फूलों के आलते में रेत की दीवार / उपमा शर्मा

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मेरी बरसों की साध पूरी होने जा रही है। दिल के तार अजीब—सी लय में गा रहे हैं। तुमने बुलाया है मुझे अपने बसेरे में, जहाँ बिखरा पड़ा है मेरा संसार। तुम्हारे घर के अहाते में मेरे रंगों से सरोबार तुम्हारे गमले। गमले में खिलते वे काले गुलाब। तुम्हें सफेद रंग से प्यार था और मुझे तुमसे। तुम्हारे बगीचे में हर तरफ उगते सफेद फूलों के बीच उगते मेरे उस काले गुलाब को देख तुम माली काका पर कितना चिल्लाए थे। तब बाबा ने कहा था कि रहने दीजिए न साहब बच्ची ने बड़े प्यार से लगाए हैं। तुम्हें कब याद होगी वह काले गुलाब लगाने वाली लड़की। तुम विख्यात लेखक समुद्र के इस तट पर महीने के एक दिन जरूर आते हो। यह मुझे कैसे न पता होता? अपने बचपन से आज तक मैंने तुम्हें एक-एक पल जिया है। आँखों में उदासी की कतरनों ने अनायास ही कब्जा जमा लिया, जब पता लगा तुम अभी बाहर गए हो। तब से आज तक मैं रोज तुम्हारी राह तकने यहाँ आती हूँ। तुम्हारी राह तकना बचपन का शौक है मेरा। समुद्र की चंचल लहरों से खेलती हम दोस्तों की टोली तुम्हें देख रुक जाती है। तुम अपनी दोस्त के साथ हाथों में हाथ डाले मुस्कुराते हो और मेरे दोस्तों की ऑटोग्राफ बुक्स खुल जाती हैं।

दूर मुझे अकेले खड़े देख तुम्हारी आँखों में वैसी ही हैरत उतर आती है, जैसी अपने रास्ते में खड़ी उस उलझे बालों वाली लड़की को देख उतर आती थी। मैं सामने आ मुस्कुराती हूँ। तुम भी अपनी वही चिरपरिचित मुस्कान मेरी तरफ उछाल देते हो, जिसे मैंने खिड़की की झिरी से देखते हुए अपना बचपन विदा किया था।

काश कभी तुम्हें याद आती मेरी सतरंगी चूड़ियों की खनक। तुम्हारे दिल में झाँकती मेरी सपनीली आँखें। तुम्हें देख मेरे अधरों पर खिलती तबस्सुम की कलियाँ। अपने बड़े से बंगले के बराबर के बंगले के सर्वेन्ट क्वाटर में रहने वाली वह फटी फ़्रॉक पहने तुम्हें देख आँखों में चमक रखने वाली वह लड़की। राहों में आते जाते तुम्हारी राह फूलों से पाटने वाली वह अल्हड़ लड़की। रफ्ता-रफ्ता तेरी यादों के रेले में दिल की कश्ती डूब रही है। तुम सामने हाथ हिला रहे हो और मैं वैसे ही तुम्हें एकटक निहार रही हूँ। मेरे दोस्तों की टोली तुम्हारे इर्दगिर्द शोर कर रही है। तुम सुना रहे हो उन्हें वही कविता, जो मैंने सुनी थी अपने रुखे वालों की चोटियाँ गूँथते हुए। तुम्हारे अधरों पर बिखरी हैं वही शब्दों की तितलियाँ, जिसे पढ़ते हुए मैंने विदा ली थी उस खिड़की से जिसके सामने तुम रहते थे। तुम मेरे ख्वाबों का मरकज़। मेरी इकलौती चाह। मेरे जीने की एकमात्र वजह। बचपन के निशां अब मुझसे विदा हो चले हैं। अब मैं हूँ एक अपूर्व सुन्दर युवती। तुम भीड़ से इतर बढ़ आते हो मेरी ओर। मैं मुस्कुराती हूँ तुम्हारी कमजोरी पर। मेरे हाथों में आज भी वही तुम्हारे पसंदीदा सफेद फूल हैं। तुम्हारी आँखें आत्मीयता की खिड़की खोलने को आतुर हैं और मैं तलाशती हूँ वहाँ अपनी पहचान का कोई भूला-बिछडा़ अक्स।

