फूलपुर की फुलवरिया मिसराइन / प्रत्यक्षा
वे अड़स कर बैठ गई थीं। साड़ी जाँघ और पिंडलियों के बीच दबा कर। पैर उनके खूब गोरे थे। चौड़े पंजे, उँगलियाँ छोटी छोटी, नाखून खूब धँसा कर काटे हुए। आलते का चौड़ा पाड़। पंजों पर अँगूठे से चप्पल के फीते की नकल करता हुआ चौड़ा लाल रंग। फिर बीच में तीनपत्ती वाला फूल, फिर दो सीधी धारी और अंत में तीन बुदकियाँ बीचोंबीच से, आलते के कार्य समापन की घोषणा करती हुईं। उनके मजलिस में आने के पहले औरतें भन भन करती रहीं।
एतना सोला सिंगार आखिर किसके वास्ते? आदमी कब्बे छोड़ गए।
हुम्म्म की गुनगुनाहट बैठी औरतों के मुँह से एक छोर से दूसरे, सर्पीली रेखा बना विलीन हो गई।
कोनो दूसर औरत रही त... बड़ कठकरेजिन है मिसराइन। हँसी में कोनो कमी ना।
तमाम आँखें विस्फरित हो फैल गईं। आँचल सर से खींच दाँतों में दबा, दबी घुटी हँसी की क्षीण लहर। आगे कोई रहस्योदघाटन हो ऐसा संयोग बैठने के पहले ही उनका आगमन हो गया। फिर हवा का रुख तेजी से बदला।
एन ननकू, ए छौड़ा, ला डोलची दे। अब जा ओने छाँव में।
ननकू डोलची थमा छाँव में गोली खेलते खेलते ढुलक गया। डोलची से आज क्रोशिया निकला। सफेद, महीन तागे से बुना लेस, पता नहीं कितना मीटर बुन चुकीं। औरतों ने बँधे हुए गड्डे को हाथों से तौल अंदाजा किया। अबकी सराहना की गुनगुन फैल गई। जाड़े में रंगबिरंगे ऊन सलाई, गर्मियों में कढ़ाई, यूपिन, क्रूस, सब चलता था। पता नहीं हर सर्दी कितने स्वेटर बुन डालतीं, जबकि पहनने वाला घर में कोई नजर न आता। कितने मीटर तो लेस बुन चुकीं, दरजनों के हिसाब से हर मौसम में तकिए का खोल, चादर पर कढ़ाई, मैटी पर क्रॉसस्टिच से मेजपोश, महीन वायल साड़ियों पर साटन स्टिच और लेजी डेजी से छोटे छोटे नन्हें फूल, लहरदार बेलबूटे, बच्चों के झबलों पर हँसते मुस्काते बत्तख और चूजे।
जितनी तेजी से उँगलियाँ क्रूस पर चलती थीं, उतनी ही तेजी से जबान भी। औरतें साड़ी छू छू देखतीं, चोली कट फूली बाँहीं के ब्लाउज पर आहें भरी जातीं। कस्बे के पार शहर पर का दर्जी ऐसा ब्लाउज सिलता था। सादा ब्लाउज से बीस रुपया ज्यादा। फुलवरिया मिसराइन गर्व से बोलतीं। पानदान निकाल सुपारी की छल्ली कटती। चूना, कत्था और मसालेदार जरदा। हर बीड़े पर परनिंदा होती। औरतें हँस हँस दुहरी होतीं। आँखें हैरत से फैलतीं। बात शुरू होती छोटी सी, फिर बनाव सिंगार होता। कुछ जोड़ा जाता कुछ घटाया जाता। पेट की बात फूलती पचकती, कुछ खमीर उठता, कुछ खटास आती। गरज ये कि इन एकाध घंटों में पूरे संसार की चर्चा होती। फिर नए जोश से लैस औरतें अपने घरों की ओर मुखातिब होतीं। बच्चों के सरकारी स्कूल से लौट आने का वक्त होता। पति जो इस नामालूम से कस्बे में क्लर्की करते, दुकानदारी करते, पेशकारी और मुख्तारी करते, साँझ ढले घर, तरकारी का झोला उठाए निष्प्राण घर लौटते और घर की दहलीज पर पाँव रखते ही शहनशाह बन जाते। लौंडियाँ हुकुम की तामील करतीं। एक पाँव खड़े पति परमेश्वर की दिन भर की मेहनत का समुचित सम्मान किया जाता।
