फेक एकाउंट / पूनम मनु

Gadya Kosh से
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मध्यम वर्गीय एक परिवार जो निचले तबके से जान छुड़ा कर भागा था कभी। अब उच्च वर्ग की पूंछ पकड़ने की कोशिश में था। केवल वही थी जो अब भी ज़मीन पर ही टिकी रहना चाहती थी। बाकी गुब्बारे की भांति हवा में तैर रहे थे या फिर तैरना चाह रहे थे। वह जानती थी गुब्बारे और गुब्बारे में भरी हवा की दिशा और दशा। परंतु कोई उसकी बात समझने को तैयार न था। जैसे आज-

आशीष बहुत देर से बहस करते हुए, अपनी माँ को ऐसे घूर रहा था मानों वह उसकी जन्म की दुश्मन हो-"मम्मा...मुझे खाने को बार-बार मत कहा करो" वह दांतों को पीसते हुए बोला था।


-"बेटा..." माँ ममत्व से भरी थी। उसकी आँखों से छलकती ममता रूपी विवशता उसे वाकई एक नीरीह-सा प्राणी साबित कर रही थी।


-"मैं अब बच्चा नहीं रहा... जो, आप खाने को लेकर सदा मेरे पीछे पड़ी रहती हो" वह गुस्से में हाँफने लगा था।

"आशु, बेटा मुझे तुम्हारी सेहत की चिंता... माँ के हलक के तंतुओं में अटके बाक़ी शब्द बाहर आने का रास्ता तलाश करते उससे पहले ही–-" ममा, बस करो! " आशीष फिर अपना आपा खो बैठा।

मन और आँखों में उलझन उभर आई खीझ के साथ...


-"भाड़ में जा..."

अभी वहाँ से चले जाना ही बेहतर था। सोचा ... और चली गई. पर उसकी उद्दंडता पर आँखें छ्लकना स्वाभाविक था। भाड़ में जाने को कहना दिल से न था।


-"सबकी ममाज तो ऐसी नहीं हैं। पता नहीं कहाँ से ये गंवार माँ हमें मिल गई ... चौबीसों घंटे खाना... खाना ... सेहत... सेहत ... उफ़! इरिटेशन की भी हद हो गई ये तो!" आशीष जाने किस आवेश से भरा था।

मानों माँ पाई जा सकने वाली वस्तु है। ईश्वर की बड़ी नेमत या इंसान भी होने से परे।

असपष्ट-सी बुदबुदाहट और झुंझलाहट अब निखर कर वातावरण में उभरने लगी थी स्वर भी आकुंठित हो गया था उसका-

"एक तो, इस तान्या ने दिमाग खराब कर रखा है। जब देखो तब नेट से गायब... चैट से गायब। न मिलती, न फ़ोन करती। ऊपर से ये ममा, खाना...खाना ... खाना ... कितनी बार कह चुका हूँ नहीं खाना मुझे इनकी सड़ी दाल-सब्जी रोटी वाला खाना। मैं बाहर से पिज्जा और बर्गर खा आया था। पर नहीं, जब देखो सेहत के खयाल की रट... भाड़ में जाये सेहत... माय फुट!"

"कभी दूध का गिलास तो कभी दही परांठा लिए पीछे-पीछे दौड़ेंगी" बाकी का संवाद पहला सबकुछ सुन लेने में जोड़कर अंदर आती प्राची ने कहा।

"सच है ब्रो..." अपने नाखूनों पर लगी नेल पेंट पर फूँक मारते प्राची ने आग में घी का काम किया। -"पता नहीं हमारी ही मम्मी इतनी गंवार-सी क्यूँ हैं...? सबकी मम्मियाँ देखो कितनी मॉडर्न हैं किसी का एफबी पर एकाउंट तो कोई वॉटस एप पर लगी रहती है... पर हमारी मम्मी को सिवाय हमारे कुछ नहीं दिखता..." अपने मन का गुबार निकालते प्राची फिर बोली।


-"मैं फोन पर किसी से बात करूँ या कि व्हाट्स एप पर कोई मैसेज भेजूँ ...हर वक़्त तांक-झांक ... लैपटॉप के हाथ लगाते तो बस फिर कमरे के चक्कर पर चक्कर देखो मम्मी के ... एवरी टाइम बस वही झक-झक, क्या कर रही हो ... चैटिंग बुरी चीज़ होती...बस बहुत देर हो गई. अब पढ़ भी ले" सोलह-सत्रह साल की प्राची का मुख लाल हो गया क्रोध और आक्रोश की अधिकता से।

"और तो और ब्रो... उस दिन ..."


–"तू, चुप कर!" आशीष प्राची पर चिल्लाया।

माँ को लेकर झुंझलाती प्राची, भाई को इतने गुस्से में देख, सहम गई. लगा बात उल्टी पड़ गई.

"तुझे अपनी पड़ी है, यहाँ मेरा दिमाग खराब हो रहा है। ये बता, तान्या कहाँ हैं आजकल...? मेरे एक भी मैसेज का अंसर नहीं दे रही..." 18 वर्षीय आशीष ने प्राची को घूरते हुए पूछा।


-"मुझे क्या पता..." भाई के रूखे व्यवहार पर रूखा ही जवाब दिया बहन ने।


-"तेरी फ्रेंड है वह और तुझे ही पता नहीं...?" आशीष आँखें तरेर कर बोला।


-"तुम्हारी भी तो फ्रेंड है ... जब तुम्हें ही नहीं पता कि आजकल वह कहाँ है। क्या कर रही है तो मुझे कैसे पता होगा भला ..." उसकी ओर बुरा-सा मुंह बनाती हुई प्राची धम्म से सोफ़े पर पसर गई.


