फूल / पद्मजा शर्मा
एक किशोर अक्सर हमारे बगीचे से फूल चुन कर ले जाता था। जब वह फूल चुनता था तब उसकी नजरें सिर्फ़ फूलों पर होती थीं। इधर-उधर और कहीं भी नहीं देखता था। उसकी नजरें फूलों के सिवाय कुछ देखती नहीं थी। कान कुछ और सुनते नहीं थे। मैं कई बार उसके पास आकर निकल जाती। वह मनोयोग से फूल चुनता रहता था। देखता तब न, जब सुनता।
एक दिन टोकरी भर फूल लेकर मुड़ रहा था। मैंने पूछ लिया, खिले फूल से चेहरे वाले बच्चे से कि-'क्यों और किसके लिए चुनते हो तुम फूल?'
वो चौंका और मासूमियत से बोला-'ये फूल मैं अपने लिए नहीं, माँ के लिए चुनता हूँ। वह इन्हें धागे में पिरोती है। माला बनाती है। फिर भगवान को चढ़ाती है। इसलिए कि भगवान की कृपा दृष्टि मुझ पर बनी रहे। बाकी मालाएँ बेचती है कि मेरी पढ़ाई जारी रहे।'
'तुम्हारी माँ क्यों नहीं आती? पिता क्यों नहीं आते? तुम्हें स्कूल जाना होता है इस समय?'
'मेरे पिता इस दुनिया में नहीं हैं? माँ फूल बेचकर घर चलाती है। मुझे पढ़ाती है। माँ मेरे लिए इतना करती है। क्या मैं स्कूल जाने से पहले माँ के लिए इतना भी नहीं कर सकता?'
बच्चा तेज-तेज कदमों से जा रहा था।
सुबह हंस रही थी। फूल मुस्करा रहे थे। पत्तियाँ तालियाँ बजा रही थीं।
मैंने तय किया कि बगीचे में इस बार फूल वाले पौधे और लगाने हैं।