फिल्म आकाश में इंद्रधनुष / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्म आकाश में इंद्रधनुष
प्रकाशन तिथि : 21 अगस्त 2014


आजकल शिखर सितारे एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु नजर रहे हैं और एक-दूसरे की बॉक्स ऑफिस सफलता पर बधाई दे रहे हैं तथा आने वाले फिल्मों के प्रोमो पर कसीदे पढ़ रहे हैं। वातावरण कुछ ऐसा है कि परिंदे चहक रहे हैं, ठंडी बयार चल रही है और घनघोर आपसी प्रतिद्वंद्विता के रेंगते हुए कीड़े जाने कहां गायब हो गए हैं। फिल्म आकाश में यह इंद्रधनुष कैसे प्रगट हुआ या कहीं ऐसा तो नहीं कि यह युद्ध के पूर्व की प्रसवआसन्न शांति है। आजकल युद्ध का स्वरूप हर क्षेत्र में बदल गया है। अब देश भी सीधे युद्ध से कतराते हैं क्योंकि एकमात्र मुद्दा असीमित मुनाफा है। छापामार युद्ध महज दिमागी असंतुलन बनाने के लिए खेला जाता है। दूसरे महायुद्ध के बाद एक विशेषज्ञ वैज्ञानिक ने कहा कि वह दावे से कह सकता है कि चौथा विश्वयुद्ध नहीं होगा। उसका संकेत स्पष्ट था कि अगर तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो चौथे के लिए विश्व नहीं होगा।

अब सितारों के बीच प्रेम को लेकर प्रतिद्वंद्विता नहीं है क्योंकि सफलता प्रेम का पर्याय बन चुकी है और सेक्स तो परचून की दुकान की तरह सर्वत्र उपलब्ध है। हमारे शिखर सितारे अधिकतम विज्ञापन फिल्मों के साथ बॉक्स ऑफिस पर सबसे अधिक धन कमाने वाली फिल्मों के निर्माण योजना में संलग्न हैं और आजकल एक-दूसरे की प्रशंसा का यह कारण भी संभव है कि प्रतिद्वंद्वी की बुराई करने से उसके दर्शक वर्ग को क्यों नाराज करें। दर्शक वर्ग तो सामान ही है परन्तु "कुछ कट्टरता के खेमे" भी हैं और उन मधुमक्खियों को क्यों छेड़ें? राजनैतिक दल भी अपने वोट बैंक को सशक्त करने के लिए किस भी अन्य के खिलाफ सोची समझी "शक्ति" और "कठोरता" का प्रदर्शन करते हैं। सारे खेल बड़ी चतुराई से रचे जाते हैं। राजनीति की तर्ज पर ही सितारे कैम्प और "दर्शक बैंक' के मिथ गढ़े गए हैं। सितारों की आपसी प्रतिद्वंद्विता उनके सितारा अहंकार से अधिक उनके चमचों की नारेबाजी के कारण होती है। कई बार यह मात्र चमचों का परस्पर मुंह ही रहता है। हर क्षेत्र में बिचौलिये होते हैं। जेपी दत्ता की "बंटवारा' में एक दृश्य है कि एक बिचौलिया दूसरे से कहता है कि सामंतवाद और साम्राज्यवाद समाप्त होने के बाद आजाद भारत में हमारा सफाया हो जाएगा, तो सीनियर बिचौलिया कहता है कि बालक खामोश रह, वह हमारा स्वर्णकाल होगा। इसी तरह राजकपूर की "जिस देश में गंगा बहती है' में बुजुर्ग डाकू कहता है कि सत्ता के परिवर्तन से कुछ नहीं होता, डाकू सारी व्यवस्थाओं की आवश्यकता है।

आजकल के सितारे जानते हैं कि उनका शरीर ही उनकी दुकान है और उसे चुस्त-दुरुस्त रखना बाजार में बने रहने के लिए जरूरी है। अत: अब विगत युगों की तरह सारी रात शराबनोशी कोई नहीं करता और "मदरसाये जिम में सबक जिसे याद हुआ, उसे घुट्टी मिली' चमचे बेचारे मजबूरी में शराब से तौबा किए बैठे हैं अत: उनकी सारी ऊर्जा नकली आपातकाल रचने में है ताकि उनका महत्व बना रहे। इसी तरह आज सफलता का कीमिया जानने वाले निर्देशक स्वयं सितारे हो गए हैं और उनके मेहनताने में भी अब लाभ का प्रतिशत देना होता है गोयाकि वह दिन दूर नहीं जब निर्माता का लाभांश सबसे कम होगा। एक कोटिया में बनी फिल्म में आर्थिक उदारवाद की लहर में अपने छोटे स्वतंत्र कारोबार को बढ़ाने के लालच में विदेशी मल्टी नेशनल से जुड़ने वाला उद्योगपति अंततोगत्वा अपनी ही फैक्टरी में चौकीदार की नौकरी करने को बाध्य होता है। इसी तरह निर्माता भी बस महज चपरासी हो जाएगा। कोई अर्थशास्त्र विशेषज्ञ ही बता सकता है कि देशज पूंजी और उद्यम से देश का स्वतंत्र विकास क्यों नहीं होता और विदेशी पूंजी तथा प्रयास ही क्यों आवश्यक बना दिए गए हैं। अब स्वदेशी के आकल्पन में विदेशी रेशे अनिवार्य हो चुके हैं। बहरहाल, सितारों की सहिष्णुता में अनेक संकेत छुपे है, सिनेमा उद्योग के साथ देश के लिए भी।