-"ठीक है! देख लूँगा तुझे भी और उसे भी।" फ़ोन पर नेट ऑन करता आशीष इस बार गुर्राया। बारहवीं में पढ़ते आशीष का ध्यान पढ़ाई में कम नेट में ज़्यादा लगता।

दसवीं में पढ़ती प्राची के पास सारी दुनिया के लेटेस्ट फैशन की हर जानकारी होती। लो वेस्ट जींस पहनने वाले लड़के उसे ज़्यादा स्मार्ट लगते बनिस्बत पढ़ाकू लड़कों के. रंगे बालों वाले लड़के उसे आकर्षित करते। कभी गोल्डन, तो कभी लाल जिसके जितने जले भुने बाल उसको उतने ही ज़्यादा नंबर मिलते प्राची की ओर से।


-"प्राचु, ओ प्राचु... आजा... देख, मैंने तेरे लिए गरमागर्म खाना तैयार किया है। आजा... ये आशु का बच्चा तो मना कर रहा। आजा, तू ही खा ले..." माँ की आवाज़ में फिक्र के साथ आग्रह जैसा कुछ था।

हाँ... किसी चीज की कमी अवश्य थी। वह कमी क्या थी... नहीं पता।


-"नहीं मम्मा... मैं अभी कुछ न खाऊँगी। ट्यूशन से आते समय मैंने और निक्की ने मोमोज खाये थे, अभी बिल्कुल भूख नहीं।" प्राची ने अपने कमरे की ओर बढ़ते हुये कहा।

अनुग्रह का इस तरह उलंघन इस घर में कोई नई बात न थी।


-"प्राची ... क्या कर रह...ही" भूत की तरह प्रकट हुई अपनी मम्मी को देख, एकबारगी तो प्राची डर ही गई.

"क्या ममा ... आप भी ... कभी तो कुछ ऐसा किया करो जो हमें अच्छा लगे... डरा दिया... हाँ नहीं तो!" अपने दिल पर हाथ रख उसने आंखे गोल-गोल घुमाते हुए कहा। नथुने से ऐसे सांस बाहर निकाली उसने, मानों जो डर कर अभी निकल जाने वाली थी को ज़रा ठहर कर कोई निकाले। राहत की सांस।

"तू रहने दे बकवास करने को और ये क्या ... तू, फिर मुआ नेट खोलकर बैठ गई. कभी फ़ोन तो कभी टैबलेट कभी लैपटॉप तो कभी टी वी... क्यूँ इन आँखों को फोड़े ले रही है। कभी पढ़ते तो मुझे तू दिखती नहीं। पढ़ाई कब करती है तू...?" उसकी माँ उसके द्वारा अभी-अभी इधर-उधर फैलाये गए जूते, किताबों आदि को सही जगह पर रखते हुए गुस्से में बड़बड़ाई.

प्राची ने अपनी माँ की ओर बुरा-सा मुंह बनाया पर बोली कुछ नहीं। वह जानती थी मम्मा की ये रोज़ की आदत है पहले चिढ़चिढ़ाएंगी, बड़बड़ायेंगी और बाद इसके चुपचाप उस कमरे से निकल जाएंगी। परंतु आज ऐसा न हुआ...

माँ ने उसकी चुप्पी पर झपट कर उसका मोबाइल अपने हाथ में ले लिया और गुस्से में भरकर बोली-"क्या समझने लगी है तू अपने आप को... गाँव में इतनी बड़ी लड़कियाँ पूरी गृहस्थी संभाल लेती हैं। पढ़ने वाली पढ़ाई भी करती हैं और घर के काम में माँ का हाथ भी बँटाती हैं और एक तुम लोग हो। काम तो दूर की बात मुझसे ढंग से बात तक नहीं करते। माँ हूँ तुम्हारी मैं ... मैंने जन्म दिया है तुम्हें।"

माँ के रौद्र रूप का बेटी पर कोई असर हुआ या नहीं हुआ इसका तो पता नहीं परंतु अपने हाथ से इस तरह अपना मोबाइल छिनते देख प्राची मानों अपना दिमागी संतुलन खो बैठी। -"मॉम! आर यू मेड ... गिव मी माय सेल... क्या आपको एवरी टाइम एक ही बात सूझती है कि मैं फालतू की चैटिंग करती रहती हूँ... क्या आपको मालूम भी है कि फ़ोन पर ग्रुप में डिस्कशन कर हम सब दोस्त पढ़ाई करते हैं। आप गंवार हो। फ़ोन या नेट के फायदे तो आपको मालूम हैं नहीं।" माँ के हाथ से अपना फ़ोन झपटते हुये उफनती नदी-सी प्राची चिल्लाई.

माँ पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया...

