फिल्मी मसाले में 'विटामिन' की खोज / जयप्रकाश चौकसे
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प्रकाशन तिथि : 02 जनवरी 2013
क्या नए वर्ष में मनोरंजन उद्योग में परिवर्तन आएगा? भारतीय समाज की तरह सिनेमा में भी टेक्नोलॉजी अनेक परिवर्तन प्रस्तुत करेगी। जैसे विगत वर्ष 'विकी डोनर', 'कहानी', 'पानसिंह तोमर' और 'बर्फी' इत्यादि बनीं, वैसे ही इस वर्ष भी लीक से हटकर फिल्में बनेंगी। मसाला फिल्में हमारे सिनेमा का स्थायी भाव हर वर्ष की तरह कायम रहेगा। सार्थक और मसाला फिल्मों की समानांतर पटरियों पर यह गाड़ी दौड़ती है और ये चलती का नाम गाड़ी यूं ही नहीं कहलाती। मसाला फिल्मों में प्राय: नए तड़के लगाए जाते हैं, पैकिंग बदली जाती है, परंतु उसका मूल स्वरूप कभी नहीं बदलता। मसाला फिल्मों का नैतिक आधार 'बुराई पर भलाई की जीत' उसका आधार मूल्य है। प्राय: चरित्र स्याह या सफेद होते हैं और कभी-कभी धूसर भी होते हैं। विषय-वस्तु तथा प्रस्तुतीकरण में प्रयोग किए जाते हैं, परंतु सरलता सिनेमा का मूल स्वभाव है। 'विकी डोनर' जैसे साहसी विषय को भी सरस, सरल ढंग से प्रस्तुत किया गया। 'कहानी' की पटकथा में सस्पेंस कायम रखते हुए भी उसे जटिलता से बचाया गया।
विगत तीन वर्षों में एक्शन के साथ हास्य जोड़कर सबसे अधिक सफल फिल्में गढ़ी गई हैं और परिणामस्वरूप अब शाहरुख खान जैसा सितारा भी रोहित शेट्टी, फरहा खान जैसे हास्य सहित एक्शन के विशेषज्ञों के साथ फिल्में कर रहा है। यहां तक कि स्विट्जरलैंड में शूट करने के अभ्यस्त शाहरुख खान पुणे के निकट ग्राम वाही में शूटिंग कर रहे हैं, जहां प्रकाश झा की फिल्मों के साथ ही 'वॉन्टेड', 'सिंघम', 'दबंग' इत्यादि की शूटिंग हुई थी। वाही को प्राय: बिहार के पर्याय की तरह उपयोग में लाया जाता है और वहां इतनी शूटिंग हुई है कि सारे गांववाले अभ्यस्त हो चुके हैं और भीड़ के दृश्यों में शामिल होते हैं। शायद अब इस तरह की फिल्में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुकी हैं और दर्शक उसमें नए घुमाव की उम्मीद करता है। फैशन की तरह सिनेमा में भी चक्र होता है और चीजें लौट आती हैं।
इसी तरह 'मुन्नी' ने गांवठी आइटम का दौर शुरू किया और तमाम शिखर सितारों ने इस तरह के नृत्य-गीत प्रस्तुत किए और शायद यह भी अपने चरम पर पहुंच चुका है। नृत्य निर्देशकों का यह हाल है कि उन्हें सोते से उठा दो तो वे ठुमके लगाना शुरू कर देते हैं। नायिकाओं की कमर में दर्द होने लगा है और झंडु बाम भी अब उन पर असर नहीं करता। तड़कती हड्डियों को फेविकॉल से कब तक जोड़ें। पंजाब में पंजाबी भाषा में वर्ष में बमुश्किल पंद्रह फिल्में बनती हैं, जबकि मुंबई में बनी फिल्मों के पंजाबी में बोले संवाद तथा पंजाबी गीतों को जोड़ें तो उनकी लंबाई पंद्रह