के आग्रह पर स्वर्ण-मृग के पीछे भी भागे हैं। फिल्मकारों का अपना अवचेतन भी रहस्यमयी कंदरा की तरह है आैर कच्चे-पक्के अनुभव के जुगनू की मदद से वे अंधेरे कोनों में झांकने का प्रयास भी करते हैं। अगर कुछ फिल्मकारों ने अपराध बोध के कारण फिल्में रची हैं तो कुछ ने अपनी फिल्मों को चर्च के गुनाह-कबूली के कक्ष में दिए बयान की तरह बनाया है। कई लोग आत्मग्लानि, कुंठाआें आैर आत्ममैथुन के लिए भी फिल्में बनाते हैं। कई बार प्रतिद्वन्दी से बदले की भावना से भी फिल्में बनाई गई हैं आैर यह अहंकार अभिव्यक्ति का भी माध्यम रहा है। कुछ के मन में शहादत का जज्बा भी रहा है आैर उनका मंत्र रहा है कि 'देखना है जोर कितना दर्शक के बाजुए कातिल में है'। इसी जज्बे से राजकपूर ने 'जागते रहो' आैर 'जोकर' बनाई तो गुरुदत्त ने 'कागज के फूल' बनाई आैर बिमल रॉय ने 'बंदिनी' बनाई तथा 'महाकुंभ' बनाने की इच्छा लिए वे चले गए। इस तरह के लोग भी हुए हैं जाे 'अफसाने को हकीकत में बदलता देखने के लिए अपनी आेर आते तीर को भी खुली आंख देखते हैं।'

चेतन आनंद ने 'हकीकत' के बाद केवल अपनी महबूबा प्रिया राजवंश की खातिर स्वर्ण मृग के पीछे अनेक बार दौड़ लगाई आैर उनकी श्रेष्ठ रचना 'कुदरत' को प्रिया प्रेम ही ले डूबा। यह कितनी अजीब बात है कि उनके पुत्र ने जायदाद के लाेभ में उसी प्रिया राजवंश के कत्ल की सजा पाई गोयाकि सारी प्रिया केंद्रित घटनाएं चेतन आनंद की अलिखित आैर नहीं बनाई 'वसीयत' नामक फिल्म का हिस्सा है। शांताराम ने अनेक महान फिल्में बनाई परंतु अपने कॅरिअर की गहराती शाम के समय संध्या प्रेम के कारण इतनी खराब फिल्में बनाई कि उन्हें देखकर यकीन नहीं किया जा सकता कि इसी फिल्मकार ने दुनिया ना माने, आदमी, पड़ोसी आैर 'दो आंखें बारह हाथ' जैसी महान फिल्में बनाई होंगी।

राजकपूर ने 'जोकर' के गरल को अपने ईस्ट देव शिव की तरह गले में दबाकर शैम्पेन के झाग सी आनंद रचना बॉली की बाद में अंधेरे में मनुष्य सांप आैर रस्सी के भेद को नहीं जान पाता जैसे जटिल विचार पर 'सत्यम शिवम सुंदरम' शुरू की परंतु उसी दौर की हिंसा की फिल्मों से आतंकित होकर उन्होंने सेक्स की ढाल से हिंसा के प्रहार रोकने की चेष्टा में नारी शरीर के पीछे शरण ली आैर पश्चाताप स्वरूप 'प्रेम रोग' में विधवा के प्रेम अधिकार की फिल्म तथा नदी आैर नारी प्रदूषण के खिलाफ 'राम तेरी गंगा मैली' बनाई आैर आग उगलती सरहदों के ऊपर प्रेम के इंद्रधनुष 'हिना' की रचना उनकी मृत्यु के बाद रणधीर कपूर ने बनाई। विजय आनंद दूसरे विश्व युद्ध के समय अमेरिका में बने नोए अर्थात 'अंधकार का सिनेमा' बनाते बनाते 'गाइड' में अध्यात्म के उजाले को थामने का प्रयास करते हैं परंतु अपनी सब से प्रिय 'तेरे मेरे सपने' के असफल होते ही 'जानी मेरा नाम' बनाते हैं। 'तेरे मेरे सपने' में विजय आनंद के अभिनय को देवआनंद से ज्यादा सराहना मिली तो क्रोध में देवआनंद डायरेक्टर बने आैर विजय आनंद अभिनय क्षेत्र में गए तथा भाइयों के बीच आपसी अहंकार के कारण उन तीनों भाइयों की रची नवकेतन संस्था ठप्प हो गई। यश चोपड़ा को अपने विवाह के बाद भी बड़े भाई बलदेव के बंगले की बरसाती में रहना पड़ा, अत: पत्नी की प्रेरणा से उन्होंने अपने भाई का स्थापित बैनर छोड़कर यशराज फिल्म्स का प्रारंभ किया जिसे उनके पुत्र आदित्य ने आज शिखर संस्था बना दिया। क्या इसी तरह की फिल्म जगत की घटनाएं आपको यह सोचने काे मजबूर नहीं करती कि अगर नफरत के प्रचार ने भारत को विभाजन की त्रासदी में नहीं झोंका होता तो आज अखंड भारत कितना शक्तिशाली होता आैर दनों ने सेनाआें के बदले सारा धन आम आदमी का जीवन स्तर सुधारने में लगाया होता तो आज दाेनों आेर आम जीवन में एक से अभाव नहीं होते।

बोनी कपूर हमेशा महत्वाकांक्षी आैर खूब धन खर्च के फिल्म बनाते रहे हैं आैर अपने पुत्र अर्जुन से अपने रिश्ते की हल्की सी दरार मिटाने के लिए उन्होंने 'तेवर' के पहले पचपन मिनट अपने बेटे को 'सुपरमैन, सलमान फैन' बनाने में फिजूल खर्च किए जबकि नायिका के आने के बाद 'तेवर' एक भावना प्रधान-बकमाल फिल्म है आैर उस 'फिजूल खर्ची' से बचते तो 'तेवर' दो घंटे की सुपरहिट बनती। मध्यांतर के बाद तो 'तेवर' बकमाल फिल्म है। बहरहाल फिल्म उद्योग में आैर आम जीवन में हम इत्तेफाक से ही जिंदा हैं वरन असमान संपदा वितरण आैर अन्याय आधारित व्यवस्था हमें मार ही डालती।