हाय! पढ़ाई ...! तो क्या ... बेटी पढ़ाई करती है फ़ोन पर ... और वह मूर्ख... क्या समझती रही।


-"पहले तो कभी न बताया तूने कि तुम लोग फ़ोन पर ग्रुप स्टडी करते हो..." माँ शर्मिंदा-सी हो उठी।


-"अब आप इतनी पढ़ी-लिखी तो हो नहीं कि मैं आपको समझाऊँ तो आप समझ जाओ. मैंने हर बार इग्नोर किया आपको पर आप हर बार ही मुझे डांट कर चली जाती हैं" अपनी जीत पर मन ही मन ख़ुश होती हुई प्राची माँ को शर्मिंदा करने का कोई मौक़ा नहीं गँवाती थी। सो... इस अवसर को भी हाथ से कैसे जाने देती।


-"इतनी भी बेवकूफ नहीं हूँ कि... तू समझाती तो... मैं... मैं समझती नहीं" माँ को शायद अपनी होती बेइज्जती से ज़्यादा हिन्दी विषय में स्नातक की मिली अपनी डिग्री के अपमान की फिक्र थी। वह तड़प उठी।

"...बारहवीं तक तो मैंने भी इंगलिश पढ़ी है..." शब्द अधिक भारी थे कि अपमान की अधिकता से गला खुश्क हो गया था। शब्द अंदर ही फंसे रह गए. ज़ोर से चिल्लाने की भरपूर कोशिश के बाद भी। उसने फिर एक बार कोशिश करने की तकलीफ उठाई परंतु तब तक प्राची अपने कानों में ईयर फ़ोन रूपी ढक्कन लगाकर अपने बैड पर बिछे नरम गद्दों में धंस चुकी थी।

वह उसकी ओर टकटकी लगाए देखती रही... दो पल... और बस दो पल... बाद इसके बाहर निकल आई चुप। हर ओर से मिलती घुटन से भरी हुई वह बगीचे की ओर बढ़ गई...

कत्थई शाम में सब सलेटी था...अजब बात थी। मन उदास हो उठा उसका। हिन्दी से अपने गहरे लगाव के चलते काश! उसने हिन्दी न ली होती बल्कि इसके बरक्स अँग्रेजी ली होती तो आज उसकी भी कोई अहमियत इस घर में होती। ऊपर से उसका प्राकृतिक आहार-विहार आचरण, बनाव-शिंगार आह! ... अपने पर खीज उठी वह।

सच ही तो है। सच ही तो कहते हैं बच्चे... ज़माना कितना आगे निकल चुका है। कितना मॉडर्न है हर कोई. सबकी मम्मियाँ कितनी मॉडर्न हैं... क्लब जाती हैं। एफबी पर एकाउंट हैं। हर सोशल साइट पर अपने, परिचित, अपरिचित से बात करती हैं वे। हर जानकारी से लैस।

कौन-सा गाना धूम मचा रहा। कौन-सी न्यूज़ इन दिनों कहर ढा रही सब जानती हैं वो। दूसरों के विचार पढ़तीं, अपने विचार उनसे शेयर करतीं हुई कितनी मजेदार ज़िंदगी जी रही हैं सब।

और एक वह है, हरदम बस घर परिवार की चिंता और उनकी देखभाल। बाहर क्या हो रहा सब से अंजान। अपने में ही ढकी-छुपी. सच है, वह गंवार है। पढ़ी-लिखी गंवार। किताबों को पढ़ने से भी क्या हासिल होता है। कुछ नहीं...

आँखें वही देख रही थीं, जो दिमाग दिखा रहा था और दिमाग पर हर समय मिलने वाले मानसिक आघातों का असर था। आज उसे अपना हर गुण अवगुण लग रहा था। उसने अबतक अपने आपको दुनिया के सबसे मूर्ख और बेकार इन्सानों में शुमार कर लिया था।

उसे याद आया... उसकी भाभियाँ, रिश्तेदार गाँव-बस्ती के लोग कैसे उसे बहुत पढ़ी-लिखी समझते थे। वह गाँव में रहते भी शहर की लगती थी। शहर में पढ़ती थी। हर दक़ियानूसी विचार का खुकर विरोध करती हुई वह सबको मॉडर्न लगती थी। परंतु आज...

क्या वह तब भी इतनी ही मूर्ख थी... या शहर पहले इतने मॉडर्न न थे...क्या मॉडर्न होने का सही मतलब कोई समझता भी है...? या केवल ये एक भेड़चाल है...!

कहीं ऐसा तो नहीं, बच्चों को अच्छे से परवरिश देने के चक्कर में वह इस घर ही को सारी दुनिया समझने की भूल कर बैठी ही। घर को ही अपनी सारी दुनिया समझने वाली तमाम स्त्रियाँ क्या सचमुच ही दुनिया की सबसे मूर्ख और गंवार प्रजाति है...?

क्या हुआ है उसे... सब क्यूँ टोकते हैं उसे... कुसुम... कुसुम... कुसुम... आज मन में कंटीले तीखे नोकों वाली झाड़ियाँ उग आई थीं। सोच पर रोक न थी।

पहले ऐसा न था। अब से पाँच साल पहले तक पति रजनीश या बच्चों को उससे इस प्रकार की कोई शिकायत न थी। जब से दिल्ली जैसे शहर के इस पाश इलाके में रहने वह लोग आए तभी से धीरे-धीरे ये शुरू हुआ। बच्चों की देखादेखी रजनीश भी अब हर वक़्त उस पर झल्लाए रहते थे।

उसके अपने ही बच्चे उसे अपने किसी दोस्त या सहेली की मॉडर्न मम्मी से मिलवाने से भी कतराने लगे थे इन दिनों। उनकी इमेज उसकी वजह से खराब होती है, कहते वो।


-"क्या ममा... आप तो रहने ही दो। आपके साथ तो हम वही डाउन मार्केट के से लोग लगेंगे।" कई बार चुभा ये वाक्य। कई बार उसके हृदय के आर-पार हो गया। पर बच्चों को बच्चा समझने की भूल करती वह हर क्षमा के साथ हंस देती रही अब तक।

