फिल्मी रिश्तों का औघड़ आकलन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 19 जनवरी 2013
शाहरुख खान अजय देवगन के नजदीकी रोहित शेट्टी की फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस' कर रहे हैं। रोहित शेट्टी के मसाले में हास्य, एक्शन, प्रेम इत्यादि सभी चीजें अतिरेक के साथ परोसी जाती हैं और यह उनकी अभिनव खोज नहीं है। यह सब पहाड़ों की तरह पुराना है। शाहरुख खान ने अजीज मिर्जा की फिल्में की हैं, जो होम्योपैथी की तरह मासूम खुराक वाली दवा हैं। उन्होंने यश चोपड़ा का शिफॉन, स्विट्जरलैंड सिनेमा किया है। करण जौहर के पारिवारिक संतृप्त घोल भी किए हैं। जब आप उद्योग में 20 वर्ष से अधिक जमे होते हैं, तब विविध फिल्में कर चुके होते हैं। सतही तौर पर रोहित शेट्टी गैर-शाहरुखी तथा सलमानिया ज्यादा हैं। सिनेमा उद्योग की रीति में रोहित बॉक्स ऑफिस मौसम में बहार पर हैं और शाहरुख अपने रिकॉर्ड के हिसाब से खिजा पर हैं। इस उद्योग में हर शुक्रवार को स्थिति बदलती है। बॉक्स ऑफिस शासित उद्योग में ऐसे ही समीकरण बनते हैं, जिन्हें आपसी जरूरत भी कहा जा सकता है। इस उद्योग में यह होता रहता है कि कुछ लोग केवल शादियों में शिरकत करते हैं, कुछ जनाजों में शामिल होते हैं।
हाल ही के एक साक्षात्कार में शाहरुख खान के कहे (बकौल साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार के) दो वाक्य ध्यान आकर्षित करते हैं। वे कहते हैं कि करण जौहर की फिल्मों की आउटडोर शूटिंग में बड़े सितारों और प्रसिद्ध लोगों के परिवार बतौर मेहमान बुलाए जाते हैं, परंतु रोहित शेट्टी के साथ उनके फाइट मास्टर, मैकअप मैन का परिवार जाता है, गोयाकि अवाम मेहमान होता है। अन्य क्षेत्रों की तरह फिल्मों में भी जातिप्रथा है जो सचमुच में धर्म से नहीं, वरन हैसियत से जुड़ी है। यहां सितारा श्रेष्ठि वर्ग है, कैमरामैन प्रथम श्रेणी है, परंतु मैकअप मैन तीसरी श्रेणी है। राजनीतिक शब्दावली में रोहित समाजवादी हैं और करण सामंतवादी या पूंजीवादी हैं। खुद शाहरुख ने अपने यूनिट में भेदभाव नहीं किया, उन्होंने 'नुक्कड़' के लिए प्रसिद्ध अजीज मिर्जा के साथ पारी की शुरुआत की थी। ऐसा पहले भी हुआ है कि कदाचित ख्वाजा अहमद अब्बास के प्रभाव में राज कपूर का जन्मदिन कर्मचारी दिवस के रूप में मनाया जाता रहा और ताउम्र वैसे ही मनाया गया।
बहरहाल, दूसरा मामला कुछ इस तरह है कि बतौर अभिनेता उन्हें 'डॉन' और 'माय नेम इज खान' सबसे अधिक पसंद हैं। 'चक दे इंडिया' भी पसंदीदा है, परंतु 'चक दे इंडिया' से ज्यादा उन्हें अपनी कुछ सिली अर्थात बेवकूफाना फिल्में ज्यादा पसंद हैं। दरअसल उनका तात्पर्य है कि 'चक दे इंडिया' की पटकथा इतनी सशक्त और चरित्र-चित्रण पूरी तरह परिभाषित था कि उसमें अभिनय करना आसान रहा। 