फुलवरिया के अलबत्ता कोई पति नहीं था। माने अब नहीं था। न अब भी सही नहीं कहा। था तो पति नाम का जीव पर इस विशाल संसार के किस कोने में बिला गया था ये फुलवरिया को पता नहीं था।
रे ननकू, चल रे। ननकू को डोलची पकड़ाती, खुद बटुआ सँभालती फुलवरिया उठ खड़ी होतीं। सभा विसर्जित हो जाती। उनके फूलदार छापे की साड़ी के भीतर से लेस लगा सफेद बुरोक पेटीकोट झलक जाता। बड़े गले के ब्लाउज के नीचे से ब्रेसियर की सफेद पट्टी झाँक जाती। और औरतों की तरह नहीं, कि साड़ी ब्लाउज तो सुंदर पर अंदर का पेटीकोट नीचे काला या ब्लाउज के गले से झाँकती ऐसी मटमैली ब्रेसियर की पट्टी कि देखते ही कै हो जाए।
ननकू आगे आगे अपने पुराने जूते में बाबूसाहब बना दौड़ जाता। नुक्कड़ की पान दुकान के पास मोहल्ले के शोहदों की भीड़ जुटी रहती। 'यहाँ पेंचर बनता है' के बोर्ड के नीचे चारखाने की लुंगी और कुर्ता पहने मुच्छंदर बैठा रहता। फुलवरिया को गुजरता देख बिना नागा 'बदन पे सितारे लपेटे हुए, ए जाने तमन्ना किधर जा रही हो' गाने लगता। फुलवरिया सर का आँचल और ठीक से खींच दाँतों में दबा, तेज चाल चलतीं। पर अगर कोई दुष्ट हवा उस वक्त उनका आँचल हटा देती तो उनके चेहरे पर एक मुस्कान जरूर सारा जमाना नहीं तो मुच्छंदर तो जरूर देख लेता। खैर उस कस्बे में कोई दुष्ट हवा को बहे जमाना गुजर चुका था। सो मुच्छंदर ने गाने का मुखड़ा पूरा किया। फुलवरिया के ओझल होते होते तक एक अंतरा भी गा दिया, फिर आज का काम तमाम मुद्रा में पंक्चर बनाते लौंडों को डपटने का शुभ और मेहनती काम किया। फिर आराम की मुद्रा में बेंच पर लेट गया। तब तक बगल के ढाबे का छोकरा खींसे निपोरता हुआ, लोहे की जाली में छह गिलास फँसाए, रोज के वक्त की पाबंदी से कड़क इस्पेशल मसालदार चाय ला चुका होता। चाय का गिलास खत्म होते होते फुलवरिया घर पहुँच जातीं। घर के बाहरी हिस्से में किराना की दुकान थी और उसके ठीक बगल में एस्बेसटस की शीट से ढकी एक शेड जिसके बाहर 'यहाँ आटा पिसाया जाता है' का बोर्ड लटका था। इसी बोर्ड के नीचे तख्ती पर आटा, चना, दाल, उड़द दाल इत्यादि का पिसाई रेट लिखा था। दुकान पर बारी बारी से फुलवरिया और फुलवरिया के ससुर बैठते। पिसाई का काम अजमेरी देखता।
अजमेरी की कहानी भी विचित्र थी। हमीदन और मुख्तार की अच्छी आमदनी थी। गाय, मुर्गी, बत्तख। थोड़ा सा खेत भी। अल्लाह के फजल से फसल भी अच्छी होती। निकाह के बरस बीते पर हमीदन की कोख में सूत भर भी कुछ न पड़ा। गाय बियाती, बछड़ा होता। गाय का फेनूस दूध मोहल्ले में बँटता, मुर्गी और बत्तख कुडुक होतीं, फिर आँगन छोटे छोटे रुई के गोले सरीखे चूजों से भर जाता। मुट्ठी भर बीया भी गीली मिट्टी में फेंकती तो पौधा उग जाता। पर शरीर जो बंजर रहा सो फसल कोई फूटी ही नहीं। बहन बसी अजमेर। खत लिखा, आ जाओ दरगाह पर मत्था टेक लो। पीर मुराद पुरी करेंगे। महीने भर रही। लौटते वक्त रास्ते से ही तबियत खराब। चक्कर पे चक्कर, मार उल्टी पे उल्टी। घर पहुँची तो लस्तपस्त। नदीमन के मियाँ हकीम। पुड़िया मँगाई। फायदा क्या हो और नुकसान। हींघ के बघार पर हौलदिल। गोश्त भी पके तो हमेशा के सीधे मुख्तार तनतना जाएँ, क्या बीवी गोश्त भी पकाया घासफूस जैसा। तश्तरियों रकाबियों पर मक्खियाँ भिनभिनाएँ।