उसे साथ ले जाने से कतराते रजनीश भी अब जब साफ-साफ कह उसे घर पर ही रोक देते कि-"क्या यार... अपने बालों का स्टाइल देखो ... क्या है ये चोटी-वोटी और ये साड़ी। रहने दो... तुम घर में ही रहो। मैं ही घूमा लाता हूँ इन्हें" तब ...तब अछूत-सी अस्पृश्यता से भरी वह काँटों पर लेटी रहती उनके लौट आने तक। एक कील निरंतर चुभती हुई पीड़ा भरती रहती उसकी आत्मा में। सबकुछ सामान्य दिखने पर भी। लगता ... बेकार है वह ... बिलकुल बेकार ...किसी काबिल नहीं।

मोटी-मोटी काली पलकों पर चमकते मोती लिए सोचती रही ... गिटर-पिटर अङ्ग्रेज़ी बोलने से, छोटे-छोटे तंग कपड़े पहनने से, क्लब में जाने से, किटी पार्टियों में शामिल होने से, शाम को बाप के साथ जाम से जाम टकराकर पीने से, स्पेस के नाम पर घर-बच्चों, परिवार की देखभाल से जी चुराने से, क्या हम मॉडर्न हो जाते हैं...? उसने तो गिटर-पिटर इंग्लिश बोलने वाले लोगों तथा छोटे-छोटे तंग कपड़े पहनने वाली स्त्रियों को भी कई बार सीमा से अधिक दक़ियानूसी बातें और व्यवहार करते देखा है... तब? अपने हाथों की उँगलियाँ मरोड़-मरोड़ लाल कर दीं उसने।

वह तो अपने होश संभालने के साथ ही बेटा-बेटी में अंतर का कट्टर विरोध करना सीख गई थी। वह तो ऐसे वातावरण की पक्षधर थी जहाँ लड़कियों को भी हर प्रकार की स्वतन्त्रता हासिल हो। जहाँ कोई भी गैप बड़ों को बच्चों से अलग न करे। जहाँ पर पारस्परिक प्यार और सहमति से हर समस्या का निदान संभव हो। बलपूर्वक कोई भी नियम, रस्म-रिवाज या बंदिशे किसी पर न थोपी जाएँ ... उसकी नज़र में तो सदियों से चली आई पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं को तोड़ना ही मॉडर्न होना था।

पर नहीं... ग़लत थी वह। मॉडर्न होना अलग चीज़ है। दिमाग और विचारों में स्वतन्त्रता भले न हो पर आचार-व्यवहार, छोटे कपड़ों, कटे बालों और अङ्ग्रेज़ी बोलने के साथ-साथ चौबीसों घंटे नेट पर जमे रहना ही मॉडर्न होना है। उफ़... दिमाग उबलने लगा था। दही होता तो मथ लिया भी जाता। कई घड़ी बैठी रही संध्या की बेला में उदास यूं ही...

'ओह... मुझे तो रात के खाने की तैयारी भी करनी है' जैसे सोते से जागी।


-"मिस्टर एंड मिसेज कपूर को शाम को मैंने खाने पर बुलाया है। देखना, कुछ कमी न रह जाए..." ऑफिस जाते रजनीश ने हुक्म सुनाया था सुबह।

उसकी पाककला पर उन्हें कोई फख्र नहीं था बावजूद महीने दो महीने में एक-दो बार घर पर अपने दोस्तों-अफसरों को घर का खाना खिलाने वे ज़रूर बुलाते थे।

डिनर पर आए मेहमानों द्वारा उसके बनाए भारतीय व्यंजनों के साथ-साथ उसके रहन-सहन और गृहसज्जा के हुनर की प्रशंसा पर उसने कनखियों से पति और बच्चों को देखा किन्तु उस ओर से मिले निरपेक्ष भाव से दिल दर्द से भर गया...

अँधेरा घना था। लाचारी या बेबसी क्या थी ...? किस कारण या किस बात से मजबूर थी वह और क्यों...? रोशनदान कैसे बने ...?

रात को देर तक बिस्तर पर इसी सोच में पड़ी रही। सुबह आँख देर से खुली। उसने देखा रजनीश कमरे में नहीं थे यानी वे रोज़ की भांति क्लब जा चुके थे। घड़ी पर नज़र पड़ते ही वह भी तेजी के साथ बिस्तर से उठ खड़ी हुई.

"आशु... प्राचु ... आ जाओ बेटा... मैंने नाश्ता लगा दिया है..." उसने नाश्ते के लिए बच्चों को पुकारा।


-"आया ममा...सुबह-सुबह आप यूं चीखा मत करो। दिमाग खराब हो जाता है मेरा..." ये उसका रोज़ का काम था और माँ रोज़ उसका हाथ पकड़ उसे डाइनिंग टेबल तक ले जाती थी। आज भी वही हुआ। उसके बार-बार आवाज़ लगाने के बाद भी उन दोनों की ओर से होती देरी पर वह उनके कमरों की ओर बढ़ गई.


-"चलो, बेटा... फिर देर हो जाएगी..."


-"मम्मा... मुझे नाश्ता नहीं करना...!" अपने कंधे पर प्यार से रखा माँ का हाथ झटकते हुए आशीष बोला।

आशीष की इस बदतमीजी पर माँ ने ध्यान न धरा। उसका ध्यान तो आशीष की लाल दिखती आँखों में उलझते ही तड़प उठा।


-"क क क्या हुआ... आशु, तबीयत तो ठीक है बेटा।" ...दिल में उठते ममता के ज्वार भाटे मानों उसकी दोनों पसलियाँ तोड़ बाहर आने को थे।

किन्तु अपनी ओर बढ़ता माँ का हाथ आशीष ने बीच रास्ते में ही पकड़ लिया-"ममा प्लीज़... मेरे बाल खराब हो जाएंगे। मैंने कल ही सैट कराये हैं।"


-"नहीं, मैं... मैं तो बस माथा छूकर देखूँगी..." अपनी लाचारी और घबराहट में वह बस रो देने ही वाली थी।


-"क्या हुआ तुझे...? तेरी आँखें इतनी लाल क्यों हैं...?" उल्टे हाथ से उसका गाल छूकर उसके शरीर का ताप महसूस किया। ताप ठीक था। दिल को राहत मिली इस ओर से...


