फिल्म 'इंडिया सॉन्ग' और शिनाख्त के सवाल / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :02 जनवरी 2018
माग्युरेट डूरासने 1975 में 'इंडिया सॉन्ग' नामक फिल्म बनाई थी, जिसका कथा चक्र भारतीय दूतावास में रहने वाली महिला के ईर्द गिर्द घूमता है। इत्तेफाक की बात यह है कि शिवम् नायर अपनी नई फिल्म लिख रहे हैं, जिसकी केन्द्रीय पात्र भारतीय दूतावास में कार्यरत स्त्री है। शिवम नायर की 'नाम शबाना' चर्चित फिल्म है और उनकी नायिका तापसी पन्नू को पुरस्कार से नवाजा गया है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय पेरिस में थ्रिलर फिल्में बनाई गईं, जो सांकेतिक ढंग से देशप्रेम का संदेश देती हैं और हिटलर मुक्त होने की कामना अभिव्यक्त करती हैं। अवाम की रुची बनाए रखने के लिए फिल्म को थ्रिलर की तरह गढ़ा गया।
उनकी एक फिल्म में भूमिगत हुए देशभक्तों को एक ट्रक में हथियार भेजे जा रहे हैं और उन्हें छुपाने के लिए ऊपर गोश्त की बोटियां भर दी हैं ताकि चेक-पोस्ट से वह निकल सकें। एक दृश्य में विपरीत दिशाओं से रहे दो ट्रक पास से गुजरते हैं और एक ट्रक में लगा हुआ हुक दूसरे के तारपोलीन में छेद बना देता है। ट्रक की गति के कारण उस छेद से गोश्त के टुकड़े नीचे गिरने लगते हैं और कुत्ते ट्रक के पीछे दौड़ते हैं। इस कारण ट्रक को रोका जाता है और भूमिगत नेताओं को भेजे जाने वाले हथियार पकड़े जाते हैं। युद्ध बहुत कुछ ध्वंस करता है परंतु अनसोचे ही अभिव्यक्ति के नए साधन भी जुट जाते हैं। युद्ध भाषा को नए मुहावरे भी देता है परंतु युद्ध की कामना नहीं की जा सकती। नेता अपने वोट बैंक के मिथ को बनाए रखने के लिए सरहदों को सुलगता हुआ रखते हैं। फिल्म यह कहती है कि औरतें और राष्ट्र संकीर्णता से मुक्त हो सकते हैं और यह कार्य बिना आंदोलन रचे भी किया जा सकता है। हर व्यक्ति केवल स्वयं को विकसित करे और स्वतंत्र विचारशैली को मांजता रहे।
'इंडिया सॉन्ग' में प्रस्तुत दूतावास से एक स्त्री की कातर ध्वनि सतत् सुनाई देती है परंतु वह स्त्री कभी नज़र नहीं आती। फिल्मकार साम्राज्यवाद के खिलाफ संदेश दे रहा है और वह अदृश्य स्त्री गुलामी की प्रतीक है। फिल्मकार ने एक और प्रयोग यह किया है कि दृश्य और ध्वनिपट्ट में साम्य नहीं है गोयाकि दृश्य कुछ कह रहा है और ध्वनिपट्ट अलग ही राग आलाप रहा है। स्पष्ट है कि गुलामी के कारण कुछ मनुष्य के कार्य और वाणी भी विभक्त हो जाते हैं। यह मनुष्य के टूटने की इंतिहा है। सारे दबाव और तनाव मनुष्य की पहचान की धुंध रचते हैं। रोहिंग्या विवाद भी लोगों को अपने निवास स्थान से हटाने से जुड़ा है। दशकों से एक जगह रहने वाले लोगों से कहा जा रहा है कि वे वह वतन छोड़ दें, जहां वे दशकों से बसे हैं। उनकी पीढ़ियां इसी स्थान पर रही हैं। तमाम व्यवस्थाएं मनुष्य को बाध्य कर रही हैं कि वह अपना परिचय फिर से खोजे। यही काम डोनाल्ड ट्रम्प कर रहे हैं और किसी अघटित कुम्भ में उनका बिछड़ा भाई भी अपने देश में यही कर रहा है। याद आता है आमिर खान अभिनीत राजकुमार हीरानी की फिल्म 'पी. के' का वह दृश्य जिसमें नायक शिशु को उठाकर कहता है कि इसके जिस्म पर लगा धर्म का ठप्पा बताओ।
फिल्म का नाम 'इंडिया सॉन्ग' है जो श्रीलंका सॉन्ग भी हो सकता था तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन कोई भी देश हो सकता था। फिल्मकार ने भारत का नाम रखा, क्योंकि साम्राज्यवाद के अधीन रहे सारे देशों में मात्र यही नाम अपने आध्यात्मिकता के आग्रह के कारण बेहतर प्रतीक लग रहा था। इसी राष्ट्र में विविध भाषाएं बोली जाती हैं, पोशाक रंगीन है और अनेक धर्मों के मानने वाले इसमें रहते हैं। यह विविधता ही एकमात्र आकर्षण था, जिसे अब सिलसिलेवार ढंग से तोड़ा जा रहा है। व्यक्ति से कहा जा रहा है कि वह आईने के सामने खड़ा होकर प्रश्न पूछे कि 'मैं कौन हूं' अगर आईना तड़क जाए या हमारी नादानी पर पशेमां हो जाए तो आप भारत महान के नागरिक हैं। धार्मिक आख्यान कहते हैं कि आत्मन: विद्धि अर्थात स्वयं को पहचानों अब किन सरहदों के भीतर रहकर खुद को जानें। अब व्यक्ति उस पासपोर्ट की तरह हो गया है, जिस पर विविध यात्रा के कारण इतने ठप्पे लग गए हैं कि उसकी पहचान ही गुम हो गई है। एक उपन्यास है बोर्न आइडेन्टिटी जिसमें मनुष्य की याददाश्त गुम है और उसकी बांह में एक नम्बर है जो स्विट्जरलैंड के बैंक का खाता है।
टीनू आनंद ने अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म 'शिनाख्त' की घोषणा की थी जो बन ही नहीं पाई। बहरहा स्विट्जरलैंड बैंक से काला धन आ रहा है और हर नागरिक के खाते में पंद्रह लाख जमा होंगे।