साँझ चुपके-चुपके आकाश पर अपना डेरा डाल रही है। आसमान के सीने पर अपनी सिगरेट से धुँआ उडा़ते बादल-से तुम। इश्क का सहर होता ही ऐसा है, तभी तो कोई इमरोज खुश होता है किसी अमृता के अपनी पीठ पर साहिर लिखने से। तुम्हारे साथ कॉफी का प्याला पकड़े मैं खो जाती हूँ, तुम्हारे शब्दों के जादू में। ये शब्दों की कलियाँ ही तो मेरे वजूद का हिस्सा हैं। तुम्हें याद कहाँ होगी, तुम्हारे गीत गजल गाती वह बेख़ुद—सी लड़की। तुम थामते हो मेरा हाथ और मैं ढूँढती हूँ इन हथेलियों में खुशबू तुम्हारे गुलदान में अपने हाथ से सजाए फूलों की।

दूर पगडंडियों पर चलते हम-तुम। तुम सुना रहे हो अपने किस्से और मैं खोई हूँ तुम्हारे घर के बाहर की पगडंडी पर। तुम्हें याद भी कैसे होगा अपना दरवाजा खोलते ही उस राह पर पड़े होते थे सफेद फूल। तुम हैरतों से भर-भर जाते। फिर खुश हो उन फूलों पर बड़ी शान से जाते और तुम्हारे जाते ही मैं मुट्ठी भर फूल अपने दामन में भर लेती। मैं आगे बढ़ उछालती हूँ वही मुट्ठी भर सूखे सफेद फूल। तुम दे देते हो एक मधुर मुस्कान। तुम्हारी आँखों में उतर आए हैं डूबते सूरज के अक्स, जिसमें कहीं नहीं वह सफेद फूलों वाली लड़की।

संध्या चुपचाप चली जा रही है। रात का आँचल थाम चाँद मेरी खिड़की में उतर आने को है। चाँद का मेरा पुराना नाता है। वह उतर आता है मेरी खिड़की में। मेरे रतजगा में मेरे साथ जागता-सा।

जी करता है-हाथ बढ़ा़कर चाँद को छू लूँ मैं। जैसे ही मैं हाथ बढ़ाती हूँ, वह उड़कर आसमान में जा ठहरता है। आज चाँद को छू ही लेना है मुझे। चाँ द की और मेरी आँखमिचौली रातभर चलती रहती है। तुम अपने घर के कमरे में मेरा इंतजार कर रहे होगे। उसी घर में जिसमें तुम्हारे साथ आने की तमन्ना में बरसों गुजारे हैं मैंने। यादों का एक मीठा रेला फूट पड़ा है। मैं नन्ही-सी हूँ, खड़ी हूँ अपनी खिड़की की झिरी से झाँकती। दूर अपनी पूरी आन-बान के साथ तुम अपनी कविताओं के साथ मेरी आँखों में गडमड होते हुए। पिघले शीशे—सी कानों में सौतेली माँ की आवाज उतरती है। "अरी कहाँ मर गई। पता नहीं खिड़की से चिपकी क्या करती रहती है?"

वह क्या जाने? उसने कब पढ़ी होगी कोई प्रेम कविता।

इंद्रधनुष के रंगों को कब समेटा होगा अपनी निशान पड़ी बेजान हथेलियों में।

उसने कब भरे होंगे हरसिंगार अपनी अंजुरी में।

वह अपने नन्हे वजूद को गोदी में भर आटे नमक के जुगाड़ में खोई रहती और मैं तुम में। तुम हो ही इतने शानदार। आज भी वैसी ही चमकदार आँखें। वही मखमली ओंठ। तुम अनगिनत लड़कियों के आइडियल। तुम्हारे घर आना-जाना लगा रहता था, तुम्हारी अनगिनत दोस्तों का। कविता-कहानियाँ कमरे के हर जर्रे से गूँजतीं और मेरे कानों में गूँजते तुम्हारी मिश्री-सी डली से वे धीमे स्वर। सुरों का ऐसा जादू मुझ गँदले और फटी फ़्रॉक वाली लड़की को ले जाते सपनों की किसी दूसरी दुनिया में। मेरी पूरी दुनिया खिड़की की उस झिरी में समाई रहती।

