फिल्मी लेखा-जोखा और चित्रगुप्त का बहीखाता / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्मी लेखा-जोखा आैर चित्रगुप्त का बहीखाता
प्रकाशन तिथि :31 दिसम्बर 2014


गुजरा हुआ वक्त, गुजर कर भी पूरी तरह नहीं गुजरता आैर आने वाला वक्त आकर भी पूरी तरह नहीं आता परंतु रोजमर्रा के जीवन की व्यावहारिक सच्चाई यह है कि बहीखाते पूरे करने पड़ते हैं, क्या खोया, क्या पाया की तराजू, केवल न्यायालय में आंख पर बंधी पट्टी वाली महिला के हाथ होती है, वरन् हर क्षेत्र में यही तराजू निर्णायक मानी जाती है। आज भी तराजू के पलड़े के नीचे चुंबक रखकर कम तौलने की प्रवृति कायम है आैर इसे कॉरपोरेट व्यापार जगत ने आकर्षक पैकिंग का नया नाम दिया है या कहें बंद पैकेट में नमकीन से ज्यादा हवा भरी होती है जिसका दाम भी देना पड़ता है। अब कम तौलने की बेइमानी को चतुराई कहा जाता है आैर वाचाल को बुद्धिमान तथा खामोशी को पागलपन माना जाता है। सेल्समैन की जुबान को साहित्य का दर्जा दिया गया है।

फिल्मी बहीखाते में घाटे का कॉलम लाभ से बहुत अधिक है आैर सफलता के पंद्रह प्रतिशत पर चल रहे सौ वर्षीय कथा फिल्म ने अपनी दूसरी संदिग्ध सदी के पहले वर्ष में न्यूनतम सफलता अर्जित की है। इसे संदिग्ध सदी कहने का कारण यह है कि अमेरिका के कैफमैन आैर कैशायर इसके अंत की आशंका अभिव्यक्त कर चुके हैं। उनके भय का आधार टेक्नोलॉजी द्वारा कम्प्यूटर जनित छवियों के कारण सितारे का पतन आैर सिनेमा के 'मेक बिलीव' रहस्य का उजागर होना है। हर देश में कारण अलग-अलग हो सकते हैं। हर किस्म का आतंकवाद चलते हुए शो को 'लुल' कर सकता है। बहरहाल खाते में कमाने वाली फिल्में गुंडे, टू स्टेट्स, हीरोपंती, हॉलीडे, यारियां हैं आैर यथेष्ठ धन कमाने वाली सिंघम रिटर्नस, एक विलन है तथा सुपरहिट्स हैं 'किक' आैर 'पीके'।

'हैप्पी न्यू ईयर' के प्रचारित आंकड़े उसे सुपरहिट बता रहे हैं परंतु भीतरी जानकार जानते हैं कि सिर्फ भव्य लागत ही निकली है। सार्थक आैर लाभांश देने वाली फिल्में हैं- 'मर्दानी', 'मैरी कॉम' आैर 'हाइवे' तथा गौरतलब है कि तीनों ही नायिका प्रधान फिल्में हैं। विशाल भारद्वाज की 'हैदर' महान फिल्म है परंतु संभवत: लाभ नहीं कमा पाई। इम्तियाज अली की 'हाईवे' आज के भारत के बहु-प्रचारित विकास के दो सिरों को प्रस्तुत करती है, महानगर के बीहड़ में आठ वर्ष की आयु में अमीर अंकल द्वारा यौन-शोषण की शिकार अपनी युवा वय में भी उन जख्मों से पीड़ित है तो दूसरे छोर पर उद्योग के लिए अपहृत खेत के किसान का निराश युवा पेशेवर किडनैपर है- क्या जमीन के 'किडनैप' होने की यह प्रतिक्रिया है। तथाकथित विकास के परचम के रूप में जाने वाला हाईवे इन्हें जोड़ता है। इस तरह से विशाल भारद्वाज ने शेक्सपीयर के हेमलेट को कश्मीर की तत्कालीन राजनीति से जोड़कर नई व्याख्या की।