नदीमन के घर पुड़िया लेने गई तो पापड़ देख मुँह में पानी की धार बह निकली। हलक से घोंटते पूछ ही बैठी, बाजी, पापड़ तो बढ़िया दिखे हैं।
तोहरे कने ही तो लाईन रहे।
फिर एक क्या दस खा गई। नदीमन, छुटपन से घरों में बच्चे होते देखा पर यहाँ बारह बरस की सूखी जमीन थी। कुछ कहते जी डरता था। सो चुप लगा गई। महीने भर बाद हालत ये हो गई कि चूल्हे की मिट्टी देख जी बावरा हो उठे। गोटदार लेसदार ओढ़नी का कोना मिट्टी बाँध बाँध के तुड़मुड़ा जाए। काली जली हुई सौंधी मिट्टी। अब उसी दिन की बात लो, सौदा सुलुफ लेने दुकान गई तो पास के मोड़ पे एक बेंच लगा बड़कू के महतारी का तीन चूल्हा जोड़ दुकान था। सुबह से देग खदबदाता रहता, भात दाल और आलू का भुजिया, मोटा कटा प्याज और हरा मिर्चा। काँसे के चमचमाते बड़े थाल में स्तूपाकार सजाया हुआ, ऊपर खूब कला कौशल से चार फाँक कटे प्याज पर हरियाली का सीना ताने सुग्गे के चोंच जैसा लाल, हरा चमकीला मिर्च। ये नजारा देखते ही कंठ भर आया। पेट से मरोड़ सी उठी लहर सीने पे आके टिक गई। ताबीज मुट्ठी में कसे घर भागी आई। बासी रखा भात प्याज और हरी मिर्च के जोर पर जो स्वाद ले खाया कि छाती जुड़ा गई।
चौकी पे लेटे लेटे, छत की बल्ली निहारते हाथ अनजाने पेट सहलाते रहे। अचानक लगा एक अचक्के मुक्का। उई कह रह गई, फिर जी धक सा रह गया। पेट पर कोई लहर उठ रही थी। शक का कोई सवाल न था। ताबीज आँखों से लगाया। अल्लाह रसूल को याद किया। फिर बड़े दिनों बाद मुख्तार मियाँ के पसंद की रसोई पकाई। रात लालटेन की धीमी रौशनी में दोनों जनी निवाले तोड़ते अल्लाह का शुक्र मनाते रहे।
हमेशा की पतली हमीदन फैलती जा रही थी। सिर्फ पेट नहीं, हाथ, पाँव, चेहरा सब और जैसे जैसे हमीदन फैलती, घर की बाकी चीजें उसी अनुपात में सिकुड़ने लगीं। इस बार की फसल अच्छी न रही। मुर्गियाँ एक एक करके पटापट मरने लगीं। कोई ऐसी बीमारी फैली कि बस। बड़ी मुश्किल मशक्कत से आधी दरजन बचाई गईं। फिर भी बच्चे के आने की खुशी इन तमाम छोटे बुरे हादसों पर भारी थी। मुख्तार अपनी खाला को लिवा लाए हमीदन की देखभाल को। खाला बेवा थीं, बाँझ थीं। आँखों में सुरमा लगाए, मिस्सी दाँतों और सुग्गानाक के ठीक नीचे बड़े से मस्से वाली खाला किसी चील या बाज जैसी लगतीं। बुढ़ापे में एक ठौर मिला था सो जुट गईं हमीदन की देखभाल में। देखने में जितनी कड़क थीं उतनी ही नरमदिल।
