फुर्सत / मो. आरिफ
दिल ढूँढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन।
बैठे रहे तसव्वुरे-जानाँ किए हुए
- गालिब
पिछले छह दिन काफी व्यस्त गुजरे थे। काफी दबावभरे और भारी। इसके पहले वाले छह दिन भी कुछ कम कहाँ रहे थे। उसके पहले वाला हफ्ता शायद अच्छा गया था। ऑफिस से लेकर घर तक ऊपर वाले की कृपा रही थी। महीने में चार हफ्ते होते हैं तो एकाध हफ्ता ठीक-ठाक भी मिल जाता था। याद नहीं है कब से ये हफ्तेवार जिंदगी जी रहा हूँ। जब हफ्तों में नहीं बँटा था तो तरसता था। वक्त इफरात था तो पढ़ने-घूमने-खेलने में मन नहीं रमता था। किसी तरह कहीं हाथ-पैर से लग जाएँ, हर वक्त यही सोचा करते थे। नौकरी से लगे तो धीरे-धीरे सारी किल्लतें और जिल्लतें खत्म हो गयीं पर किसी बड़ी ही खूबसूरत और कीमती चीज से महरूम भी होने लगे - बूँद-बूदँ।
कब दोपहर के खाने की आदत छूटी, कब समोसे और चाय पर गुजारा करने लगे, कब शर्माजी, पाठकजी, यादवजी और मि. खान की चौकड़ी में जा फँसे, कब बाल सफेद हो गये, दाढ़ी पक गयी, कब श्रीमतीजी ने बच्चों को होमवर्क पूरा कराते-कराते स्कूल से कॉलेज पहुँचा दिया, पता ही नहीं चला। यहाँ तक कि एक-एक कर सारे दोस्त स्मृतियों में समा गये, सगे-संबंधियों के चेहरे बस याद रहे। दूर के रिश्तेदारों के तो नाम तक भूल गये। शादी-ब्याहों में जाना कम हो गया। फिर बंद हो गया। वक्त की तंगी इतनी बढ़ती गयी कि चिट्ठी-पत्री बीते दिनों की बात हो गयी।
नहीं पता चलता कब बेदी, चंद्रशेखर, प्रसन्ना और गावस्कर मेरी दुनिया से विदा हो गये, कब राजेश खन्ना और मुमताज का जमाना गया, नहीं मालूम रफी साहब और मुकेश की जगह किसने ली, रेडियो सीलोन और विविध भारती कहाँ गुम हो गये, 'धर्मयुग' और 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' का क्या हुआ।
पिछले छह दिन काफी व्यस्त गये थे। उसके बाद जो छुट्टी मिली - यानी कल का संडे बड़ा मजे का गुजरा। दिन भर सोते पड़े रहे। शाम को शर्माजी के यहाँ गये। देर रात लौटे। पर बिस्तर में जाने से पहले दबाव फिर बढ़ने लगा। बहरहाल सो गये। सुबह जल्दी उठना था। ऑफिस की महत्वपूर्ण चाभियाँ मेरे ही पास थीं। नौ पैतालीस तक पहुँच जाना था।
स्कूटर पर पोंछा मारकर स्टार्ट करने ही वाले थे कि बेगम चिल्लायी फोन है। शर्मा था। सलाम-दुआ के बाद फिर वही फुलझड़ी - मालती तिवारी कब आ रही हैं छुट्टी से?
मैंने कहा कि काम की बात करो शर्मा, बस ऑफिस के लिए निकल रहा हूँ। आना नहीं है क्या? शर्मा बोला - भैया, वही तो बता रहा हूँ। तिवारिन को फोन कर दीजिए कि एक दिन और रुक जाएँ पतिदेव के पास।
“क्यों, इसमें फोन क्या करना, तिवारीजी एक दिन एक्सट्रा तो रोक ही लेते हैं।”
“नहीं, नहीं भैया, कहिए सी.एल. नहीं लेना पड़ेगा। फ्री में एक दिन और तिवारीजी की सेवा कर दें। हम लोग उनके बिना एक दिन काट लेंगे किसी तरह।”
“क्या बात है शर्मा, सुबह नौ और दस के बीच इतने मूड में कभी नहीं लगे। भाभी बाथरूम में हैं क्या?”