'डॉन' में ऐसा नहीं था और बतौर अभिनेता उन्हें अपना स्वयं का बहुत निवेश करना पड़ा। यहां बात पूंजी निवेश की नहीं, प्रयास और प्रतिभा की है। उनका कथन है कि 'माय नेम इज खान' न पूरी तरह कला फिल्म थी, न ही पूरी तरह व्यावसायिक थी और उन्हें ईश्वरीय कमतरी वाला किरदार भी करना था। वे कहते हैं कि 'माय नेम इज खान' में प्रस्तुत दुनिया यथार्थ नहीं है, जबकि अनुराग कश्यप की 'बर्फी' जिसमें किरदार वैसी ही कमतरी के शिकार हैं, यथार्थपरक फिल्म है। इसके साथ ही शाहरुख यह भी कहते हैं कि करण ने अपनी फिल्म में उन्हें और काजोल को लिया था, जो पहले सफल व्यावसायिक फिल्मों में सफल जोड़ी के रूप में काम कर चुके थे, अर्थात करण जौहर पर सितारों की छवि का दबाव था। इसके बाद का कथन महत्वपूर्ण है कि करण के लिए भी 'खान' की दुनिया अजनबी थी और वह दरअसल 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' की दुनिया के वासी हैं। हो सकता है कि ये बातें सहज ही कह दी गई हैं और इनमें कोई अर्थ नहीं खोजना चाहिए, परंतु शाहरुख मूलत: संजीदा और बाईस वर्ष के अनुभवी आदमी हैं।
करण जौहर आदित्य चोपड़ा के सहायक थे और शाहरुख तथा काजोल की सहायता से सफल फिल्मकार बन सके। उस प्रारंभिक दौर में उन्होंने यह भी कहा था कि बिना शाहरुख वे फिल्म की कल्पना भी नहीं कर सकते, परंतु वह सफलताजनित क्षणिक आवेश था। उनका ध्येय तो कुछ और था और उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा के अनुरूप अन्य कलाकारों के साथ अनेक फिल्में बनाईं। शायद वे अपने गुरु, गाइड और फिलॉस्फर आदित्य चोपड़ा को प्रभावित करना चाहते हैं, जो इस खेल में सिद्धहस्त खिलाड़ी हैं और हमेशा गुरु ही रहेंगे, क्योंकि उनका फोकस फिल्म है। वह करण की तरह मल्टीचैनल व्यक्ति नहीं हैं। बहरहाल, करण संभवत: शाहरुख को अपना भाग्यविधाता मानते थे और उन्होंने अपनी व्यक्तिगत भावनाओं के आधार पर 'खान' का चरित्र खुदाई खिदमतगार नहीं वरन खुदा कीतरह किया। फिल्मों में हीरो अपने आचरण और कार्य से आकर्षण पैदा करता है और वैसे दृश्य बनाने पड़ते हैं। फिल्मकार के मन की व्यक्तिगत छवि परदे पर ही न उभरे तो वह 'माय नेम इज खान' की तरह की फिल्म बनती है और बतौर शाहरुख न इधर की, न उधर की रहती है।
आज शाहरुख खान अपने कॅरियर के निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं और करण के सामने ऐसा कुछ नहीं है। दोनों अलग-अलग जगह खड़े हैं - करण 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' की फंतासी में खुश हैं और उन्हें नए लड़कों का मार्गदर्शक, गुरु तथा फिलॉस्फर बनने का अवसर भी मिल रहा है। गोयाकि आदित्य बने बिना आदित्यनुमा अनुभव हासिल कर रहे हैं। उधर शाहरुख अपना यथार्थ खोज रहे हैं। एक युग में रिश्ते अनुभवों के प्रिज्म से गुजरकर नया रूप धारण करते हैं। करण की पहली फिल्म में न केवल शाहरुख ने उन पर मेहरबानी की, वरन सलमान खान ने भी अतिथि भूमिका स्वीकार करके फिल्म का वजन बढ़ाया। तो क्या अब करण सलमान के साथ फिल्म बनाना चाहेंगे? फिल्मी दुनिया की रीत निराली है और बॉक्स ऑफिस शासित उद्योग में कुछ भी असंभव नहीं है। हर फिल्म के समाप्त होने पर कहते हैं, अभी तमाशा पूरा नहीं हुआ।