फिल्मों के जुगराफिया में छोटे शहर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :02 सितम्बर 2017
विगत कुछ वर्षों में यह सुखद परिवर्तन देखने को मिला है कि फिल्मों में पृष्ठभू्िम कानपुर, लखनऊ, आगरा, बनारस इत्यादि शहरों की दिखाई जा रही है। लंबे समय तक पृष्ठभूमि महानगर ही प्रदर्शित की जाती थी। छठे दशक की फिल्में टेलीविजन पर प्रसारित होती हैं तो हमें उस दौर का साफ-सुथरा, चुस्त-दुरुस्त, जीवंत शहर मुंबई नज़र आता है। आज तो सागर तट पर बसा, मनुष्यों की लहरों पर लहरों का भीड़भरा मुंबई महानगर नज़र आता है। मुंबई की लोकप्रियता का यह हाल है कि अनेक छोटे शहरों में एक बंबई बाजार या मुंबई मोहल्ला आप देख सकते हैं। शिवसेना के आंदोलन के कारण बंबई को मुंबई लिखा जाने लगा है परंतु छोटे शहरों के बंबई बाजार या बंबई मुहल्ले आज भी अपने पुराने नाम को बनाए रखे हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक दल कोई अखिल भारतीय परिवर्तन नहीं कर पाते। ये अपनी लघुता में ही व्यापक स्वरूप लिए रहते हैं।
आनंद एल. राय की 'तनु वेड्स मनु' की सफलता के बाद फिल्मों की पृष्ठभूमि मध्यम शहरों की हो गई है। उपरोक्त फिल्म के एक गीत की पंक्ति है, 'भइया, कानपुर की पतंग उड़ेगी दिल्ली के आकाश में।' कुछ ही दिनों में फरहान अख्तर अभिनीत 'लखनऊ सेंट्रल' का प्रदर्शन होने जा रहा है। आजकल फिल्मों में गोरखपुर भी प्रस्तुत किया जा रहा है। आज से दशकों पूर्व एक व्यक्ति ने भारतीय पुराणों इत्यादि का प्रकाशन गोरखपुर से प्रारंभ किया था। उनका इरादा नेक था परंतु उन्होंने संस्कृत में लिखी किताबों के अनुवाद के लिए ऐसे लोगों को चुना जिन्हें दोनों ही भाषाएं ठीक से नहीं आती थीं और गलत ढंग से अनूदित किताबें अपने कम दाम के कारण बहुत बड़ी संख्या में बिकीं, जिससे यह नुकसान हुआ कि उदात्त ग्रंथ अपने संकीर्ण अर्थों में लोकप्रिय हुए और संकीर्णता एक महामारी के रूप में उभरी। इसी संकीर्णता के राजनीति में प्रवाहित होते ही सामाजिक जीवन में आदर्श मूल्यों का पतन प्रारंभ हो गया। शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने कहर ढहा दिया। परिवार नामक संस्था में भी छिद्र बन गए परंतु फिर भी यह नाव आज भी अपने में तूफान समेटे किनारा खोज रही है।
महानगर अपनी रचना प्रक्रिया में ही चरित्रहीन होते जा रहे हैं परंतु मध्यम दर्जे के शहर किसी तरह आज भी अपनी पहचान को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं। यहां प्रयुक्त 'चरित्रहीनता' को यौन संबंध नहीं माना जाए, क्योंकि यह विचार प्रक्रिया से जुड़ी है। महानगर की मति उसकी गति में छिपी होती है। वहां चलते-फिरते, यात्रा करते हुए अपना दोपहर का खाना लोग खाते हैं। भागते हुए भी भोजन करने के तरीके ये लोग जानते हैं। मुंबई का 'वड़ा पाव' एक ऐसी ही चीज है। डबल रोटी के दो टुकड़ों के बीच आलू और बेसन का वड़ा दबाया जाता है गोयाकि यह देशी सेंडविच है। उसे हम हॉटडॉग का एक संस्करण भी मान सकते हैं। महानगर की चक्की मनुष्य को पीसती है परंतु उसकी पाचन शक्ति कंकर-पत्थर भी हजम कर जाती है। मनुुष्य की भीतरी संरचना पुराने जमाने के मजबूत किलों की तरह होती हैं। यह शरीर की रखवाली करती है। छोटे गांव, कस्बों, शहरों और महानगर का जीवन मनुष्य शरीर में आवश्यक परिवर्तन करता रहता है। गांव का व्यक्ति ज्वार या बाजरा की रोटी खाता है और उसे मुंबई का 'बड़ा पाव' खाने को दें तो वह बीमार पड़ जाएगा। इसी तरह मुंबई का व्यक्ति बाजरे की रोटी खाने से बीमार पड़ सकता है। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि बाजरा व ज्वार अत्यंत उपयोगी चीजें हैं। इनके सेवन से पेट की व्याधियां नहीं होतीं। प्राय: अधिकतर लोग स्वाद की खातिर भोजन करते हैं और पौष्टिकता नज़रअंदाज हो जाती हैं। इसी तरह हर क्षेत्र में हमने गलत साधन अपनाते हुए साध्य को ही खो दिया है। आयुर्वेद मशविरा देता है कि भोजन का हर कौर बत्तीस बार चबाया जाना चाहिए परंतु आपाधापी संचालित हम लोग बमुश्किल चार या पांच बार ही चबा पाते हैं। इस तरह हम पाचन क्रिया के लिए आवश्यक अम्ल को शरीर में बनने ही नहीं देते। सारे मामले रस्म अदायगी मात्र रह गए हैं। एक दौर में रेडियो सीलोन पर गीतों की सबसे अधिक फरमाइश झुमरीतलैया नामक कस्बे से आती थी। उस दौर में कुछ खोजी स्वभाव के लोगों ने भूगोल के नक्शे में झुमरीतलैया की तलाश प्रारंभ की। आज यही काम गूगल पर किया जा सकताहै। सारांश यह है कि कोई एक धुन किसी स्थान को विशेष बना देती है। कभी-कभी किसी शहर को वहां का योग्य डॉक्टर भी एक पहचान देता है। मसलन दशकों पूर्व इंदौर में डॉक्टर मुखर्जी का रोग नदान में बड़ा नाम था और अनेक शहरों से लोग उनकी खातिर इंदौर आते थे। आयुर्वेद में सारा निदान नाड़ी देखकर किया जाता है। ताराशंकर बंदोपाध्याय का उपन्यास आरोग्य निकेतन का केंद्रीय पात्र नाड़ी निदान में प्रवीण है। उसकी अपनी मृत्यु का वर्णन विलक्षण है। वह कहता है कि मृत्यु पायल पहने मेरी ओर रही है, अब गांव की सरहद तक अा चुकी है, खेतों की मंुडेर पर कदम रखते हुए मेरी ओर आ रही है। उसकी पायल की ध्वनि अब बढ़ती जा रही है। अब उसकी पायल मौन हो गई, शायद वह मेरे बिस्तर के पास आकर खड़ी हो गई है। इस तरह की किताबें पढ़ने से जीने का सलीका और मरने का करीना हम सीख सकते हैं। किताबें पढ़ना अब गैर-जरूरी बना दिया गया है। 'गाइड' की रोजी के लिए शैलेन्द्र ने क्या खूब लिखा है, 'तोड़कर बंधन बांधी पायल, आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है, …'