“अरे गुरुजी, आज तो दिन भर नहाऊँगा। आप भी कपड़ा उतारकर नहाइए। बच्चे स्कूल गये या नहीं?”
“बच्चे तो स्कूल चले गये, पर बात क्या है शर्माजी। काहे इतना कुड़कुड़ा रहे हो? सासजी वापस चली गयीं क्या?”
“बुढ़िया अभी नही जाएगी, घर मैं दस मिनट के लिए ऑफिस जा रहा हूँ। सुखलाल जी के लिए दो मिनट का मौन धारण करके वापस आ जाऊँगा। उसके बाद भैया तेल लगाकर धूप में सोना है।”
“सुखलाल गया क्या? कब?”
सुखलाल की मौत का सुनकर बहुत ज्यादा धक्का नहीं लगा मुझे। बुड्ढा काफी दिनों से बीमार था। कई बीमारियों से एक साथ लड़ रहा था। काम तो उसका हम सभी को पानी पिलाने का था, पर बंदा अपने पंडित होने से इतना आतंकित था कि गिलास पकड़ने मात्र से उसका हाथ काँपता था। विशेषकर पासवानजी को पानी देना होता तो गिलास में उँगली डालकर ही ले जाता।
बहरहाल मुझे उसके चले जाने का कुछ अफसोस तो हुआ पर मैंने कंडोलेंस मीटिंग न अटेंड करने का फैसला किया। अगर छुट्टी मिली है तो उसमें मिलावट क्यों करो! वैसे मंडे को ऑफिस जाना किसी और दिन से ज्यादा ही कष्टकारी होता है। संडे के बाद मंडे की छुट्टी! वह भी अचानक और बैठे-बिठाये! पूरी की पूरी कैश करूँगा। शर्मा से बोल दिया कि तबीयत ठीक नहीं लग रही है, सँभाल लेना। लगा जैसे कई मन का बोझ सिर से उतर गया हो।
मैंने स्कूटर अंदर किया, कपड़े बदले और सोचने लगा अब क्या करूँ। श्रीमतीजी से पूछा कि क्या करूँ तो उन्होंने हँसते हुए गंदे कपड़े धो डालने का न्यौता दे डाला। मैं समझ गया मेरे अचानक रुक जाने से इनके किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम में अड़चन आयी है। आखिर छुट्टी का मजा क्या जानें ये। ऑफिस में काम करती होतीं तो एहसास होता कि आसमान से उतरी इस प्रकार की छुट्टी क्या होती है।
मुझे लगा कुर्ते-पायजामे में कुछ फॉर्मल लग रहा हूँ... जैसे संडे की छुट्टी हो। मैंने कुर्ता उतार दिया। और खाली पैजामे में गुनगुनाते हुए नंगे पैर इधर-उधर डोलने लगा। श्रीमतीजी दाल बीन रही थीं... शायद लंच में पकाने के लिए। हर मंडे को साढ़े दस बजे तुम यही करती हो क्या? मैंने किचन टेबल पर बैठते हुए कहा।
श्रीमतीजी समझ गयीं मेरी बात में कोई दम नहीं है। मेरी तरफ घूरकर फिर अपना काम करने लगीं। मैंने दाल के दो-चार दाने मुँह में डाले और बॉक्सरूम की तरफ बढ़ गया। अरहर की कच्ची दाल का स्वाद कुछ अच्छा नहीं लगा। कुछ देर इधर-उधर करने के बाद मैं फिर श्रीमतीजी के पास आ पहुँचा।
“मुँह जाने कैसा हो गया! तुम चने की दाल क्यों नहीं पकातीं? और क्या-क्या है आज?”