कुछ महीनों बाद अजमेरी पैदा हुआ। नाम तो पैदा होने के पहले ही तय था सो खाला ने बाहर आते ही मुख्तार को खबर दी कि अजमेरी पैदा हुआ है। हमेशा का सीधा मुख्तार खुश हुआ, इतना खुश हुआ कि पूछना ही भूल गया कि लड़का हुआ कि लड़की। खैर, अजमेरी धीरे धीरे बड़ा होने लगा। जैसे जैसे वो बड़ा होता गया ये बात दीगर होती गई कि उसकी शक्ल न मुख्तार से मिलती और शायद हमीदन से भी नहीं। कहते हैं कि खुदाबंद ने हर इनसान की शक्ल ऐसी बनाई है कि उसके जैसा और कोई समूची दुनिया में भी न हो। पर ठीक अजमेरी की शक्ल का कोई लड़का अजमेर की गलियों में सूरमा लगाए, लेस वाली टोपी पहने घूमता खेलता था और जैसे जैसे अजमेरी बड़ा होता जाता उसकी शक्ल उस अजमेर वाले लड़के से और ज्यादा मिलती जाती। और जैसे जैसे शक्ल मिलती जाती वैसे वैसे वहाँ की सूखी रेत यहाँ पूरब के इस गाँवनुमा कस्बे में घुसपैठ मचाए जाती। इस गाँव में, जो कस्बा होने की राह में लदर फदर बढ़ चला था जैसे कोई बच्चा किसी बुजुर्ग की तीन साइज बड़ी हवाई चप्पल पहन दौड़ पड़ता है गिरते पड़ते। गाँव तो कस्बा हो ही जाता देर-सबेर पर इसी बीच मुख्तार मियाँ पर फालिज पड़ा और वो लग गए चारपाई से। खेत अब तक बंजर ढूह में बदल गया था। गाय भैंस मर मरा गए थे। आधी दर्जन मुर्गियाँ थीं जिनके अंडों को अल्मुनियम के तार वाली डलिया में एहतियात से डाल अजमेरी घर घर बेच आता था। आँगन बकरियों की मिंगनी से, मुर्गियों के पंख से, मुख्तार मियाँ की कराहटों से भरा रहता।
चेहरे पर फालिज का असर ऐसा हुआ था जैसे भूकंप से आधी जमीन ऊपर उठ गई हो। सारे अनुपात बिगड़ गए थे, आधे होठ ऊपर की ओर आधे ठीक उसी अनुपात में नीचे गिरे हुए। उन गिरे हुए होंठों से लगातार लार चुआते हुए मुख्तार अनझिप आँखों से अजमेरी को देखते, और अपने देखे, अनदेखे, दोस्त, दुश्मनों से उसके चेहरे का मिलान करते रहते। लेटे लेटे अब यही अरमेना रह गया था। सेहत उनकी गिरती जाती थी। जाना उनको था पर उनके पहले साँप काटे से हमीदन चली गई। पीछे पोखर के पास वाले पेड़ों के पास मिली थी। कह गई थी कुकुरमुत्ते लाएगी, तेज तीखा सालन बनाएगी। दुपट्टे से बँधा एक गुच्छा मुसा तुसा करियाया हुआ कुकुरमुत्ता, खाला ने बाद में निकाला था। उसके कुछ दिन बाद मुख्तार भी चल बसे बिना जाने कि अजमेरी खासमखास उनका ही बेटा था। अजमेर की गलियों वाला लड़का तो खुदा का करिश्मा था। अल्ला ताला से भी कभी चूक हो जाती है। पर यह सब न तो मुख्तार जानते थे, न हमीदन और न अजमेरी।
उस खंडहर घर में बच गए खाला और अजमेरी। रहे सहे जानवर भी खत्म हुए। और उसी तरह एक दिन नींद में खाला भी। तो उस घर में अनकही जो बात थी कि या तो फसल, जर जोरू लहलहाएँगे या फिर आदमजात का बच्चा, सो पूरा हुआ। पहले फसल लहलहाई, गाय, बकरी, मुर्गी बत्तख फले फूले, साथ में मुख्तार और हमीदन भी। फिर अजमेरी आया और बाकी सब गए। जमीन की मिट्टी ने इस तेजी से लील लिया मकान को कि दीमक लगी ढूह और चरमराती बल्लियों के सिवा और कुछ न बचा। लेकिन अजमेरी का भी क्या दोष, क्या गुनाह। उसने कहा था क्या कि मैं आऊँ इस संसार में?
