फिल्म उद्योग मे धर्म निरपेक्षता / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्म उद्योग मे धर्म निरपेक्षता

प्रकाशन तिथि : 20 अगस्त 2012


बहुत पुरानी घटना है, शायद १९२४ की जब शेयर मार्केट के टाइगर चंदूलाल शाह हर शाम अपने भाई की लिखी कहानियों पर बन रही फिल्मों का काम देखते थे। धीरे-धीरे उनकी सिनेमा में रुचि बढ़ती गई। ज्ञातव्य है कि उस समय कथा फिल्मों को प्रारंभ हुए मात्र ग्यारह वर्ष हुए थे और सारी फिल्में पौराणिक कथाओं पर बनती थीं। ईद के दो महीने पहले एक प्रदर्शक ने उन्हें पेशगी रकम दी कि वे ईद के अवसर पर कोई इस्लामिक धार्मिक फिल्म बनाकर दें। चंदूलाल शाह ने 'गुण सुंदरी' नामक सामाजिक फिल्म बना दी और प्रदर्शक ने उन्हें अदालत में घसीटने की धमकी दी, परंतु दो दिन बाद ही ईद थी, अत: मजबूरी में सामाजिक फिल्म का प्रदर्शन किया और उसे भारी सफलता मिली।

फिल्म उद्योग में दीपावली पर भी इस्लामिक धार्मिक फिल्में चली हैं। शाहरुख खान अभिनीत अनेक फिल्मों को दीपावली के अवसर पर सारे देश ने सराहा है, क्रिसमस पर प्रदर्शित '३ इडियट्स' सुपरहिट हुई है। सारांश यह है कि मनोरंजन उद्योग हर कालखंड में पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष रहा है। बॉक्स ऑफिस द्वारा शासित इस उद्योग में मनुष्य की प्रतिभा देखी जाती है और जाति या धर्म नहीं पूछा जाता। राज कपूर की अधिकांश फिल्में ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी हुई हैं और मेहबूब खान ने एक गुजराती की कथा पर 'औरत' (१९४०) और उसका नया संस्करण 'मदर इंडिया' (१९५७) बनाई है। हर निर्माता चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो, शूटिंग के प्रारंभ में एक नारियल फोड़ता है।

विगत वर्ष फिल्मकार हबीब फैजल आदित्य चोपड़ा की 'इशकजादे' बनाने लखनऊ गए और चोपड़ा तथा कपूर घराने की परंपरा के मुताबिक शूटिंग के पहले एक हवन में अपने सहयोगी लेखक चतुर्वेदी के साथ पूजा में प्रमुख स्थान पर बैठे। इस धार्मिक प्रक्रिया में हबीब फैजल के धर्म से अनजान मुख्य पुरोहित ने उनके हाथ में पावन धागा बांधने के पूर्व उनसे उनका नाम, पिता का नाम और गोत्र पूछा तथा हबीब फैजल ने अपना नाम बताया तो बिना एक भी क्षण की झिझक के उन्होंने मंत्रोच्चार के साथ कुरान की एक आयत बोलते हुए उनके हाथ पर धागा बांधा तथा अगले ही क्षण वे मंत्रोच्चार में व्यस्त हो गए। हबीब यह देखकर सन्न रह गए। इस घटना ने उनकी आत्मा को हिला दिया और वे उस धागे को पूरे एक वर्ष तक बांधे रहे तथा उसके क्षीण होकर स्वत: गिर जाने तक उसका निर्वाह किया।

मनोरंजन उद्योग में गोविंद निहलानी निष्ठा के साथ 'तमस' बनाते हैं और श्याम बेनेगल उसी तरह की निष्ठा से 'मम्मो', 'सरदारी बेगम' और 'जुबैदा' बनाते हैं, जिस निष्ठा से उन्होंने 'कलयुग' या 'अंकुर' बनाई थी। बलदेवराज चोपड़ा ने 'निकाह' उसी निष्ठा से बनाई, जिस निष्ठा से 'धर्मपुत्र' बनाई थी। राज कपूर 'सत्यम शिवम सुंदरम' बनाते हैं, तो 'हिना' की परिकल्पना भी करते हैं। राही मासूम रजा 'महाभारत' के संवाद लिखते हैं और शकील बदायूनी 'मन तड़पत हरिदर्शन' की रचना करते हैं। मोहमद रफी भजन गाते हैं, दिलीप कुमार 'गोपी' और 'राम और श्याम' अभिनीत करते हैं। अशोक कुमार 'पाकीजा' में नवाब हैं, तो हेमा मालिनी 'रजिया सुल्तान' अभिनीत करती हैं।

विगत कुछ वर्षों से देश में धर्मनिरपेक्षता धीरे-धीरे खंडित हो रही है। हर शहर तथा कस्बे में अदृश्य विभाजन की सरहद बन चुकी है और एक निहायत ही गैरभारतीय बंटवारा हो चुका है। आज आर्थिक खाई से अधिक बड़ी असहिष्णुता की खाई बन चुकी है। यह आदर्श कि हम पहले भारतीय हैं या मनुष्य हैं, लगभग भंग हो चुका है। आज हम पहले अपनी जाति और क्षेत्र बताते हैं। दरअसल मनुष्यों के बीच करुणा और सौहार्द का लोप होना उसके संवेदनहीन होने का ही हिस्सा है। राजनीति के क्षेत्र में प्रतिभाहीनता देश के सांस्कृतिक शून्य का ही एक हिस्सा है।

आज देश की अखंडता बनाए रखना आम आदमी की जवाबदारी हो गई है। नेताओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता। हर नागरिक के भीतर नायक की तरह स्वतंत्र विचार शैली विकसित करने से ही देश बच सकता है।