वे चुप रहीं।
“अच्छा, चने की दाल में बथुआ का साग डालकर क्यों नहीं बनातीं? अम्मा बनाती थीं।”
उन्होंने मुझे फिर घूरा और दाल की थाली एक तरफ सरका के आलू छाँटने लगीं। मैं एक बार फिर से बॉक्सरूम की ओर चला गया। मुझे कुछ खटक रहा था - जाने क्यों कुछ बेकार की चीजें पड़ी हुई हैं। बॉक्सरूम में कब से। कितनी साँसत है इस कमरे में। ये अनीता भी...। मैं फिर से किचन में पहुँच गया।
“सोचता हूँ बॉक्सरूम की सफाई कर दूँ। अगर कुछ चीजें हटा दूँ... सुनो... जगह भी निकल आएगी और लाइट भी... और ये तुम्हारे किचन में देखो ऊपर कोने में... चूहे वहीं से आते हैं क्या?”
“सुनिए, बॉक्सरूम को आप टच मत करिए और मेरा कोई सामान नहीं निकलेगा। बहुत काम करने का मन है तो झाड़ू लेकर छत पर चले जाइए। सालों से सफाई नहीं हुई है। अब तो जाड़े में दिन में बैठना और गर्मी में रात में सोना भी नहीं करते। झाड़ू ले लीजिए, ऊपर चले जाइए।”
मुझे लगा, सबसे अच्छा यही रहेगा। वहाँ मैं आराम से बिना टोका-टाकी के काम तो कर सकूँगा। न देखेंगी न मेरी सफाई में कमी निकालेंगी।
मैंने झाड़ू लिया और ऊपर की ओर जाने लगा। जाते-जाते मैंने कहा - “सुनो, खाना पकाकर छोटू वाला बैडमिंटन लेकर ऊपर आ जाना... थोड़ा खेलेंगे।”
उन्होने गुस्साते हुए कुछ कहा। मैं साफ-साफ तो नहीं सुन सका पर उन्होंने बहुत धीरे से भी नहीं कहा था... इसलिए सीढ़ियों तक पहुँचते-पहुँचते साफ हो गया। शेख चिल्ली! हाँ, करीब-करीब यही कहा था मैडम ने।
ऊपर पहुँचकर मुझे लगा श्रीमतीजी कभी-कभार यहाँ चक्कर लगा जाती हैं, नहीं तो उन्हें कैसे मालूम होता कि छत इतनी गंदी पड़ी है!
मैंने पूरी छत का जायजा लिया। गंदगी कहीं कम थी तो कहीं ज्यादा। मैं झाड़ू हाथ में लिये कुछ देर सोचता रहा, फिर उत्तर की तरफ से साफ करना शूरू किया। दो-तीन मिनट झाड़ू चली थी कि एक कौआ उड़ता हुआ आया, रेलिंग पर बैठा और उसने ठीक उसी जगह बीट गिरा दिया जहाँ मैंने साफ किया था। मैंने झाड़ू से बीट को एक तरफ कर दिया पर बड़ा बेशरम और बेवकूफ कौआ था। उसने ठीक उसी पर फिर बीट कर दी। मुझे उसकी ढिठाई पर गुस्सा आया। सफाई और गंदगी अगर इसी तरह चलती रहेगी तो इतनी बड़ी छत मैं क्या, कोई भी नहीं साफ कर सकता। मैं झाड़ू नचाता हुआ दूसरे छोर पर पहुँच गया जहाँ पुरानी फोल्डिंग पड़ी हुई थी। मुझे याद पड़ा। फोल्डिंग को हम लोगों ने शुरूआती दिनों में खरीदा था जब हमारे पास डबल बेड नहीं था। बड़े अच्छे दिन काटे थे हमने इस पर। पर श्रीमतीजी समझें तब न। छत साफ करने मुझे भेज दिया पर एक छोटी-सी चारपाई को साफ नहीं कर सकी कभी। कितनी गंदी हो रही है यह। मैंने उसे झाड़ा और उठाकर छत के बीचोबीच रख दिया।