-"कुछ नहीं... मैं देर रात तक पढ़ा था इसलिए ऐसे ही... जा रहा हूँ मैं! वहीं कैंटीन से लेकर कुछ खा लूँगा।" आशीष अपनी बाइक की चाबियाँ घुमाता हुआ सीढ़ियाँ उतर गया। वह उसे जाते देखती रही। उलझन से भरी हुई.

प्राची... हाँ, प्राची... सोच, वह उसके कमरे की ओर मुड़ी ही थी कि उसे सामने से प्राची आती दिखाई दी।


-"ममा, मैं ऑरेंज जूस लूँगी... बना देंगी क्या...?" वह शांत थी।


-"लेकिन मैंने तो दूध और कोर्नप्लेक्स... तुम्हारी पसंद..."


-"यक्क...! क्या माँ, हर समय दूध... दूध... क्या अब भी हम आपको बच्चे ही लगते हैं..."


-"नहीं... वह पढ़ने और बढ्ने वाले बच्चों के लिए कैल्शियम... मेरा मतलब कि दूध बहुत ज़रूरी..." वह हकला उठी।


-"ममा प्लीज़... अपने बेकार के लॉजिक अपने पास ही रखिये। जूस है तो बोलिए वरना मैं बाहर ही पी लूँगी" प्राची शायद उसकी बात से उकता गई थी इसलिए ज़रा ज़ोर से बोली।

"लच्छा पराठा..." वाक्य अधूरा रहा।


-"रहने दीजिये, मेरा वेट पहले ही बढ़ गया है आपके इतने हैवी ब्रेकफ़ास्ट से... अभि को वैसे ही फैटी लड़कियाँ पसंद नहीं" वह शायद नासमझी में बोल गई अभि का नाम।


-"अभि...?" माँ के मन में संदेह जागा। वह कुछ पूछती उससे पहले ही प्राची तीर की तरह घर से निकल गई.

दोनों बच्चे अपनी मनमानी कर रहे थे और वह उन्हें न समझ पा रही थी। न समझा पा रही थी। घूमते दिमाग के साथ सब घूम रहा था जैसे।

चाय पीते रजनीश की ओर बिस्किट की प्लेट सरकाते, अनजानी आशंका से भरी वह कह ही गई-"सुनिये, आजकल आप बच्चों का बर्ताव देख रहे हैं...? दोनों ही अपने-अपने कमरों में बंद घंटों फोन, टैबलेट, लैपटाप पर लगे रहते हैं। कुछ पुछो तो मुझे कुछ बताते नहीं... घर का खाना उन्हें बुरा लगता... अपनी मर्ज़ी से आते। अपनी मर्ज़ी से जाते। आप ही उन्हें कुछ समझाओ न..."

जवाब में अधिक विलंब होते देख, न्यूज़पेपर में बिजनेस पेज पर आँख गड़ाए रजनीश का हाथ प्यार से हिलाते वह फिर बोली-"सुन रहे हैं न आप?"


-"हाँ...हाँ, सुन रहा हूँ, सुबह-सुबह दिमाग मत चाटा करो...! ये मॉडर्न बच्चे हैं तुम्हारी तरह गंवार नहीं। शहर के सबसे मंहगे और अच्छे स्कूल में पढ़ते हैं। आज की सोसायटी को समझते हुए हर जानकारी से अपडेट रहते हैं। आजकल नेट पर ही सबकुछ होता है। बिजनेस, ख़रीदारी, पढ़ाई तुम क्या समझोगी! तुम तो आज तक इस साड़ी से निकल सूट-सलवार पर भी नहीं आयीं। वही झाड़-झंकाड जैसे लंबे बाल और ये तुम्हारी घर की साफ-सफाई. पहले अपना हुलिया चेंज करो फिर उनकी सोसायटी को समझने की कोशिश करना" पति रजनीश का उवाच उसका हाथ झिड़कने से शुरू हुआ और उसकी ओर उठी उंगली पर समाप्त हुआ।

पता नहीं ये किसी बिजनेस समाचार से उपजा विषाद था या किन्हीं शेयरों की उठा-पटक उस पर उतरी थी। संभवतः उसे यही लगा... वह सकपका-सी गई. उसे लगा कुछ ग़लत तो नहीं कह गई वह। अपनी झेंप-सी मिटाते भी चिंता उस पर हावी रही।


-"वो, मिस्टर जुनेजा की बिटिया भी दसवीं में है इस बार... पर ग़लत संगत में पड़ वह प्रेग्नेंट..." लरज़ते होंठ हौले-हौले हिले।


-"शटअप! बकवास बंद करो... अपने बच्चों पर विश्वास है मुझे... मेरे बच्चे हैं वो" रजनीश के गुस्से में लाल हुए चेहरे को देख सहम गई वह।

पर माँ थी। मन ही मन बोल उठी-"विश्वास तो मुझे भी है। पर बच्चों को इस समय सही-गलत समझाने / बचाने की ज़िम्मेदारी भी तो हमारी ही है। कैसे समझाऊँ आपको" वह कुछ संभलती रजनीश अखबार पटक जब तक गाड़ी की ओर बढ़ चुके थे।

उफ़...! उसे स्वयं पर बहुत क्षोभ हुआ। रजनीश बिना कुछ खाये घर से निकल गए थे। आँखों से आँसू निकल आए उसके. लचारीपन की पराकाष्ठा...

