फिल्मों के न्यायालय दृश्य में संकेत / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 फरवरी 2020
विगत विगत वर्षों में अदालत के दृश्यों को प्रधानता से प्रस्तुत करने वाली कुछ फिल्में प्रदर्शित हुई हैं। राजकुमार संतोषी की ‘दामिनी’ का क्लाइमैक्स प्रभावोत्पादक बन पड़ा था। ‘आर्टिकल 15’ और ‘सेक्शन 375’ में अदालत के दृश्य थे। ‘मुल्क’ का अदालत का दृश्य और जज का फैसला बदलते हुए समाज और व्यवस्था के सामने सवाल खड़े करता है। जज इस आशय की बात कहता है कि आठ सौ साल पहले बिलाल कौन था ये देखने जाएंगे तो पांच हजार वर्ष पीछे चले जाएंगे। अवाम सिर्फ यह देखे कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में कहीं संसद में पूजा-पाठ-हवन इत्यादि तो नहीं हो रहा है, बाकी सब काम अदालतें देख लेंगी। गणतंत्र व्यवस्था में तंत्र-मंत्र का क्या काम?
हाल में प्रदर्शित अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू अभिनीत फिल्म ‘पिंक’ में तो कई तथ्य बेबाकी से प्रस्तुत किए गए हैं। ‘पिंक’ में शूजीत सरकार ने प्रतीकात्मक ढंग से सत्यजीत राय को आदरांजलि दी है। जज का नाम सत्यजीत रखा है। मानो युवा बंगाली फिल्मकार अपनी विद्या के प्रति पुरोधा के प्रति सम्मान अभिव्यक्त कर रहा है। ‘पिंक’ में तो जज, पुलिस को भ्रष्ट ठहराता है। सारी संस्थाओं के विघटन का दौर चल रहा है। कुछ मामलों को अदालतें टाल रही हैं, क्योंकि खौफ की चादर ने कायनात को ही ढंक लिया है। एक शेर याद आता है- ‘इक रिदाएतीरगी है और ख्वाबे कायनात, डूबते जाते हैं तारे भीगती जाती है रात।’
अदालत में बैठा जज पूरा प्रकरण समझ लेता है, परंतु साक्ष्य के अभाव में दोषी व्यक्ति दंडित नहीं कर पाता। कभी-कभी जज अभिनव ढंग खोज लेते हैं। ‘क्यू बी सेवन’ नामक उपन्यास में एक मुकदमा प्रस्तुत हुआ है। दूसरे विश्व युद्ध के समय नाजी कन्सेंट्रेशन कैम्प में एक डॉक्टर यहूदी महिलाओं के गर्भाशय और पुरुषों के अंडकोष की शल्य क्रिया ऐसे करते थे कि वे आगे संतान को जन्म नहीं दे सकते। युद्ध के पश्चात वह डॉक्टर नए पहचान-पत्र के साथ लंदन में रहने लगता है। एक खोजी पत्रकार उसका कच्चा-चिट्ठा अपने अखबार में प्रस्तुत करता है। डॉक्टर अदालत में मान हानि का मुकदमा कायम करता है। बुद्धिमान जज यह फैसला लेता है कि पत्रकार को हर्जाना देना होगा, परंतु यह हर्जाना देना मात्र एक पेन्स है। हालांकि, उस नाजी डॉक्टर के सम्मान की कीमत एक पेन्स है।
टीनू आनंद की अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘शहंशाह’ में भरी अदालत में नायक अपराधी को फांसी पर टांग देता है। इस तरह की फिल्में यह रेखांकित करती हैं कि व्यवस्था टूट गई है। ये फिल्में व्यवस्था का मखौल उड़ाते हुए अराजकता की पैरवी भी करती हैं।
राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ का अधिकांश घटनाक्रम अदालत में घटित होता है। एक दृश्य में राज कपूर मुजरिम के कठघरे में खड़ा है। सरकारी वकील जज रघुनाथ उसे कातिल साबित करना चाहते हैं। पृथ्वीराज कपूर ने जज रघुनाथ की भूमिका अभिनीत की थी। इस तरह एक ही दृश्य में कपूर परिवार की तीन पीढ़ियों ने अभिनय किया है।
फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ से प्रेरित रमेश सहगल की फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ में कानून का छात्र इस ढंग से हत्या करता है कि पुलिस को कोई सबूत नहीं मिलता। कातिल अपने मन की अदालत में निरंतर दंडित होता है और एक दिन स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर लेता है। वर्तमान समय में अदालत एक निर्णायक प्रकरण पर फैसला देना टाल रही है। देश किस दिशा में अग्रसर होगा यह अदालत के फैसले पर निर्भर करता है। भारत महान में यह भी होता है कि फैसला टालते रहो तो मामला ठंडा होकर समाप्त हो जाता है।