अब क्या करें? छत साफ करने आये और अगर इतनी जल्दी फोल्डिंग पर सोते पाये गये तो खैर नहीं होगी। झाड़ू फोल्डिंग के नीचे रखकर छत की मुँडेरी से लगकर खड़े हो गये। बंसी बाबू के घर का पिछवाड़ा हमारी छत से लगा हुआ था। उनकी बिना प्लास्टर की पीछे वाली दीवार अभी भी वैसी ही थी। पंद्रह साल पहले हमने इस मुहल्ले में घर बनाया था। जब आये थे तब से इस दीवार को ऐसे ही देख रहे हैं। पर इधर कई वर्षों से कहाँ देखे थे इस लाल दीवार को। फिर ध्यान नीचे की ओर गया। पहले एक नाली हुआ करती थी वहाँ, नाली का क्या हुआ? मैंने गर्दन टेढ़ी करके इधर-उधर देखा। नाली का कहीं अता-पता नहीं था। अपने घर के पीछे पैदल गये हुए सालों कैसे हो गये।
नाली तो ऐसी कोई महत्वपूर्ण चीज नहीं है जिसे देखा ही जाए। बंसी बाबू ने बंद करवा दी होगी। सबके घर का पानी उनकी ही नाली से होकर जाता था। मैं चकराया। तो फिर मेरे घर का पानी कैसे बाहर जाता होगा? शायद बंसी बाबू ने दूसरी नाली खुदवायी हो। उधर दक्षिण की ओर।
उधर गया तो खयाल आया कि इधर नीचे तो पहले एक कबाड़ी वाला अपना सामान जमा करता था। टेढ़ा आदमी था। बंसी बाबू उधर से नाली बनाने की हिम्मत नहीं कर सकते थे। झाँककर देखा तो कबाड़ी वाले का लड़का कबाड़ पर बैठा सिगरेट फूँक रहा है। और नाली? उसी ओर बना दी गयी थी। गन्दा पानी निर्बाध गति से उसमें बह रहा था। सामने बंसी बाबू के बरामदे में धुनिया नयी रजाई पीट रहा था।
अब क्या करें? अच्छा तो यह क्या? इधर तो बेर की डाल होती थी। कटवा दिया न मेम साहब ने। कहा करती थीं न काँटेदार पेड़ घर के पास नहीं होने चाहिए...।
मैं वापस छत के बीचोबीच आ गया। कैसा सन्नाटा पसरा हुआ है! दिन के ग्यारह बज रहे हैं और पूरा मुहल्ला... बगल की सड़क... सब कुछ साँय-साँय कर रहा है। फिर ध्यान आया - ऑफिस तो सिर्फ हमारा बंद है, बाकी लोग-बाग तो काम पर चले ही गये होंगे... और बच्चे स्कूल... शोर कहाँ से मचेगा। तो संडे को फिर इतना शोर कैसे मचता है?
मेरी नजर अगल-बगल की जिन-जिन छतों पर गयी, आदमी नाम का जीव कहीं भी नहीं दिखाई पड़ा वहाँ। खाली फैले कपड़े... और मुँडेरों पर बैठे कौए। कहाँ से आ जाते हैं ये इतने सारे कौए मंडे को ग्यारह बजे? संडे के दिन तो कभी दिखते नहीं...। कहाँ हैं बेगम? क्यों नहीं आती हैं ऊपर... कितना अच्छा लग रहा है अकेले छत पर घूमना दिन में। शेख चिल्ली...! मैंने बुलाना ठीक नहीं समझा।
फोल्डिंग बीच में खींच लाया और बैठ गया। नंगे बदन बड़ा अच्छा लग रहा था। अपने हाथ-पाँव-पेट को निहारता-रगड़ता बैठा रहा। पेट शायद कुछ निकल रहा था, पर पेट का गोरापन बरकरार था। सीने पर हाथ फेरा। अच्छा अनुभव हुआ। ऐसा कोई हड्डी का पंजर नहीं बन गया था मैं। फिर पायजामा जहाँ तक ऊपर गया चढ़ाकर जाँघों की खबर ली। बड़ी देर तक देखता रहा। हाथ से चम्पी करता रहा। पूरे शरीर में विचित्र-सी खूबसूरती बसी हुई लग रही थी। देखना और छूना बड़ा ही रोमांचक लग रहा था, जैसे बड़े दिनों बाद भेंट हुई हो अपने अंगो से। फिर पीठ पर जहाँ तक हाथ पहुँचा, सहलाता रहा। अचानक ध्यान आया पीठ में किसी जगह एक बड़ा-सा मस्सा हुआ करता था जो हाथ से आसानी से पकड़ मे आ जाता था। कहाँ खो गया है? ऊपर-नीचे, दायें-बायें जहाँ तक उँगलिया जा सकीं, भेजीं। पर मस्से का कुछ अता-पता नहीं चला। क्या मस्से समय के साथ अपने आप समाप्त हो जाते हैं?
