फिल्म माध्यम का साधारणीकरण / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्म माध्यम का साधारणीकरण

प्रकाशन तिथि : 07 फरवरी 2011

द वीक नामक पत्रिका में एन भानुतेज के लेख से जानकारी प्राप्त हुई है कि मंगलौर में जन्मी पवित्राचालम ने चेन्नई के पत्रकारिता संस्थान से प्रशिक्षण लेने और न्यूयॉर्क की फिल्म अकादमी से ज्ञान प्राप्त करने के बाद सामाजिक प्रतिबद्धता वाले कुछ वृत्तचित्र और लघु फिल्में बनाई हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय समारोहों में सराहा गया है। हालांकि भारत में इनका व्यापक प्रदर्शन नहीं हो पाया क्योंकि प्राइवेट चैनलों की उदासीनता और फिल्म प्रदर्शन की दुरूह प्रणाली के तहत इस तरह के प्रयोग संभव नहीं हैं। सिनेमाघरों के लायसेंस के नवीनीकरण के समय वृत्तचित्र दिखाने का वादा किया जाता है और पहले ये दिखाए भी जाते थे, परंतु अब वृत्तचित्र प्रदर्शन के लिए निर्धारित राशि जमा करने के बाद उनको कानूनी तौर पर दिखाना आवश्यक नहीं रह गया है।

इस प्रकरण से एक महत्वपूर्ण बात यह सामने आती है कि पत्रकारिता और फिल्मांकन विधाओं के ज्ञान का उपयोग करके सार्थक लघु फिल्में और वृत्तचित्र बनाए जा सकते हैं, जिनके द्वारा समाज पर प्रभाव भी पैदा किया जा सकता है। दरअसल सिनेमा विधा बॉक्स ऑफिस के परे भी जाती है और व्यावसायिकता के दायरे को तोड़कर नए विचारों को इस माध्यम के द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है। मसलन न्यूयॉर्क में पवित्राचालम को एक मंदिर में एक कमसिन कन्या को जबरन देवदासी बनाए जाने की जानकारी प्राप्त हुई और उन्होंने इस विषय पर 'अनामिका' नामक लघु फिल्म बनाई, जिसके कारण इस कुप्रथा पर रोक लग गई। ज्ञातव्य है कि इसी विषय पर दशकों पूर्व पदमिनी कोल्हापुरे को लेकर 'गहराई' नामक एक कथा फिल्म बनाई गई थी। उस समय पदमिनी मिनी चौदह वर्ष की थीं। संभवत: अरुणा राजे और उनके तत्कालीन पति विकास ने यह फिल्म बनाई थी।

इस समय भारत पूरी तरह फिल्म प्रधान देश बन गया है और अनेक युवा फिल्म माध्यम को समझे बिना ही न केवल उससे प्रेम करने लगे हैं, वरन उन्होंने अनेक सपने भी संजोए हैं। भारत में फिल्म विधा को सिखाने वाली संस्थाओं की कमी है और प्राय: अधिकांश तथाकथित संस्थाओं के पास प्रशिक्षित पढ़ाने वाले नहीं हैं। यह व्यवसाय पनप रहा है और बहुत भ्रामक है। कुछ महानगरों में इस तरह की संस्थाओं में प्रतिवर्ष का शिक्षण शुल्क छह लाख रुपए तक है और अमूमन सारे खर्च मिलाकर दस लाख रुपए तक खर्च हो सकते हैं। सबसे भयावह बात यह है कि इस विधा में ज्ञानार्जन के बाद भी अवसर मिलने की आशा कम ही होती है।

इन विपरीत परिस्थितियों में भी कुछ शहरों में फिल्मों के घरेलू उत्पादन होते हैं। जैसे केरल में नए कलाकार और तकनीशियन लेकर तीन लाख की लागत से कथा फिल्म बनाई जाती है और घर-घर वीडियो द्वारा प्रदर्शित करके लगभग पांच लाख रुपए अर्जित हो जाते हैं। मालेगांव के लोगों ने इस क्षेत्र में काफी काम किया है। इस तरह की फिल्में लोकल वीडियो चैनल पर भी प्रदर्शित हो सकती हैं। अत: फिल्मों को लघु उद्योग के स्तर पर भी पनपाया जा सकता है। छोटे शहरों और कस्बों में फिल्म के दीवाने एकजुट होकर आपसी सहयोग की भावना के तहत काम कर सकते हैं और इस प्रक्रिया में कोई गुणवत्ता वाली रचना जानकारों को दिखाकर उसी रचना को बड़े पैमाने पर बनाने के लिए पूंजी भी जुटाई जा सकती है। कुछ वर्ष पूर्व विदर्भ के किसानों की दारुण दशा पर बैलों को केंद्र में रखकर एक फिल्म बनाई गई थी, जिसे मुंबई के मामी फिल्म समारोह में दिखाया गया और इसका व्यापक प्रदर्शन भी संभव हो सका। इस तरह एक लोकप्रिय और प्रभावी माध्यम का जनसाधारणीकरण भी किया जा सकता है।

अनेक उत्साही युवा अपनी कहानियां निर्माताओं तक भेजना चाहते हैं, परंतु फिल्म उद्योग की कार्य प्रणाली कुछ ऐसी है कि उसके लौह कपाट नई प्रतिभा के लिए बंद कर दिए जाते हैं। ऐसे उत्साही युवा लोगों को अपनी कहानी अखबार में प्रकाशित करानी चाहिए जिससे कॉपीराइट भी हो सकता है और गुणवत्ता होने पर अवसर भी बन सकते हैं। फिल्म उद्योग के मौजूदा आर्थिक समीकरण में नई प्रतिभा के लिए अवसर कम हैं, परंतु संकरी और पतली गलियों के माध्यम से भी व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त कर सकता है। भारत के महान फिल्कार सत्यजीत रे कभी किसी फिल्म प्रशिक्षण संस्थान में नहीं गए और न ही उन्होंने किसी के सहायक के रूप में काम किया, परंतु अपनी प्रतिभा और साहस के दम पर उन्होंने 'पाथेर पांचाली' नामक अमर रचना बनाई। आज भी फिल्म उद्योग में कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने कभी सहायक निर्देशक के रूप में काम नहीं किया, परंतु उन्हें अवसर मिल गए। जैसे रामगोपाल वर्मा वीडियो लाइब्रेरी संचालित करते थे और बार-बार फिल्म देखकर उन्होंने एक पटकथा लिखी, जिसे निर्माता ने पसंद किया और उन्हें फिल्म बनाने का अवसर दिया। अगर किसी युवा को अपनी प्रतिभा पर यकीन है और उसके हृदय में फिल्म बनाने के लिए जुनून है, तब उसे शादियों की रिकॉर्र्डिंग में प्रयुक्त सस्ते कैमरे से फिल्म बनानी चाहिए। दरअसल भारत में इस लोकप्रिय माध्यम जिसका आधार अधिकतम दर्शक हैं, उसमें देश की लघुतम प्रतिभा ही अवसर पा रही है। इस माध्यम में आम व्यक्ति की सक्रियता कुछ विरल प्रतिभाओं को सामने ला सकती है।