वर्ष के खाेने की फेहरिस्त में एक सूची बहीखातों के परे हैं, वह चित्रगुप्त के बहीखाते में दर्ज हैं। जोहरा सहगल की मृत्यु उम्र के एक सौ एकवें वर्ष में हुई आैर संयोग देखिए कि कथा फिल्म का भी वह 101 वां वर्ष है। उनके चेहरे की झुर्रियों में इतिहास लिखा था जिसे पढ़ने के लिए उनकी प्रिय गजल 'अभी तो मैं जवान हूं' वाला नजरिया चाहिए। अगर माइथोलॉजी को इतिहास बनाने की चेष्टा हो रही है तो जोहरा के महाकाव्य से चेहरे की झुर्रियां माइथोलॉजी की तरह बयां होती है। इसी तरह सुचित्रा सेन के निधन के कारण अनगिनत लोगों के हृदय का एक अंश सुन्न पड़ गया है। मधुबाला आैर सुचित्रा सेन समकालीन रहीं आैर दोनों ही सौंदर्य का बेंचमार्क बनी रहेंगी। सुचित्रा सेन अनन्य एवं अनंत 'पारो' हैं, जिसकी कसक हृदय में लिए अनगिनत 'देवदास' सारे शहरों के गली मोहल्लों में मौजूद थे। वह बचपन के कुटैव की तरह स्मृति पटेल का कभी नहीं मिटने वाला मुंहासा रहेगी।

नंदा ने बाल कलाकार के रूप में अभिनय किया आैर युवा होने पर 'छोटी बहन' की छवि को उसने यश चोपड़ा की 'इत्तेफाक' में सीढ़ियों से नीचे उतरते समय के एक शॉट में तोड़ दिया। महज चलने से उसने आभास दिया कि वह कत्ल करके रही है। अगर उसने राजकपूर के साथ 'आशिक' में प्रेम तिकोन कथा की तो 1982 में राजकपूर के निर्देशन में 'प्रेमरोग' में युवा विधवा की मां की भूमिका के एक शॉट में ही वह अपनी विदा होती बेटी के लिए उसके बाल सखा का अनअभिव्यक्त प्रेम पढ़ लेती है। स्वयं नंदा ताउम्र पोस्ट किए प्रेम-पत्र की तरह रही। शायद स्वर्ग में नंदा स्वयं मनमोहन देाई को वह पत्र दें, सच है जोड़े ऊपर ही बनते हैं।

सदाशिव अमरापुरकर रंगमंच से फिल्मों में आए आैर उन्होंने अमरीश पुरी के कालखंड में खलनायिकी को नया रंग दिया। उनकी 'अर्ध सत्य' आैर 'सड़क' की 'महारानी' को कैसे भूल सकते हैं। इस वर्ष देवन वर्मा का निधन हुआ। आज हास्य के नाम पर फूहड़ता के धुंआधार में उनका शालीन हास्य बहुत याद आता है। गुलजार की 'अंगूर' के डबल कैसे भूल सकते हैं। फिल्म इतिहास के हाशिये में दर्ज होते हैं फिल्मों पर लिखने वाले आैर ऐसे ही श्रीराम ताम्रकर भी नहीं रहे।

हर जाते हुए वर्ष की खट्टी-मीठी आैर कड़वी यादें अवचेतन का तलघर बन जाती हैं। कैसा होता है वर्ष के अंतिम दिन का सूर्यास्त आसमान पर? वह क्षीण सी लालिमां उस 'कातिल' के गुनाह के सबूत की तरह मन की अदालत में अलिखित फैसले की तरह दर्ज होती है। जीवन की कार की डिक्की में बंद होता है वह सूर्यास्त आैर नए वर्ष के सूर्य-उदय की 'बैट्री' से रीचार्ज गाड़ी चलती रहती है। मित्रों, इस वर्ष 'आधी रात को मल्हार मत गाना वरना पकड़ लेगा पुलिस वाला'।