फिल्म निर्माण : सोने से गढ़ावन महंगी? / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्म निर्माण : सोने से गढ़ावन महंगी?
प्रकाशन तिथि :28 जुलाई 2016



इरफान खान ने अपना मेहनताना बढ़ा दिया है। कलाकार चर्चित और सफल होते ही अपना मेहनताना बढ़ा देते हैं परंतु किसी फिल्म की असफलता पर मेहनताना घटाते नहीं हैं। ठीक इसी तरह वस्तुओं के दाम बढ़ने के बाद घटाए नहीं जाते। एक सरकार महंगाई के कारण गिरी और इसी मुद्‌दे पर चुनाव जीतकर सत्ता में आए दल ने भी महंगाई पर अंकुश नहीं लगाया। क्या किसी एक राजनीतिक दल जैसी ही विफलताएं पाने वाली दूसरी सरकार से अवाम नाराज नहीं होता? क्या जनता के आक्रोश पर भी राजनीति के रंग चढ़ गए हैं। याद आता है, 'तनु वेड्स मनु' का गीत 'खाकर अफीम रंगरेज पूछे रंग का कारोबार क्या है और किस रंग को पानी में मिलाया कौन-सा रंग है।' क्या हमारी आम जनता अफीम खाए रंगरेजों के द्वारा ही शासित होने को अभिशप्त है? संभवत: महंगाई को हमने आत्मसात कर लिया है और महंगाई भाग्य की ऐसी रेखा बन गई है, जिसे बनाने वाला भी मिटा नहीं पाता और वह और अधिक लंबी रेखा खींचकर ही अपनी पहले बनाई रेखा को छोटा बना देता है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 1991 में किए गए आर्थिक उदारवाद की गंगोत्री से आए जल को ही वर्तमान सरकार अपनी मौलिक खोज बता रही है और मीडिया में यह तुर्रा बो दिया गया था कि मनमोहन सिंह हमेशा खामोश रहते थे और आज उनकी खामोशी को ही पुन: अति वाचालता द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है। हमारा अवाम खोखली नारेबाजी खाता है, उसे ही बिछाकर सो जाता है और सपने भी उसी के देखता है। इस तरह सपने भी चोरी होते हैं और इस चोरी के खिलाफ कोई कॉपीराइट एक्ट काम नहीं करता। नोलन की फिल्म 'प्रेस्टीज' सपनों की चोरी पर ही केंद्रित थी।

फिल्म उद्योग का नियम था कि फिल्म के बजट का 25 प्रतिशत कलाकारों का मेहनताना होता था तथा 75 फीसदी बजट राशि फिल्म निर्माण में लगाई जाती थी। आज कलाकारों का मेहनताना बजट का बड़ा भाग है और बची हुई कम राशि निर्माण पर लगती है। अत: फिल्म निर्माण नामक साध्य के साधन थे कलाकार और आज साधन ही साध्य हो गया है, तो हम किस गुणवत्ता की आशा करते हैं।

वर्तमान में चुनिंदा सफल सितारे अपने मेहनताने के रूप में मुनाफे का 40 फीसदी मांगते हैं परंतु घाटा होेने की दशा में उसे वहन करना उनका दायित्व नहीं है। लाभ सितारे का, हानि निर्माता का सिरदर्द। 'प्रेमरोग' के निर्माण के समय अमरीश पुरी ने अपना मेहनताना राज कपूर के लिए कम किया तो भी वह पांच लाख रुपए होता था। अत: राज कपूर ने उस भूमिका के लिए अभिनय क्षेत्र से गायब हुए रजा मुराद को लिया और फिल्म की सफलता ने रजा मुराद को लंबी पारी खेलने का अवसर दे दिया। इसी तरह स्वयं गुरुदत्त ने कई भूमिकाएं स्वयं ही अभिनीत कीं। उस दौर के फिल्मकार सितारों की बैसाखी के बिना ही चलते थे। आज अपना काम जानने वाला फिल्मकार सितारों का मोहताज है, क्योंकि पूंजी निवेशक यही चाहते हैं और इस रोग की जड़ में दर्शक का सितारोन्मुखी होना है। इस विचारधारा की गंगोत्री हमारी अवतार अवधारणा है या कहें कि उसका अर्थ ही गलत निकाला गया है। मनुष्य के सारे संघर्ष मनुष्य को ही लड़ना पड़ते हैं। कुरुक्षेत्र में भी श्रीकृष्ण सारथी थे और शस्त्र अर्जुन ने ही चलाए थे। हमारे सामूहिक अवचेतन में सही बात की गलत व्याख्याएं गहरी पैठी हुई हैं। हमारे आख्यानों में किसी आदर्श को स्थापित करने के लिए उसे मनोरंजक कथाओं से जोड़ा गया है परंतु हम तो कथा की रोचकता में रमते हुए आदर्श को ही अनदेखा कर देते हैं। इस क्षेत्र में भी हमने साधन को साध्य मान लिया है।

इसी तरह सितारों के मेहनताने निरंतर बढ़ते रहते हैं और निर्माता उसे स्वीकार कर लेते हैं। निर्माण पक्ष गौण हो जाता है। यह सच है कि सितारे का जादू प्रदर्शन के पहले तीन दिन दर्शक जुटाता है परंतु चौथे दिन से तो फिल्म का समग्र प्रभाव ही निर्णायक सिद्ध होता है। इसी तरह नारेबाजी से चुनाव जीतना और सरकार चलाना दो अलग-अलग बातें हैं। हमारी जीवन शैली में भी हम अनावश्यक वस्तुओं की खरीदी में अधिक व्यय करने लगे हैं और बाजार ने ही यह बात हमारे अवचेतन में चस्पा कर दी है, क्योंकि इन्हीं वस्तुओं के बेचने में उन्हें मुनाफा अधिक होता है। आज हमारा अवाम भी अफीम खाए रंगरेज की तरह पूछता है कि रंग क कारोबार क्या है?