मन सलेटी था और गहरा हो गया। ये सब उसी की वजह से हो रहा है... उसी की। मन तड़प उठा, आत्मा कराह उठी।

तो... तो, क्या वही सभी के साथ ज्यादती करती रहती है। सबका ख्याल रखना क्या कोई अपराध है ...? " सिर पकड़े बैठी रही अकेली। छितरी सुबह के उजियारे में... कलह घोल गया कोई.

क्या करे क्या नहीं...? पर कुछ न कुछ तो उसे अब करना ही होगा ताकि अब वह किसी को गँवार न दिखे। विषाद-सा कुछ उभर आया चेहरे पर। सबमें शामिल होने के लिए मॉडर्न होना ही होगा उसे। वह भूल गई थी मॉडर्न का सही मतलब। उसे तो जो सब पढ़ा रहे थे। पढ़ने लगी थी।

बिना एक पल गँवाए उसने नौकर को आवाज़ दी। सारा काम उसे समझा। पर्स उठा, निकल गई घर से। इतनी बेवकूफ न थी वह जितना सब समझते थे। पर आज वह अक़्लमंद बनकर ही घर आएगी। सबसे पहले सलवार-कमीज़ खरीदे उसने ... सीधे वह जींस-शर्ट, स्कर्ट लेना चाहती थी... पर संकोच कर गई. चलो इसी से शुरुआत करते हैं। पार्लर जा हुलिया ठीक करवा आई... माँ के जतन से पाले बाल कटवाते एक पल भी नहीं सोचा उसने... सब इन्हीं की करतूत है। झाड़ी से बाल हूंह ... मुंह बिचकाया उसने। बालों में समय-समय पर तेल लगाकर मालिश करते वक़्त माँ ने एक-एक संस्कार पिरो दिया था उसकी आत्मा में... तो क्या वह संस्कार भी अब बेमानी थे...?

साइबर में पहुँच नेट की क्लास ज्वाइन की। फिर इंगलिश स्पीकिंग कोर्स। उसने हर फोन पर बस अपनी कुशलक्षेम ही बताई सबको। किसी को न बताया कि किसलिए वह आज घर से बाहर थी। इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था कि वह सारा दिन घर से बाहर रही हो। गहरा चुकी शाम में आज सब उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे... -"वाव! माम ...आप तो गजब लग रहे हो... मॉडर्न..." हर्ष और आश्चर्य से भरा आशीष उसे दूर से ही देख, चिल्लाया।

बाकी सब भी उसे देख आश्चर्यचकित हो उठे। प्राची उससे भाग कर लिपट गई. पति रजनीश भौंचक उसे ताकते रह गए.

सबके चेहरे पर प्रशंसा के भाव ऐसे उभर रहे थे... मानों वह कोई बहुत सारे गोल्ड मेडल जीतकर आई हो।

उन्हें इस तरह प्रभावित होते देख वह मन ही मन मुस्काती सोचती रही 'क्या मात्र वेशभूषा बदलने भर से ही इंसान मॉडर्न हो जाता है...?'

माथे की लाल बिंदिया संग उसके मांग बीच चमकते सिंदूर से सब चिढ़े रहते थे घर में। करीने से सँवरे उसके काले रेशमी बालों की चोटी और सलीके से पहनी उसकी साड़ी में बच्चों के साथ-साथ रजनीश को भी वह गंवार लगती थी आजकल।

बिना आस्तीन के सूट में स्टेप कट बालों को लापरवाही से इधर-उधर झटकती होंठों पर गहरी लिपस्टिक लगाए खड़ी थी तो आज वह मॉडर्न थी।

आँखों में कुछ उभर आया उसके. जिसे सबसे छुपा गई वह आज भी...

चाइनीज़ फूड वह पैक करवाकर लाई थी। सबने शौक से खाया सिवाय उसके.

अपना स्वाद भी बदलना होगा मुझे... अब बिलकुल मॉडर्न होना है... मन में निश्चय कर, आधा भरा पेट और अधूरा मन लिये वह पलंग पर आ बैठी। कुछ न सूझा तो फोन पर नेट ऑन कर कुछ-कुछ सर्च करने लगी। जाने कितनी देर रात तक अपने प्रोफ़ाइल की सैटिंग में लगी रही।

सुबह आँख देर से खुली। उसने देखा सब जाने को तैयार हो रहे हैं। सबने बड़े प्यार से मॉडर्न वाली दुनिया में कदम रखने की एक बार फिर उसे बधाई दी। बाद इसके प्रशंसा भरे शब्दों को एक-एक किस के साथ उसके गालों पर अंकित करते हुए सब अपने-अपने गंतव्य की ओर निकल गए.

कुछ कसक-सा उठा मन में। हम जैसे हैं हमारे अपने हमें वैसे ही स्वीकार क्यों नहीं करते...? क्यों कई बार हमारे न चाहने पर भी वे हमें अपने कदम से कदम मिलाकर चलने को विवश कर देते हैं...जिसका जो स्वभाव नहीं है उसे उसके विपरीत व्यवहार करने को क्यों मजबूर करते हैं... क्यों?

कसक हावी हो उठती उससे पहले ही नहा-धोकर, नाश्ता कर वह भी साइबर कैफे और अपनी इंग्लिश स्पीकिंग की क्लास की ओर निकल गई.

