फिल्म की अवधि और दर्शक प्रतिक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 जुलाई 2013
फिल्म मंडी में चर्चा है कि 'भाग मिल्खा भाग', 'सत्याग्रह' और 'रामलीला' लगभग तीन घंटे लंबी फिल्में हैं और मल्टीप्लैक्स के मालिकों को दो घंटे या सवा दो घंटों की फिल्में पसंद हैं, जिनके एक दिन में अनेक शो किए जाएं। जितने अधिक शो होते हैं, उतना अधिक पॉपकॉर्न बिकता है और उनका मुनाफा टिकटों की बिक्री के बराबर पॉपकॉर्न और पार्किंग से होता है। आर्थिक उदारवाद द्वारा जन्मे समाज के युवा लोगों में भी धीरज की कमी है और वे जल्दी ही बेचैन हो जाते हैं और उनके इस स्वभाव का असर फिल्म के उनके द्वारा ग्रहण किए गए प्रभाव पर भी पड़ता है। इतना ही नहीं, फिल्मकार भी यह जानते हैं, इसलिए अब प्रकृति को कैमरे में कैद नहीं करते और न ही वातावरण को स्थापित करने के लिए पैनोरमिक शॉट्स लेते हैं। हर कालखंड के दर्शक अपने फिल्मकारों को प्रभावित करते हैं, परंतु कुछ समर्पित फिल्मकार इन बातों को अनदेखा करके अपने सृजन के साथ समझौता नहीं करते।
दरअसल, फिल्म की अवधि को अधिक कहने का अर्थ यह होता है कि फिल्म उबाऊ है। राज कपूर की चार घंटे की मनोरंजक फिल्म 'संगम' को पसंद करने वालों ने उनके दार्शनिक अंदाज में बनाई चार घंटे की 'मेरा नाम जोकर' को असफल करार दिया। 'लगान' और 'गदर' अत्यंत लंबी फिल्में थीं, परंतु रोचक होने के कारण सफल रहीं। 'लगान' के निर्देशक आशुतोष गोवारीकर की शाहरुख खान अभिनीत लंबी फिल्म 'स्वदेश' नकार दी गई। अत: फिल्म की अवधि नहीं, उसकी रोचकता और समग्र प्रभाव निर्णायक तत्व हैं।
सत्यजित राय की १२ मिनट लंबी फिल्म एक पूरी प्रभावोत्पादक कथा कहती है, जिसमें आर्थिक खाई का संकेत भी है। विज्ञापन फिल्में मात्र तीस या साठ सैकंड की होती हैं, परंतु अपना प्रभाव छोड़ती हैं। इसी तरह साहित्य में भी उपन्यास या कथा के अधिक या कम पृष्ठ का महत्व नहीं वरन बात का है। कबीर के दोहे महाकाव्य का महत्व रखते हैं। गालिब का एक शेर दूसरे शायर के दीवान से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। इसी तर्ज पर जिंदगी लंबी होने से महत्वपूर्ण है सार्थक होना। यह बात ऋषिकेश मुखर्जी की 'आनंद' में बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत की गई है। उम्र का बोझ ढोने से अच्छा है कि उम्र के घोड़े पर सवारी की जाए, यह जानते हुए कि वह कहीं भी आपको फेंक सकता है।
एक जमाने में फिल्में बहुत लंबी बनाई जाती थीं और दक्षिण भारत की फिल्मों में मूल कथा के साथ हास्य अभिनेता और उसकी प्रेमिका की समानांतर कथा चलती थी। उस दौर में लोगों के पास वक्त था और छोटी फिल्म को देखकर उन्हें ठगे जाने का अहसास होता था। उस दौर में एक पात्र को होटल के कमरा नं. ३०२ में एक पार्सल देने के निर्देश पर बाकायदा उसके होटल में प्रवेश और लंबे कोरीडोर में चलने का दृश्य भी शूट किया जाता था, किंतु आज संवाद कहते ही पात्र को सीधे कमरा नं. ३०२ में प्रवेश करते दिखाया जाता है। समय और समाज के परिवर्तन फिल्म के प्रस्तुतीकरण पर असर डालते हैं।
दरअसल, फिल्म की लंबाई उसकी कथा और निर्देशक के दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। निखिल आडवाणी की 'सलाम-ए-इश्क' में छह प्रेम कहानियां थीं, जिनमें से दो को हटा देने पर फिल्म की लंबाई कम हो सकती थी और मूल फिल्म के ढांचे तथा प्रभाव पर कोई अंतर नहीं पड़ता था, परंतु वे अपनी जिद पर कायम रहे।
बिमल मित्रा का उपन्यास 'साहब बीवी और गुलाम' लगभग ७०० पृष्ठों का है और उसमें मूल कहानी के साथ उस कालखंड की राजनीति और सामाजिक समस्याओं का भी विवरण है, परंतु गुरुदत्त और अबरार अल्वी ने उसमें से केवल बीवी के पात्र की त्रासदी प्रस्तुत की, जो एक ऐसी ब्याहता की कहानी है, जिसे अपने अय्याश और शराबी पति को वेश्यालय से विमुख करके अपने पास लाने के लिए उसके कहने पर शराब पीनी पड़ती है, परंतु जब पति आहत हो उसके पास बीमार हालत में पहुंचता है तब तक वह शराब की आदी हो चुकी है। उन्होंने अपनी रुचि के अनुसार लंबे उपन्यास के सबसे मार्मिक हिस्से पर सर्वकालीन महान फिल्म गढ़ी। इसी तरह विजय आनंद ने भी आरके नारायण के उपन्यास 'गाइड' पर एक साहसी रोचक फिल्म बनाई। शैलेंद्र ने फणीश्वरनाथ 'रेणु' की तीस पृष्ठ की कहानी पर तीन घंटे की 'तीसरी कसम' बनाई और छोटी कथा की हर पंक्ति से एक दृश्य बनाया तथा तमाम गानों के मुखड़े भी मूल कथा से लिए।
हम रोजमर्रा की जिंदगी में देखते हैं कि कुछ लोग छोटी-सी बात को लंबा करके सुनाते हैं और कुछ लोग बड़ी बात भी संक्षेप में कह देते हैं। कुछ स्त्रियां 'शले' की बसंती की तरह बातूनी होती हैं, कुछ 'खामोशी' की वहीदा की तरह कम बोलती हैं। इस वाचाल युग में असल अनकहा रह जाता है, जैसे सिनेमा में फ्रेम्स के बीच कुछ अर्थ खो जाता है। हर इंसान किस्सागोई करता है और हरएक का अंदाजे बयां अलग होता है, परंतु हर व्यक्ति को यह देखना चाहिए कि उसका श्रोता ऊब तो नहीं रहा है। हम प्राय: इस मामले को अनदेखा करते हैं। व्यक्तिगत जीवन में श्रोता और सिनेमा में दर्शक की प्रक्रिया महत्वपूर्ण होती है। 'सुनो छोटी-सी गुडिय़ा की लंबी कहानी, जैसे तारों की बात सुने रात सुहानी।'