माँ सुबह से शाम घर से बाहर रहती और मेरी आँखें चिपकी रहतीं तुम्हारे चेहरे पर।

तुम घर से निकलते और मैं झट घुस जाती तुम्हारे घर में। रामू काका के आगे पीछे घूमती मैं तुम्हारी दीवानी। अपने हाथों से तुम्हारे घर को बुहारती। तुम्हारे गुलदान में हर दिन तुम्हारे पसंद के सफेद फूल सजाती। तुम्हारी किताबें निकालती। उन पर उँगलियाँ फिराती। किताबों पर तुम्हारे स्पर्श की दुनिया मुझे दूसरी दुनिया में ले जाती। तुम्हारे कपड़े इस्तिरी करती। तुम्हारा कमरा सजाती। तुम्हारे बिस्तर की सिलवटों में बसी तुम्हारी वह महक मेरा मन महका जाती। रामू काका मुझे दो रोटी पकड़ा देते। वह समझते वह मुझ भूखी को रोटी दे उपकार कर रहे हैं। उपकार ही तो था उनका, तुम्हें मुझे महसूस करने देने का। तुम्हारी खुशबू का अहसास मुझे सारे दिन महकाए रखता। तुम्हारे आने से पहले मैं घर से निकल जाती। तुम सामने से जाते मेरे चेहरे पर एक अजनबी-सी नजर डाल।

माँ थककर सो जाती और मैं सोते-जागते उसी खिड़की पर टँगी रहती। पिता अपनी दूसरी पत्नी के पास पहली पत्नी की बेटी छोड़ न जाने कहाँ चले गए थे। माँ ने यही उपकार किया कि सौतेली बेटी को घर से नहीं निकाला। हालात बहुत बुरे थे। माँ हालात से परेशान थी। मेरे खिड़की पर लटकने से परेशान थी। माँ को आते देख मैं झट से वह झिरी छुपा देती।

तुम आते मैं बिछ-बिछ जाती तुम्हारी राह में। तुम्हारी दीप-सी रोशन आँखें मुझे तुम्हारी ओर बरबस ही खींचती, जहाँ मुझे खोजे से भी अपनी झलक न मिलती।

मेरी आँखों की ज्योत बुझने लगती। फिर अगले ही पल अपनी टूटी आस को समेट मैं फिर जा खड़ी होती उस खिड़की की झिरी में। तुमने कब देखे टूटे सपनों के पंख? तुम्हारी बाँहों में तुम्हारी खूबसूरत दोस्त होती और मेरी पलकों में तुम्हारा मेरा होने का ख्वाब। तुम अपनी दुनिया में खोए थे और मैं तुममें।

माँ की नमक तेल की मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। हम दूसरे शहर जा रहे थे। माँ के किसी रिश्तेदार के पास। मेरे कदमों में जंजीरें पड़ गईं। तुम्हें पाने से पहले ही तुम्हें खोने का दुःख। आँखें नमकीन पानी में डूबी रहतीं। आखिर वह दिन भी आ ही गया, जहाँ टूटी खिड़की पर कुछ सपने बिखर गए। मैं छोड़ आई अपने कदमों के निशान। अपने सूने दिल के टुकडे़। तुम मुझसे इतने ही बेखबर, जैसे लहरों से सागर।

मैं सब कुछ करने को तैयार थी। माँ की मदद करने को। उसका काम बँटाने को, नहीं राजी थी तो बस ये शहर छोड़ने को। माँ अपना सामान समेटने को कह घर से बाहर चली गई। तुम शहर से बाहर गए हुए थे। मैं भाग कर जा पहुँची तुम्हारे घर के आँगन में।

मखमली घास में अपनी दुनिया बिखेरती। तुम होते भी तो क्या मुझे रोक लेते?

माँ चली गई अपने दुखों की जिद्दी पोटली को अपने भाई की कमीज में समेट। इंतजार भी कितना करती अपने पहले पति की गुमशुदा-सी बेटी का। उनके भाई भी मुसीबत छूटने से खुश थे। आँसू का एक रेला पलकों के बाँध तोड़ बह चला था। ये आँसू किसके थे, इस अहसास के कि मैं इस शहर में अकेली रह गई या इस खुशी के कि मैं तुम्हारे शहर में रह गई।

टूटी खिड़की छोड़ने का समय आ रहा था। मकान मालिक अब मुझे वहाँ क्यों रहने देता? आँखों में खिड़की के टूटे शीशे की किरचों की चुभन और मन के सिंहासन पर तुम्हें बैठाए मैं चल पड़ी तुम्हारे होने की यात्रा पर।

