फूटा कपाल / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
आज एक भी बच्चा स्कूल नहीं आया था। मैं अकेला बरामदे में टेबल-कुर्सी लगाकर बैठा था। बस्ती से एक बुढ़िया आ रही थी। उसकी कांख में एक खाली बोरा दबा हुआ था। दाहिने हाथ में लाठी का सहारा था। अचानक वह रुक गई। हथेली से कपाल को तीन बार ठोका और फिर चलने लगी।
जब वह मेरे नजदीक पहुँची तो मैंने आवाज दी, "ओ मासी, एदिके आसुन।" वह आई और मेरे सामने जमीन पर बैठ गई। मैंने पूछा, "मासी, इस बोरे में क्या लाती है?"
"मूढ़ी लाती हूँ मास्टर बाबू। गांव-गांव भेजती हूँ।"
"क्या आपका लड़का-बच्चा नहीं है?"
"हैं न, तीन-तीन बेटे हैं। ससुराल में रहते हैं।"
"और आप अकेली रहती हैं?"
"हाँ बाबू। क्या करूं, फूटा कपाल है मेरा।" कहते हुए उसने दोनों हाथों से कपाल को पकड़ लिया। आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे।
तभी जीवलाल मुर्मु, जिसे गाँव के लोग चट्टान सिंह कहते हैं, झूमता हुआ आया। हल्का पिया हुआ था। उसने बुढ़िया को डांटते हुए कहा, "ऐ बुढ़िया, भाग यहाँ से। रोती है। रोना-धोना मुझको बर्दाश्त नहीं होता। जब तक जियो, मस्त रहो।"
"तुम मां-बाप का दर्द क्या समझोगे चट्टान? बाल-बच्चा होता तो समझता। तुम तो अपत्यहीन हो।" कहते हुए बुढ़िया उठने लगी।
अकस्मात मेरी नजर चट्टान के कपाल पर पड़ी तो पूछ बैठा, "चट्टान जी आपके कपाल पर दाग?"
"हाँ सर, गिरने से कपाल फूट गया था। लेकिन दाग अच्छा है, तिलक जैसा।" कहते हुए वह 'हा:-हा:' करके हंसने लगा।