फिल्म जगत में देओल परिवार की तीसरी पीढ़ी / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्म जगत में देओल परिवार की तीसरी पीढ़ी
प्रकाशन तिथि :01 जून 2016



पंजाब के पिंड फगवाड़ा से विगत सदी के छठे दशक में युवा धर्मेंद्र फिल्म जगत में अवसर पाने के लिए आए। उनकी एकमात्र योग्यता यह थी कि वे जबर्दस्त प्रशंसक-दर्शक थे और 'आवारा' तथा 'दाग' अनेक बार देख चुके थे। आदर्शवादी पारम्परिक शिक्षक के पुत्र ने सारी फिल्में पिता को बिना बताए देखी थीं। इस 'भांडगिरी' के लिए परिवार के विरोध को सहते हुए वे मुंबई आए और फाकेमस्ती में दिन गुजारे। पंजाब में सरसों का साग, पराठे व लस्सी के आदी धर्मेंद्र को मुंबई में वडा पाव खाकर पेट की अग्नि का शमन करना पड़ा। बिमल रॉय की नूतन केंद्रित 'बंदिनी' में धर्मेंद्र को सराहा गया परंतु उनकी पहली फिल्म अर्जुन हिंगोरानी ने निर्माता बिहारी के लिए बनाई थी। फिल्म का नाम था 'दिल भी तेरा, हम भी तेरे।' इस अवसर के शुकराने के तौर पर सितारा बनने के बाद धर्मेंद्र ने कई फिल्में नाममात्र के मेहनताने पर हिंगोरानी के लिए अभिनीत की थीं।

धर्मेंद्र ने अपने सुपुत्र सनी दओल को राहुल रवैल के निर्देशन में प्रस्तुत किया फिल्म 'बेताब' में और छोटे सुपुत्र बॉबी देओल को राजकुमार संतोषी के निर्देशन में फिल्म 'बरसात' में प्रस्तुत किया। सनी देओल और बॉबी देओल के दो-दो सुपुत्र और उनमें से सनी देओल के सुपुत्र के लिए फिल्म की योजना में व्यस्त है देओल परिवार। इस तरह मनोरंजन जगत में फगवाड़ा के देओल परिवार की तीसरी पीढ़ी का प्रवेश होने जा रहा है। राजनीति में वंशवाद पर फतवा जारी करने वाले ये नहीं जानते कि समाज में सामंतवादी प्रवृत्तियों की जड़ें कितनी गहरी हैं। वंशवाद में भी केवल असाधारण प्रतिभाशाली ही चमक पाते हैं। प्रतिभा किसी की बपौती नहीं होती परंतु असली मुद्‌दा है समान रूप से अवसर उपलब्ध होने का और असमानता आधारित समाज में यह संभव नहीं हो पाता। प्रतिभा को अवसर की कमी और प्रतिभा का दोहन नहीं हो पाना हमारी सबसे बड़ी कंगाली है। सरकारी स्वांग से कुछ नहीं होने वाला है और समर्थ व्यक्ति अपने ईर्द-गिर्द किसी की मदद कर सके तो लंबे अरसे में इसके लाभ नज़र आ सकते हैं। सनी देओल अपने पुत्र की प्रथम फिल्म को स्वयं निर्देशित करने का फैसला कर चुके हैं। उन्होंने इम्तियाज अली से चर्चा की थी। इस प्रकरण में सनी देओल को यह गौर करना होगा कि 'बेताब' और 'बरसात' के प्रदर्शन को लंबा अरसा हो गया है और मनोरंजन व्यवसाय के समीकरण बदल गए हैं। 1.42 करोड़ भारतीय लोगों के विदेश में बसने के कारण विदेश क्षेत्र का व्यवसाय सारे देशी क्षेत्रों से अधिक हो गया है। फिल्म के सैटेलाइट अधिकार अब ऊंचे दामों में बिकते हैं। सारांश यह है कि भारत के बिहार व उत्तरप्रदेश जैसे विराट जनसंख्या वाले क्षेत्रों के फिल्म व्यवसाय को महत्वपूर्ण नहीं माना जा रहा है, जिसका अर्थ भारत को नकारना है। इसने डॉलर व्यवसाय बनाम रुपया व्यवसाय का द्वंद्व शुरू कर दिया है। अाप्रवासी भारतीय का द्वंद्व यह है कि वे पश्चिम की संस्कृति के सैटेलाइट को पकड़ने के प्रयास में उड़ता है परंतु कोमल पंखों के कारण धरती पर गिर पड़ता है। वह बेचारा जड़ों से दूर और उड़ने में अक्षम सांस्कृतिक शून्य में भटकता है। अब ऐसे वर्ग को अपनी फिल्मों की दिशा तय करने की जवाबदारी कैसे दी जा सकती है?

हर देश में फिल्मकार अपने देश की संस्कृति से जुड़कर और उसे प्रस्तुत करके ही विदेशों में सम्मान पा सकता है। सत्यजीत राय ने यही किया, जापान के कुरोसोवो ने भी यही किया। अनुराग कश्यप और उनके साथियों का खयाल है कि विदेशी मुहावरे में विदेशी कथाएं फिल्मानी चाहिए। इसी कारण वे फिल्मी हादसे रचते हैं। बेचारे रणबीर कपूर के साथ भी वे डब्बा बना चुके हैं। उन्हें तीनों खान भी दे दो तो वे डब्बा ही रचेंगे। इस तरह की प्रवृत्ति सिनेमा तक ही सीमित नहीं है। हमारे यहां अनगिनत शिक्षा संस्थाएं अमेरिकी पाठ्यक्रम पढ़ा रही हैं। इससे भी भयावह बात यह है कि कुछ परिवार अपनी कन्याओं को इस तरह प्रशिक्षित कर रहे हैं कि वे आप्रवासी भारतीय से विवाह कर सकें गोयाकि रुपया डॉलर की वधू बनने के लिए आतुर है। हमारे शिखर नेता भी दुनिया के हर देश की यात्रा करके वहां भारत के लिए विदेशी पूंजी निवेश मांग रहे हैं, जबकि देश में ही इतनी पूजी और प्रतिभा है कि वे सच्चा 'स्वदेश' रच सकें। सोच की यह अपंगता ही हमें खोखला बना रही है। जिस प्रवृत्ति से प्रेरित होकर आप्रवासी की दुल्हन बनने की विधिवत शिक्षा दी जा रही है, उसी तरंग से इन डॉलर व्यक्तियों की पसंद की फिल्में बनाने के फूहड़ प्रयास किए जा रहे हैं। इसी प्रवृत्ति ने ऐसे नेता भी चुने हैं, जिन्हें भारत के इतिहास व संस्कृति का कोई ज्ञान ही नहीं है। वे भारत को सिंगापुर की तरह बनाना चाहते हैं। उन्हें ज्ञात ही नहीं कि सिंगापुर और हॉन्गकॉन्ग मात्र बाजार हैं, जहां चीन अपने माल को अमेरिका से कम मूल्य में बेचता है और पर्यटकों की अय्याशी के कारण वहां की तवायफें खूब बड़ी राशि सरकार को टैक्स के रूप में देती है। वहां के नारी बूचड़खाने वैध व्यवसाय हैं।