अपनी मुश्किलों के साथ मैं जीना सीख रही थी। तुम तक पहुँचने की चाह ने मुझे जिंदा रखा हुआ था। सब कुछ खतम हो रहा था ठिकाना, खाना, माँ का साथ, लेकिन नहीं खतम हुआ, तो तुम्हारा होने का सपना। कुछ नहीं था मेरे पास सिवाय तुम्हारी यादों की किरचियों के। तुम्हें कैसे पता होगा रोटी के लिए कमाए पैसों से किसने भेजे तुम्हारे पसंदीदा फूल! अपने दरवाजे पर नित दिन मिलने वाले फूलों को तो तुमने सजाया, पर कहाँ सजाए उसके कदमों के निशान, जो खाली पेट तुम्हारे दरवाजे तक आते थे तुम तक तुम्हारे पसंदीदा रंग पहुँचाने। रंगों का क्या? ये तो जिसके पास हो उसके हो जाते हैं।

आज रंग मेरा आँचल भरने को बेकरार हैं। कितने दिनों के बाद आई हूँ मैं अपनी पनाहगाह में। यहाँ के चप्पे-चप्पे पर छाए हैं मेरे इश्क के रंग। दीवारों पर लगी तस्वीरों पर मेरी कल्पनाओं के रंग। वार्डरोब में भरे मेरे भेजे रंग। डाइनिंग पर फैले मेरे पसंदीदा बरतन। बगीचे में पूरी शान से झूमता वह काला गुलाब। यहाँ के हर रंग में घुले हैं मेरे इश्क के रंग। कोने-कोने में महक रहा मेरी अनजानी रूह का अहसास। मैं तुम्हारी उँगलियाँ थाम कहती हूँ-"वाह! बड़ा प्यारा घर सजाया है आपने।" तुम एक अकड़ से बताते हो, न जाने कौन है, जो ये सब भेजता है। "

मैं पूछती हूँ कभी जानने की इच्छा नहीं हुई। तुम कहते हो-"क्या फर्क पड़ता है।"

कुछ टूट जाता है अन्दर ही अन्दर बिना आवाज़। इस टूटने की तो आदत है। तुम्हारे बेडरूम तक ऐसे आने का लम्बा सफर तय किया है मैंने। सामने आज भी दिख रही है वह टूटी खिड़की और मेरे आगे मुस्कुरा भर देती है वह उलझे बालों वाली झल्ली—सी लड़की। बाहर बगीचे में खिले हैं पूरी शान से मेरे लगाए काले गुलाब। गुलदान में आज के मेरे भेजे ताजा फूल सजे हैं। मैं पी रही हूँ घूँट-घूँट तेरे इश्क का नशा।

रात बूँद-बूँद बरसा रही है तेरे प्यार का अमृत। चाँदनी तुम्हारे चेहरे से फिसल आ ठहरती है मेरे अधरों पर। चाँद आकाश से आज मेरे आँचल में उतर आया है। मेरे कानों में गूँजते हैं तुम्हारे ठहरे हुए धीमे से स्वर। मेरी धड़कन सुन रही है तुम्हारी साँसों के आरोह -अवरोह। रात की रानी भर रही है मुझे अपने आगोश में। मैं पलकों को कसकर, कर लेती हूँ बंद, जिनमें अनन्त तक बसे रहोगे तुम।

सुबह की मीठी धूप मेरी पलकें सँवार रही है। मोगरे की महक से मन सराबोर है। मेरे होठों पर एक शर्मीली स्मित ठहर जाती है।

मैं चाय की प्याली—सी छलक-छलक जाती हूँ। धूप शिद्दत से उतर आई है। मैं जाने को तैयार होती हूँ। तुम कहते हो-"तुम्हारा साथ बहुत अच्छा था। क्या हम फिर मिलेंगे?" मैं शरमाकर हाँ कहती हूँ। सूरज का उजाला मेरी आँखों में तैर जाता है। मैं तलाशने लगती हूँ तुम्हारी आँखों में वह फटे फ़्रॉक वाली लड़की। तुम नोटों की गड्डी मेरे सामने लहराते हो। मैं अचकचाकर तुम्हें देखती हूँ।

"ये क्या?"

"तुम रात भर मेरे साथ थीं।"

धूप का एक टुकड़ा दरवाजे पर अटक गया। मेरी आँखों में खिड़की के टूटे शीशे की तेज चुभन होने लगती है। सामने से आ रहे रामू काका मेरे हाथों में नोटों की गड्डी देख बाहर जाने लगते हैं। वह मुझे देख यकायक रुक जाते हैं। बूढ़े की आँखों में वह फटी फ़्रॉक, उलझे बालों वाली लड़की झिलमिलाती है। मैं नोट फेंक रोती हुई बाहर भागती हूँ।

सामने गुलदान में कल के बासी फूल मुरझा रहे हैं। -0-