फिल्म में पार्श्व संगीत का महत्व / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
फिल्म में पार्श्व संगीत का महत्व
प्रकाशन तिथि :07 अक्तूबर 2017


पार्श्व संगीत परदे पर प्रस्तुत भावनाओं को धार देता है। पार्श्व संगीत की रचना गीतों की रचना से कहीं अधिक कठिन काम है। फिल्मकार अपने दृश्य की भावना को सविस्तार बताता है तब संगीतकार रचना करता है। इस रचना प्रक्रिया में संगीतकार स्टॉप-वॉच का इस्तेमाल करके अवधि को ध्यान में रखता है। एक ही दृश्य में अनेक भावनाएं अभिव्यक्त होती हैं तो पार्श्व संगीत भी इन भावनाओं के अनुरूप उतार-चढ़ाव में ढला होता है। कोई दृश्य हास्य से प्रारंभ होकर करुणा तक जाता है तो पार्श्व संगीत में भी बदलाव आता है। इस रचना प्रक्रिया में ऐसा भी होता है कि ताबूत के अनुरूप मुर्दा शरीर में कांट-छांट करनी पड़ती है।

ध्वनि मुद्रण कक्ष में सिनेमा का परदा होता है और जिस पर दृश्य प्रस्तुत होता है और संगीतकार पार्श्व संगीत की रचना करता है। यह जटिल प्रक्रिया है। यह एक मजेदार इत्तेफाक है कि फिल्म में ध्वनि के आने के पहले पार्श्व संगीत इस तरह आया कि मूक फिल्मों के दौर में परदे के आगे नीचे फर्श पर कुछ लोग बैठकर दृश्य के अनुरूप इन्स्टेंट संगीत रचना करते थे। इस व्यवस्था में हारमोनियम वादक ही संगीतकार बन जाता था। 1928 में अमेरिका में ध्वनि का फिल्म में समावेश हुआ और भारत में पहली बोलती हुई फिल्म 'आलमआरा' 1931 में बनी। इसके साथ ही फिल्मों में संवाद अदायगी शुरू हुई।

जोरदार आवाज के धनी सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर ने सितारा हैसियत प्राप्त की। कई दशक बाद राजकुमार चबाने की अदा में संवाद बोलकर बहुत लोकप्रिय हुए। दूसरी ओर दिलीप कुमार ने रुक-रुक कर अत्यंत धीमी आवाज में संवाद अदा करने को लोकप्रिय बना दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू अंग्रेजी में विचार करते थे और उसके हिन्दुस्तानी अनुवाद को प्रस्तुत करने में पॉज लेते थे। इसी के प्रभाव में दिलीप कुमार ने अपनी संवाद अदायगी को ढाला। यह सब जानकर किया गया या स्वत: हुआ, यह बताना कठिन है परंतु यह गर्व की बात है कि एक दौर में राजनेता का अनुकरण अभिनेता करता था। फिर वह दौर भी आया कि राजनेता किसी अभिनेता का अनुसरण कर रहा है। हमारे लालू यादव पर 'शोले' के गब्बर का प्रभाव ध्वनित होता है। मौजूदा हुक्मरान पर अभिनेता परेश रावल का प्रभाव दिखता है। यह भी कहा जाता है कि अपने प्रारंभिक दौर में हुक्मरान को भाषण देने की कला परेश रावल सिखाते थे। संभवत: इसी कार्य के इनाम स्वरूप उन्हें गुजरात की एक सीट मिली और वे सांसद बने। परेश रावल हरफनमौला अदाकार हैं। उन्होंने चरित्र भूमिकाएं, हास्य भूमिकाएं, खलनायक इत्यादि विविध भूमिकाओं का निर्वाह किया है। वे रंगमंच पर नसीरुद्‌दीन शाह के साथ अभिनय कर चुके हैं।

संगीतकार (शंकर) जयकिशन, (लक्ष्मी) प्यारेलाल, (कल्याणजी) आनंदजी और वनराज भाटिया (श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्में) पार्श्व संगीत रचने में प्रवीण माने गए हैं। राजकपूर की 'मेरा नाम जोकर' के पार्श्व संगीत का लॉन्ग प्लेइंग रिकॉर्ड बाजार में जारी हुआ था। कुछ वर्ष पूर्व एचएमवी के दफ्तर में जाकर इसकी मांग की गई, तो उन्होंने इस तरह के लॉन्ग प्ले रिकॉर्ड जारी करने के तथ्य को ही झुठला दिया। यह काम कुछ सरकारी दफ्तरों के रवैये की तरह रहा।

ज्ञातव्य है कि चार घंटे की 'जोकर' का पार्श्व संगीत जयकिशन ने मात्र चार दिन में ही रिकॉर्ड कर लिया था परंतु इसके पीछे का रहस्य यह है कि राजकपूर के पुणे के निकट ग्राम लोनी में बने फार्महाउस में एक लघु सिनेमाघर बनाया गया था, जहां जयकिशन और राजकपूर ने चार माह तक संगीत रचना करके नोटेशन्स बनाए थे। सारी तैयारी के बाद मुंबई के कक्ष में संगीत रिकॉर्ड किया गया। पुरानी फिल्मों के पार्श्व संगीत को सहेजकर रखने वाले कुछ लोग आज फिल्मों और टेलीविजन तमाशे का पार्श्व संगीत रचते हैं। यह एक व्यवस्थित उद्योग का रूप ले चुका है और इसे स्टॉक संगीत कहा जाता है। जावेद अख्तर के प्रयास से गीत का कॉपीराइट एक्ट आ गया है परंतु पार्श्व संगीत की चोरी आज भी धड़ल्ले से हो रही है। 'भाभीजी घर पर हैं' नामक मजेदार हास्य सिटकॉम में राजकपूर और लक्ष्मी-प्यारे की फिल्म 'प्रेम रोग' के अंश साफ सुने जा सकते हैं।

भारत में वर्तमान सरकार भी पुरानी सरकार के विचारों को शब्दों के हेरफेर से अपनामौलिक बता रही है। अत: वैचारिक चोरी भारत महान में कोई अपराध नहीं है। चोरी के राष्ट्रीयकरण का दौर चल रहा है।