फुदक-फुदक कर चल रही गिलहरियां / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 07 जुलाई 2020
कमलेश्वर के उपन्यास से प्रेरित गुलजार की संजीव कुमार व सुचित्रा सेन अभिनीत फिल्म ‘आंधी’ में नायिका हेलिकॉप्टर द्वारा अपने चुनाव क्षेत्र में पहुंचती है। चुनावी मौसम में ये नए मशीनी परिंदे आकाश में मंडराते हैं। असली परिंदों को हैरानी होती है कि इतना शोर मचाने वाले ये परिंदे क्या आग खाकर धुंआ उगलते हैं? प्रकृति ने पक्षियों को दो पंख दिए, परंतु मशीनी परिंदे के चार पंख होते हैं। अल्फ्रेड हिचकाक की ‘बर्ड्स’ नामक फिल्म 1963 में प्रदर्शित हुई थी। दो शहरी शोहदे मजाक में मशीनी परिंदे में उड़ते हैं। प्रकृति के आहत पक्षी उन पर आक्रमण करते हैं। गुलजार की फिल्म में एक व्यंग्य गीत है- ‘आली जनाब आए हैं, पांच सालों का देने हिसाब आए हैं।’
वर्तमान में खयाली पुलाव खाया हुआ आदमी हिसाब नहीं मांगता वरना उसे अधिक खयाली पुलाव खाने की डकार आती है। वे माल डकार रहे हैं, आवाम डकार ले रहा है। भूख से उतने लोग नहीं मरते जितने अधिक खाने से मरते हैं। सत्यजीत रे ने अकाल केंद्रित अपनी फिल्म अकालेरे अशनि संकेत-1973 में रेखांकित किया कि बंगाल का अकाल लालचियों ने रचा था। हरियाली से भरी-पूरी लोकेशन चुनकर उन्होंने अभिव्यक्ति की थी। शुजीत सरकार की फिल्म ‘पिंक’ में जज का नाम सत्यजीत है। यूं नई पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी को अपना हिसाब प्रस्तुत कर रही है। कस्बों के लोग हेलिकॉप्टर देखने जुटते हैं। उनके लिए यह एक अजूबा है। पूरे विश्व में पेट्रोल का स्टॉक सीमित है। ऊर्जा के पर्याय खोजे जा रहे हैं। वर्तमान में तो हवा भी हुक्मरान के अधीन हैं। सौर्य ऊर्जा में भारत धनाड्य है, परंतु इसके लिए प्रयास नहीं हुए, क्योंकि सारी ऊर्जा चुनावी हवा संचालन में खर्च हो रही है। आवाम को चिंता नहीं है कि यह निवेश क्या हानि देगा? क्या वर्तमान पीढ़ी भावी पीढ़ियों को गिरवी रख सकती है? एक समय गुलामी पीढ़ी दर पीढ़ी जारी रहती थी। फिल्म ‘गॉडफादर’ में संगठित अपराध जगत की एक बहु अपना गर्भपात कराना चाहती है, क्योंकि वह जानती है कि शिशु भी आगे अपराध ही करेगा। प्रकाश झा की ‘दामुल’, ‘मृत्युदंड’ व ‘अपहरण’ राजनैतिक फिल्में मानी जाती हं, परंतु उनकी रणबीर कपूर और कटरीना कैफ अभिनीत फिल्म ‘राजनीति’ तो ‘गॉडफादर’ का ही चरबा बनी जबकि प्रदर्शन पूर्व प्रचार भ्रामक रहा। इस हादसे के बाद वे अपने शिष्यों को आशीर्वाद देते हैं और उनकी फिल्मों में अभिनय करते हैं, जैसे हमने ‘सांड की आंख’ में देखा। यह बताना कठिन है कि बार-बार होते महंगे चुनावो में कितनी ऊर्जा अपव्यय होती है?ये प्रदूषण बढ़ा रहे हैं। भाषणों से हवा विषाक्त हो रही है, प्रचार में कागज नष्ट होता है। चुनाव गणतंत्र मशीन के सुचारू संचालन में तेल का काम करता है। इस प्रक्रिया को सस्ता-सहज करना चाहिए। नेता अवाम पर विश्वास करें और अवाम मायथोलॉजी के अष्टपद से मुक्ति का प्रयास करे। दोनों काम कठिन हैं, परंतु मनुष्य सदा समस्याओं के हल खोजता रहता है। हमारे गणतंत्र मॉडल का निर्यात नहीं हो सकता। वाकई यह हमारी मौलिक रचना है। यह लैटिन अमेरिका के बनाना मॉडल से अलग है। अजीब है कि बनाना अर्थात केले के नाम से एक व्यवस्था परिभाषित होती है, आशय संभवत: केले के छिलके पर पैर फिसल जाने से है। फिल्म ‘श्री-420’ का संवाद है कि ‘दूसरों को फिसल कर गिरते हुए देखने पर सब हंसते हैं परंतु ये ही लोग जब स्वयं फिसलते हैं, तो हंसना भूल जाते हैं।’ अगर फलों के नाम से गणतंत्र मॉडल को पुकारना है, तो क्या हमारे गणतंत्र मॉडल को खट्टे अंगूर कहा जा सकता है?
बहरहाल कोविड समय में परिंदों ने भी अपनी उड़ान सीमित कर दी थी आकाश में मुनादी थी कि संक्रमित मुर्दों के मांस से दूर रहें। लॉकडाउन अंतरिक्ष तक लगाया गया परंतु ऐसे में भी किसी ने उड़ान भरी। सारी जांच-पड़ताल का नतीजा आएगा निल बटे सन्नाटा। सभी समान हैं परंतु कुछ को अधिक अधिकार प्राप्त हैं। आवारा बादल भी जानता है कि किस घर को बचाना है और कहां बरसना है।