चलकर नीचे उनसे पूछते हैं। नीचे तो किचन बंद था। मैं धीरे-धीरे बाथरूम की ओर सरका। वहीं थीं। बाथरूम बंद, पर कोई हरकत नहीं, कोई आवाज नहीं। फिर एक-दो मग पानी गिरने की आवाज, और फिर सन्नाटा। मैंने सोचा पूछूँ क्या नहा रही हो? पर तभी वह खुद बोल पड़ीं।
“कौन है बाहर? आप हैं क्या?” उन्होंने इस तरह पूछा कि मैं चौंक पड़ा। मुझे लगा जैसे मेरी चोरी पकड़ी गयी। मै धीरे-धीरे दूसरे कमरे में चला गया। फिर जल्दी ही चप्पल बजाते हुए बाथरूम के पास आकर कहा - नहा रही हो क्या?
“अभी आप खड़े थे यहाँ?”
“नहीं भाई, मैं तो ऊपर से आ रहा हूँ। नहा रही हो क्या?”
“और क्या करूँगी बाथरूम में।”
“मैंने सोचा पानी की आवाज नहीं आ रही है।”
वह चुप हो गयीं। फिर मग से पानी गिरने से आवाज आने लगी। इस बार अवश्य पानी पीठ पर गिर रहा था। ऐसी आवाज एकदम अलग होती है। पानी की छलछलाहट से बता सकते हैं।
“तुम मंडे को रोज दोपहर में नहाती हो?”
वह चुप रहीं। अब पानी नहीं गिर रहा था। शायद फिर साबुन लगा रही थीं।
“सुनो जल्दी नहाकर ऊपर आ जाआ, बड़ा मजा आ रहा है।”
“क्यों, सामने कोई खिड़की खुली है?” उन्होंने व्यंग्य किया।
“नहीं, सन्नाटा है, धूप है, खूब अच्छा लग रहा है। चलो न।” मैंने हँसते हुए कहा।
“ये चाँद कहाँ से निकल आया? फाइल और रजिस्टर का काम क्यों नहीं कर लेते सन्नाटे में बैठकर।”
औरतें हर बात टेढ़ी तरह क्यों लेती हैं? अगर एक-दो बार और कहेंगे कि चलो ऊपर बैठें, बाते करें तो बस शुरू हो जाएँगी। नहाने नहीं दे रहे हैं। इतना सारा काम पड़ा है - चादर बदलनी है, दाल छौंकनी है, छोटू आता होगा, कपड़े प्रेस करने हैं... और इन्हें छत पर बैठने की पड़ी है। जब बैठना था तो ऐसे बिदकते थे जैसे हल देखकर नया बैल। ऑफिस और फाइलों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था। न कभी सिनेमा दिखाने गये, न साथ बाजार गये। अब शौक चर्राया है छत पर बैठकर बातें करने का। बात क्या करेंगे? कोई खिड़की खुली होगी कहीं या कोई नहाने के बाद बाल या कपड़े सुखा रही होगी। बात हमसे करेंगे और ताकेंगे उधर। बात भी क्या करेंगे? दस बात पूछो तो एक का जवाब देंगे। जाइए-जाइए... बैठिए। धूप का आनन्द लीजिए। मुझे ढेर सारे काम हैं।
मैंने ऊपर चलने के लिए जिद नहीं की। पर बेर के पेड़ के बारे में तो पूछना ही था।
“सुनो, वो बेर की डालियाँ तुमने कटवायीं?”
“हाँ, क्यों?”
“नहीं, मैंने उन्हें नहीं देखा सो पूछ रहा था।”
“छत पर कितने दिनों बाद गये आज?” स्वर में व्यंग्य साफ था।
मैंने जवाब न देने में ही बुद्धिमानी समझी।
“उसे कटे दो साल हो गये।” वह नहाते-नहाते बोलीं।
“मुझे नहीं बताया?”
