फिसलन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
शाम का धुंधलका। सड़क के निकट पड़ा कोई शराबी लड़खड़ाती आवाज़ में बड़बड़ा रहा था–"मेरा...चारों तरफ नाम हो गया। अब मेरे आगे...कोई नहीं टिक सकता।" बस्ती के बच्चे उसके ऊपर ढेले फेंक–फेंककर तालियाँ बजा रहे थे। रेाज यहाँ यही तमाशा रहता है।
मैं भी कौतूहलवश वहाँ जाकर रुक गया। शराबी का चेहरा मिट्टी से सना था। मुझे वहाँ ठिठके देखकर घीसा काका बोले–"जावो बाबूजी! कहे को हियाँ खड़े मन मैला कर रहे हो। हियाँ तो रोज जेही लफड़ा रहता है। बस्ती वालों ने इसे ठोक–पीटकर हियाँ पटक दिया। पीके लौंडिया छेड़ रिहा था।"
मैं शराबबन्दी पर दिए गए महेश के आज के भाषण के बारे में सोच रहा था। यह शराबी उनका भाषण सुने तो शराब को कभी हाथ न लगाए. भगवान ने जैसे जिा पर सरस्वती बिठा दी हो।
मैंने उसको झकझोरा–"कौन है बे! उठ। चल यहाँ से। कोई ट्रक कुचल देगा।" दुर्गन्ध का एक भभका मेरे मन में मितली भर गया।
नजदीक से देखकर मैं चौंका। वह शराबी महेश था।