अब घर पूरी तरह से नौकरों के हवाले था।

क्या हुआ...? कौन आया...? कौन गया...? उसे कुछ होश न था। नेट की दुनिया पर चमचमाते आभासी चेहरों ने उसकी पूरी दुनिया ही बदल दी थी। अब वह अपनी ही दुनिया में मस्त रहने लगी थी। कई क्लब जॉइन कर लिए थे उसने। किटी पार्टियों में व्यस्त रहती या कई सखी-सहेलियाँ पार्लर में उसका इंतज़ार कर रही होतीं। पति रजनीश को भी ज़रूरत के वक़्त कई बार उसे खुद फोन कर घर बुलाना पड़ता।

उसे लगा ज़िंदगी अब रास आ रही है। सचमुच पहले वह कितनी गंवार थी। दीन-दुनिया का तो उसे जैसे पता ही नहीं था। असल दुनिया तो यह है...यह! वह और मॉडर्न होना चाहती थी।

उसने बच्चों की ज़िंदगी में दखल देना पूरी तरह से बंद कर दिया था। उनके नाज़-नखरे उसे अब फालतू के चोंचले लगते। रोज़ हजारों की संख्या में आते प्रेम निमंत्रण यह साबित कर रहे थे कि वह सर्वश्रेष्ठ सुंदरी है। उसकी एक हाँ पर उसके लिए जान देने वालों की कतार उसे सबसे लंबी लगती।

पति रजनीश औरों के मुकाबिले कुछ फीके लगने लगे इन दिनों। जिन आँखों से प्रेम को भर-भर उड़ेलती रही अब तक उन पर। वहाँ अब उनके नाम का सूखा पड़ा था। हृदय रूपी ज़मीन घर के वास्ते अब बंजर होती जा रही थी। वक़्त करवट बदल रहा था।

यदा-कदा उसकी ओर बढ़ते रजनीश के हाथों को 'थक गई आज तो' कह कर झिड़क देती। उसके गालों पर अपने प्रेम को अंकित करते उनके मुख को परे धकेलते कह उठती कई बार-"आपको नहीं लगता आप कुछ बूढ़े से हो गए हैं... कुछ फेशियल वेशियल पुछो न अपने लिए. कुछ स्मार्टनेस कम हो रही है आपकी।"

रजनीश को तनिक भी गुमान नहीं था कि उनकी स्मार्टनेस जिस पर कुसुम जान छिड़कती थी, यूं एक दिन उसके लिए बेकार हो जाएगी। वे अब अपनी पुरानी कुसुम को मिस करने लगे थे।

घर और बच्चों के प्रति लापरवाह रहती मॉडर्न कुसुम अब रजनीश को अखरने लगी थी। रजनीश जितना घर पर रहते उतना ही वह बाहर। एक नदी के दो किनारे हो गए थे दोनों। समय बीत रहा था... कोई काट रहा था... कोई बो रहा था।


एक रात...


-"कुसुम... कुसुम... जल्दी आओ"

"अभी नहीं, अभी, मुझे एक सहेली से मिलने एक रेस्टोरेन्ट में जाना है ..." रजनीश की घबराई आवाज़ को समझे बिना वह एक झटके से बोली।

रजनीश की साँसों के उतार-चढ़ाव से भी जो उनके दिल की बात समझ लेती थी। आज वही उनकी आवाज़ की घबराहट और हलक में घुटी-घुटी उनकी चीख भी न सुन सकी थी।

आख़िर उन्हें साफ कहना पड़ा-"कुसुम, प्राची प्रेग्नेंट है... उसने कुछ खा लिया है। मैं उसे लेकर अस्पताल जा रहा हूँ... तुम भी जल्दी आओ...प्लीज़"

"क्या...? प्राची ..."

वह लगभग भागती हुई अस्पताल पहुंची। आईसीयू के सामने रजनीश अकेले खड़े थे। वह बदहवास-सी उनसे लिपट रो उठी-"प्राची...?"


-"खतरे में है ...!" रजनीश फफक पड़े।


-"और आशु ... आशु कहाँ है?" वह बिलखते हुए इधर-उधर कुछ ढूँढने लगी।


-"वह नशे का इतना आदी हो गया है कि उसने मेरी मदद करने की बजाय नशे का इंजेक्शन लेना ज़्यादा ज़रूरी समझा ..." उफ! टांगों का दम निकल गया कि धरा अपनी जगह से खिसक गई. कुछ तो हुआ जो वह धड़ाम से नीचे गिर गई... गले से मानों चीत्कार निकली-

"सब तुम्हारे कारण... सब तुम्हारे... मैंने पहले ही कहा था... बच्चों पर इस वक़्त समय और ध्यान देना ज़रूरी है। मैंने पहले ही तुम्हें आगाह किया था... पर तुम..." माँ के आँसू मॉडर्न नहीं थे। कोई स्त्री मॉडर्न हो सकती है। गंवार हो सकती है पर माँ...

वह ज़मीन पर बैठी-बैठी उनकी मॉडर्न दुनिया को लानत भेजे जा रही थी कि-

उठो...! कुसुम ... उठो! रजनीश उसकी बेचैनी और तड़प को देख, घबराते हुए उसके गालों को थपथपा रहे थे।

सारा मुख आंसुओं से तर था। साँसों की धौंकनी चल रही थी। पसीने से तरबतर वह बिस्तर पर उठ बैठी।

सच्चाई का आभास होते ही-"थैंक गॉड! ये एक सपना था... उफ! कितना बुरा सपना था" वह अपने घूमते सिर को पकड़ बुदबुदाई.