मग पटकने की आवाज आयी।
मैं समझ गया। इस प्रश्न का उत्तर विस्तार में मिलने वाला है। मैं जल्दी ही सीढ़ियों की ओर बढ़ गया।
छत पर फिर कुछ देर यों ही पड़ा रहा। एक डेढ़ के आसपास हो रहे होंगे। मन में आया कुछ सफाई और कर लें। झाड़ू लेकर इधर-उधर करने लगा पर मन नहीं लगा। शायद नहा चुकी होंगी। एक बार और ट्राई कर लेते हैं। आया तो देखा चौकी पर बैठकर कोई धार्मिक पुस्तक जोर-जोर से पढ़ रही है। इस समय किसी तरह का मनुहार नहीं चलने वाला। बवाल हो जाएगा। फिर से ऊपर जाकर टहलने लगा। न जाने क्यों इतना अच्छा लग रहा था छत पर! फिर उतरा... अबकी बार उठाकर लाऊँगा। देखें कैसे नहीं आती हैं! देखा तो वामा से मुँह ढके सो रही हैं। मैंने वही बेड में बैठ गया... हिलाते हुए।
“क्या हुआ छतबाजी कर आये?” वह जागते हुए बोलीं।
“तुम तो आयीं नही... कितना अच्छा लगा।”
“क्या अच्छा लगा? उस गँदले छत पर क्या है? काहे इतना सठिया रहे हैं आप!”
“ये नाली कब से इस ओर खुद गयी? कबाड़ी तो बड़ी झंझट करता था।”
“बंसी बाबू उसी कबाड़ी के हाथ अपना मकान बेचकर चले गये। सारा झंझट खत्म हो गया।”
“बंसी बाबू चले गये? कब?”
“पिछले ही साल।”
“तो अब हमारा सबसे नजदीकी पड़ोसी ये कबाड़ी है। अच्छा छोड़ो, से बताओ कि मेरे पीठ में एक बड़ा-सा काला मस्सा था न?”
“पीठ पर नहीं, गर्दन पर।” कहले हुए उन्होंने इसी जगह पर जोर की चिकोटी काट ली।
“मैंने सोचा पीठ में कहीं है।” मैंने मस्से को सहलाते हुए कहा।
“अम्मा जी कह रही थीं आपके बाबूजी के भी ठीक गर्दन के पीछे मस्सा था।”
“छोटू के है?” मैंने उत्सुकता से पूछा।
“हाँ, ठीक वहीं जहाँ आपके है।”
“आने दो उसको, देखता हुँ कि तुम सही बोल रही हो। अच्छा तुम्हारे कहाँ मस्सा है?”
“कमर में तो है। अभी तक देखा नहीं क्या?”
“दिखाओ, दिखाओ।” मैंने दुलार बघारते हुए कहा। डर था कहीं फिर से शेखचिल्ली कहकर मुझे हतोत्साहित न कर दें। अब तक नहीं नजर पड़ी तो अब क्या देखेंगे। छोड़िए भागिए। दिखावटी प्रेम मुझे नहीं अच्छा लगता।
उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा। साड़ी को कमर से हटाने लगीं। फिर धीरे से पेटीकोट को ढीला करके तनिक नीचे की ओर खींच दिया। मै साँस थामे देख रहा था।
“दिखाई पड़ा?” उन्होंने बेतकल्लुफी से कहा। वे मस्सा पर उँगली फेर रही थीं। कितनी सुंदर कमर थी अनीता की! और ये मस्सा कैसे बचा रहा गया था मुझसे? मैं टकटकी बाँधे देख रहा था अपनी पत्नी की अधखुली कमर को।
“देखा कि नहीं? छूकर देख लीजिए। और अब कभी न भूलिएगा।”
“नहीं भूलूँगा।” मेरे मुँह से बहुत धीमे से निकला।
फिर मैं उन्हीं के बगल में लेट गया। उनके बालों से खेलने लगा। शैम्पू की गमक नाकों में झर रही थी। मैं उनके और करीब सट आया।
“तुम्हारे बाल कितने सुंदर हैं। मुलायम भी। एक भी नहीं पका।”
“क्या बात है? सूरज किधर से निकला है। मेरी इतनी फिकर क्यों हो रही है! मालती तिवारी के पकने शुरू हो गये क्या?” उन्होंने बड़ी निर्दयता से कहा।
मैं चुप हो गया।
“अनीता!”