जिस रात खाला गईं उसी रात अजमेरी भी गायब हो गया गाँव से। हफ्ते भर बाद फूलपुर में रामावतार मिसिर के घर के बाहरी बरामदे पर सोता पाया गया। सुबह सुबह मिसराइन, माने फुलवरिया ने उसे पहले पहल देखा।
रामावतार मिसिर पहलवान आदमी थे। कुश्ती और मलाईदार दूध का शौक रखते थे। उनके बाप ने पंडिताई का पुश्तैनी काम करते करते दूरदर्शिता का उत्तम उदाहरण देते हुए एक दुकान भी खोल रखी थी। फूलपुर किराना स्टोर। दुकान बढ़िया चलती थी। पंडिताई, पुरोहिती बम बम चलती थी। दोनों हाथों से घर का स्टोर बमाबम भरता था। रामावतार इकलौते बेटे थे। अब हुए तो तीन और थे पर सब इस दुनिया में साँस लेने और प्राण फुँकने के पहले ही स्वर्ग को प्राप्त हुए। फिर कई मनौतियों मन्नतों और धार्मिक अनुष्ठानों के प्रसाद स्वरूप रामावतार अवतार लिए। उसके बाद तो जाम हुआ रास्ता खुल पड़ा। एक लड़की हुई सावित्री, फिर जुड़वाँ रज्जू और बिज्जू और उसके बाद एक जुड़वाँ जोड़ी और बिन्नू और मन्नू। पर बचे इसमें से फिर दो ही, रामावतार और रज्जू। शायद धार्मिक अनुष्ठानों में कोई कमी रह गई हो ऐसा मिसराइन पहली ने सोचा। खैर, जैसे रामावतार बड़े होते गए मिसिर और मिसराइन की छाती जुड़ाती गई और जैसे रज्जू बड़ी होती गई ये पता चलता गया कि चाहे रज्जू कितनी भी बड़ी क्यों न हो जाए वो रहेगी छह साल की रज्जू ही। रज्जू के दुख की पोटली छाती से चिपटाए मिसराइन पहली, असमय ही चल बसीं। घर गिरस्ती कौन सँभाले इसका दो ही उपाय था। एक तो कि मिसिर दूसरा ब्याह कर लें और दूसरा ये कि रामावतार की खुट्टी बाँध दी जाय।
रामावतार का कुश्ती, दंगल में भाग लेना, हनुमान भक्ति से ओतप्रोत रहना, ब्रह्मचर्य पर जरूरत से ज्यादा जोर देना, फैसला रामावतार के ब्याह के पक्ष में, मिसिर के अपने पुनः गृहस्थ सुख की तीव्र इच्छा के बावजूद करवा गया। बिचौलिए ने जब फुलवरिया की जन्मपत्री लाई तो मिसिर को कन्या के नाम में और अपने किराना स्टोर के नाम में जो विचित्र साम्य दिखा उसे कोई दैवी इशारा समझ उन्होंने तुरंत हामी भर दी। बेटे को खूब समझाना पड़ेगा ऐसा जो उन्होंने सोचा था, ठीक उसके विपरीत, बेटे ने सर झुका के, थोड़ा शर्माते हुए तुरंत सिर्फ हामी ही नहीं भरी बल्कि विवाह की तैयारी में, खासकर सुहागरात की तैयारी में रोज रात बादाम, पिस्ता फुला कर खाने लगा। अपने दूसरे ब्याह की तीव्र इच्छा की शहादत को यों व्यर्थ में जाते देख मिसिर लटपटा गए पर अब क्या होता, सो लगे ब्याह की तैयारी करने और महीने भर बाद घर की नाजुक हालत, बिना घरनी के, समझते हुए कन्यापक्ष ने ब्याह और गौना तुरंत फुरत कर दिया और खुसरूपुर की फुलवरिया, रामावतार मिसिर की नई ब्याही बन फूलपुर आ गईं। सुहागरात, रामावतार मिसिर, गोरी गोरी, केले के थंब जैसी पीली सुबुक फुलवरिया को देख होश खो बैठे। उनकी हालत ऐसी थी कोई भी औरत उनको खुश कर देती। वो इतनी तत्परता से पत्नी की चाहत रख रहे थे कि रूप, गुण, कुछ भी इस चाहत के आड़े नहीं आता। यहाँ तो कँटीली आँखों का पानी उन्हें बेसुध कर रहा था। साड़ी के किनारी से निकला चौड़ा गोरा पंजा, उनके अंदर ऐसा रोमांच पैदा कर रहा था जो कि एक सुडौल पाँव नहीं कर पाता। स्वस्थ सुडौल बाँहों का आभास भर ही उन्हें मार रहा था। बस, सामने ब्याही पत्नी सिमटी सिकुड़ी