आज उसने जो भी सपने में देखा, वह सच भी हो सकता था... यदि समय रहते वह न चेती होती। मॉडर्न होने में भले सब उसे लापरवाह समझ रहे थे पर वह वही थी-एक माँ। मॉडर्न होना कब बढ़ते बच्चों की चिंता से अलग करता है और कितने दिन...

ऐसे ही एक दिन एफबी पर अपने बच्चों का प्रोफ़ाइल सर्च करते उनकी वाल पर पहुंची तो वह ये देख कर दंग रह गई कि-प्राची के दोस्तों की फेहरिस्त में शामिल छोटी-बड़ी उम्र के बदतमीज़ किस्म के लोग जहाँ वाहियात तरीके से उसकी बेबाकी की तारीफ़ें कर रहे थे। वहीं आशीष भी कुछ बुरे दोस्तों की गिरफ्त में दिखाई दिया उसे।

सब देख मानसिक संतुलन खो, वह उन्हें भला-बुरा कहने ही वाली थी कि उसके दिमाग ने उसे टोका-जो बच्चे उसकी एक नहीं सुनते थे। वह अब भी एक नहीं सुनेंगे और रजनीश...उनसे तो कुछ कहना ही बेकार है। वह संभल गई. कुछ न कहा। सारा दिन सारी रात बेचैन रही पर कुछ सोच लिया था उसने...

अपने मॉडर्न होने के लिए वह अपने बच्चों की बलि नहीं देगी। भले रजनीश इस वक़्त कुछ न समझ पा रहे हों पर उन्हें समझाने के लिए वह किसी खतरे के आगमन की प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी। कदाचित नहीं।

फेक एकाउंट। उसने सोचा-

ये एक झूठ है। दिल घबराया ...

परंतु किसी के भले के लिए बोला गया झूठ बुरा नहीं होता...बाद की बाद में देखी जाएगी पहले बच्चे तो संभाले जाएँ... दिल के टोकने पर दिमाग ने समझाया उसे।

और इसी योजना के तहत उसने एफबी पर कई फेक एकाउंट बना डाले। जिन पर उसने बहुत अमीर और देश-विदेशों में पढ़ाई कर रहे उन्हीं की उम्र के युवक युवतियों के फोटो चस्पा कर दिये...

धीरे-धीरे प्राची से इनबॉक्स में उन्हीं फेक एकाउंट द्वारा फेक लड़कों के नाम से चैटिंग शुरू की।

हर सावधानी बरतते हुए यही काम उसने आशीष के साथ भी अंजाम दिया। उसकी बनाई कई फेक एकाउंट / प्रोफ़ाइल पर दिखतीं इन फेक मॉडर्न और खूबसूरत लड़कियों के साथ चैट कर वह बहुत खुश होता।

उन्हीं फेक एकाउंटस के द्वारा प्राची के मनपसंद लड़कों से होती चैटिंग में उसने पहले प्राची को ये यकीन दिलाया कि-कोई भी मॉडर्न और स्मार्ट लड़का छोटे-छोटे, तंग व बड़े गले के कपड़े पहनने वाली, अधिक खुले विचारों वाली लड़की को भले गर्ल फ्रेंड बना ले। पर पत्नी कभी नहीं बनाता। ऐसी लड़कियाँ मात्र उनके लिए टाइम पास होती हैं... जताया उसे।

उसने प्राची के दिमाग में बैठाया कि अपने बड़ों का आदर न करने वाली लड़कियों को कोई भी लड़का दिल से पसंद नहीं करता। जो लड़कियाँ अपने माता-पिता का आदर नहीं कर सकतीं वे उनके माता-पिता का सम्मान कैसे कर पाएँगी... समझाया उसने उन फेक एकाउंटस के द्वारा।

आशीष का इलाज़ भी इसी तरह से चल रहा था।

अपने प्रोफ़ाइल में जुड़े अच्छे साहित्य, संस्कृति और कला को समर्पित कई लड़के लड़कियों से अपने बच्चों के दोस्त बनने को विनती की उसने। उनका सहयोग चाहा। जो समुचित मिला। अपने इस अनोखे प्रयास में वह सफल हो रही थी। हिन्दी के मान के साथ-साथ अपने भारतीय होने पर गर्व करना सिखाया उसने उन लड़कियों, लड़कों के द्वारा जो प्राची और आशीष को पसंद थे।

उसकी मेहनत रंग लाई. बच्चों के व्यवहार में परिवर्तन उसने साफ-साफ देखा।

उसने देखा उसके बच्चे वही आदर्श रूप ले रहे थे जैसा कि वह चाहती रही थी। उसका नुस्खा कामयाब रहा। वह मॉडर्न होने का सही मतलब जानती थी। पर मॉडर्न दिखना किसी भी फर्ज़ को निभाने में बाधक नहीं बनता... समझ गई थी अब। अपने स्वभाव के अनुसार इंटरनेट के ग़लत इस्तेमाल के बरक्स उसका सही उपयोग कर अपने जीवन की कई जटिलताओं से निजात पाते ही उसका मन संतोष से भर उठा।

दूसरे दिन बच्चों के स्कूल निकलते ही उसने रजनीश को सब विस्तार से बताया। उसके इस अनोखे प्रयोग की सफलता से अभिभूत रजनीश जाने कब से अपनी जेब में लिये घूमते उसके बिंदी के पत्ते में से एक सुर्ख बिंदी उसके मस्तक पर लगाते हिलोर उठे-"कुसुम, मुझे भी संभाल लो ना...प्लीज़" एकटक सजल नेत्रों से उनके सलोने मुख को दुलारती वह, उनकी बाहों में समा गई.