“क्या है?”
“सुनो।”
“बोलिए।”
“सोचते हैं कि...।” मैं बात पूरी नहीं कर सका।
“क्या हुआ मानिक बाबू?” उन्होंने मेरी भावुकता की हवा निकालने की कोशिश की। वे कभी-कभी ऐसा ही करती हैं। मैं चुप हो गया।
“नाराज हो गये क्या? बोलिए न। आपको हमारी कसम... कहिए।”
मैं सोचने लगा था कैसे कहूँ।
“गुस्सा हो गये न। यही बात आपकी अच्छी नहीं लगती। बोलिए न क्या कह रहे थे।”
“सोच रहा था”
“क्या...”
“अनीता, सोच रहा था कि हम लोग एक दिन फुर्सत से चलकर छत पर बैठेंगे। उस दिन किसी से नहीं मिलेंगे। किसी का मिलने के लिए नहीं बुलाएँगे। छत पर बैठे रहेंगे। फिर मुँडेर के पास खड़े होकर पड़ोसियों के घरों को ताकेंगे। अपने पीछे की दीवार को देखेंगे। नाली को देखेंगे। कबाड़ी के लड़के को सिगरेट पीते हुए देखेंगे। और धुनिया को रजाई धुनते हुए देखेंगे।”
“उस दिन इबादत नहीं करेंगे। चन्दा नहीं बाँटेंगे। छोटू को दूलार नहीं करेंगे। कौआ काँव-काँव करेगा तो उसे उड़ाएँगे नहीं। जहाज जाएगा तो उसकी आवाज नहीं सुनेंगे। तुम स्वेटर नहीं बुनोगी। मैं किताब नहीं पढ़ूँगा। बैठे-बैठे बादलों में जानवरों और बूड़े आदमियों को ढूँढ़ेंगे। भूले-बिसरे नामों की अन्ताक्षरी खेलेंगे। मैं तुम्हें उनके चेहरों कहानियाँ सुनाऊँगा।”
“तुम कहोगी अच्छा ऐसा था तो आपने मुझसे शादी क्यों की! मैं कुछ बोलना चाहूँगा, तुम बीच में ही अपना कैलेंडर खोलकर बैठ जाओगी। ...तुम पूछोगी अच्छा बताइए फलाँ सन् में क्या हुआ था। मैं कहूँगा शादी। तुम कहोगी नहीं बड़ा बेटा हुआ था। शादी तो दो साल पहले हुई थी। तुम फिर पूछोगी फलाँ सन् से फलाँ सन् तक हमने क्या किया! मैं कहूँगा शादी के बाद क्या करते हैं, मौजमस्ती, घूमना-फिरना। तुम कहोगी नहीं, ये अपकी बेकारी के दिन थे और हमारी परेशानी के। तुम पूछोगी उसके बाद। मैं कहूँगा एक साल के बाद मेरी तनख्वाह दो बार बढ़ी और जल्दी ही मेरी प्रोमोशन हो गया? तुम कहोगी छोटू का आना भूल गये क्या? इसके बाद ही तो प्रोमोशन हुआ था। छोटू लकी है न...। अच्छा उसके बाद। मैं कहूँगा... उसके बाद क्या? उसके बाद पहला ट्रांसफर हुआ था। तुम कहोगी नहीं... आप बहुत भूलते हैं। उसके बाद हम लोगों ने अपनी शादी की दसवीं साल-गिरह मनायी थी। आपने अपने दोस्तों को बुलाया था। हमारे आपके लिए खाना कहाँ बचा था। फिर खाली ऑमलेट खाकर सो गये थे।”
