फूल और पत्थर / सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'
सुबह की चमकती धूप में एक फूल अपनी कोमल पंखुड़ियों को फैला कर अपने में ही खोया हुआ था| पवन आकर उसे छूती तो वो लज्जा और ख़ुशी के मिले जुले भावों से झूम उठता था| पवन उसे लगातार छेड़ रही थी और उसकी सुगंध को चारों ओर बिखेर रही थी| भँवरे और तितलियाँ सब हवा से फूल का पता पूछकर उड़े चले आ रहे थे| एक पत्थर ये सब बहुत देर से देख रहा था... उसे थोड़ी सी जलन हुई और थोड़ा अभिमान भी|
पत्थर फूल से बोला- जब तुम्हें मुरझाना ही है तो खिलते क्यों हो ? तुम्हारा ये झूमना व्यर्थ है क्योंकि शाम होते ही तुम्हारी इन रंगीन पंखुड़ियों की रंगत समाप्त हो जायेगी... इन तितलियों को अपने पास क्यों बुलाते हो ? तुम मुरझा जाओगे तो ये तुमसे दूर चली जायेंगी|
फूल ने एक बार नीचे पड़े पत्थर को देखा... मुस्कुराया और फिर झूमने लगा| पत्थर फिर बोला- सुनो फूल मुझे तुम्हारे ऊपर तरस आता है की तुम्हें मेरी बात समझ नहीं आ रही है, लेकिन जब शाम होगी और तुम मुरझाने लगोगे तब तुम्हें समझ में आयेगा कि दिन भर तुम व्यर्थ ही झूमते रहे| फूल को जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दिया इस बार... वो पूर्ववत पवन, तितलियों और भंवरों के साथ खेलता रहा| सांझ हुई और फूल मुरझा गया| ये देखकर पत्थर को बड़ी ख़ुशी हुई कि जैसा उसने कहा था वैसा ही हुआ| अगली सुबह पत्थर सोकर उठा तो देखा एक और फूल उस पौधे पर खिला था- ताजगी से भरा, महक बिखेरता, झूमता, पवन से अठखेलियाँ करता हुआ और तितलियों से घिरा हुआ|