बैठी थी और रामावतार का कसरत कुश्ती वाला, दूध दही खाया पिया शरीर था, उन्मत उन्माद था, बेचैनी थी बेकरारी थी, जोश था, जुनून था, अनाड़ीपन था। टूट पड़े पत्नी पर, गोलगाल, पन पन, गोरी नारी पत्नी पर। फुलवरिया घूँघट में सपने भरे लजाई सकुचाई बैठी थीं। खुसरूपुर के एकमात्र सिनेमा हॉल में ऐसे कई सुहागरात के फिल्मी दृश्य माँ भाभी के साथ देख चुकी थीं, भाभी की चुहल भरी हिदायतें, नई ब्याही सखियों की खुसफुस बातें, पति को टूटते देख हक्की बक्की रह गईं कुछ क्षण। फिर दर्द का तेज आवेग हुआ, एक उबकाई सी आई और मुँह से चीख निकल गई। रामावतार का चौड़ा बलिष्ठ पंजा मुँह पर, होंठों को, चीख को दाब गया। रामावतार के मन की पूरी हुई। पर हथेलियों पर दाँत के दो गहरे निशान रह गए।
अपने अनाड़ीपन में, अपने दोस्तों के बेवकूफ बहकावे में रामावतार ने पत्नी के साथ का कोमल तार खो दिया। फिर जब भी रामावतार फुलवरिया के करीब आए, उसका शरीर काठ की तरह निष्प्राण हो जाए। रामावतार थे कोमल हृदय। ऐसी जोर जबरदस्ती उनके स्वभाव के विपरीत थी। धीरे धीरे सिमटने लगे। उन्हीं दिनों कोई स्वामी जी आए हुए थे। कहा जाता है कि उन्हीं स्वामी के डेरे पर रात दिन रामावतार पाए जाने लगे। स्वामी जी की सेवा मनप्राण से करने लगे।
सुनी सुनाई बात है कि स्वामी जी ने कहा उनसे, स्त्री संसर्ग से दूर रहो। रामावतार ने स्वामी जी के चरणों में सिर रख दिया। स्वामी जी की उँगलियाँ रामावतार के सर में, बालों में आशीर्वादस्वरूप फिसलती रहीं। अगले दिन डेरा उठ गया था। फिर रामावतार को किसी ने फूलपुर में नहीं देखा।
पति से त्यक्त्ता होकर फुलवरिया ने गृहस्थी सँभाली। पंद्रह साल की छह साला रज्जू को सँभाला, ससुर को सँभाला और फूलपुर किराना स्टोर को सँभाला। सिर्फ सँभाला ही नहीं बखूबी सँभाला। उन्हीं दिनों भला भटका हुआ अजमेरी भी यहाँ आ टिका तो अजमेरी को भी सँभाला।
रज्जू को रोज तेल चपड़ कर के खूब कस के दो चोटी सोंट सोंट के बाँधी जाती। बालों के अंतिम सिरे पर लाल रंग का रिबन, रज्जू को लाल रंग बेहद पसंद था, चोटी सहित गूँथा जाता फिर पूरी चोटी मोड़ कर कानों के ऊपर बालों में फँसा गाँठ बाँध कर फूल की तरह फुग्गा बना दिया जाता। रज्जू आईना पकड़े पकड़े अपने चेहरे को निहारती, तरह तरह के मुँह बनाती, हँसती खिलखिलाती खुश हो जाती। उसे भौजाई पसंद आती थी। उसे भौजाई इसलिए भी पसंद आती थी कि गाहे बगाहे अपनी सिंगार पेटी उसके हवाले कर देती थी और रज्जू घंटों चूड़ियों, टिकुली से खेलती रहती। गाढ़े गाढ़े रंगों के सलवार कुर्ते रज्जू के लिए खुद उन्होंने सिले थे। माहवारी के दिनों में रज्जू को खुद का होश नहीं होता। हर सावधानी के बावजूद जहाँ तहाँ रंगीन छापे लसेड़ती रहती। आजिज आकर फुलवरिया ने उन दिनों घर से निकलना रज्जू का बंद किया। बहलाने फुसलाने के लिए गुड़िया, छोटे छोटे बर्तन, गोटे, सलमा सितारे, रंगीन कंचे।