“मैं कहूँगा मुझे छोटी-छोटी बाते याद नहीं रहतीं। तुम नाराज होकर कहोगी, जाइए एक दिन आप मुझे भी भूल जाएँगे। मैं कहूँगा अच्छा और कुछ पूछो। तुम कहोगी अच्छा बताइए आप मुझे प्यार करते हैं। मैं कहूँगा देखो अब ये कौन-सी बात हुई। वही बचकानी बातें। तुम कहोगी, नहीं-नहीं बताइए न... यह मेरे लिए बड़ी बात है। बताइए आप मुझे पहले की ही तरह चाहते हैं न। मैं कहूँगा अब नीचे चलें, बहुत देर से छत पर बैठे हैं। तुम कहोगी नीचे नहीं जाएँगे। यहीं बैठेंगे। यहाँ अच्छा लग रहा है। बहुत दिनों बाद ऐसे बैठे हैं। नहीं बताना चाहते हैं तो कोई और बात करिए। मुझे लगेगा कि मैं बताना चाहता हूँ लेकिन गले में कुछ अटक रहा है... लगेगा तुमने ऐसी चीज करने के लिए कह दिया है जिसकी प्रैक्टिस छूटे अरसा गुजर गया है।
“तुम फिर कहोगी कि अच्छा पूछिए कि मैं आपको कितना चाहती हूँ। मैं पूछूँगा तुम छोटू को कितना चाहती हो। तुम कहोगी मैं छोटू-मोटू के बारे में नहीं पूछ रही हूँ। मैं कहूँगा अच्छा बताओ तुम्हें कौन-सा परफ्यूम पसंद है। तुम कहोगी वो वाला। मैं कहूँगा ये लो। पहले से ही लेकर आया हूँ। तुम खुश हो जाओगी। एकदम गद्गद। तुम अपना प्रश्न भूल जाओगी। मैं परफ्यूम की शीशी तुम्हारे हाथ से लेकर तुम्हारी पीठ पर स्प्रे कर दूँगा। तुम कहोगी अब आप बुद्धू हो गये है। ये भी कोई जगह है परफ्यूम छिड़कने की। मैं तुम्हारा इशारा समझ जाऊँगा और तुम्हारे सीने पर आधी शीशी खाली कर दूँगा। तुम हँसने लगोगी। खूब हँसोगी... खूब हँसोगी... मैं भी हँसने लगूँगा। हम दोनों हँसने लगेंगे। हँसते-हँसते हम लोग एक-दूसरे से सट जाएँगे... एक-दूसरे का हाथ पकड़ लेंगे। हाथ पकड़े हँसते रहेंगे। तुम कहोगी हाथ ऐसे क्यों पकड़े हैं! मैं सोचूँगा कह दूँ... कितने दिनों बाद तुम्हारा हाथ पकड़ा है... नया लग रहा है... अच्छा लग रहा है। पर मेरे मुँह से कुछ नहीं निकलेगा। हाथ पकड़े बैठा रहूँगा।
“किसी बात पर हम फिर हँसने लगेंगे। कितना अच्छा लगेगा जब अकेले एक साथ छत पर बैठकर दोनों इतना हँसेंगे। लगेगा जितना नहीं हँसे हैं अब तक, उतना हँस लें। हँसते-हँसते थक जाएँगे। थक जाएँगे तो वहीं सटकर लेट जाएँगे छत पर... हाथ पकड़े हुए। चुप...चाप। आसमान को ताकते लेटे रहेंगे।
“उस दिन सब उल्टा होगा। तुम्हारी चुप्पी मुझे नहीं लगेगी। मैं कहूँगा गूँगी हो गयी हो क्या। तुम कहोगी हाँ। मैं कहूँगा तो हाँ कौन बोला। तुम कहोगी आपकी गूँगी। मैं कहूँगा मैं कुछ कहना चाहता हूँ मेरी ओर देखो भी। तुम कहोगी क्या है बोलो न! मैं कहूँगा सुनो। तुम कहोगी सुन तो रही हूँ, कहो। मैं कहूँगा बहुत दिनों से नहीं कहा है... हिचकिचा रहा हूँ। तुम कहोगी क्या है बोलो न... बोलो। मैं कहूँगा। आई लव यू। तुम चुप रहोगी। मैं कहूँगा आई लव यू रियली। तुम फिर भी चुप रहोगी। मैं कहूँगा क्या सचमुच गूँगी हो गयी हो...? गूँगी कहीं की। तुम कहोगी नहीं मानिक... वो बात नहीं। पता नहीं क्यों मुझे रुलाई आ गयी।”