फिल्मों में थप्पड़ के दृश्य / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्मों में थप्पड़ के दृश्य
प्रकाशन तिथि : 12 दिसम्बर 2019


सुभाष घई की फिल्म 'कर्मा' में दिलीप कुमार अभिनीत पात्र अनुपम खेर अभिनीत पात्र को थप्पड़ मारता है। आतंकवादी कहता है कि इस थप्पड़ की गूंज दूर तक सुनाई देगी। नूतन के पति को यह भ्रम हो गया था कि नूतन सह-कलाकार संजीव कुमार से प्रेम करती हैं। नूतन ने इस अभद्र बात को अस्वीकार किया तो उनके पति ने कहा कि अगर ऐसा है तो स्टूडियो में संजीव कुमार को थप्पड़ मार देना। हमारे यहां पत्नियों को बार-बार अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। नूतन ने संजीव कुमार को थप्पड़ मारा, परंतु संजीव कुमार ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। वे जान गए कि नूतन की क्या मजबूरी रही होगी। ज्ञातव्य है कि विवाह के पश्चात नूतन के पति ने 'सूरत और सीरत' नामक फिल्म बनाई थी। चरित्र, सूरत, शक्ल, धन-दौलत, सामाजिक हैसियत से अधिक महत्वपूर्ण है। नूतन के पति शंका करते थे और उन्हें अकारण ही गुस्सा भी आता था। कई वर्ष पश्चात घर में शॉर्ट सर्किट के कारण आग लगी और उसमें जल जाने से उनकी मृत्यु हो गई।

परिवार में बच्चे प्रश्न पूछते हैं, जिनका जवाब वयस्कों या उम्रदराज लोगों के पास नहीं होता तो वह बच्चे को थप्पड़ मार देते हैं। इस तरह थप्पड़ हमारी असमर्थता और ईमानदारी की कमी का घूंघट बन जाता है। व्यवस्थाओं के पास अवाम की रोजी-रोटी और मकान के प्रश्नों के उत्तर नहीं होते तो वे जुल्म बढ़ा देते हैं। उनका थप्पड़ मारने का तरीका अलग है। ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती, परंतु चोट करारी पड़ती है। डिवाइन जस्टिस अवधारणा शताब्दियों पूर्व ही खारिज कर दी गई है। मनुष्य ही एकमात्र कर्ता है।

महात्मा गांधी ने कहा था कि अगर कोई आपके एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल आगे कर देना चाहिए। अहिंसा के मसीहा को गोली मार दी गई। आलम यह है कि गौरी लंकेश और दाबोलकर को एक ही रिवॉल्वर से मारा गया। खोज आगे बढ़ेगी तो संभवत: ज्ञात हो कि यही वह रिवॉल्वर है, जिसे गोडसे ने इस्तेमाल किया था। 'हिस्ट्री ऑफ वायलेंस' एक हॉलीवुड फिल्म का नाम है। जिसमें एक किशोर हिंसा का उपयोग करता है और पकड़े जाने पर कहता है कि हिंसा करना उसने अपने पिता से ही सीखा है।

सलमान खान अभिनीत 'दबंग-1' में दृश्य है कि नायक ने अपने हिंसक सौतेले भाई को एक थप्पड़ मारा है। क्षमा मांगने पर मुकदमा कायम नहीं किया जाएगा। नायक क्षमा मांगता है। पुलिस चौकी से बाहर निकलते ही वह अपने सौतेले भाई को एक और थप्पड़ मारता है और पुन: क्षमा मांग लेता है। क्षमा मांगने के इस अंदाज को ही 'दबंगई' कहते हैं। कभी-कभी थप्पड़ मारना अरसे से अन्याय सहने के विरोध की अभिव्यक्ति भी होता है। कभी-कभी थप्पड़ मारना प्रेम की अभिव्यक्ति भी होता है। इस तरह थप्पड़ चुंबन का विकल्प बन जाता है। शारीरिक अंतरंगता का कार्य भी एक तरह की हिंसा ही है, परंतु यह मारक नहीं होते हुए प्रेरक होती है।

यश राज चोपड़ा की फिल्म 'लम्हे' के एक दृश्य में नायक-नायिका की बेची हुई हवेली को पुनः खरीद लेता है। वह बेचवाल को एक थप्पड़ मार चुका है। जिसके एवज में वह बाजार भाव से अधिक धन मांगता है। नायक उसे दोगुना धन देकर एक और थप्पड़ मारता है, जिसकी कीमत व अदा कर चुका है। थप्पड़ मारने पर पुरुषों का एकाधिकार नहीं है। कभी-कभी महिलाएं भी थप्पड़ मारती हैं। दो पड़ोसनों के बीच आदतन हिंसा का प्रयोग किया जाता है, परंतु जब भी उनके आसपास भीड़ होती है, तब उनका बीच-बचाव करने वाले व्यक्ति को दोनों ही थप्पड़ रसीद कर देती हैं। संभवत: आंतोन चेखव की एक कथा में एक उम्रदराज महिला अपने पति की पिटाई करती है, क्योंकि उसी दिन पति द्वारा किसी अन्य स्त्री को लिखा प्रेम पत्र उसके हाथ लग गया है। ज्ञातव्य है कि आंतोन चेखव एक डॉक्टर थे। उन्होंने एमबीबीएस पास किया था, परंतु लेखन ही उनका व्यवसाय रहा। उन्होंने कहा कि मेडिसिन उनकी विधिवत ब्याहता है, परंतु साहित्य उनकी प्रेमिका रही है। बहरहाल थप्पड़ एक अनोखी अभिव्यक्ति है। थप्पड़ मारने वाले की उंगलियों के निशान गाल पर उभर जाते हैं, परंतु यह फिंगरप्रिंट एक साक्ष्य के रूप में अदालत में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।