गरज ये कि जितना मिसराइन पहली ने रज्जू का ध्यान नहीं रखा उतना मिसराइन दूसरी माने फुलवरिया ने रखा। उधर मिसिर बेटे के जाने के बाद अचानक ही बुढ़ा गए। दो दिन की खिचड़ी दाढ़ी से चेहरा और बीमार पोला लगता। दाँत भी यकबयक सामने के टूटे गए थे। बोलते तो फिस्स से हवा छूट जाती। खाना पीना धीरे धीरे छूटता जाता था, कुछ बेटे के दुख में, कुछ टूटे दाँत के दुख में। काँसे के बड़े से कटोरे में गुड़ पर रोटी दूध गिराते बहाते खा जाते, सुस्त हो दुकान पे बैठते। सुबह उनकी ड्यूटी बनती थी वहाँ बैठने की। तब स्टोर का धंधा मंदा चलता। तीन बजे से फुलवरिया बैठती तब धंधा चकाचक चलता। इतना चकाचक कि पहले से भी ज्यादा कमाई होती। पिसाई वाले शेड के पीछे वाली कोठरी में अजमेरी रहता। अब जवान हो चुका था। पिसाई कराता और एक निगाह दुकान पर बैठी मिसराइन पर रखता। सीना ठोक के कहता, ई घर के गार्जीवन तो हमई हैं।
माने रामावतार के बिना भी जीवन खूब चल रहा था। फुलवरिया की जवानी अब भी उठान पर थी। मोहल्ले, गली के लौंडे लपाड़े उन्हें देख आहें भरते, फब्तियाँ कसते। इस सब से बेखबर फुलवरिया सज बज के तैयार होतीं, सखी सहेलियों से मिलती जुलतीं, खूब हँसतीं। रात बिरात कभी रामावतार की याद आती तो अपमान से चेहरा लहक जाता और उसकी हथेलियों में धँसा अपना दाँत याद आता। पर फिर भी ठस्स गर्मी में छरछितांग लेटे, शरीर पर से आँचल दूर हटाते कोई कीड़ा नाभि के नीचे सुरसुराने लगता। लौंडे लपाड़ों की फब्तियाँ शरीर पर फिरने लगतीं, मुछंदर का गीत छाती के बीच धड़ाम धड़ाम थाप देने लगता। ऐसी गर्म रातों को फुलवरिया को नींद नहीं आती। नागिन अपना केंचुल छोड़े तो कैसे।
ऐसे ही गर्म सर्द रातों का सफर तय करते करते एक दिन हादसा हो गया जो होने के लिए ही धड़क रहा था। होना ही था। ये नियति हर कोई जैसे जान रहा था। और चूँकि ये होना ही था सो हुआ। और इस काम की भी निमित्त फुलवरिया ही थीं। बस वैसे ही जैसे रामावतार के स्वामी जी के शरण में जाने की। हुआ ये कि महीने की उस तारीख को जब रज्जू को घर से बाहर नहीं जाने दिया जाता था, इस महीने भी वही किया गया। पर इस बार रज्जू हर बार की तरह शांत रज्जू, आज्ञाकारी रज्जू, प्यारी भौजी की प्यारी ननद नहीं रही। किस बात से घुन्नी हुई कौन जाने। बाहर गई, अंदर गई। पड़ोसन हाथ पकड़ लाई। कपड़े गंदे, कुर्ता गंदा, सलवार गंदा। डाँट डपट हुई। फिर शाम से गायब। और ऐसी गायब हुई कि दो दिन बीते मिली ही नहीं। बूढ़े मिसिर पागल मिसिर हो गए। फुलवरिया आँख लाल कर रोती रही। थक हार, थाना पुलिस भी हुआ। चचच्च चच्च हुआ, थू थू हुआ, खुसपुस हुआ, अफसोस लाचारी हुई, भौजी कभी माँ हुई है जो, हुआ। मतलब सब हुआ पर वो नहीं हुआ जो होना चाहिए था माने नहीं मिलनी थी लड़की सो नहीं मिली। दो दिन और बीते फिर लाश मिली। कहा, कोई बुरा काम हुआ इसके साथ। कहा कपड़े भी नहीं थे। ये भी कहा, किसी जानकार का काम।
जो भी हुआ, बहुत बुरा हुआ। एक बार अजमेरी के घर में रेत फैली थी। अबकी फूलपुर में रेत फैली। फूलपुर किराना स्टोर बैठ गया। ऐसा नहीं कि लोग नहीं आते थे। लोग अब भी आते थे पर मिसिर पहले बूढ़े मिसिर हुए फिर पागल मिसिर हुए। अंट शंट बकते, अटशटरम सामान तौलते, दिनरात बुड़बुड़ाते। फुलवरिया का बाहर निकलना बंद हो गया। फब्तियाँ, गाने सुनना बंद हो गया। और जब ये सब बंद हुआ तो जीना बंद हो गया। सुन्न सन्नाटे में पंखे के नीचे लेटे लगता जीवन नष्ट हो गया। दुकान पर बैठने का जी नहीं करता। ऐसा भी नहीं था कि रज्जू से कोई इतना गहरा प्यार था। पर ऐसा था कि मरी हुई रज्जू का चेहरा देखा था। और अब ऐसा था कि आईने में देखते, बाल काढ़ते और टिकुली लगाते वक्त अपने चेहरे पर रज्जू का नुचा बुचा चेहरा दिखाई पड़ने लगता। हौल दिल हो जाता। लगता कोई बलिष्ठ छाती में मुँह धँसा के हमेशा हमेशा के लिए सुरक्षित हो जाए।