पूरी फिल्मों से कहीं ज्यादा होगी। यह परंपरा भी चरम पर पहुंच चुकी है। इस समय फिल्मों के सारे फॉर्मूले अपनी संतृप्त घोल अवस्था में इस कदर पहुंच गए हैं कि उनका स्वाद कड़वा हो गया है। यह तय है कि दर्शक का कहर टूटेगा और नए तड़कों की खोज भी प्रारंभ होगी। मनोरंजन उद्योग मानव शरीर के यकृत की तरह है, जो अपना नवीनीकरण करता रहता है। आदतन शराबखोर भी जब कुछ समय के लिए तौबा कर लेते हैं तो सदैव जीवंत गतिशील यकृत स्वयं को दुरुस्त कर लेता है। मनोरंजन जगत का हृदय भी बहुत मजबूत है और झटके खाकर भी पूरे शरीर को रक्त पहुंचाता रहता है। मनुष्य हृदय से बड़ा शॉक एब्जॉर्वर ऑटोमोबाइल उद्योग बना ही नहीं सकता। त्रासदियों से गुजरते हुए हृदय धड़कना बंद नहीं करता।
फिल्म उद्योग की अर्थव्यवस्था सितारा केंद्रित है और सितारों की दर्शक को सिनेमाघर तक लाने की ताकत सामाजिक सोद्देश्यता की फिल्मों के रास्ते में आज जितनी बड़ी बाधा बन गई है, उतनी पहले कभी नहीं थी। सितारों ने अपने बाजार मूल्य से कम पैसे लेकर सार्थक फिल्में की हैं, परंतु आज सितारों में अधिक धन कमाने की आपसी होड़ जबर्दस्त हो गई और उसके चलते प्रयोग कठिन हो गया है। वर्तमान के सितारों की मन:स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि अपना घर बने या न बन, पड़ोसी की दीवार गिरनी चाहिए। अगर सतह के परे देखें तो समाज में भी इस प्रवृत्ति को पनपता देखेंगे। आज के सभी सितारे पटकथा में परिवर्तन करते हैं और जो सिनेमा कभी निर्देशक का माध्यम था, वह अब सितारे की दासता कर रहा है। सच तो यह है कि आज ऐसे फिल्मकारों की कमी है, जो अपनी योग्यता से माध्यम पर शासन करें। आज प्रतिभाशाली लोग हैं और सीमित साधनों में बेहतर फिल्में रचने का प्रयास भी करते हैं। घटाटोप बादलों के बाहरी किनारों पर हमेशा प्रकाश की किरण होती है। मसाला फिल्मों में भी सामाजिक सोद्देश्यता के दृश्य होते हैं और हिंदुस्तानी सिनेमा तथा समाज की यह बुनावट ही उसकी ताकत है। वर्तमान कालखंड में हिंदुस्तानी मसाला फिल्में लगभग सौ देशों में दिखाई जा रही हैं और इन देशों में सामाजिक सोद्देश्यता वाली सिताराहीन फिल्में प्रदर्शित ही नहीं हो पातीं। अकिरा कुरोसावा के देश जापान में रजनीकांत की फिल्में सफल होती हैं। 'सेवन समुराई', 'कागामोशो' को पसंद करने वाले वाष्प से पके भोजन करने वाले रजनीकांत के रसम को पसंद करने लगे हैं। आभास होता है कि जैसे विज्ञान ने हिंदुस्तान में पैदा होने वाली हरी, लाल, काली मिर्च, हल्दी, अजवाइन में विटामिन खोज लिए हैं, वैसे ही हिंदुस्तानी मसाला फिल्म में विदेशियों ने कुछ खोज लिया है। बहरहाल तमाशा जारी है। आमूल परिवर्तन की संभावना नहीं, परंतु नए तड़के लगते रहेंगे और सिनेमा १०१वें वर्ष में पहुंच जाएगा।