उनके उड़े चेहरे को देख कर अजमेरी अपनी दूसरी निगाह भी दुकान पर बैठी उजाड़सूरत फुलवरिया पर लगा देता। उसकी बाँहों की मछलियाँ फड़कने लगतीं। उसकी आँखें अधमुँदी हो जातीं और जागते जागते उसे वो सपने दिखाई देने लगते जो कुछ दिन पहले तक रात बिरात उसकी नींद उड़ाते थे। उसका जी करता कि फुलवरिया मिसराइन के उफनते यौवन में अपना मुँह धँसा दे। बसा ले अपने नथुनों में जंगली पके अमरूद की महक। कच्चे ताड़ी के नशे से मन झूम झूम उठता। उसे सही मौके की तलाश थी। उसकी आँखों में आजकल एक सपना पनपने लगा था, फूलपुर किराना स्टोर का बोर्ड उतार कर गेंदे के पीले नारंगी फूलों से सजा नया बोर्ड लगाया जा रहा है अजमेरी फुलवरिया प्रॉविजन शॉप और दुकान की गद्दी पर राजा रानी की तरह बैठे हैं अजमेरी और फुलवरिया।
अब भला अजमेरी और फुलवरिया का क्या मेल। कहाँ फुलवरिया मिसराइन, पंडिताइन, मालकिन फूलपुर किराना स्टोर की, न बेवा मुसम्मात, न ब्याही सधवा, फिर भी मालिक इस घर की दुकान की। और कहाँ अजमेरी। अजमेर शरीफ के मजार से निकली दुआ के असर का, न बाप न माँ, न घर न परिवार का। नौकर का नौकर। फिर भी अजमेरी की चौड़ी कलाई पर के सुनहले रोंए पर फुलवरिया की निगाह अटकने लगी थी। उसकी चकली छाती, काले ताबीज से सजे गर्दन के मस्से पर दिल बहकने लगा था। उसकी मर्द गंध और पसीने की धार पर छाती धड़कने लगी थी।
फूलपुर नाम का कस्बा जो कई मामलों में अलस्त पड़े खाए पीए अजगर के माफिक लोगों के दिल दिमाग में पसरा हुआ था, जो पसीने की एक बूँद की तरह भौंहों से चूता, न गिरता समय के किसी खास मोड़ पर थरथराता हुआ लटका हुआ था, उस फूलपुर नाम के कस्बे में चेतना की नीम बेहोशी में, फुलवरिया अपने जीवन के सबसे अहम फैसले के मोड़ पर दम साधे, धड़कती छाती पर हाथ धरे, मुँह बाए अचरज से अपनी इस हिम्मत पर, आँखें चिहारे खड़ी थीं। सब कुछ थम गया था। समय थम गया था। जमीन आसमान थम गया था। जीवन थम गया था। पूरा फूलपुर थम गया था।
पाउलो कोल्हो ने कहा है कि अगर आप शिद्दत से कोई सपना देखते हैं तो पूरा विश्व इस सपने को पूरा करने में जुट जाता है। अब पता नहीं फुलवरिया का सपना और अजमेरी का सपना पूरा हुआ कि नहीं। फूलपुर ने पहली दफा एक त्यक्ता स्त्री का दूसरा विवाह देखा कि नहीं, कि पहली दफा एक औरत ने अपने से छोटे पुरुष का हाथ थामा कि नहीं, कि पहली दफा एक ब्राह्मण पंडिताइन ने एक मुसलमान मर्द का साथ सुख पाया कि नहीं। कि पहली दफा एक औरत ने अपने सुख साधन के बारे में सोचा, कि अपने मन और शरीर के बारे में सोचा। ऐसा और कई जगहों पर होता आया है पर फूलपुर में। न, अब तक ऐसा नहीं हुआ। किसी टाइमवार्प में फूलपुर अब भी उसी एक पल पर ठिठका रुका है। हम पलक झपकाएँगे, झपकाते ही फुलवरिया और अजमेरी उस पल से फुर्र से उड़ जाएँगे। हम हँसेंगे, अखबार पलटेंगे, चाय घूँट घूँट पीएँगे और फिर मगन हो जाएँगे अपने अपने जीवन में। और इसी देशकाल में, इसी वक्त में किसी और फूलपुर में कोई और फुलवरिया और अजमेरी अपनी हिम्मत पर 'हा' किए आँखें चिहारे थमे होंगे सही समय के इंतजार में।